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नवनीत पाण्डे जी की रचना





भले घर की लड़कियां
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भले घर की लड़कियां
बहुत भली होती हैं
यह बात अलग है
भले घर की लड़कियां
नहीं जानतीं
भला क्या होता है
सिवाय इसके कि
जो घरवालों द्वारा
उनके दिमाग में
ठोंक_ ठोंक
बैठा दिया जाता है
तरह- तरह से
सिखा, पढ़ा
समझा दिया जाता है
अनचाहा कराया जाता है
उसी को भला कहा जाता है

भले घर की
लड़कियों के मुंह में
ज़ुबान नहीं होती
होती भी हैं तो
उन्हें रोक- टोक
दिया जाता है
बिना पूछे
कुछ भी बोलना
कहना मना होता है
भले घर की लड़कियों के
सिर्फ कान होते हैं
उन्हें सिर्फ कहा हुआ
सुनना, गुनना और
करना होता है

भले घर की
लड़कियों की
न हंसी
गालों पर दिखती है
न आंसू
हंसना- रोना
दोनों ही
बेआवाज़
चुपचाप होता है
भले घर की
लड़कियों की आंखों
और ज़ुबान पर
पहला हाथ
उनकी मांओं का ही होता है

भले घर की लड़कियों को
उनकी मांए
अपनी ही तरह
उन्हें सबसे पहले उठने
और सबके बाद
सोने की घुटी पिला देती है
भले घर की
लड़कियों के घर
घर नहीं
धर्म, नैतिकता,
आदर्शों युक्त
स्नेह, प्रेम भरे
आदेशों, कानूनों की
खाप होते हैं

भले घर की
लड़कियों के घरों में
भले घर की लड़कियों के लिए
सिर्फ दूर दर्शन होता है
उन्हें केवल
धार्मिक स्थलों, मेलों
भजन, कीर्तन, कथाओं में ही
जाने की अनुमति होती है
वह भी परिवार-जनों के साथ
उन्हें हर खबर से
बेखबर रखा जाता है
मोबाइल तो बहुत बड़ी बात है
वें घर में रखे टेलीफोन की
घंटी भी नहीं सुन सकतीं

भले घर की लड़कियां
झाड़ू- मसौदे
चौका- बासन
कपड़े-लत्ते
धोने से लेकर
सीने- पिरोने
कढ़ाई- बुनाई
गृहिणी के
हर काम में
पारंगत होती हैं
भले घर की
लड़कियों की पढ़ाई
घर में ही या
उतनी ही होती है
जितनी में वें
भली रह सकें

भले घर की लड़कियां
अपने नहीं
अपने परिवार
समाज की
सोच से जीती है
उन्हीं के इशारे
चलती- फिरती
उठती- बैठती
ओढ़ती- पहनती
जीती-मरती हैं

भले घर की
लड़कियों के
घर में अलग से
कमरे नहीं होते
होते भी हैं तो
उनकी खिड़कियां
चौकस बंद होती हैं
और उन पर
मोटे- मोटे पर्दे भी

भले घर की
लड़कियां
हमेशा
निगरानी में रहती हैं
अकेली कहीं नहीं
आती- जाती
भेजीं जाती
भले घर की लड़कियां
घर से बाहर सिर्फ
घर के काम के लिए
आती- जाती हैं
अपने काम से
जाने के लिए
सबको बताना पड़ता है
क्या काम है
कितनी देर लगेगी
साथ में कौन जा रहा है

भले घर की लड़कियों की
बहुत कम सहेलियां होती हैं
वे भी गली-मुहल्ले
रिश्तेदारी की
लड़कों के तो
पास भी नहीं फटकने दिया जाता
भले घर की लड़कियां
अपने मन का कुछ नहीं करती
अपने वर्तमान-भविष्य
यहां तक कि
जीवन- साथी का चयन
जीवन के इससे भी बड़े
अहम फैसले भी
घर- परिवार पर
छोड़ देती हैं

भले घर की लड़कियां
लड़कियां नहीं
खूंटें बंधी गाएं हैं
जिन्हें बहुत प्रेम, डर से
एक उम्र तक
उनके पालक दुहते हैं
और अनचाही उम्र में
जननी-जनकों द्वारा
अक्ल निकाल, बुध्दु बना
साज- श्रृंगार कर
गुड़िया बना
गाजे- बाजे के साथ
अग्नि को साक्षी मान
सात चक्कर कटा
डोली में बैठा
उन अनजान
नितांत अपरिचित
गुड्डों के साथ
(जो हकीकतन अधिकतर भले गुंडे होते हैं)
चलती कर दी जाती हैं

इस तरह
भले घर की लड़कियां
एक कारा
एक नरक से निकल
दूसरी कारा
दूसरे नरक में पहुंच जाती है
और इस तरह
भले घर की लड़कियां
सौभाग्यवती कहलाती हैं
जन्म से मृत्यु तक
वरदान के रूप
अपने भले होने की
सज़ा पाती हैं

भले घर की लड़कियां
इतनी भली होती हैं
कि आखिर में
जब थक- हार जाती हैं
असहनीय हो जाता है
बोझ भलेपन का
कानोकान खबर नहीं होती
झूल जाती हैं फंदों से
खा लेती हैं ज़हर
खतम कर लेती हैं
अपनी इह लीला

भले घर की लड़कियां
जब लेती हैं लोह
करती हैं विद्रोह
भलेपन के खिलाफ
पत्थरों से
सिर फोड़ने की बजाय
भाग जाती हैं
भलेपन की काराएं तोड़
वें नहीं रहतीं भली
ठहरा दी जाती हैं
पापिन, कुलच्छनी
घर -परिवार
धर्म- समाज
कोसता है उन्हें
उनके जन्म को
"काहे की भली
बदनाम कर दिया
नाक कटा दिया
बड़ी बेहया
नालायक निकली"
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[साभार:जनकृति]


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