प्रोमिला क़ाज़ी की रचनाएं
1.
मेट्रो में जाती लडकियां
पसीने
से लथपथ
सड़को
पर भागती
शादी
की उम्र कब की पीछे छोड़ आई
मेट्रो
में जाती लडकियां
बसो
में धक्के खाती
चलते
फिरते भी
पिता
की दवाई की,
माँ के चश्मे की
आवारा
भाई की बाइक के लिए
पेट्रोल
की चिंता करती है
और
भूल जाती है शादी डॉट कॉम में
लॉग-इन
करना सदा के लिए !
2.
घर जहाँ कोई नहीं रहता
एक
संकरी गली का
आखरी मकान
जिसकी
दीवारे गिर रही है
और
पीपल उग रहे है दरारों में
जिसके
दरवाज़े बेरंग
राह
ताक रहे जाने किसकी
गिरते
कमरे की दीवारे जाने
कमज़ोर
हो टूट रही थी या फिर
यादो
के बोझ से !
कभी
कान खड़े कर रही है
छत
के सीढ़ियां
कभी
हैरान नीम सांस रोक कर सुन रहा है
आवाज़
उनकी
जो
चले गए बरसो पहले
ना
लौट आने को
चरमरता
जंग खाया लोहे का फाटक
जाने
कैसे अपने आप खुलता बंद हो जाता है
मानो
खिड़कियों,
दरवाज़ों, दीवारों को चिड़ा रहा हो
रोज़
एक ईंट गिर रही है उसकी
जैसे
आंसू किसी अनाथ बच्चे के गाल पे बह रहा है
रोज़
दिन आकर नाप जाता है
उम्र
उसकी
रोज़
रात आकर दुलार जाती है
अचानक
बढ़ गयी है सरसराहट
एक
अजनबी सी महक आने लगी है
बूढ़ा
मकान आखिरी सांस ले रहा है शायद !
3.
कविता !!!!
अचानक
वो अभागी लडकिया याद आ रही है आजकल
जिन्हे
भ्रूण में ही गिरा दिया गया
या
फिर जनम लेने ही नहीं दिया
कुछ
बेशर्म,
इरादो की पक्की
दुनिया
को धत्ता बता कर फिर भी
जनम
ले गयी
और
पूरी उम्र अपनी साँसों की
कीमत
चुकाती रही
आँसुओ
की जगह
उन्होंने
युद्ध चुने
और
हज़ार शिकस्तों के बाद भी
अपनी
हर जीत पे खुल कर कहकहे लगाए
आंसुओ
की खारी बावली में
नहा
कर निखरती रही
फूल, पत्ती
, चाँद , सितारो , बादलो के साथ
अपने
लड़की होने के जश्न मनाती गयी I
कविता
आज तुम भी मुझे उन्ही सी लग रही हो
आज
तुम्हारे नाम पर वैसे ही बवाल जैसे
लड़की
के जनम पे होते रहे
प्रेम
कभी खाप,
कभी डर, कभी इज़्ज़त
कभी
यह कभी वो कह के
वैसे
ही क़त्ल होता था
अब
साज़िशों से उसे तुमसे भी हटाया गया
प्रेम
कविता लिखने वाली स्त्री को कड़े निर्देश
"प्रेम
लिखने की वस्तु नहीं
इसीलिए
तुम्हारी कविता खारिज की जाती है"
और
स्त्री सर झुका कर अपनी कलम
जला
आती है
या लिखती है अपने आंसुओ से
स्त्री
विमर्श की कविताएं और बड़ी कवि हो जाती है
पर
उसकी अंतर की स्त्री मर जाती है
प्रेम
! तुझे स्त्री के जीवन से तो हटाया ही गया
अब
उसकी कविता में भी
उसका
गला घोटने
कई
प्रबुद्ध कतारबद्ध है
शायद
स्त्री के हर प्रेम के विरूद्ध
किसी
षड्यंत्र में रत है !
4.
वो स्त्री थी
वो स्त्री थी
तभी
केवल प्रेम समझती थी
उसे
ही बिछाती थी
और
औढती थी
प्रेम
को सीढ़ियाँ बना
जीवन
के गहन रहस्यों में
चढ़ती
, उतरती थी
प्रेम
की बावड़ी में
अपने
ही रूप पर इतराती
सजती, सवरतीं
थी
बीच
नदी में जब
डूबने
को होती
छटपटाती
……
सर
बाहर लाती
हवा
को हटा कर हाथ से
प्रेम
का एक लम्बा सांस भरती
और
जी जाती
वो
पुरुष था
तभी
केवल स्त्री को समझता था
उसे
बस डोर बनना समझ आता
जब
स्त्री पतंग हो जाती
स्त्री
की सांस डूबती
तो
प्रेम के घूंट पिलाता
वो
पुरुष था
इसीलिए
भटक जाता
और
स्त्री के आरोपों से चिढ़ जाता
वो
प्रेम नहीं जानता था
बस
स्त्री के मुँह को देखता
और
दुविधा में पड़ जाता
और
प्रेम से और दूर भाग जाता !
वो
स्त्री थी
इसीलिए
रो पड़ती
वो
पुरुष था
इसीलिए
पीठ फेर कर
सो
जाता !
5.
उपनाम
मैंने
जूही की वो कली देखी है
जो
कभी महका करती थी
सुनहरे
रंग में
मैंने
वादी की उस बर्फ को भी देखा है
जो
चमका करती थी कभी
चांदनी
की तरह
मैंने
उन बतखों को भी देखा है
जो
तैरा करती थी कभी झील में ताल मिला कर
लेकिन
जूही की वो कली आज
बीमार, पीली,
मरियल सी लगती है
वादी
की वो बर्फ भी अब
काले
बालो में से झांकती
सफ़ेद
लट सी अखरती है
झील
में तैरती वो बतख भी
अब
बूढी हो,
लडखडा के गिर जाती है
और
मै???
मुझे
भी तो तुम
जूही
की कली
बर्फ
सो शुभ्र
बतखों
सी चंचल कहा करते हो
सोची
हूँ मेरे इन उपमानों को
ज़रुरत
पड़ेगी
कभी
न कभी
एक
बैसाखी की !
6
. प्रेम कविताए
मन
करता है
की
सभी चीनी,
रूसी
जापानी, अफगानी
अंग्रेजी, हिंदी,
फ्रेंच
प्रेम
कविताए इकट्ठी करके
उनका
एक मज़ार बना डालूं
और
देखूं
कौन
वह जाता है
एक
फूल चढ़ाता है
पढता
है फातिहा
या
वहां की धूल
माथे
से लगाता है
रोता
है बिलख कर
या
कि बस पत्थरा जाता है
बस
मन करता है
की
देखू प्रेम करने वाले
प्रेम दस्तावेज़ों पर
कैसी
प्रतिक्रिया देते है
पलट
जाते है
या
फिर वापिस आते है !
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