अनसुलझे सवालों से जूझता दिविक रमेश का 'खण्ड-खण्ड अग्नि'- प्रियंका मिश्र
अनसुलझे सवालों
से जूझता दिविक रमेश का 'खण्ड-खण्ड अग्नि'
- प्रियंका मिश्र
भारतीय समाज सदियों से ही धर्म के प्रति श्रद्धा और आस्था के भावों को लेकर चलता रहा है। हज़ारों-हज़ार वर्ष पूर्व की सभ्यता और आध्यात्मिकता का पक्ष आज भी भारतीय जनमानस पर सशक्त ढंग से आबद्ध हो चुका है। पुराणों में विद्यमान मिथकीय कथाओं से भारतीय समाज का आस्थापरक सम्बन्ध है। लेकिन आस्था से आबद्ध इन रचनाओं में कई ऐसे प्रसंग हैं जो आधुनिक समाज में इन मिथकीय रचनाओं के विशिष्ट पात्रों पर अक्सर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। यह प्रश्न आस्था से ऊपर उठकर आम सामाजिक के जीवन को आंदोलित तो करते ही हैं साथ ही उनके स्वीकार-अस्वीकार की बहस के द्वारा उनकी प्रासंगिकता पर भी प्रश्न उठाते हैं।
ऐसे ही बाल्मीकि कृत रामायण
के
एक
प्रसंग
से
उमड़े
प्रश्नों
को
वर्तमान
जीवन
के
विसंगति
बोध
से
जोड़ता
दिविक
रमेश
कृत
काव्य
नाटक
'खण्ड-खण्ड
अग्नि' है। वैसे तो हिन्दी साहित्य में काव्य नाटकों की एक लम्बी परम्परा रही है। इन काव्य नाटकों के द्वारा मिथकीय कथा-प्रसंगों को आधार बनाकर नाटककारों ने वर्तमान जीवन की विडम्बनात्मक परिस्थितियों से उभरे सवालों को उठाया है। 'खण्ड-खण्ड अग्नि' भी रामकथा के लंका विजय के उपरान्त राम के मन में सीता के चरित्र के संदर्भ में उपजे सवालों के प्रसंग पर आधृत है।
इस काव्य नाटक की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इस बात को लेकर है कि इसमें नाटककार ने मिथकीय कथा के माध्यम से वर्तमान जीवन में स्त्री के व्यक्तित्व और अस्तित्व के प्रश्न को बखूबी उठाया है। इस नाटक में दिविक रमेश ने मिथकीय पात्रों के अतिरिक्त मनुष्य के मनोभावों, परिवेश और चिन्तन स्थितियों को भी पात्र के रूप में स्थान दिया है जो हिन्दी नाट्य साहित्य में अतुलनीय है। वास्तव में यह कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व और समाज में उसके अस्तित्व के प्रश्न को गम्भीरता से उठाती है लेकिन वह उनके उत्तर नहीं खोजती बल्कि पाठकों को ही उन प्रश्नों से जूझने और उनके उत्तर तलाशने के लिए प्रेरित करती है।
इस काव्य नाटक का आरम्भ राम के लंका विजय की उद्घोषणा से होता है। राम ने लंका पर विजय प्राप्त कर ली है और लंका का राजा विभीषण को घोषित किया जा चुका है। लेकिन राम विजय के उपरान्त सीता को लेने के लिए अशोक वाटिका नहीं जाते बल्कि पहले हनुमान को और उसके बाद विभीषण को लाने के लिए भेजते हैं। सीता के मन में हनुमान के आग्रह से ही राम के रामत्व का प्रश्न जन्म लेने लगता है। सीता विभीषण के वचनों को सुनकर अपने मन को समझाते हुए राम के पास आ जाती है लेकिन मन के भीतर कहीं-न-कहीं राम की इस उदासीनता के कारण को जानने का अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है।
सीता के राम के पास आगमन के पश्चात् राम सीता को स्वीकार करने से मना कर देते हैं और सीता को कहीं भी, किसी के साथ भी जाने के लिए स्वतंत्रता दे देते हैं। उनकी दृष्टि में रावण द्वारा सीता हरण के समय उनके शरीर को छूने से उसे स्वीकार कर लेना उनके राजा के कर्त्तव्य के विरुद्ध होगा। राम के इस कृत्य पर सभी आश्चर्य में पड़ जाते हैं। हनुमान राम की विराटता के संदर्भ में उन्हें अहिल्या के उद्धार और ऋषि पत्नी को उसके पति ऋषि गौतम द्वारा स्वीकार करने के प्रसंग का उल्लेख कर उन्हें समझाते हैं। सुग्रीव अपनी पत्नी रूमा के बाली से मुक्त होने के पश्चात् उसके स्वीकार के लिए राम की महानता का उल्लेख करते हुए उन्हें सीता को अस्वीकार करने के लिए राम के इस कर्म पर ही प्रश्न उठाते हैं। लेकिन राम उनके तर्कों को अस्वीकार करते हुए अपने राज-कर्त्तव्य का उल्लेख करते हुए सीता को स्वीकार करने से मना कर देते हैं। सीता अग्नि को पुकार कर अपने आश्रय में लेने को कहती है और अग्नि उन्हें अपने आश्रय में लेकर उन्हें परीक्षण के उपरान्त राम को आदेश देते हैं कि वे सीता को तुरन्त स्वीकार करें। राम सीता को स्वीकार कर लेते हैं किन्तु सीता के मन में अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व का प्रश्न गहरे तक स्थान बना लेता है। उसकी दृष्टि में यह स्वीकार्यता दो मृतकों के बीच हुए समझौते से अधिक कुछ नहीं है।
