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कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’: धर्मवीर यादव ‘गगन


कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ 


धर्मवीर यादव ‘गगन’ 
शोधार्थी—हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 
मो. 09013710377, stargagan12@gmail.com 


आपकी याद में बात कहाँ से शुरू करूँ कर्नल गैब्रिया गार्सिया मार्खेज. आपके पास बातें बहुत हैं, पर उन बातों में बहुत कम बातों को मैं जनता हूँ. उसमें जो खास बात है वो आपके जीवन और समाज का ‘एकांत’. जिसे आपने जिया, पिया और साहित्य में अभिव्यक्त किया है. यह आपके जीवन की ‘नोबल’ बात है. इस एकांत की अंतिम मानवीय परिणति ‘प्रेम’ में हैं. यह प्रेम पूरी मानवता से है. जिसे प्राप्त करने के बाद मानव जाति हर तरह के बंधनों और उपनिवेशों से मुक्त होती है. आपके प्रेम करने का अंदाज—जादुई है, यथार्थवादी है. जिसे आपने साहित्य में ‘जदुई यथार्थवादी’ शैली में अभिव्यक्त किया है. यह एक ऐसी शैली है जिसमें जादू को यथार्थ की तरह और यथार्थ को जादू की तरह अभियव्यक्त किया जाता है. 

मानव सभ्यता के इतिहास में जिस इतिहास को विस्मृत कर दिया गया, उसी की अभिव्यक्ति है ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास. जो बहुत गहराई से इस बात पर चिंता व्यक्त करता है कि मानव प्रगति के इतिहास में हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए योगदान को विस्मृत कर दिया गया. यह आज भी किस तरह लोगों के दिल-दिमाग में स्वाभाविक रूप से एक परंपरा के साथ कभी ‘स्मृत’ तो कभी ‘विस्मृत’ हो रहा है. वास्तव में, इनका इतिहास में किया गया योगदान अविस्मरणीय है. जिसे लिखित इतिहास में जगह न दिए जाने के कारण लोगों को यह विश्वस ही नहीं होता है कि यहाँ के लोगों का इस यथार्थ के साथ मानव प्रगति के इतिहास में योगदान है. वर्चस्ववादी औपनिवेशिक सत्ता ने वहाँ के मानव प्रगति और संस्कृति का दमन करते हुए अपनी भाषा और संस्कृति को थोपा और स्थापित किया. और वहाँ की स्वाभाविक और स्वस्थ प्रगति को झूठा सिद्ध करने की कोशिश की. इस प्रक्रिया में जो यथार्थ था वो जादू हो गया और जो जादू था वो यथार्थ हो गया. मार्खेज इतिहास में भूला दिए गए इतिहास के इसी ‘एकांत’ को पकड़ते हैं. और उस ‘जादू’ को यथार्थ की तरह और ‘यथार्थ’ को जादू की तरह अभिव्यक्त करने के लिए ‘जादुई यथार्थवादी’ शैली का प्रयोग करते हैं. साथ ही इस शैली में साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक प्रमुख कारण यह भी था कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादीयों के समक्ष आप सीधे-सीधे अपनी बात कह भी नहीं सकते हैं. इसी कारण यह जादुई यथार्थवादी शैली को अपनाते हैं और यथार्थ को उसी शैली में अभिव्यक्त करते हैं. 

हमारी स्मृत का विस्मृत होना और विस्मृत का स्मृत होना. इस बात को दर्शाता है कि हमारी ‘स्मृती’ अर्थात् ‘याददास्त’ भी बनावटी है. वह कभी भी विस्मृत हो सकती है. उसे कभी भी भूला जा सकता है. इस उपन्यास में वस्तुओं के नाम और काम के प्रयोजन को लिख कर याद रखा जाता है; जैसे—“यह गाय है. जो सुबह सुबह दूध देती है. इसके दूध से काफी बनती है.” अर्थात् लोगों की दूध की कोडीकृत स्मृत, विस्मृत हो सकती है कि दूध किस उपयोग की वस्तु है. 

