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हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा: स्वर्णलता ठन्ना



हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा 


स्वर्णलता ठन्ना 
शोध -अध्येता (हिंदी) 
हिन्दी अध्ययनशाला 
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन। 
पता- 84, गुलमोहर कॉलोनी, रतलाम 
ई-मेल- swrnlata@yahoo.in 


साहित्य के विशाल वटवृक्ष की अनेक समृद्ध और सशक्त शाखाओं में से एक शाखा प्रवासी साहित्य की भी है। जो दिन-प्रतिदिन अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी के साहित्य को सघन बनाने के साथ-साथ पाठक वर्ग को प्रवास की संस्कृति, संस्कार एवं उस भूभाग से जुड़े लोगों की स्थिति से अवगत कराने का कार्य कर रही है। ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ हिंदी साहित्य में जुड़ती एक नवीन विधा एवं चेतना है जो प्रवासियों के मनोविज्ञान से जुड़ी है, जो न केवल एक नई विचारधारा है बल्कि एक नई अंतर्दृष्टि भी है, जिसे अपनी जगह बनाने में पर्याप्त समय लगा है। 

प्रवासी साहित्य की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, किंतु फिर भी प्रवासी साहित्य अपनी संवेदनात्मक रचनाधर्मिता से साहित्य के क्षेत्र में गहरी जड़े जमा चुका है। भारत से दूर अन्य देशों में बसे भारतीयों के अथक प्रयासों से ही आज प्रवासी साहित्य समृद्ध और सशक्त बन पाया है। 

प्रवास शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है जोशौक या मजबूरी वश दूर देशों में बसा दिए गये थे या वे स्वयं रोजगार की तलाश में अन्य देशों की यात्रा पर निकल गए और वहीं बस गए। इन लोगों ने अपने परिश्रम से वहाँ की आबादी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं को सक्षम बनाया। इस सक्षमता से पहले प्रवासियों को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। क्योंकि ये लोग गुलाम के रूप में वहाँ ले जाये गये थे, इसलिए इन्हें आर्थिक संकटों के साथ-साथ अपनी धरती, अपने घर-परिवार से दूरी, शा रीरिक और मानसिक गुलामी और लोगों का बेगानापन झेलना पड़ा। उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी व्यथा-कथा को कलमबद्ध कर प्रवासी साहित्य की नींव रखने का कार्य किया। 

कुछ वर्षो बाद प्रवासियों का साहित्य के क्षेत्र में दखल बढ़ गया। अगले पड़ाव के साहित्यकार और प्रवासी वे लोग थे जो स्वेच्छा से प्रवास कर रहे थे। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी और जो बंधुआ मजदूर के संताप और प्रलाप को छोड़ मानसिक रूप से स्वयं को स्थापित करने की मनोदशा बना चुके थे। पहले गए प्रवासियों से इनकी सोच, कार्य और व्यवहार भिन्न थे। इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए एवं उसे सुरक्षित रखने के लिए रचनाकर्म का सहारा लिया। वहाँ की परिस्थितियों को देखकर, मानसिक स्तर पर चेतन और सजग इन लोगों ने अपने संताप को अपनी साहित्यिक रचनाओं में अभिव्यक्त किया। इनमें से बहुत से लोग भारत में रहते हुए अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध थे, और जो केवल स्वान्तः-सुखाय लिखते थे, वे प्रवास की समस्याओं और संवेदनाओं से सहज ही जुड़ गये और अपनी रचनाओं द्वारा प्रवासी साहित्य के पुरोधा बनकर उभरे। 

संपूर्ण विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से लोग भारी संख्या में दूसरे देशों के लिए पलायन करते है । यह प्रक्रिया लगभग चार सौ वर्ष पुरानी है। आज भूमंडल के विभिन्न देशों में भारतवासी बसे हैं । विदेश जाना और वहाँ बसना अब कोई जटिल समस्या नहीं है, लेकिन वहाँ रहकर लेखन कार्य करना प्रवासियों को अलग ही विशिष्टता प्रदान करता है। 

