एक डॉक्टर की फ़रियाद(डॉ. सुभेंदु बाग़ की मूल बंगाल कहानी से अनुवाद)
उस समय रात के साढे बारह बज रहा था | सांस की तकलीफ के
इलाज के लिए घंटा भर पहले परिमल बाबू एक सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए थे |उनके साथ लगभग 15 शुभचिंतक भी
अस्पताल आये थे | सब लोग बेचैन थे | डॉक्टर द्वारा उनका इलाज प्रारम्भ किया गया | इंजेक्शन दिया गया
,
नेबुलाइजर
चैलेंजेज रहा था | लेकिन मरीज के सभी शुभचिंतक इस बात का जोर दे रहे थे कि सैलाइन
क्यों चालू नहीं किया गया है | डॉक्टर बाबु के अनुसार उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है | यह हार्ट फेल का
मामला है |
काफी
दिनों से उच्च रक्तचाप का सही इलाज न होने के कारण शायद उनकी यह स्थिति हुई है | अस्पताल के बाहर
हलचल मचा हुआ था | कोई अस्पताल की गन्दगी का रोना रो रहा था तो कोई हाथ में फोन
छुपाये मंद आवाज में अपने किसी परिचित से इलाज के नुख्से पूछ रहा था,कोई परिमल बाबू के
बेटे को फोन द्वारा उनकी खैरियत बता रहा
था और इस बात की ढींगे मार रहा था कि कैसे जल्दी से उन्हें अस्पताल लाया गया, कोई मंद आवाज में
फोन पर कह रहा था कि जल्दी से इस झमेले से पीछा छुड़ाकर घर पहुँच जाएगा | इसके साथ ही हर
मिनट नए रोगी को लाते हुए एम्बुलेंस के सायरन की गूँज उभर पड़ती, कहीं प्रसव वेदना
से चीत्कार करती महिला और जन्म लेते शिशु
के क्रंदन का शोर तो कहीं शरीर छोड़ जग से विदा
हुए दिवंगत व्यक्ति के स्वजनों का आर्तनाद सुनाई दे रहा था |
परिमल बाबू के भाई सुविमल बाबु शहर में रहते हैं | खबर मिलते ही भागे
आये |
डाक्टरबाबू
से उनके अनियमित एवं लापरवाह चिकित्सा की बात
सुनकर भाभी से पूछ बैठे | भाभी ने इस बात को
अस्वीकार करते हुए कहा, “असंभव ! वो तो रोज दवा लेते थे | डाक्टरबाबू इलाज
नहीं कर पा रहे हैं इसलिए इस तरह का बहाना ढूंढ रहे हैं और फिर बार बार आग्रह के
बाद भी सैलाइन तक नहीं चढ़ा रहे हैं |यहाँ कोई कार्डियोलोजिस्ट भी तो नहीं हैं | हम उन्हें किसी
अन्य अस्पताल ले जाएंगे |”
परिमल
बाबू का बड़ा बेटा पारिजात तबतक डाक्टरबाबू के पास जाकर बोला, “पिताजी तो रोज दवा
लेते थे |
है
प्रेशर कम भी हो गया था | अगर आपको इलाज करना नहीं आता है तो कह
दीजिये |
हम
उन्हें कहीं और ले जाएंगे | कम से कम
एक सैलाइन तो दे सकते हैं |” डॉक्टर साहब कुछ लिख रहे थे | सिर उठाये बिना ही
बोले,
“सैलाइन
नहीं दिया जाएगा | और इस समय उन्हें कहीं और रेफर भी नहीं किया जा सकता है | और हाँ, अबतक जो दवा
चैलेंजेज रही थी उसकी पर्ची दिखाइए |” इतना कहकर दूसरे मरीज को देखने लगे | जल्दीबाजी में
पर्ची न ला सके | उसके अलावा डाक्टरबाबू का जवाब मन को नहीं भाया तो दुखी होकर
पारिजात पास खड़े एक शुभचिंतक से किसी नेता का नंबर लेकर फोन पर उसे सारी बात बताई | बिजली की गति से
काम हुआ |
अस्पताल
के फोन की घंटी बजी | डाक्टरबाबू ने फोन उठाया | दूसरी तरफ से कड़कदार आवाज
में निर्देश,
“मैं
