(व्यंग्य) एक बुद्ध और’ उर्फ़ ‘खरीदने जाना पमरेनियन’ - डॉ. हरीश नवल
मैं पिछले सोलह वर्षों से एक सरकारी स्कूल में हिंदी मध्यम से अर्थशास्त्र पढ़ा
रहा हूँ. हर वर्ष मेरे विद्यार्थी मेरे समक्ष ‘मांग और वितरण’, ‘उत्पादन और
विनिमय’ तथा ‘मंदी और लाभांश’ संबंधी अनेक प्रश्न और शंकाएँ रखते है. परंतु मैं
स्वयं व्यावहारिक रूप से इन सबसे अनभिज्ञ होने की वजह से कभी भी संतोषजनक उत्तर
नहीं दे पाया हूँ. छोटा सा सरकारी स्कूल है, विद्यार्थियों को तलने के तरीके यहाँ
ईज़ाद होते रहते है, जिनका लाभ मैं उठाता रहा हूँ. शायद मेरा यह ज्ञान सदा अल्प
रहता यदि मैं पिछले महीने अपने साले गिरीशजी के लिए उनके साथ राजधानी की सड़कों पर
कुत्ता ख़रीदने नहीं डोलता. हमारे देश की राजधानी भी बहुत विचित्र है, जो भी बाहर से आता है, यहाँ से कुछ-न-कुछ
ख़रीदना ही चाहता है. भले ही ब्लैक में ख़रीदे जाने वाली मारुती हो अथवा व्हाइट में
ख़रीदा जानेवाला पमरेनियन हो. पमरेनियन समझते हैं आप ? मैं तो पिछले महीने ही समझा
जब गिरीशजी ने बताया कि वह पमरेनियन नस्ल का कुत्ता ख़रीदना चाहते हैं. यह रेशम की
त्वचा वाला छोटा सा एक ख़ूबसूरत कुत्ता होता है, जिसे विदेशी और देशी महिलाएं गोद
में खिलाने को आतुर रहती हैं. अनेक छैला क़िस्म के जीवन हार्दिक इच्छा रखते हैं कि
कभी, उन्हें ही कोई पमरेनियन समझ ले, तभी तो वे दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते भी पाए
जाते हैं. बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से इंग्लैंड में पमरेनियन पालने का फ़ैशन चला
था, जो अब तक सारी दुनिया में छा गया है, जो फ़ैशन अंग्रेज़ी अंग्रेज़ करें उसे देशी
अंग्रेज़ कैसे न करें? अतः भारत भी इसी दुनिया में है.
गिरीशजी एक सरकारी इंजीनियर हैं.
भारत सरकार की ओर से उन्हें वेतन, जीप और नौकरों के अतिरिक्त भारी दौर-भत्ता भी
मिलता है. सरकारी कामकाज पुरे भारत में कहीं भी हो सकता है. इस अवसर का लाभ उठाकर
गिरीशजी देश के कोने-कोने में छाए समस्त मित्रों एवं संबंधियों के सभी प्रकार के
छोटे-बड़े उत्सवों में, अपने अमूल्य समय का कुछ-न-कुछ अंश निकालकर अवश्य पधारते
हैं. दिल्ली तो उनके लिए कंपनी बाग़ है, जहाँ उनका घूमना अन्य सरकारी अधिकारियों की
भाँति लगा रहता है. पिछले महीने उनके साले कृपालसिंह जी को फ़्रांस से भारत लौटना
था. उनका पतन दिल्ली विमान-पतन (सरल शब्दों में एयरपोर्ट) पर होना था, अतः उन्हें
लिवाने के लिए ज़ाहिर है कि गिरीशजी का दिल्ली-आगमन बोर सरकारी था. मेरे साले से
साले को आना था अतः मुझे भी स्कूल से तब तक ‘मेडिकल’ लेना ही था. जब तक गिरीशजी
दिल्ली में मौजूद रहते.