साहित्य उसी भाषा लिखा जाता है जिस भाषा के संस्कार व्यक्ति को बचपन से मिलतेहै । साहित्य की अभिव्यक्ति यदि विदेशी भाषा में की जाए तो ऐसा साहित्य संवेदनशील नहीं होगा। इसलिए विदेशो में बैठे हिंदी साहित्यकारों ने अपने लेखन का माध्यम हिंदी चुना, क्योंकि इसके माध्यम से वह अपने पीछे छूट चुके देश के आंतरिक संबंध को बनाए रखना चाहतेहै । प्रवासी लेखक प्रवास के दुख-दर्द की संवेदनाओं के साथ अपने देश के संस्कारों को जोड़कर उनमें व्याप्त विषमताओं को कागज पर उतार देता है और यही संवेदनाएँ सहज ही सबसे जुड़ सबकी संवेदनाएँ बन जाती है। 

अपनी इन्हीं संवेदनाओं को सहेजने के प्रयास को प्रवासी साहित्यकारों ने जारी रखा और साहित्य की इस परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग दिया। उसी का प्रतिफल आज हमारे सामने हैं कि हम प्रवासियों की जिंदगी से सहज ही जुड़ कर उनके प्रवास के अनुभवों को साझा कर रहे हैं। प्रवासी साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से जो अनुभव और भावनाएँ अपने घर, अपने देश तक पहुँचाते हैं, वह अपने लोगों के लिए खुली खिड़की का कार्य करती है, जहाँ से वे दूसरे देश को सामाजिक, भौतिक और यथार्थ की संस्कृति को एक साथ बखूबी देख सकते हैं। प्रवासी लेखक अपने लेखन के माध्यम से देश और विदेश की संस्कृति में समन्वय का जो कार्य कर रहे हैं वह सराहनीय है। वे सभी लेखक अपने पाठक वर्ग को नवीन संस्कृति और साहित्य की उपयोगिता से अवगत कराने का कार्य कर रहे हैं। वर्तमान के प्रवासी लेखकों से ये अपेक्षाएँ की जा रही है कि वह समन्वय की रीति से कार्य करें और देश दुनिया के समस्त संकटों से उबर कर साहित्य में समन्वयात्मक दृष्टिकोण स्थापित करें। 

‘‘वह लेखक संस्कृतियों को निकट लाकर समन्वयवादी प्रवृतियों को प्रोत्साहन दे सकता है। आर्थिक जगत में वैश्वीकरण की धारणा जिस प्रकार फलीभूत हो रही है औरविश्व गाँव का स्वप्न देखा जा रहा है तथा सूचना क्रांति इस स्वप्न को साकार करती दिखाई पड़ रही है, उसी प्रकार से साहित्य जगत में भी विश्व में इस प्रकार का नैकट्य लाया जा सकता है। समन्वय सदा से साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गुण रहा है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व भक्ति काल के शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने वर्ग-वर्ग में बंटे समाज, सम्प्रदायों और विचारधाराओं का समन्वय करने का युग परिवर्तनकारी कार्य किया था। अपनी इस विशिष्टता के कारण ही ‘रामचरितमानस’ एक सार्वकालिक और सार्वजनिक ग्रंथ बन गया है। आधुनिक युग में महान घुमक्कड़ और विराट व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने देश -विदेश के अगम्य क्षेत्रों का न केवल अन्वेषण किया अपितु गंगा और वोल्गा नदियों पर अपनी दार्शनिक दृष्टि से समन्वयकारी विचारधारा को संतुष्ट किया है। आज प्रवासी हिंदी साहित्य से जुड़ी सबसे बड़ी अपेक्षा समन्वय की है।‘ 1 

वर्तमान में रचे जा रहे साहित्य में प्रवासी लेखक अपने देष के साथ-साथ संपूर्ण विश्व से अपने जुड़ाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं। भारतीय प्रवासी लेखक भावनात्मक रूप से भारत से जुड़े हुए हैं, यही कारण है कि उनके साहित्य में प्रवासी भूमि के साथ-ही अपने देश के प्रति प्रेम की भावना भी देखने को मिलती है। वस्तुतः देखा जाए तो आज के प्रवासी साहित्य की संपूर्ण दृष्टि भारत के रंग में रंगी हुई है। साथ ही इनके साहित्य में आधुनिक दौड़ और मानसिक द्वंद्व का यथार्थ रूप देखने को मिलता है। यही विभेदक दृष्टि प्रवासियों के साहित्य को नवीनता प्रदान करती है। 

भारतीय हिंदी साहित्य की प्राचीनतम परम्परा में रचनाकर्म स्वयं की मुक्ति एवं दर्शन के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है, किंतु प्रवासी साहित्य किसी विशेष दर्शन , चिन्तन या सिद्धांत से जुड़ा हुआ नहीं है। यह साहित्य केवल भोगे गए मानसिक संताप और प्रवासी मनुष्य के दुख को चित्रित करता है। चाहे इसमें उपलब्ध साहित्य परिवर्तित परिस्थितियों के अधीन मानव जीवन के गतिशील और क्रियात्मक रूप का रूपांतरण ही है। 

