मेरे दुःख की दवा करे कोई: अनवर सुहैल
"इस उपन्यास में गरीबी और पुरूषों की शोषण प्रवृत्ति, दो पाट के रूप में सामने आते हैं, जिसमें सलीमा और उसके परिवार का जीवन तबाह हो जाता है। मुस्लिम समाज से जुड़ा होने के कारण यह उपन्यास विशेष हो जाता है। औरतों के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण से मुस्लिम औरतें दोहरे शोषण की शिकार हो जाती हैं। जिन सम्पन्न परिवारों में भी केवल लड़कियां होती हैं, उनके प्रति शेष समाज का व्यवहार और विचार बहुत हराने वाला होता है। गरीब होने के साथ ही यह स्थिति भयानकता की ओर बढ़ने लगती है। बाल यौन शोषण की एक कटु सच्चाई भी इस उपन्यास में उभर कर आती है। सलीमा के मनोजगत और जीवन को मास्टर गंगाराम का व्यवहार सबसे अधिक प्रभावित करता है। यह समाज लड़कियों को बहुत छोटी उम्र में एक गलीज़ सच से परिचित करा देता है। सलीमा जान जाती हैकि ‘गंगाराम सर पीटने के बहाने उसकी पीठ, कंधे और बांह की थाह लिया करते हैं। फिर उसे लगता कि हो सकता है ये उसका वहम हो।’ उपन्यास पढ़ने के बाद पाठक को भी वहम की सच्चाई समझ में आ जाती है।
यह उपन्यास ‘घिनौने अतीत’ वाली सलीमा की ओर से पाठकों को जोड़ती है। वह अगर अपने जिस्म को अपना हथियार बनाती है तो उसके पीछे उसका छिछोरापन नहीं है, बल्कि पुरूषवादी समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सोच का ग़लीज़ प्रभाव है। धर्म का इस्तेमाल करने वाले लोगों के चेहरे से भी यह उपन्यास पर्दा उठाता है। सलीमा की मां एक मौलाना के बहकावे में आकर ही तीन बच्चियों को छोड़कर भाग जाती है। सलीमा इस तरह के सच को अच्छी तरह जानती है। ‘फिर झारखण्ड की किसी मस्जिद के लिए चंदा लेने आए एक नौजवान मौलाना ने जब रूकैया को देखकर लार सी टपकाई थी, तब सलीमा ने रूकैया से कहा था कि इन मौलानाओं के सामने वह निकला न करे। बड़े छिनार होते हैं।’
भाषा के स्तर पर भी अनवर सुहैल आम जीवन का ही आधार लेते हैं। वह हिन्दी-उर्दू के धार्मिक बंटवारे की जगह वास्तविक भाषा व्यवहार का इस्तेमाल करते हैं। मनोविकारों से उपजी हुई दन्तकथाओं और अलगाव की मानसिकता वाले इस दौर में अल्पंख्यक-बहुसंख्यक खांचे में बंटेसमाज को समय केबड़े सच से परिचित कराने का प्रयास अनवर सुहैल ने अपने इस उपन्यास में किया है।"
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