सीता के अपने ही अस्तित्व की लड़ाई इस काव्य नाटक में समूची स्त्री जाति की अस्मिता की लड़ाई के रूप में उभर कर आती है। सुग्रीव राम के सीता को अस्वीकार करने के प्रसंग में कहते हैं - 'यह अपमान केवल सीता का नहीं/पुरुष की/पशुता की शिकार हुई हर नारी का है।' यहाँ प्रश्न स्त्रीत्व का नहीं राम के राजत्व और रामत्व का भी है। क्या पुरुष को यह अधिकार है कि वह स्त्री की स्वतंत्रता का निर्णय स्वयं ले ले। सीता का यह प्रश्न केवल सीता का नहीं वरन् हर उस स्त्री का है जो अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित है। सीता राम से प्रश्न करती है - 'क्यों/क्यों
है
अधिकार
पुरुष
का
ही/स्वतंत्र
करना
नारी
को।/पत्नी
हूँ
मैं
राम/बँधी
उतनी
ही
आपसे।/कोई
तो
होगा
ही
न
वह
वृक्ष/बँधते
हैं
जिसिसे/दो
प्राणी
स्वतंत्र/होते
ही
विवाह!/संदर्भहीन
नारी
नहीं/उत्तरदायित्व
हूँ
मैं
राम!'
नाटक के आरम्भ में ही व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व और समाज में उसके अस्तित्व का द्वन्द्व राम के माध्यम से उभर कर सामने आता है - 'नहीं! नहीं!/मैं नहीं हो सकता लोकोत्तर/अपवाद
नहीं
हूँ
मैं
अपनी
दृष्टि
में।/स्वीकार्य
है
मुझे, स्वीकार्य है/हूँ मैं संदेहग्रस्त/केवल
व्यक्ति
नहीं
हूँ
मैं, न आत्मा ही/एक वंश भी हूँ, लोक भी हूँ।/राम/एक
समाज
भी
है/जन्मना-देहधारी।/नहीं
है
राम
का
कोई
व्यक्तिगत
संदर्भ।' राम को चिन्ता है कि किस धरातल पर वह अपने अस्तित्व का स्वीकार करे। जब राम समाज की जीवन-धारा में अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है तब वह व्यक्ति हो जाता है और जब वह स्वयं को व्यक्ति के रूप अपनी पहचान देना चाहता है तब वह समूह बन जाता है। आखिर व्यक्ति और समाज के बीच उसकी अपनी पहचान क्या है? यह प्रश्न राम के भीतर निरन्तर चलता है।
उस द्वन्द्व में जीत राम के रामत्व की नहीं बल्कि राजत्व की होती है। राम अपने कर्त्तव्य बोध को सर्वोपरि स्वीकार करते हैं - 'केवल पति नहीं है राम/है वंश भी/और मात्र वंश भी नहीं/समाज है पूरा।/मूल्य
है
राम।/एक
आस्था
है
ब्रह्माण्ड
की।/
.... नहीं कर सकता राम/स्वीकार/अपना
ही
विग्रह।' लेकिन अगले ही पल राम का अपनी ही आस्था धराशायी हो जाती है और समूचे समाज का प्रतिनिधि राम व्यक्ति राम बन जाता है .... संशयग्रस्त व्यक्ति ... एक सामान्य राम - 'पुरुषोत्तम ही सही/आदमी हूँ मैं/पुरुष हूँ भीतर तक पूरा/कैसे ग्रहण करूँ/सीता को?' राम के भीतर अपने ही अनुत्तरित प्रश्नों से जूझने वाला द्वन्द्व राम के रामत्व को पराजित कर देता है। उसका राजधर्म उसे स्वयं ही युद्ध करने के लिए बाधित करता है - 'मुझे पि र करनी होगी एक तैयार।/पि र
लड़ना
होगा
एक
युद्ध/कितना
अभागा
है
राम।/यह
शान्त, गम्भीर पुरुषोत्तम/कितना
अभागा
है/जिसने
लड़ने
ही
हैं
युद्ध/ज़मीन
हो
या
मनोभूमि।/जिसे
लड़ने
ही
हैं
युद्ध/और
दिखना
है
शान्त, निर्द्वन्द्व
भी।/मुझे
होना
ही
होगा
तैयार/एक
अपरिचित
भूमिका
के
लिए।'
राम के इस अन्तर्द्वन्द्व से अपरिचित सीता को कहीं-न-कहीं इस बात का आभास है कि राम का उसे अशोक वाटिका से लेने न आना राम के राजधर्म के स्वाभिमान के आड़े आता है। इसीलिए वह कह उठती है - 'पर प्रश्न कोई भी हो/कोई भी हो समस्या/एकालाप
में
तो/नहीं
हो
सकता
हल।/और
राम?/क्या समूह ही हैं केवल?' लेकिन राम अपने व्यष्टि को समष्टि में पहले ही समाहित कर चुके हैं - 'यह सिंहासन/बँधा
हूँ
जिससे/प्रतीक
है
समूह
का।/द्वन्द्व
ही
यही
है
राम
का/नहीं
समझ
पाया
वह
आज
तक/कहाँ
वह
व्यक्ति
है
और
कहाँ
समूह!'
