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अलका पाण्डेय की रचनाएँ




1-
अनवरत प्रेम गंगा...

कलकल बहती
अनवरत प्रवाहित होती
आत्मा से मन कि ऒर..
प्रेम गंगा।

आत्मा के उच्च शिखरों पर
हिमखंडों से द्रवित
आँखों के मार्गों से होते हुए
ह्रदय  को सींचती  हुई
मन के समंदर मैं स्थिर होती
तरंगित होती प्रेम गंगा

मन के अथाह समंदर से
कसौटियों पर कसती
आजमाइशों  की  धूप खाती
वाष्पित होती शिखरों पर चढ़ती
फिर जमकर हिम होती
प्रेम गंगा।

तुम
एक प्रेम गंगा का पर्याय
आत्मा से मन के सफर में हमसफ़र
मन के मंथन में
कंधे से कंधे लगाये
कभी तूफानों में  हाथ में  हाथ
दिलाते एक अहसास
अनवरत प्रेम गंगा का।
.........................................................

2-

स्त्री और नदी ..

स्त्री  क्या नदी हो तुम ?

कभी पहाड़ो की ऊंचाई से गिर कर  बहती हो ..

कभी मैदानों मैं शांत भाव से कल कल निनाद करती हो,

कभी बहुत शोर ,तो कभी शांत हो जाती हो ,

कभी सागर मैं जाकर मिलती हो

तो कभी मरुस्थल मैं विलीन हो जाती हो,

स्त्री और नदी मैं समानताएं हैं बहुत ..

जीवनदायनी होती हैं दोनों ..

दोनों ही बहती हैं जीवन की लय  मैं

स्त्री  क्या नदी हो तुम ?
................

3-
स्त्री जीवन

जिस घर मैं आँखें खोलीं थीं
बचपन जिस घर मैं बीता था..
उस घर मैं ही तो पराई हूँ...
मातृ छाँव मैं बचपन बीता
मैं पितृ छाँव न जान सकी.,
सखियों के संग बचपन बीता
है शिक्षा क्या अनजान रही..

सहसा ही मुझको ज्ञात हुआ..
अब उम्र विवाह की आयी है
जाना अब पति के घर होगा
इस घर से तो मैं पराई हूँ,.

एक भोर हुई जाना ही पड़ा
एक सीख साथ मैं ये भी थी
हैं द्वार बंद आने के सब
इस घर से डोली उठती है
वो घर तेरा अब सबकुछ है
उस घर से अर्थी उठती है..

आँखों मैं आंसू अनगित भर
एक स्त्री चली जाती है ..
घर गलियां अपनी छोड़ आज
अनजानी नगरी आती है...
मन मैं भरी कौतूहल है
विस्मय भी इसमें आन मिला
कैसा ये स्त्री जीवन है.?
जिसमें न कभी अधिकार मिला..

था जनम लिया मैंने जिस घर मैं
बचपन जिस घर मैं बीता था
अधिकार वंहा कभी मिला नही..
तो यंहा बात भी क्या करना,,?
जब एसा ही स्त्री जीवन है तो
अधिकारों का भी क्या करना ..?

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