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‘मां सरस्वती’ के वरद् पुत्र अज्ञेय: -अरुण माहेश्वरी



‘मां सरस्वती’ के वरद् पुत्र अज्ञेय

-अरुण माहेश्वरी

आलोचना जब अपने विषय में पूरी तरह डूब कर रह जाती है, कहा जाए, प्रेयस् में खो जाती है, वह आलोचना नहीं रहती, अनालोचना हो जाती है। इस धुन में वह अपने अंदर के उन निहायत औपचारिक से सवालों को भी खो बैठती है कि उसके लिये आखिर विषय की प्रासंगिकता ही क्या है ? कहते हैं कि मनुष्य अपने को ईश्वर में जितना खपाता है, उसका अपना अपने पास उतना ही कम रह जाता है। मजदूर के श्रम का उत्पाद जितना ज्यादा होता है, उसके स्वयं का मूल्य उतना ही कम हो जाता है ।

पिछले दिनों हम जब केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी आदि के साथ ही रवीन्द्रनाथ और रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रसाद, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा आदि के जरिये हिंदी साहित्य के वर्तमान विरूपित से दिखाई दे रहे परिदृश्य पर लिख रहे थे, तभी यह साफ था कि इस परिदृश्य को कभी भी सिर्फ दृश्य में उपस्थित जनों की चर्चा से मूर्त नहीं किया जा सकता है। बल्कि, इसे रूपायित करने के लिये उन तमाम विगत हस्तियों की चर्चा करना भी समान रूप से जरूरी है, जो अपने जीवित काल से लेकर आज तक भी, इस परिदृश्य पर अपनी प्रेतछाया के प्रभाव को बनाये हुए हैं ।

कहना न होगा, हिंदी साहित्य जगत पर ऐसी एक सबसे प्रमुख प्रेतछाया का नाम है - अज्ञेय। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'। चार साल पहले उनका जन्म शताब्दी वर्ष था। उस मौके पर कई आयोजन हुए। उन आयोजनों को देख कर इस लेखक ने एक छोटी सी टिप्पणी लिखी थी -



“सात मार्च 1911 को जन्मे अज्ञेय जी का शताब्दी वर्ष पूरा होगया। हिंदी जगत में उनके लिये श्रद्धा-सुमनों की कोई कमी नहीं रही। अलग-अलग शहरों में कई आयोजन हुए। अखबारों, पत्रिकाओं में कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियां आयीं। उनके निकट के मित्रों, संबंधियों ने एक-दो किताबें भी निकाली। कुछ स्वघोषित ‘सांस्कृतिक दूतों’ के शहर-शहर फेरे लगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि कुल मिला कर यह पूरा वर्ष बिना किसी वैचारिक उत्तेजना और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यग्रता के, एक स्निग्ध और शान्त, तनाव-रहित वातावरण में बीत गया।

“रवीन्द्रनाथ, प्रेमचंद, और मुक्तिबोध तो जाने दीजिये, यहां तक कि तुलसी जयंती भी आज तक सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों पर कुछ वैचारिक उत्तेजना पैदा करती है। लेकिन हाल के वर्षों तक हिन्दी में सबसे विवादास्पद समझे जाने वाले अज्ञेय की शताब्दी कोई मामूली वैचारिक आलोड़न भी पैदा नहीं कर पाये, यह स्थिति किस बात का संकेत है?


“क्या यह अज्ञेय पर, या आज के समय पर, या दोनों पर ही कोई विशेष टिप्पणी है ।

“जिन नामवरजी की अज्ञेय के साथ एक मंच पर उपस्थिति से वैचारिक रक्तपात का कयास लगाया जाता था, उन्होंने भी इस शताब्दी वर्ष में दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थनाएं भर करके अपना काम चला लिया। और जो ‘अज्ञेयपंथ’ का झोला लिये घूमते रहे हैं, उनके पास पहले भी कहने के लिये सिर्फ श्रद्धा और भक्ति ही थी, शताब्दी वर्ष के समारोहों में भी उसीका प्रदर्शन किया गया। वैसे भी, आज के ‘समाजवाद-विहीन’ वैश्वीकरण के युग में अज्ञेय के विचारों के दो प्रमुख फलक, कम्युनिस्ट-विरोध और पूरब-पश्चिम द्वैत वाली पंडिताई के खरीदार कहां बचे हैं! कुल मिला कर इस पूरे साल ‘अज्ञेयपंथ’ और ‘नामवरपंथ’ की खूब छनी। सब कुछ भले-भले निपट गया।