इस उपन्यास में ‘बुएनदीय’ परिवार का इतिहास जैसे एक दृष्टान्त है. वैसे ही वह पूरे अमेरिका के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टान्त बना कर प्रस्तुत करता है. जो मानव प्रगति के इतिहास का संछिप्त प्रतिरूप है. आगे यह उपन्यास विकसित समाज को लक्ष्य करते हुए, लैटिन अमेरिका के औपनिवेसिक समाज के चरणों का खाका इतिहास की रेखीय गति-क्रम में हमारे सामने रखता है. ‘माकोन्दो’ पर किस तरह क्रमवार फ़्रांसीसी, अंग्रेज और स्पेनिस उपनिवेशों की स्थापना होती है. यह महत्वपूर्ण है कि इस ‘माकोन्दो’ की स्थापना मूलरूप से सबसे पहले कभी कर्नल बुएनदीय ने अपने 21 सहयोगियों के साथ की थी. जिसमें पहली पीढ़ी पितृसत्तात्मक है और ये जादू, टोना की फैंटेसी से युक्त है. जब यह समाज बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है तब आदिवासी जीवन अनुसाशन प्रणाली का स्थान औपनिवेशिक शासन प्रणाली ले लेती है. इसी के साथ आदिवासी जीवन अनुशासन प्रणाली के बने रहने और औपनिवेशिक शासन प्रणाली के स्थापित होने को लेकर लड़ाई शुरू हो जाती है जो ‘गृह युद्ध’ के रूप में सामने आती है. यह बीस वर्षों तक चलती है. एक बड़े ‘गृह युद्ध’ के बाद वहाँ वर्चश्ववादी औपनिवेशिक शासन प्रणाली की ‘नगर पालिका’ स्थापित होती है. इस औपनिवेशिक वर्चस्व के स्थापित होने के साथ ही; बाहरी दुनिया की तकनीकों का प्रवेश होता है. जिसमें आधुनिक—ट्रेन, यंत्र, बिजली, सिनेमा, ग्रामोफोन और टेलीफोन आदि सब वर्चश्व और विकास के नए चिह्न के रूप में हमारे सामने आते हैं. 

यहाँ ऐतिहासिक परिवर्तन उस समय होता है. जब उत्तरी अमेरिका की ‘केला’ कंपनी वहाँ पहुँचती है और इसी के साथ ‘माकोन्दो’ औपनिवेशिक विदेशी ताकतों के वर्चस्व के प्रतिक के रूप में एक ख़ास तरीके का औपनिवेशिक केंद्र बनता है. इसी बीच वहाँ एक और नया व्यापारिक गुट पहुँचता है. जिससे सामाजिक टकराव होता है और साथ में प्राकृतिक आपदा भी आ जाती है. ये सभी टकराव की स्थितियाँ ‘माकोन्दो’ को अपने इतिहास के अंतिम चरण में पहुँचा देती हैं. 

मानव प्रगति के इतिहास में प्रागैतिहासिक अण्डों को आश्चर्यभरी नज़रों से देखते हुए यह उपन्यास इस दुनिया में प्रवेश करता है. मानव प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक की प्रगति के इतिहास पर चिंतन करता है कि क्या हम जिस काल-सभ्यता की बात और विकास करते हुए प्रगति कर रहे हैं. क्या वह प्रगति हमें सृजन की तरफ ले जा रही है या विध्वंस की तरफ ले जा रही है ? जिस उन्मुक्तता के साथ ये बंजारे जिंदगी को जीते हुए बढ़ते जा रहे हैं. और ये बंजारे स्वयं को इस सभ्यता के ‘रिसर्चेबुल रेस’ के रूप में प्रस्तुत करते जा रहे हैं. उसके समानांतर आधुनिक प्रगती की सभ्यता को देखें तो आज अदभुत मानव प्रगित की दुनिया को मानव एक सेकेण्ड में ख़त्म कर देने, ध्वंस करने का दावा कर रहा है. दुनिया को ख़त्म करने वाले ‘परमाणु बम’, ‘हाईड्रोजन बम’ आदि बन चुके हैं. वहीं आदिवासी समाज घोषणा करता है कि “बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है.” वो अपनी प्रगति प्रक्रिया में आत्मविश्वास विकसित करते हुए कहते हैं—“चीजों में अपनी खुद की जान होती है.” वो आगे कहते हैं—“बस उनकी आत्मा जग जाने भर की देर है.” यह उस देश-काल का भौतिक यथार्थ है. तो क्या उस स्वप्न को हम यहाँ तक लेकर आगे चले जाते हैं कि—“जल्द ही दुनिया ख़त्म होने वाली है ?” क्या हम आधुनिक प्रगती का चोला पहने कहीं उस गहरे खतरनाक अतीत की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं ? जो असभ्यता, बर्बरता, हिंसा, जंगलीपन और पशुता लिए हुए है. किसी ने कहा है कि ‘सभ्यता का इतिहास बर्बरता का इतिहास है.’ इसी सन्दर्भ में ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास मानव प्रगित के इतिहास पर चोट करता है. 

प्रागैतिहासिक समाज के प्रतीक के तौर पर पूरा ‘माकोन्दो’ जैसे-तैसे ऐतिहासिक प्रगति के दौर में प्रवेश करता है. जैसे ही वह इस दौर में प्रवेश करता है. वैसे ही उसे कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली स्थितियाँ बनती दिखती हैं; जैसे—कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली ‘चिड़ियों’ की जगह ‘घड़ियों’ ने ले ली. दक्षिण अमेरिका में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले ‘बबूल’ के पेड़ की जगह ‘बादाम’ के पेड़ ने ले लिया. इसी तरह माकोन्दो में जिलाधीस का प्रवेश इस बात का प्रतीक है कि अब एक प्रागैतिहासिक समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित होने जा रहा है. जिसमें व्यवस्थित संस्थान और विस्तृत सत्तातंत्र होगा. तब सवाल उठता है कि यह सृजन है या विध्वंस ? जिसमें संस्था और सत्ता का वर्चस्व किसी का विध्वंस करने के लिए खड़ा किया जा रहा है; जैसे—उहोंने कहा, “कौन है यह आदमी” ? “न्यायाधीस” उर्सुला ने खिन्न मन से कहा “बताते हैं कि यह सरकार का भेजा हुआ नुमायिन्दा है.” 