हम दोनों चर्दीन मुँह-अंधेरे उठ-उठकर
अपने घर से चालीस किलोमीटर दूर विमान-पत्तन पर पहुंचकर तीन-तीन घंटे प्रतीक्षा
करते रहे पर कृपालसिंह जी नहीं आये. जो टेलीग्राम उन्होंने दिया था उस पर भारतीय
डाक-तार विभाग की अति कृपा होने से उनके आगमन की तिथि मेरे मोहल्ले के प्रत्येक
सदस्य की दृष्टि से भिन्न थी.
पांचवें दिन गिरीशजी को हर हालत में
वापस लौटना था, यह उनकी घरेलू सरकार का हुक्म था, जो बिना भत्ते के भी जरुर बजा
फरमाते थे. सुबह उठते ही वह मुझसे बोले, ‘कृपालसिंह तो आये नहीं हैं, मैं एक
कुत्ता ख़रीदकर घर ले जाना चाहता हूँ.’ मेरी आँखों में अनेक प्रश्न उत्तर आये. ‘कृपालसिंह
के बदले कुत्ता? मै समझा नहीं.’ वे बोले, ‘ऐसा है जीजा जी, घर से चलते वक्त संतोष
ने दिल्ली के दो काम बताये थे: एक कृपालसिंह को लिवाना है, दुसरे एक पमरेनियन
कुत्ता ख़रीदना है. कृपालसिंह तो आये नहीं, कुत्ता तो ले ही चलूँ वरना संतोष गुस्सा
करेगी कि दोनों में से किसी को भी नहीं लाये’
गिरीश जी के आगे मेरे कुत्ता ख़रीदने
विषयक ज्ञान की पोल खुल गयी. पमरेनियन कहाँ मिलेगा? पूछने पर मैंने उनसे अंग्रेज़ी
का समाचार-पत्र देखने को कहा, मेरे घर तो हिंदी का ही अख़बार आता है, जिसे पढ़कर
कुत्ता नहीं ख़रीदा जा सकता. कुत्ते की ख़रीद विषयक विज्ञापन तो अंग्रेज़ी के ही
अख़बार में छपते हैं. जब प्रातः मैंने अख़बार वाले से अंग्रेज़ी का भी अख़बार माँगा तो
उसे घोर आश्चर्य हुआ. ऊपर से नीचे तक मुझे देखते हुए उसने पूछा, ‘आप और अंग्रजी?’
‘हाँ, कुत्ता ख़रीदना है, वो भी पमरेनियन, अंडरस्टैंड?’
मैंने कठोर स्वर में उत्तर दिया. उसने तुरंत दुम और सींग भीतर करते हुए
अंग्रेज़ी का अख़बार पकड़ा दिया. अख़बार के अनुसार उस दिन शहर में तीन विक्रेता कुत्ते
बेच रहे थे, जिनमें बंगाली मार्केट वाले कर्नल साहब के पास पमरेनियन था.
कर्नल साहब ने पते के स्थान पर फ़ोन नंबर दे रखा था. मैं एक अदना-सा शिक्षक,
मेरे यहाँ तो फ़ोन होने का प्रश्न ही नहीं था, अतः मैंने पड़ोसवाले नाई की दुकान से
विज्ञापन में दिए गए नंबर पर फ़ोन करके कर्नल साहब से समय लिया, समय बारह बजे दोपहर
का तय हुआ.
ठीक बारह बजे गिरीश जी ने कर्नल साहब की घंटी बजाई, सफ़ेद बालों वाला भरपूर
मूंछ-युक्त एक चेहरा खिड़की से निकला, कर्नल साहब ही थे.
‘यस?’ उन्होंने बुलंद आवाज़ में पूछा.
‘सर जी, हम कुत्ता ख़रीदने आये हैं- पमरेनियन. आपसे समय लिया था.’