“इस ‘भले-भले’ ने ही आज हमारे लिये यह प्रश्न छोड़ दिया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? किसी जमाने में हिंदी में प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के बरक्स अज्ञेय का प्रयोगवाद (परिमल) विचारधारा के एक दूसरे धुर का मंच हुआ करता था। पचास के दशक के शीत युद्ध के जमाने में एक ओर जहां सोवियत-प्रेरित समाजवाद, जनतंत्र और शांति का आंदोलन था तो दूसरी ओर अमेरिका के तत्वावधान में ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का ‘समाजवादी निरंकुशता’ के खिलाफ ‘विचारधारा की समाप्ति’ के नारे के आधार पर तैयार किया गया पश्चिमी बुद्धिजीवियों का विरोधी मंच था। अज्ञेय जी ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के मंच से जुड़े हुए थे, इसके अनेक साक्ष्य हिंदी में चर्चित हो चुके हैं। किसी भी वजह से प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के साथ निर्वाह करने में असमर्थ लेखकों के लिये परिमल एक अलग मोर्चे की भूमिका अदा कर रहा था। इसीलिये स्वाभाविक तौर पर हिंदी में उस काल की सारी साहित्यिक-वैचारिक बहसों के केंद्र में अज्ञेय हुआ करते थे। लेकिन आज वह सारा विवाद कहां रफ्फू-चक्कर होगया ?


“यही एक प्रश्न किसी को भी आज की साहित्यिक दुनिया के सच पर गहराई से नजर डालने के लिये प्रेरित कर सकता है।

“आजादी के पहले की और शीत युद्ध के पूरे जमाने की बात छोड़ दीजिये। तब वास्तव में दुनिया दो शिविरों में बंटी हुई थी- साम्राज्यवादी और समाजवादी। 80 के दशक तक समाजवादी शिविर की अनेक बुनियादी कमजोरियों और बिखराव के उजागर होने पर भी धरती पर सोवियत संघ की मौजूदगी मात्र से विचारों की दुनिया में शीतयुद्ध का तनाव बना हुआ था। इसीलिये, तब तक भी भारत सहित बहुत से नवस्वाधीन विकासशील देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी गुट-निरपेक्षता, गैर-पूंजीवादी विकास की संभावनाओं के आधार पर जनतंत्र और उसके विस्तार की लड़ाई की एक खास ‘समाजवादी’ दिशा थी। चीन का ‘नया जनवाद’ ढेरों नयी वैचारिक उद्भावनाओं का स्रोत था। हिंदी में तभी प्रेमचंद शताब्दी के दौरान प्रेमचंद को केंद्र में रख कर चंद्रबली सिंह ने ‘आलोचनात्मक’ और ‘समाजवादी’ यथार्थवाद के साथ ही यथार्थ की एक और, तीसरी श्रेणी ‘जनवादी क्रांतिकारी यथार्थवाद’ की अवधारणा रखी। प्रगतिशील लेखक संघ वस्तुत: बिखर गया, लेकिन हिंदी-उर्दू के लेखकों के एक नये संगठन, जनवादी लेखक संघ (1982) का उदय हुआ। जनतंत्र का सवाल केंद्रीय सवाल बना और भारत की जनता की जनतंत्र की लड़ाई के मोर्चे की जो इंद्रधनुषी तस्वीर पेश की गयी उसमें डा. रामविलास शर्मा से लेकर अज्ञेय तक, सबके लिये समान स्थान का आश्वासन था। यह एक अलग विचार का प्रश्न है कि व्यवहार में ऐसा मोर्चा कभी भी संभव हुआ या नहीं हुआ ? जाहिर है कि इस पूरे घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में 1975 का आंतरिक आपातकाल और 1977 में जनता पार्टी तथा तीन राज्यों में वामपंथियों की भारी जीतों के अनुभव की भी बड़ी भूमिका थी।