आज साहित्य सृजन सृजनशील प्रवासियों के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। जिन प्रवासी साहित्यकारों ने लिखित अभिव्यक्ति द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया वे अधिकतर इंग्लैड, कनाडा और माॅरिशस के प्रवासी थे। इनके अतिरिक्त अमेरिका, थाइलैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कीनिया, डेनमार्क, नीदरलैंड आदि देशों में रह रहे भारतीयों ने भी प्रवासी चेतना को अभिव्यक्त किया है। आर्थिक और सामाजिक सुख स्त्रोतों से भरपूर मानसिक संताप झेल रहे इन प्रवासी लेखकों ने लेखन के माध्यम से अपने मूल से जुड़ने का प्रयत्न किया है। 

प्रवासी साहित्यकार चाहे विदेश में बसे हो किंतु उनका मन, आत्मा देश की माटी में निवास करती है। भारतीय प्रवासी आत्मिक स्तर पर स्वयं को अपने देश से अलग नहीं कर पाया, यही कारण है कि इन साहित्यकारों की रचनाओं में परदेस जाने से पहले की स्थिति और परदेस आने के बाद विदेश की स्मृति को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। इस प्रकार का साहित्य, साहित्य के मानदण्डों के अनुरूप नहीं होता। इसमें केवल भावनाओं और वर्षो पूर्व की स्थिति को वर्तमान में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इनके साथ हमेशा जन्मभूमि और कर्मभूमि के बीच होने का द्वंद्व चलता रहता है। 

विगत समय के प्रवासी समाज की तुलना में वर्तमान का प्रवासी समाज एक अजीब सी कशमकश में जी रहा है। प्रवास में बसे भारतीयों की नवीन पीढ़ी को आधुनिक समय की परिवर्तित परिस्थियों का सामना करना पड़ रहा है। इनकी प्रमुख समस्या के रूप में जो चीज उभर कर आई है वह भाषा है। इनकी प्रथम भाषा अंग्रेजी है। निसंदेह हिंदी भाषा को इस संकट का सामना करना ही था। वर्तमान प्रवासी पीढ़ी के इस सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक तनाव से उत्पन्न इस खोखलेपन की अभिव्यक्ति भी प्रवासी साहित्य सृजन का आधार बन रही है। 
प्रवासियों के अनेक विरोधाभासों तथा विसंगतिपूर्ण जीवन के बारे में कई दशकों तक ब्रिटेन में रहने वाली लेखिका उषाराजे सक्सेना ने ठीक ही लिखा है कि कभी व्यक्ति खुद को थाली का बैंगन समझता है तो कभी धोबी का कुत्ता , न घर का न घाट का। नये परिवेश में अमित सुखों के बीच रहते हुए भी वह पलट-पलटकर पीछे की ओर देखता है, जहाँ से वह आया है। 

प्रवासियों द्वारा निर्मित अपनी सर्जनात्मकता साहित्य का छोटा-सा किंतु विश्व के चारों और फैल हुआ आकाश निर्मित किया है। हिंदी की एक छोटी सी दुनिया बनाई है, जिसकी आत्मा हिंदी की और भारतीयता की है। शर्तबंदी के तहत फिजी, मॉरिशस आदि देशों में बसे प्रवासियों की रचनाओं में अतीत की व्यथा, वर्तमान का तनाव और भविष्य की चिन्ता को प्रमुखता से उभारा है। किंतु नार्वे, अमेरिका, इंग्लैंड, नीदरलैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखकों की चिंताएँ व चुनौतियाँ इनसे कुछ भिन्न है। 

ये हिंदी लेखक प्रायः वे है जो धनार्जन व शिक्षा के लिए इन देशों में गए थे। वे अमेरिका में रहते हुए न तो अमेरिकी संस्कृति के अंग बन पाए न शुद्ध रूप से भारतीय ही रह पाए। इन भारतवंशी परिवारों की नई पीढ़ी तो भारतीय होने की अपेक्षा अमेरिकी बनने के लिए लालायित हो गई, जिससे इन भारतवंशी परिवारों की पुरानी पीढ़ियों में अपनी जड़ों को लौटने की आकांक्षा उत्पन्न हुई। अमेरिकी और यूरोप के हिंदी साहित्य की यह विशेषता है कि वह अपनी जड़ों की, अपनी अस्मिता की तथा अपनी भारतीय पहचान को अभिव्यक्त करता है। 