‘ओह! कहते हुए समूचे कर्नल साहब दरवाज़े के बाहर आ गए. सफ़ेद टी शर्ट, सफ़ेद
नेकर, गले में लाल स्कार्फ और पैरों में पड़ा हुआ सफ़ेद फ्लीट (ठीक पमरेनियन की
भांति)
लान में पड़ी कुर्सियों पर हम लोग बैठा दिए गए. कर्नल साहब की पत्नी एक नन्हे
पमरेनियन को ले आई. पीछे-पीछे नौकर पानी का जग लेकर आ रहा था. मेरा गला खुश्क हो
रहा था. गिरीश जी सरकारी अधिकारी हैं, अतः उन पर कोई विशेष रौब नहीं पड़ा. हमें
पानी पूछा नहीं गया बल्कि उससे हमारे हाथ धुलवा दिए गए ताकि हमारे स्पर्श से
पमरेनियन मैला न हो जाये. गिरीश जी ने पिल्ले का पूर्ण निरीक्षण किया. उसे पंजों
से, दुम से पकड़कर उल्टा-सीधा उठाया, नाख़ून गिने आदि-आदि. फिर दाम पूछा, ‘ओनली फाइव
हंड्रेड.’
तोप छूटीं, ‘पांच सौ.’
मैं आश्चर्य से गिरीश जी के कान में फुसफुसाया. उन्होंने कर्नल दंपति की ओर
इशारा करते हुए धीरे से कहा, ‘जीजा जी, ब्रीड देखो ब्रीड. कर्नल और पत्नी कितने
फिट और स्मार्ट हैं.’
मुझे दिल्ली के बाज़ारों की ख़रीद की आदत थी, भाव कम कराना ही चाहता था कि गिरीश
जी ने पर्स निकला और सौ-सौ के पांच कड़कते नोट निकाल लिए. अचानक कर्नल साहब ने
पूछा, तुम क्या करता है?’
‘सर जी, ये अधिशासी अभियंता हैं.’ मैंने शान से कहा.
‘अधिशासी, व्हाट ?’
कर्नल ने मुँह बिगाड़कर पूछा. गिरीश जी ने फ़ौरन बताया, ‘एग्ज़िक्युटिव
इंजीनियर.’ कर्नल बोले, ‘आई एम सारी. मैं यह कुत्ता आपको नहीं दे सकता, सवा बारह
बजे चीफ इंजीनियर आयेंगे, उन्हें दूंगा. आई बिलीव इन इक्वल स्टेटस.’ मैंने पूछा,
‘इक्वल स्टेटस व्हाट?’ कर्नल साहब ने मूंछ पर हाथ रखकर उत्तर दिया, ‘बराबरी का
दर्जा.’ गिरीश जी के हाथों का कुत्ता गिर गया. अपमान-बोध के समस्त चिन्ह लिए हम
कर्नल साहब की कोठी से बाहर आ गए.
मैंने मन-ही-मन प्रण किया कि आज गिरीश जी को पमरेनियन ख़रीदवाकर ही दम लूँगा.
जब मैं स्कूल में पढता था, सीताराम
बाज़ार में एक मेहता साहब हुआ करते थे, जो कुत्ते बेचते थे. मुझे बरसों बाद कुत्तों
से घिरा उनका व्यक्तित्व याद आ गया. बाल्यपन की स्मृति तेज़ होती है. मैंने गिरीश
जी से सीताराम बाज़ार चलने को कहा. आज कुत्ता ख़रीदकर ही लौटना था. एक गली में
पतले-से जीने वाला मकान मैंने ढूंढ निकाला. कोलंबस भी अमेरिका देखकर इतना खुश नहीं
हुआ होगा, जितना मैं हुआ. जीना चढ़कर हम लोग ऊपर पहुँचे. सब बदल चुका था, एक बड़ी-सी
कपडे की दुकान थी वहाँ पर. एक कर्मचारी से मैंने कहा, ‘यह मेहता साहब की ही दुकान
है न? हमें पमरेनियन चाहिए था.’
