विश्वहिंदीजन चैनल को सबस्क्राइब करें और यूजीसी केयर जर्नल, शोध, साहित्य इत्यादि जानकारी पाएँ

डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें



1
हर नदी के पास वाला घर तुम्हारा
आसमां में जो भी तारा हर तुम्हारा

बाढ़ आई तो हमारे घर बहे
बन गई बिजली तो जगमग घर तुम्हारा

तुम अभी भी आँकड़ों को गढ़ रहे हो
देश भूखा सो गया है पर तुम्हारा

कोई भी तुमको मदारी क्यों कहेगा
छोड़कर जाएगा जब बन्दर तुम्हारा

ये ज़मीं इक दिन उसी के नाम पर थी
वो जिसे कहते हो तुम नौकर तुम्हारा

दूर उस फुटपाथ पर जो सो रहा है
उसके कदमों में झुकेगा सर तुम्हारा

2
बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग

खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग

मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग

गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग

भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग

धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग

इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग

चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग

3
हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे
ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे

तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर
न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे के ढेरों में
खिलौने देख ललचाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

वो जिनके हाथ में लाखों-करोड़ों योजनाएँ हैं
उन्हें भी तो नज़र आएं, ये कचरा बीनते बच्चे

वो जिस आकाश से बरसा है, इन पर आग और पानी
उसी आकाश पर छाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

वो तितली जिसके पंखों में, मैं सच्चे रंग भरता हूँ
कहीं उसको भी मिल जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

कभी ऐसा भी दिन आए, अंधेरों से निकलकर फिर
किताबें ढूँढने जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे

4
सूखा आया तो कुछ तनकर बैठ गए
बाढ़ जो आई और अकड़कर बैठ गए

माँ की याद आने पर सारे लोग बड़े
छोटे-छोटे बच्चे बनकर बैठ गए

जिनके पैरों में थोड़ी हिम्मत कम है
वो तो थोड़ी देर ही चलकर बैठ गए

मंच पे रक्खी सबसे ऊंची कुर्सी पर
मंत्री जी जब गए तो अफसर बैठ गए

वो सच्चाई के हक में चिल्लाएंगे
वो हम जैसे नहीं कि डरकर बैठ गए

ज़िक्र वफ़ा का आया तो हम सब-के-सब
दीवारों के पीछे छुपकर बैठ गए

4
जो इस कोने में आओ तुम कभी क़व्वालियां लेकर
मिलूंगा चाय की खुशबू-भरी मैं प्यालियां लेकर

किसी के बोल देने से कोई छोटा नहीं होता
नहीं होता बड़ा कोई किसी को गालियां देकर

कोई देता है कम्प्यूटर, कोई देता मोबाइल है
खड़े सब भूख के मारे हैं खाली थालियां लेकर

जहाँ जम्हूरियत का ये तमाशा रोज़  होता है
वहाँ मैं रोज़ जाता हूं, बहुत-सी तालियां लेकर

जो इन बंज़र ज़मीनों पर चलता हल मिले तुमको
उसे गेहूँ की तुम आना वो पहली बालियां देकर

बुझे सपनो, बुझे चूल्हो, डरे लोगो, ज़रा सुन लो
मैं फिर से आ रहा हूँ आग और चिंगारियां लेकर