इन देशों में भारतवंशी लेखक अंग्रेजी में भी लिख रहे हैं तथा कुछ को तो विश्व में ख्याति और धन भी मिला है, परंतु ये भारतवंशी अंग्रेजी लेखक स्वयं को ‘भारत में पैदा हुए अमेरिकी लेखक’ मानते हैं और कैथरिन मेयो की ‘मदर इंडिया’ पुस्तक की तरह भारत का कलिमापूर्ण चित्र ही प्रस्तुत करते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखक स्वयं को भारतीय लेखक मानते हैं और अपनी हिंदी रचनाओं में देशी पहचान और भारतीय संस्कृति को मजबूत आधार देते हैं। 2 

प्रवासी साहित्य की रचना के कारण चाहे जो भी रहे हो, उनमें चित्रित परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी रही हो, किंतु आज का सत्य यह है कि प्रवासी साहित्य, भारतीय हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग बन गया है। प्रवास की समस्याओं और संघर्षो की वास्तविकताओं से भरा यह साहित्य हमें मानव के जुझारू होने सीख देने के साथ ही सदैव प्रयत्नषील होने की सीख भी देता है। 

‘हिंदी के प्रवासी साहित्य ने अपना एक संसार रचा, जो चाहे छोटा ही था, परंतु उसने एक अलग साहित्य-संसार की रचना की जो पूरे विश्व में निरन्तर फैलता गया और हिंदी के प्रवासी साहित्य का एक बिम्ब निर्मित हुआ। अब वह मॉरिशस तक सीमित न था, उसकापरिदृश्य वैश्विक बन गया। उसकी संरचना में कई शक्तियां काम करती रहीं - विश्व के कई देशों में विश्व हिंदी सम्मेलन हुए, भारत के हिंदी लेखकों एवं प्रवासी के हिंदी लेखकों का भारत में सम्मान होने लगा, देश की साहित्य अकादमियों ने प्रवासी हिंदी साहित्य पर गोष्ठियाँ कीं, ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ तथा ‘डास्पोरा’ आरम्भ किया गया, प्रवासी लेखकों की कृतियाँ भारत में छपती रहीं और उन पर चर्चाएँ हुईं और हिंदी विश्व में प्रवासी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा तथा उसे हिंदी की मुख्यधारा में उचित स्थान देने की माँगें उठने लगीं और हिंदी साहित्य ने इस ओर प्रयत्न षुरू किये। 3 

आज स्थिति यह है कि माॅरिशस, अमेरिका एवं इंग्लैड तीन ऐसे प्रमुख देश है जहाँ प्रवासी भारतीयों की संख्या सर्वाधिक है और सम्भवतः इस कारण इन देशों में हिंदी लेखकों की संख्या भी सबसे अधिक है। इन प्रवासी लेखकों में अनेक ऐसे लेखक हैं जिनकी भारतीय ही नहीं वैश्विक हिंदी मंच पर प्रतिष्ठा है और जिनके पाठकों की संख्या किसी भी लोकप्रिय हिंदी लेखक से कम नहीं हैं। 

प्रवासी साहित्य लेखन की यह परम्परा दीर्घकाल तक यथावत बनी रहें। ताकि आने वाले समय की नई भारतीय पीढ़ी को प्रवास से संदर्भित सारी जानकारी सहज ही मिलती रहें। प्रवासी लेखक, अपने लेखन की परम्परा को इसी प्रकार निभाते रहे, और भारतवंशी होने के गर्व को सदा अपनी लेखनी से उद्भासित करते रहे, तभी अपने प्रवासी साहित्यकार के रूप को सहज परिभाषित कर सकेंगे। 


संदर्भ - 

1. वर्तमान साहित्य, कुंवर पाल सिंह, नमिता सिंह (संपादक), प्रवासी हिंदी लेखन तथा भारतीय हिंदी 

लेखन, उषा राजे सक्सेना (जनवरी, फरवरी 2006), पृ-62

2. डॉ. कमल किशोर गोयनका, हिंदी का प्रवासी साहित्य, प्रथम संस्करण 2011, अमित प्रकाशन, 

गाजियाबाद, पृष्ठ, 47

3. वही, पृष्ठ, 50

[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के दिसंबर 2016 में प्रकाशित लेख]




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