‘पमरेनियन!’
कर्मचारी का चेहरा विस्मयादिबोधक हो गया, उसने मालिकनुमा व्यक्ति की ओर देखकर
पूछा. ‘पमरेनियन है, सेठ जी?’ सेठ जी ने वहीं से विनीत स्वर में कहा, ‘माफ़ कीजिये,
हम इम्पोर्टेड आइटम नहीं रखते. आप लट्ठा ख़रीद लीजिये, दो थान दूँ?’
‘दो नहीं, हमें एक ही लेना है, पर पमरेनियन लेना है.’
गिरीश जी ने बताया. दुकान-मालिक समीपस्थ हुआ, ‘पमरेनियन शायद इटली में बनता
है. आप उसी के मुकाबले का हिंदुस्तानी कपड़ा ख़रीद लीजिये. हम इटली की मोहर लगा
देंगे.’
‘हमें कपड़ा नहीं, कुत्ता चाहिए. पमरेनियन नस्ल का कुत्ता. मेहता साहब कहाँ हैं?’
‘कुत्ता!’ दुकान-मालिक का चेहरा वीभत्स रस से भर गया, ‘क्या यहाँ हम कुत्ते
बेचते हैं?’ हमने बिगड़े स्वर में कहा, ‘क्यों, बरसों से तो इस भवन में कुत्ते ही
बिकते थे, अब क्या हो गया? मेहता साहब कहाँ हैं?’ दुकान-मालिक यह सुनकर रौद्र रस
का अवतार हो गया, ‘अभी तुझे वहीं भिजवाता हूँ, जहाँ मेहता साहब तेरह साल पहले से
गए हुए हैं.’ उसने भुजदंड फड़काये. मैंने गिरीश जी ओर देखा- वह करुण रस में नहा रहे
थे. उनके नेत्रों में पलायन के चिन्ह थे. हम लोग भाग निकले.
गिरीश जी सीताराम बाज़ार से
निकलते हुए भावुक होकर कहा, ‘जीजा जी, आपके होते हुए मुझे दिल्ली में पमरेनियन नही
मिल रहा है. आप एक कुत्ता तक नहीं दिलवा सकते हैं. आपके हजारों विद्यार्थी में से
कोई भी कुत्ता नहीं बेचता क्या? संतोष क्या कहेगी कि न कृपालसिंह ही आये और न
ही.......’
मुझे यह वाक्य चुनौती-सा
लगा, मैंने दिमाग पर ज़ोर डाला कि कुत्ता कहाँ से मिल सकता है? मुझे याद आया कि
जामा मस्जिद के पास भी जानवर बिका करते थे. हम तुरंत जामा मस्जिद पहुँचे. वहाँ
मछली बिक रही थी, बकरा बिक रहा था, कबूतर आदि-आदि सभी कुछ था, कुत्ता ही नहीं था.
पूछताछ करने पर पता चला कि कुछ पुरानी दुकानें मीना बाज़ार में पहुँच गयी हैं, वहाँ
कोशिश की जा सकती है.
हम मीना बाज़ार पहुँचे. बहुत
खोजा पर कहीं कुत्ते की पूंछ नज़र नहीं आई. हमारी बेचैनी भांपकर एक तोते वाले ने
हमें राह दिखाई, बोला ‘भाईजान, चेहरे से मुर्दनी हटाइये मर्दानगी लाइये. मैं
कुत्ते बेचने वालों का पता बताता हूँ.’ मैंने लपककर उसके चरण स्पर्श करके विनती की
कि वे तुरंत पता बताएं. तोतेवाले ने कहा, ‘बता तो मैं ज़रूर दूँगा पर मेरी छोटी सी
शर्त है, वह यह कि आप मुझसे एक दर्जन तोते ख़रीद लो.’