सीता अपने अस्तित्व की नहीं समूची स्त्री जाति के अस्तित्व पर उठ आई इस चुनौती से आहत है। राम के पति-धर्म के उत्तदायित्व से मुक्ति को परिवेश का 'सन्नाटा' चुनौती दे उठता है। उदास और विवश 'सन्नाटा' का स्वर गूँजता है - 'किन्तु भले ही कर दे कोई सीता को अकेला/नहीं किया जा सकता/स्त्री
को।/भले
ही
न
जी
पाए
सीता/होकर
सीता/पर
कौन
रोक
सकेता
है
स्त्री
को।/जाग
गया
यदि
स्त्रीत्व
सीता
में/तो
हिल
जाएगी
नींव/रामत्व
की
भी।' राम के इस अविश्वास से कौन प्रसन्न था! विश्वास में पराजय भाव था, उत्तरदायित्व में हीनता बोध था, सन्नाटे में चीख थी, हर्ष में विषाद था ..... सभी राम के समष्टिबोध से आहत थे। राम में अपराध बोध तो है लेकिन वे समष्टि की आस्था के प्रति नतमस्तक थे। सीता उनकी आस्था पर ही प्रश्न उठाते हुए कहती है - 'किसी और पर ही नहीं/अपने आप पर सीखें विश्वास करना राम!/अपने आप पर!/हल तभी है/संबंधों के ताप का।/अपने आप पर सीखें विश्वास करना राम/जैसे करती है सीता।/पार्थिक
अगर
रावण
था/तो
राम
भी
नहीं
है
अपार्थिव।
..... मत बनाओ सीता को याचिका/यूँ मत बिठाओ चौराहे पर सीता को।/सीता पत्नी है।'
राम अपनी व्यष्टि को समष्टि में समाहित करने को आतुर हैं, सीता अपने अस्तित्व की खोज को लेकर चिन्ता में है ..... संदेश, विश्वास, हर्ष, उत्सुकता, सन्नाटा, उद्घोषणा आदि अदृश्य पात्र इन अनसुलझे सवालों के जवाब की तलाश में राम और सीता के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर स्वयं ही संशय में हैं। अग्नि देवत्व का प्रतीक है किन्तु वह स्वयं अपने भीतर के द्वन्द्व से आहत हैं। राम को सीता को स्वीकार करने का आदेश देकर भी अग्नि कह उठता है - 'घुटूँगा स्वयं मैं भी/मैं भी, मृत न्याय के इस अध्याय पर।' सभी के पास अपने-अपने प्रश्न हैं किन्तु उन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं। सभी प्रश्नों से जूझते हुए अपने-अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए द्वन्द्व से ग्रसित हैं ..... और अंतत: राम के स्वीकार्य के उपरान्त भी सीता उसका खण्डित व्यक्तित्व भारी मन से कह उठता है - 'कहाँ जीवित हैं/अब राम भी?/मूर्छित संदेह को लाश सा उठाए/कहाँ जीवित हैं/मेरे राम भी?/यह कैसा समझौता है/दो मृतकों का?/यह कैसा समझौता है विधाता?/आह!'
हिन्दी में काव्य नाटकों की लम्बी परम्परा में 'खण्ड-खण्ड अग्नि' एक अद्भुत काव्य-नाटक है। मनोभावों और चिन्तन बिन्दुओं को पात्रों के रूप में अदृश्य रूप देते हुए भी लेखक ने रंगमंचीयता की सम्पूर्ण सम्भावनाओं को संकेत बिन्दुओं के माध्यम से इस तरह अभिव्यक्त किया है कि वे प्रत्येक पात्र में साकार हो उठते हैं। इस अद्वितीय काव्य-नाटक में दिविक रमेश ने आधुनिक जीवन के विसंगति बोध को जिस तरह से उभारा है वह इस नाटक को प्रासंगिक बना देता है।
'''''
प्रियंका मिश्र
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
विभाग
गार्गी कॉलेज
¼दिल्ली
विश्वविद्यालय½
अगस्त क्रांति
मार्ग
नई दिल्ली-११००४९
[जनकृति के अंक 5 में प्रकाशित]
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