“ आंतरिक आपातकाल के पहले और बाद के इस दौर में अज्ञेय जीवित ही नहीं, खासे सक्रिय थे। 1965 में वे बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लौट कर तीन सालों तक टाइम्स आफ इंडिया के हिंदी साप्ताहिक ‘दिनमान’ के संस्थापक संपादक की भूमिका निभाने के बाद 1973-74 के दौरान जयप्रकाश नारायण के साप्ताहिक ‘एवरीमैन्स वीकली’ के संपादक (1973-74) रहे और 1977-80 तक नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक का काम संभाला। वह पूरा दौर भारत में जनतंत्र की रक्षा के लिये सबसे तीव्र संघर्ष का दौर था और जयप्रकाश के साथ जुड़ कर अपने अखबारों के जरिये अज्ञेय ने उस पूरी लड़ाई में अपनी एक भूमिका अदा की थी।

“फिर भी आज तक कोई यह प्रश्न क्यों नहीं उठाता है कि जनवादी लेखक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य के इंद्रधनुषी दायरे में अज्ञेय को उनके जीवित काल में कभी क्यों नहीं शामिल किया जा सका ?

"इस एक सवाल के जवाब से जहां प्रलेस-जलेस की विचारधारात्मक प्रतिश्रुतियों और निष्ठाओं की सचाई की परख हो सकती है, वहीं अज्ञेय की भी ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ की वास्तविकता को समझा जा सकता है। कहना न होगा कि आज जहां जलेस-प्रलेस प्रकार के संगठन पार्टी की जकड़नों से बेदम होकर अस्तित्वीय संकट के गह्वर में हांफ रहे हैं, और लेखक क्रमश: जयपुर उत्सव की तरह की साहित्य-मंडियों में अपनी कीमत लगवाने को व्याकुल हो रहे हैं, वहीं अज्ञेय की ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ का भी आज कोई दो-कौड़ी का दाम लगाने के लिये तैयार नहीं है। अज्ञेय शताब्दी वर्ष के आयोजनों की रपटों से तो कम से कम यही जाहिर होता है।

“सचमुच यह एक अनोखी विडंबना है। नामवर का लोप ही अज्ञेय का भी लोप है। ऐसे ही ‘विचारधारा का अंत’ विचार मात्र के अंत का भी सबब बनता है। “

गौर करने की बात यह रही कि तब कोलकाता से नियमित निकलने वाली पत्रिका ‘वागर्थ’ ने अपनी समझ से, अज्ञेय जी की अर्चना-आरती के पवित्र मौके पर ऐसी किसी संशयपरक टिप्पणी के प्रकाशन को अनुचित माना। जिस अखबार में हम अक्सर लिखते थे, उसकी अज्ञेय जी के प्रति प्रतिबद्धताएं इतनी उत्कट थी कि आम तौर पर साहित्यिक अखाड़ेबाजी के आकर्षण के प्रति आग्रही होने के बावजूद प्रात:स्मरणीय अज्ञेय जी पर इतने हलके से उठाये गये सवाल भी उसके लिये ईश-निंदा से कम अपराध नहीं था। अशोक वाजपेयी की तरह के सत्ताधारियों ने अपने में भावी ‘अज्ञेय’ को देखना शुरू कर दिया था और इसीलिये किसी न किसी रूप में सरकारी सहयोग से सांसें लेने वाली बाकी पत्रिकाओं के दरवाजों पर दस्तक देने का साहस नहीं किया जा सकता था। यूपीए टू का जमाना था, वामपंथियों की कतारों में वैसे ही पस्ती थी। पहले से ही साहित्य में विचारधारात्मक संघर्ष के सूत्र छूट जाने से संगठनों की पत्रिकाओं में भी धारा के विरुद्ध चलने का कोई उत्साह नहीं था। फेसबुक की तरह के वैकल्पिक मंच का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था। जुकरबर्ग ने 2004 में फेसबुक के सोशलसाइट को अमेरिका में शुरू तो कर दिया था, लेकिन उसका अन्तरराष्ट्रीय विस्तार 2012 के आईपीओ के बाद ही संभव हो पाया था। हमारा ब्लाग ‘चतुर्दिक’ भी दो साल बाद, 2013 में शुरू हुआ।

इसप्रकार, कुल मिला कर, अज्ञेय, और साथ ही नामवर जी के प्रति भी आलोचनात्मक दृष्टि से लिखी गई एक छोटी सी टिप्पणी के लिये हिंदी जगत के सारे दरवाजे बंद थे। गनीमत थी कि ‘विध्वंसक’ राजेन्द्र यादव जी मौजूद थे। उनके ‘हंस’ में उसे जगह मिली। लेकिन बाकी हिंदी जगत की स्थिति तो यही थी - जैसा कांट के बारे में कहते है - उन्हें सम्राट के खिलाफ मुकदमा चला कर उसे फांसी पर चढ़ाना मंजूर नहीं था, उसे वे खूनी विद्रोहियों द्वारा सीधे सर कलम करने से कहीं ज्यादा अश्लील मानते थे। हिंदी प्रतिष्ठानों के लिये अज्ञेय को गाली दिया जाना मंजूर हो सकता है, लेकिन उन्हें बाकायदा तर्कों से खारिज करने की प्रस्तावना तक को नहीं स्वीकारा जा सकता है। शुद्ध आभिजात्यों के न्यायशास्त्र का शासन था !