फलां दादा बोल रहा हूँ | ये आपने क्या
लगा रखा है ?सैलाइन भी नहीं देंगे , रेफर भी नहीं करेंगे ! लगता है पिछले बार
की घटना भूल गए है !!” डाक्टरबाबू के
जवाब देने ke
पहले
ही फोन कट गया |
अगर
यह कहानी यहीं ख़त्म हो जाती तो पाठक दो धड़े में बंट जाते | पहले धड़े के लोग
अस्पताल के अपने कटु संस्मरण के आधार पर
अस्पतालों को 'नरक' और डॉक्टरों को 'डकैत' बताते हुए पास खड़े
लोगों से बातचीत कर रहे होते |
चलिए मान लेते है …...........की नेताजी की धमकी
से डॉक्टरबाबु रोगी को तत्काल रेफेर कर
देते और रास्ते में मरीज
की मौत हो जाती है तो रोगी के
शुभचिंत सैलाइन न दिए जाने को मौत का कारण मानते हुए कहते कि पहले ही यदि रेफर कर
देते तो मौत नहीं होती और इस बात के लिए उस डॉक्टर को अपराधी मानकर नेताओं की मदद से डॉक्टर को प्रताड़ित करने
और अस्पताल में तोड़फोड़ की घटना को अंजाम
देने पहुँच जाते | इसके विपरीत चिकित्सा प्रोटोकॉल का अनुपालन करते हुए सैलाइन न
लगाकर सही इलाज का डॉक्टर ने प्रयास किया और उस इलाज से रोगी की स्थिति सुधार न हो
या स्थिति और बिगड़ने लगे | इस स्थिति में भी मरीज के शुभचिंतकों एवं वोट बैंक
के लोभीयों द्वारा चिकित्सक एवं अस्पताल
पर मरीज को रेफर न किये जाने का इल्जाम लगाते हुए तोड़फोड़ पर आमादा हो जाएंगे | इसके विपरीत यदि
चिकित्सा का लाभ हो और चमत्कारिक ढंग से मरीज ठीक होने लगे तो चिकित्सक को लोग 'भगवान' बना देते हैं |
चलिये अब चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इसका विश्लेषण
करते हैं :-
1. हार्टफेल की स्थिति में
इंट्रावेनस सैलाइन देना पूरी तरह से निषिद्ध है | ऐसा करने से स्थिति और भी
बिगड़ सकती है तथा मौत होने की संभावना रहती है |
2. प्रथमतः श्वांस की तकलीफ
से उत्पन्न स्थिति में समय पर इलाज न मिल पाने से रास्ते में ही मौत हो सकती है | अतः रोगी को स्थिर
रखते हुए ऑक्सीजन देते हुए द्रुत गति से अस्पताल ले जाना आवश्यक है | अर्थात चिकित्सक
की बात गलत नहीं है, चिकित्सक सही भी हों तो अधिकांश मामलों में प्रथम धड़े के पाठक
वर्ग के लोग 'चोर चोर मौसेरे
भाई'
की
संज्ञा देते हुए अपनी बात करेंगे ही | कुछ संवाददाता भी उनकी बात का समर्थन करते
हुए नकारात्मक बाते छापने को उद्द्यत रहते है पर कभी भी सकारात्मक उपलब्धि की बात
नहीं छापते हैं | जिसके कारण प्रथम धड़े के पाठक डॉक्टर को 'डकैत' तथा अस्पताल को 'नरक' जैसे shabd से संबोधित करते
हैं |
वास्तव
में सही स्थिति के अनुसार इस कहानी के और भी कई आयाम हो सकते हैं |
चलिए ऐसे मामले के कुछ
छुपे हुए पहलू पर भी नजर दौड़ाते हैं :-
1. हो सकता है कि इलाज कर रहे चिकित्सक के लगातार सलाह
के बाद भी मरीज पास के किसी झोला छाप डॉक्टर से इलाज करवा रहा हो जो दवा के नाम पर
बस कुछ सामान्य एंटासिड औषधि भर दे रहा हो, तथा लाख मना करने
के बाद भी धूम्रपान की आदात न छोड़ रहा हो तथा अन्य चिकित्सकीय अनुदेशों का अनुपालन
न कर रहा हो(जो ऐसे 80% मामलों में देखा
गया है)|
2.