यहाँ के सामाजिक भूगोल में ‘रिश्ते’ ‘रक्त-संबंधों’ में ही बनते हैं. जिसे ‘Incest’ अर्थात् कौटुम्बिक व्यभिचार कह सकते हैं. सामान्यतः समाजिक मान्यताओं में ‘रिश्ते’ ‘परिवार’ के बाहर बनते हैं. ‘Incest’ मतलब परिवार के अन्दर ‘यौनिक सम्बन्ध’ स्थापित करना. इस तरह के ‘यौनिक सम्बन्ध’ को दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में वर्जित माना जाता रहा है. लेकिन इस उपन्यास का जो समाज है उसमें अदभुत कौटुम्बिक व्यभिचार विद्यमान है. जिसको लेकर उर्सुला भयभीत है. वह डरती है कि कहीं इस कौटुम्बिक व्यभिचार के कारण हमारे बच्चे सुअर के मुख वाले जानवर की तरह न पैदा होने लगें. लेकिन वह आगे चल कर इन बंधनों से बनने वाली नई धारणा से खुद और सबको मुक्त करती है. “बहुत प्यार करता है बुआ से ?” उसने औरेलियानो खासे से सरलता से पूछा. उसने जवाब दिया कि “हाँ”....... “अच्छी बात है. उर्सुला ने तय किया.” 

महत्त्वपुर्ण बात ये है कि इन मुक्त पारिवारिक, सामाजिक ‘यौन संबंधों’ के होने बाद भी ‘एकाकीपन’ उस परिवेश और समाज में व्याप्त है. यह ‘एकाकीपन’ वहाँ उतर कर उस परिवार और सामज को जैसे खाता है. यह ‘पन’ इस उपन्यास की कहानी को बुनता भी है. जो इतिहास के हस्तक्षेप या इतिहास के व्यवधान से युक्त होकर लिखा जाता है. यहाँ ऐसा समाज है. जो बाकि दुनिया और सभ्यता से बहुत अलग है. यह समाज अपने परिवर की दुनिया में गहरे तक समाया हुआ है फिर भी भयंकर उदासी में है. कारण कि वहाँ उदासी बहुत गहरे तक विद्यमान है; जैसे—“औरेलियानो ने कपड़े उतारे, संकोच से उद्वेलित, इस विचार को मष्तिस्क से निकाल देने में असमर्थ की उसकी नग्नता का उसके भाई से कोई साम्य नहीं था. लड़की के कई प्रयत्न के बावजूद, वह निरंतर और भी उदासीन और बहुत ही अकेला महसूस करता चला गया.” इस ‘एकाकीपन’ पर मार्खेज स्वयं लिखते हैं—“बुएनदिया परिवार में एकांत का श्रोत क्या है ? मेरे खयाल से प्रेम का अभाव ही एकाकीपन की जननी है.....यही उनके एकाकीपन और कुंठा का मूल कारण है.” 

इसी कारण इस उन्यास की अंतिम परिणति ‘प्रेम’ में होती है. जो इस समाज में नहीं था. इस परिणति के साथ ‘एकांत का सौ वर्ष’ ख़त्म होता है. बुएनदिया परिवार की अंतिम पीढ़ी जमकर ‘प्रेम’ करती है. उसी में डूबती-उपराती है. सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी, ये पीढियाँ सब कुछ भूल कर जमकर ‘प्रेम’ करती हैं. जो पहले यहाँ कभी नहीं हो सका था. इसके साथ ही यह परिवार हर तरह के ‘बंधनों’, ‘एकान्त’ और उपनिवेशों से मुक्त होता है. अब औरेलियनो और उर्सुला “दोनों एक ऐसे रिक्त संसार में बहते हुए से रहने लगे जिसका एक मात्र दैनिक व शाश्वत यथार्थ उनका प्रेम था.” किसने सोचा था कि “हम वाकई आदमखोरों की तरह जीने लगेंगे.” आदमखोरों की-सी जिंदगी अर्थात् हर तरह के बंधनों से मुक्त जिंदगी. बिल्कुल मुक्त, प्रेम से युक्त. “जैसे-जैसे पक्षी जनते अमरान्ता उर्सुल उन्हें जोड़ियों में उड़ा देती.” अर्थात् प्रेम मुक्त करता है. 



संदर्भ: 

1. कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज, ‘एकांत के सौ वर्ष’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष 2007 

2. गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा (आलेख), अक्षय काले, आव्हान पत्रिका, जून अंक 2014 

3. विकिपीडिया 

4. अपवाद ब्लॉग

       

 [जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित लेख]

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