शताब्दी वर्ष में अज्ञेय जी के नाम पर साहित्य में असीम-अनंत के संधानियों के ढोल-नगाड़े बजते रहे। हिंदी के सारस्वत पुरुष के लिये मां सरस्वती की आर्तपुकार का व्यापार मजे से चलता रहा। साहित्य अकादमी ने 2012 में अज्ञेय के पत्रों का एक संकलन ‘अज्ञेय पत्रावली’ (सं. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) प्रकाशित कर और ‘रचना संचयनों’ की अपनी श्रृंखला में ‘अज्ञेय गद्य रचना संचयन’ पर काम को शुरू कर, जो अभी 2015 में सवा नौ सौ पन्ने के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ है, शताब्दी के पालन की अपनी औपचारिकताएं पूरी की।

इन सबके बावजूद, समग्रत:, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अज्ञेय शताब्दी वर्ष के बीच से न लेखक अज्ञेय का वैसा कोई पुनर्जन्म हुआ जैसा रवीन्द्रनाथ या प्रेमचंद के शताब्दी वर्षों में उनका हुआ था, और, न ही आधुनिक युग के सवालों पर अज्ञेय के विचार कोई नई दृष्टि देते हुए प्रतीत हुए। अपने जीवित काल में हिंदी साहित्य जगत की वैचारिक टकराहटों के केंद्र में रहने वाला लेखक-विचारक, तीन दशक से भी कम समय में, अपने जन्म-शताब्दी वर्ष के दौरान सिर्फ श्रद्धासुमनों का पात्र रह गया, लेशमात्र रचनात्मक और वैचारिक उत्तेजना का विषय नहीं बन पाया।

हमारा सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ ? क्यों एक समर्थ गद्यकार, कथाकार, उपन्यासकार, कवि, विचारक और यात्रा-वृत्तांतों का प्रभावशाली लेखक अपने किसी भी पात्र, काव्यबिंब, विचार या शैली की विशिष्टता के साथ साहित्य के प्रतिमानों की किसी गंभीर चर्चा के केंद्र में नहीं दिखाई दिया ? उनको लेकर यदि कुछ चीजों पर चर्चा हुई तो वे थी उनका कथित ‘अति-व्यस्त’ जीवन , उनकी संपादन योजनाएं, स्वदेश-विदेश यात्रा की योजनाएं, संगोष्ठी, साहित्यिक आयोजनों, जानकी यात्रा, भागवत भूमि यात्रा, वत्सल निधि और लेखक शिविरों की। खुद अज्ञेय ने 1943 में ही ‘तारसप्तक’ की भूमिका में अपने को ‘योजना-विश्वासी’ के रूप में बदनाम बताया था।‘अज्ञेय पत्रावली’ की भूमिका में विश्वनाथ तिवारी भी बताते हैं, ‘‘अज्ञेय के पत्रों से जाहिर है कि उनका जीवन एक अति व्यस्त लेखक का जीवन था।’’ अज्ञेय की कविताओं में बार-बार आने वाला एक लगातार, अनथक रूप से दौड़ती, छटपटाती, तड़पती ‘सोन मछली’ का आत्म-बिंब ही इस शताब्दी वर्ष के आयोजनों के प्रमुख प्रतीक के रूप में सामने आया। छ: पंक्तियों की उनकी कविता ‘सोन मछली’ को खूब सुना गया - ‘‘हम निहारते रूप,/ कांच के पीछे/ हांप रही है मछली।...’’