हो
सकता है कि अस्पताल में जरूरी संसाधनों एवं दवा का अभाव हो जिसके कारण चच कर भी
डॉक्टर द्वारा सही इलाज नहीं किया जा सका(यह समस्या अधिकांश सरकारी
अस्पतालों में आम है) |
3. इसके अलावा सरकारी
अस्पतालों में रोगियों की संख्या के अनुरूप चिकित्सकों की उपलब्धता नहीं है | एक ही डॉक्टर कई
मरीज को देखता है | अब विभिन्न रोगियों के शुभचिंतक विभिन्न प्रकार के अटपटे सवालों
से डॉक्टर को परेशान करने की आदत भी उसे अपना काम सही ढंग से करने में बढ़ा पहुंचता
है |
ऐसे
में प्रथम धड़े के लोगों को लगता है डॉक्टर जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं | और उन्हें अमानुष
तक की संज्ञा दे दी जाती है |
4. इसके अतिरिक्त अन्य कारण
भी हैं …...एक धड़ा तथाकथित
उच्च शिक्षित लोगों का है जो इन्टरनेट के माध्यम से अधकचरा जानकारी लेकर चिकित्सक
पर अपना ज्ञान झाड़ने की कोशिश करते हैं तथा मरीज के घरवालों पर रोऊँ डालने या कुछ
अन्य स्वार्थ सिद्धि के कारण श्वांस की तकलीफ के मरीज को हार्ट फेल का केस क्यों
कहा जा रहा है,
इसे
सी ओ पी डी का के क्यों नहीं कहा जा रहा है, इम्फीसेमा नहीं हो सकता है
क्या ..जैसे असंख्य
बेतुके सवाल लेकर इलाज कर रहे चिकित्सक का ध्यान भटकाने का प्रयास करते हैं | पेट के दर्द के
लिए पहले खरीदकर खुद दवा खाते हैं फिर न
ठीक होने पर डॉक्टर के पैसेंजर्स जाते हैं तथा पेट के दर्द जैसे मामूली रोग को भी
बढ़ा चढ़ाकर बताएँगे पहले ही कहेंगे 'सर किडनी में दर्द है' और फिर डॉक्टर को सही निदान के बारे में सोचने ही
नहीं देंगे |
अर्थात पूरी खेल खुद ही खेलेंगे | गोल हो गया तो गोलकीपर अर्थात डॉक्टर को दोषी ठहराएंगे | किसी भी मरीज के अस्वभाविक मौत पर मातम भरा असहनीय परिवेश, दमघोंटू राजनैतिक दबाव, कम वेतन,कार्यक्षेत्र में अनुपयुक्त सुरक्षा,दुष्कर रोगी एवं उसके असहयोगी परिजन, आसमान छूते दवाओं की कीमत, इन सबसे निपटते हुए चिकित्सा करना और फिर चिकित्सक पर नैतिक जिम्मेदारी थोप दिया जाना , यही सब तो चलता है |
अर्थात पूरी खेल खुद ही खेलेंगे | गोल हो गया तो गोलकीपर अर्थात डॉक्टर को दोषी ठहराएंगे | किसी भी मरीज के अस्वभाविक मौत पर मातम भरा असहनीय परिवेश, दमघोंटू राजनैतिक दबाव, कम वेतन,कार्यक्षेत्र में अनुपयुक्त सुरक्षा,दुष्कर रोगी एवं उसके असहयोगी परिजन, आसमान छूते दवाओं की कीमत, इन सबसे निपटते हुए चिकित्सा करना और फिर चिकित्सक पर नैतिक जिम्मेदारी थोप दिया जाना , यही सब तो चलता है |
ऊपर
की घटना बस एक नमूना मात्र है | सरकारी अस्पताल में कार्यरत हर चिकित्सक के जीवन
में यह रोज की घटना है | तकलीफ की बात यह है कि इस समाज में कमोबेश सभी
डाक्टरी जानते हैं, बस कुछ डिग्रीधारक चिकित्सक प्रवेश परीक्षा पास कर 5 साल की कड़ी मेहनत
से पढ़ाई कर इंटर्नशिप करते हैं फिर एक साल