बड़ी मुश्किल से सौदा तीन
तोतों में पटा. मैंने तोते वाले से कहा कि वह तोते दिए बिना ही पैसे ले ले और हमें
कुत्तेवाले का पता तुरंत बता दे. इस बात पर वह बिगड़ गया. ‘हम ईमानदारी और मेहनत की
कमाई खाते हैं. तोते के बदले में ही पैसा लेंगे. आप चाहे तो तोते यहीं उड़ा देना,
हम मेहनत से उन्हें फिर पकड़ लेंगे.’ हमने ऐसा ही किया. पैसे लेकर और तोतों को
पकड़कर पुनः पिंजरे में बंद करते हुए उसने हमें बताया कि कश्मीरी गेट के बाहर गंदे
नाले के किनारे बंजारों की बस्ती है जहाँ हर तरह के कुत्ते बेचे जाते हैं.
कश्मीरी गेट की ओर नाले के किनारे बंजारों का ठिकाना बना हुआ था, खोजबीन करके
हम असली कुत्ता विक्रेता के पास पहुँच ही गए और उसे अपनी मांग बताई. वह व्यक्ति
बोला, ‘आप ठीक जगह आये हैं. मैं पमरेनियन आपको पचास रुपये में दे दूँगा, पर दूँगा
पांच दिन के बाद.’ मैंने पूछा, पांच दिन बाद क्यों?’’उसने बताया, ‘मेरी कुतिया
पिल्ला देने वाली है.’ हमने उससे निवेदन किया कि पांच दिन के बजाय पांच घंटे में
ही किसी तरह से एक पिल्ला दिलवा दे और दोगुने पैसे ले ले. वह तलखी से बोला, ‘मैं
पचास रूपए के पीछे अपनी कुतिया का कैरियर नहीं ख़राब करूँगा, आप पांच दिन बाद ही
आओ.’ अधिक अनुनय करने के बाद उसने कहा, ‘मैं आपको एक आदमी का पता देता हूँ, उसके
पास आपको पमरेनियन मिल सकता है, वहाँ चले जाओ, मेरा नाम लेना, मैं अभी उसका पता
देता हूँ.’
वह अपनी झुग्गी में गया और
एक छोटा-सा छपा हुआ कार्ड ले आया. नाम पता देखते ही हम चौक पड़े. यह तो बंगाली
मार्केट वाले कर्नल साहब का ही पता था. वह बोला, ‘ये साहब हमारे थोक के ग्राहक
हैं. हर हफ़्ते आते हैं और जितने भी पिल्ले होते हैं, मुंहमांगे दाम में ख़रीदकर ले
जाते हैं, बड़े आदमी हैं, शौक भी बड़ा है.’
भौंचक्के गिरीश जी का चेहरा
जहाँ बुझ गया वहीं मेरी आँखों के सामने मानो रोशनी के सैकड़ों झरने फूट पड़े. ऐसा
दिव्य प्रकाश हज़ारों वर्ष पूर्व सिद्धार्थ को बोधिवृक्ष के तले जब दिखाई दिया था,
तभी से वह बुद्ध कहलाने लगे थे. मेरे अंदर के अर्थशास्त्र के शिक्षक का अज्ञान
क्षणों में नष्ट हो गया. आवश्यकता और मांग से लेकर वितरण और लाभांश तक के सभी प्रश्न
स्वतः हल हो गए. चंद घंटों की कुत्ता ख़रीदने की तपस्या संभवतः सिद्धार्थ के घर
त्यागकर वर्षों की तपस्या से कहीं अधिक फलीभूत हो गयी थी. मुझे बोध हो गया था कि
मुझे अपने विद्यार्थियों से क्या कहना है और... और.... गिरीश जी सोच रहे थे न तो
कृपालसिंह और न पमरेनियन के मिलने पर, अब उन्हें संतोष को क्या बताना है.
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