अज्ञेय ने अपने साहित्यिक जीवन में ‘समाजवादी निरंकुशता’ के खिलाफ ‘आधुनिकता’ का, व्यक्ति-स्वतंत्रता का झंडा उठाया था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि शेखर और भुवन जैसे पात्रों से मुखरित अज्ञेय का जीवन-दर्शन पश्चिम की आधुनिकतावादी काफ्कानुभूति या किसी अस्तित्वीय संकट की छटपटाहट या पीड़ा का दर्शन नहीं था। अज्ञेय कहीं से भी आधुनिक जीवन के तनावों को नहीं जीते थे। शुरू से उन्हें अपने आत्म में झांकने से परहेज था, क्योंकि उनका विश्वास था कि ‘‘अपने को बहुत अधिक जानने से कोई लाभ नहीं होता, केवल क्लेश-ही-क्लेश होता है।’’(‘चिन्ता’ की ‘छाया-कथा’ से) वे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की भाव-भूमि पर अपने को हमेशा ‘असीम’ की देहरी पर, तृप्त श्रद्धालीन, श्रद्धासीन भाव के साथ जीते थे। एक आततायी दुनिया में विखंडित अकेले आदमी के यथार्थ और तनावपूर्ण आधुनिक भाव बोध से वे कोसों दूर थे। वैसे भी किसी ‘योजना-विश्वासी’, उत्सवधर्मी, तीर्थ यात्री, आयोजन-प्रिय लेखक का उस आधुनिकता बोध से कोई जैविक संपर्क हो भी नहीं सकता था, जिसने ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के मंच को एक वैचारिक संगति का आधारप्रदान किया था और दुनिया के कई बड़े-बड़े लेखकों को भी अपनी ओर खींचने में सफल हुआ था। कहना न होगा, अज्ञेय का इस मंच से संपर्क जितना उनका नैसर्गिक चयन नहीं था, उससे कहीं ज्यादा नितांत स्थानीय, स्वार्थपूर्ण और प्रगतिशील लेखक संघ के विरोध में अपना एक मंच तैयार करने के निजी आग्रह का परिणाम था।

अन्यथा, उत्सवधर्मिता को रचनाधर्मिता के विरुद्ध तो मुक्तिबोध मानते थे, अज्ञेय नहीं ! आधुनिकतावादी व्यक्तिवाद और उत्सव-आयोजन - ये दो पूरी तरह से अलग-अलग धाराएं है, किसी सरल रेखा के दो छोर नहीं। इनमें क्या काम्य है और क्या त्याज्य, इसप्रकार का मूल्य-निर्णय एक दीगर सवाल है। लेकिन यह साफ है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के इतिहास के एक क्रूरतम अनुभव के बाद व्यर्थता के यथार्थबोध की बेचैनी से अज्ञेय का कोई संबंध नहीं था। उनका हिंदी आलोचना में बार-बार दोहरायी जाने वाली इस निराधार, बल्कि कोरी वितंडावादी धारणा से कोई संपर्क नहीं था कि ‘आधुनिकतावाद’ का अंत अंतत: पोंगापंथी परंपरावाद के गर्त में ही होता है। उल्टे, अंत तक जाते-जाते तो उनका प्रत्यावर्तन सन् 1912-13 के ‘मैथलीशरण गुप्त’ की ‘भारत-भारती’ की संवेदना में होता है। यह एक प्रकार से भारत के ‘युगांतरवादी’ क्रांतिकारियों के पुनरुत्थानवाद का भी प्रत्यावर्तन था। इस अर्थ में अज्ञेय छायावादी युग की संवेदना और भाषाई संस्कार में शायद कुछ भी नया नहीं जोड़ पाये थे। 

बहरहाल, प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक ‘संवाद’ के लेखों में अज्ञेय के बारे में लिखते हुए यही केंद्रीय सवाल उठाया था कि ‘‘अज्ञेय अन्तर्मुखी रचनाकार है। तब वे सप्तकों का संयोजन और पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन वगैरह कैसे कर सके ? ’’

उन्हीं दिनों हमने श्रोत्रिय जी के सामने एक प्रतिप्रश्न रखा था कि ‘‘क्या अज्ञेय और पीडि़त जनता की अन्तर्मुखता एक है ? क्या एक शोषित-पीडि़त इंसान द्वारा अपने भौतिक जीवन में पराजयों से निपटने के लिये अपने अन्तर में नैतिक विजयों के रचे जाने वाले समर-आयोजनों का अज्ञेय के किसी भी ‘भीतरी संघर्ष’ से कोई मेल है ? और क्या चंद ‘सुशिक्षित’, ‘संस्कृतिवान’, शक्तिशालियों के साथ मिल कर किये जाने वाले वैभवपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों का उनकी कथित अन्तर्मुखता से कोई मूलभूत विरोध है ? (साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार, अरुण माहेश्वरी़, पृष्ठ - 122)