5
धरती के जिस भी कोने में तुम जाओ
वहाँ कबूतर से कह दो तुम भी आओ

अगर आग से दुनिया फिर से उगती है
जंगल-जंगल आग लगाकर आ जाओ

बादल से पूछो, तुम इतना क्यों बरसे
कह दो, लोगों की आँखों में मत आओ

गूंगे बनकर बैठे थे तुम बरसों से
अब सड़कों पर निकलो, दौड़ो, चिल्लाओ

महल में राजा के कल फिर से दावत है
भूखे-प्यासे लोगो, अब तुम सो जाओ

फसलो, तुमसे बस इतनी-सी विनती है
सेठों के गोदामों में तुम मत जाओ

6
जगमगाती शाम लेकर आ गया हूँ
मत डरो, पैग़ाम लेकर आ गया हूँ

हम सभी गद्दार हैं, हक़ माँगते हैं
सर पे ये इल्ज़ाम लेकर आ गया हूँ

फिर गरीबों को उदासी बाँटकर
मैं ज़रा आराम लेकर आ गया हूँ

सब यहाँ तलवार लेकर आ गए हैं
मैं तुम्हारा नाम लेकर आ गया हूँ

आत्मा तुमने बहुत सस्ते में बेची
मैं तो ऊँचे दाम लेकर आ गया हूँ

आज अपने साथ मैं रोटी नहीं
कुछ ज़रूरी काम लेकर आ गया हूँ

7

हर तरफ गहरी नदी है, क्या करें
तैरना आता नहीं है, क्या करें

ज़िंदगी, हम फिर से जीना चाहते हैं
पर सड़क फिर खुद गई है, क्या करें

यूं तो सब कुछ है नए इस नगर में
पर तुम्हारा घर नहीं है, क्या करें

पेड़, मुझको याद आए तुम बहुत
आग जंगल में लगी है, क्या करें

लौटकर हम फिर शहर में आ गए
फिर भी इसमें कुछ कमी है, क्या करें

तुमसे मिल पाया नहीं, बेबस हूँ मैं
और बेबस ये सदी है, क्या करें

8
डीज़ल ने आग लगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
खूब बढ़ी महंगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

पत्थर बनकर पड़ा हुआ हूँ धरती पर
याद तुम्हारी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

बहुत उदासी का मौसम है ख़ामोशी है
मीलों तक तन्हाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

खेतों में फसलों के सपने देख रहा हूँ
नींद नहीं आ पाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

एक कुआँ है कई युगों से मेरे पीछे
आगे गहरी खाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

सरकारों ने कहा गरीबों की बस्ती में
खूब अमीरी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

जंगल-जंगल आग लगी है और तुम्हारी
चिट्ठी फिर से आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ

9
हर तरफ भारी तबाही हो गई है
ये ज़मीं फिर आततायी हो गई है

कुछ नए क़ानून ऐसे बन गए हैं
आज भी उनकी कमाई हो गई है

जब से हम पर्वत से मिलकर आ गए हैं
ऊँट की तो जग-हँसाई हो गई है

फिर किसानों को कोई चिठ्ठी मिली है
फिर से ये धरती पराई हो गई है

मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ
बीच में गहरी-सी खाई हो गई है

वो तो बच्चों को पढ़ाना चाहता है
पर बहुत महंगी पढ़ाई हो गई है

10
कैसे-कैसे लोग शहर में रहते हैं
जलता है जब शहर तो घर में रहते हैं

जाने क्यों इस धरती के इस हिस्से के
अक्सर सारे लोग सफ़र में रहते हैं

भूख से मरते लोगों की इस दुनिया में
राजा-रानी रोज़ ख़बर में रहते हैं

दौर नया है, जिसमें हम सबके सपने
दबकर फाइल में, दफ्तर में रहते हैं

जनता जब मिलकर चलती है सड़कों पर
दरबारों में लोग फ़िकर में रहते हैं

वो जो इक दिन इस दुनिया को बदलेंगे
मेरी बस्ती, गाँव, नगर में रहते हैं

डॉ. राकेश जोशी
सम्पर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड

डॉ. राकेश जोशी
परिचय:
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में
अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी
भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद
पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए
आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी
कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने
के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका
"कुछ बातें कविताओं में", एक ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में”, तथा
हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक द क्राउड बेअर्स विटनेसअब तक
प्रकाशित हुई है. डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लों को दुष्यंत की परंपरा को आगे
बढ़ाने वाली ग़ज़लें माना जाता है. उनकी ग़ज़लों में आम-जन की
पीड़ा एवं संघर्ष को सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है, इसलिए ये आज के इस दौर
में भीड़ से बिलकुल अलग खड़ी नज़र आती हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-