का हाउस स्टाफ़शिप करते हैं |इसके बाद
पुनः प्रवेश परीक्षा में बैठकर पोस्टग्रेजुएट बनने की तैयारी करते हैं | प्रवेश परीक्षा
में सफल होने के बाद एमडी/एमएस पास करते हैं | (इसके बाद डीएम, एमसीएच जैसी उच्च
शिक्षा भी है यह जान भी नहीं पाते हैं |)कई मेघावी छात्र इस कठिन पढ़ाई के बोझ को
बर्दाश्त नहीं कर पाते और असमय ही आत्महत्या जैसा पाप कर बैठते हैं |
ऐसे में डॉ सुभाष मुखोपाध्याय जैसे कुछ चिकित्सक देश प्रेम की भावना से काम करने के बावजूद समाज के दबाव और गलत नियम क़ानून के चक्कर में पड़कर असमय ही चल बसते हैं | आजकल आम जनता दक्षिण भारत के चिकित्सा संस्थानों पर अधिक विश्वास रखती है और इलाज के लिए अक्सर दक्षिण का रुख करती है | यदि निःस्वार्थ एवं अच्छी चिकित्सा सेवा की बात की जाए तो डॉ बिधान चंद्र रॉय से लेकर प्रवाहप्रतीम डॉ शीतल घोष जैसे चिकित्सक इस बंगाल की धरती पर ही मिलते हैं |अर्थात हमारे यहाँ दक्षिण के व्यावसायिक मानसिकता की चिकित्सा व्यवस्था जैसी सुविधा न होने के बावजूद मेघावी चिकित्सकों की यहाँ कमी नहीं है | अब ख़राब चिकित्सा व्यवस्था के लिए सरकारी चिकित्सक का कहाँ दोष होता है | उसके नियंत्रण में होता ही क्या है ? फिर गोलकीपर को ही दोष क्यों दिया जाता है ??
अब पहले धड़े के पाठकों से अनुरोध है कि हम जो दुसरे धड़े
या यूँ कहें कि गोलकीपर सदृश चिकित्सक हैं, अन्य
सरकारी मुलाजिमों की तरह ऑफिस में प्रवेश करते ही अखबार नहीं पढ़ पाते हैं, ना
ही तो आक्रोश व्यक्त करने के लिए हड़ताल का सहारा ले सकते हैं| आपके
स्वस्थ्य के लिए सदा ही अपने घर- संसार में अशांति के माहौल में ही रहते हैं | बस
यही कहना चाहते हैं कि 'भगवान' बनकर आपकी सूझबूझ की परकाष्ठा का शिकार नहीं होना चाहते
हैं | बस इतनी इच्छा है कि अन्य बुद्धिजीवी मनुष्यों की तरह से
हमें भी पूर्ण मर्यादा दिया जाए |ऐसे में डॉ सुभाष मुखोपाध्याय जैसे कुछ चिकित्सक देश प्रेम की भावना से काम करने के बावजूद समाज के दबाव और गलत नियम क़ानून के चक्कर में पड़कर असमय ही चल बसते हैं | आजकल आम जनता दक्षिण भारत के चिकित्सा संस्थानों पर अधिक विश्वास रखती है और इलाज के लिए अक्सर दक्षिण का रुख करती है | यदि निःस्वार्थ एवं अच्छी चिकित्सा सेवा की बात की जाए तो डॉ बिधान चंद्र रॉय से लेकर प्रवाहप्रतीम डॉ शीतल घोष जैसे चिकित्सक इस बंगाल की धरती पर ही मिलते हैं |अर्थात हमारे यहाँ दक्षिण के व्यावसायिक मानसिकता की चिकित्सा व्यवस्था जैसी सुविधा न होने के बावजूद मेघावी चिकित्सकों की यहाँ कमी नहीं है | अब ख़राब चिकित्सा व्यवस्था के लिए सरकारी चिकित्सक का कहाँ दोष होता है | उसके नियंत्रण में होता ही क्या है ? फिर गोलकीपर को ही दोष क्यों दिया जाता है ??
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