अज्ञेय सोलह साल की उम्र में क्रांतिकारियों के संपर्क में आगये थे। 1930 में जब उन्नीस के थे, पहली बार गिरफ्तार हुए, फिर 1931-33 तक जेल की कालकोठरी में बंद रहे। जेल में लिखी गई उनकी छ: कहानियों का जो पहला संकलन ‘कोठरी की बात’ प्रकाशित हुआ, उसकीपहली कहानी है - ‘छाया’। जेल के वार्डन के मुंह से कही गयी क्रांतिकारी अरुण की साथी सुषमा की फांसी की कहानी। अरुण खुद उस फांसी का साक्षी बनता है - मृत सुषमा के मुंह की ओर देर तक देखते हुए ‘बहुत धीमी, कांपती आवाज में बोला, शारदा तुम्हारी जीत हुई’। जेल का डाक्टर सुषमा के शव को दफ्तर ले जाकर ‘पब्लिक’ को सौंप देने की बात कहता है, तो अरुण बोलता है -‘पब्लिक !’

‘वह फिर बोला, ‘पब्लिक’!’

‘‘फिर एक डरावनी हँसी हँसा... और बोला ‘चलो।’ (कोठरी की बात, प्रथम संस्करण, पृष्ठ - 29)

‘छाया’ के बाद ही इस संकलन की दूसरी कहानी है - ‘द्रोही’। इसमें कथा नायक कहता है - ‘‘जबसे मैं बंदी हुआ हूं मेरा आत्म-संयम टूट-सा गया है। मैं क्षण भर भी अपने मनोवेग को थाम नहीं सकता! बेलगाम घोड़े की तरह वह मुझे जिधर चाहता है, लेकर भाग जाता है। और मैं डर कर उससे चिपट कर बैठा रहता हूँ कि कहीं गिर न पड़ूँ उसे रोकने का प्रयत्न करने के लिए मेरे हाथों को अवकाश ही नहीं मिलता।

‘‘मैं द्रोही हूँ ? कौन कहता है ?

‘‘मैंने एक बार, एक अस्थायी जोश में आकर, राजद्रोह करने का और करवाने का बीड़ा उठाया था। पर यह तो यौवन की एक उमंग थी, हृदय का एक उद्गार था। उमंग आई और चली गई, उद्गार उठा और मिट गया। उस एक बात के लिए क्या मै सदा के लिए द्रोही होजाऊंगा ? और फिर उसका समुचित प्रायश्चित भी तो कर रहा हूँ। जो आग मैंने सुलगाई थी, क्या उसे बुझाने में सरकार की भरसक सहायता नहीं कर रहा हूँ ?

‘‘देशद्रोह !

‘‘नहीं, यह देशद्रोह नहीं है। जो बीज मैंने बोया था, उससे अगर पौधा अच्छा नहीं लगा, तो क्यों न मैं उसकी जड़ काटूँ, क्यों न उसे उन्मूल उखाड़ फेकूँ और नये वृक्ष के लिए स्थान बनाऊँ।’’ (वही, पृष्ठ 37-38)


जेल से निकलने के बाद सन् 1935 की अज्ञेय जी की कविता है - ‘‘क्या मेरे कर्मों का संचय मुझको चिंता छूट गई है-/ मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिसकी प्रत्यंचा टूट गई है !’’

जेल में ही अज्ञेय जी की ‘कोठरी की बात’ की कहानियों, ‘भग्नदूत’ और ‘चिंता’ की कविताओं की रचना के अलावा ‘शेखर : एक जीवनी’ का भी पहला मसौदा तैयार हो गया था। जीवन से ‘द्रोह’ नामक चीज हमेशा के लिये विदा हुई। द्रोह के दाग से पूरी तरह मुक्त नये अज्ञेय, शेखर की तरह की तमाम उलझनों को भी परे रख कर ‘नदी के द्वीप’ के भुवन में स्वछंद जीवन के उच्छवास को भरपूर जी लेने की अनंत कामना के साथ अवतरित हुए। कहना न होगा, मछली की छटपटाहट और हांफनी के मूल में उसकी ‘रूप तृषा’ है, किसी अस्तित्विीय संकट का भाव बोध नहीं !

अज्ञेय ने स्वतंत्रता आंदोलन से नाता तोड़ा, द्वितीय विश्वयुद्ध में ‘पिपुल्स वार’ की सैद्धांतिकता ने ब्रिटिश शासकों के कोप से दूर रखा और वे प्रगतिशील लेखक संघ के भी संपर्क में आएं। रेडिकल ह्यूमेनिस्ट एम. एन. राय ने उन्हें गांधी से अलग रहने के तर्क दिये, आजादी के ठीक बाद, जब कम्युनिस्टों ने ‘यह आजादी झूठी है’ का नारा दिया और भारत सरकार के क्रूर दमन को निमंत्रित किया, तब तक अपने ‘तारसप्तक’(1943) में मार्क्सवादियों के साथ निबाह करने में सक्षम अज्ञेय प्रलेस के विरुद्ध ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के भारत-दूत बन चुके थे। सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के पहले तक ‘दिनमान’ के यशस्वी संपादक जयप्रकाश नारायण के ‘एवरीमैन्स’ से शुरू के सिर्फ पांच महीने जुड़े रहे और बिहार आंदोलन के पहले ही दिसंबर 1973 में उससे त्यागपत्र दे दिया। सन् ‘75 में आंतरिक आपातकालकी घोषणा के बाद तो एक लंबे अर्से के लिये जर्मनी के हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में जा बसे।

कहने का मतलब यह है कि जिस धनु की प्रत्यंचा तीस के दशक में ही टूट गई थी, वह फिर किसी युद्ध के मैदान में नहीं चढ़ी। ‘‘मेघाच्छन्न आकाश, प्रकाशहीन सांयकाल, पवन अचंचल, चंचला की अदृश्य और उड़ते-उड़ते सहसा पंख टूट जाने से विवश गिरता हुआ अकेला-ही-अकेला, एक पक्षी जो गिरता है और फिर अपनी उड़ान, अपना स्थान पाने के लिये छटपटा रहा है, छटपटा रहा है‘‘। ‘शेखर एक जीवनी’ में युयुत्सु भाव को ‘वय:संधि’ की छटपटाहटों के तौर पर तिरोहित कर अज्ञेय का तनावों से विरेचित, अनंत कामनाओं से भरे आभिजात्य मनुष्य के रूप में नया जन्म हो चुका था। जहां तक वैचारिकता का सवाल है, वह तो उनकी बची-खुची पहचान के भी लोप का कारण बनी। वह अपने मनोविज्ञान पर अन्यों के जैसा दिखने के लिये चढ़ाया गया नकाब था। जैसे हम देखते हैं, मोदी के प्रचार में सबकों मोदी के चेहरे का नकाब पहना कर व्यक्तित्व-शून्य, यकसां बना दिया जाता है। आदमी की क्षुद्रता और उदात्तता की सारी विशिष्टताएं इस सामूहिक-पहचान में छिपाई जाती है।

‘शेखर’ के बारे में अज्ञेय जी कहते हैं कि यह एक घनीभूत वेदना की केवल एक रात में देखे हुए (vision) को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न है। प्रसाद जी की घनीभूत पीड़ा दुर्दिन में आंसू बन कर आती है। और अज्ञेय जी की घनीभूत वेदना जीवन के थोथे दार्शनिक विलास, स्व-विरोधी बातों के उन्मादित-विमर्श के एक ऐसे दुखांत की विडंबना के साथ आती है जिसका अंत बेहद नीरस, कोरी ढर्रेवरता की वापसी में होता है - भारतीय दर्शन के नीरस दुखांत की विडंबना की तरह जिसकी तमाम धाराएं शंकर में समाहित होकर कोरे कर्मकांडों में पर्यवसित हो जाती है। जिसमें आगे भक्ति और तत्व मीमांसा एकमेक हो जाते हैं।

स्लावोय जिजेक ऐसे ही एक प्रसंग में शेक्सपियर के नाटक Troilus and Cressida के पांचवे अंक के दूसरे दृश्य के इस अंश को उद्धृत करते है:

O madness of discourse,

That cause sets up with and against itself !

Bi-fold authority ! where reason can revolt

without perdition, and loss assume all reason

Without revolt

(आह, विमर्श का पागलपन,/ कर्ता खुद के साथ और खुद के खिलाफ सामने आता है/ दोहरी हैसियत ! जहां विवेक विद्रोह कर सकता है/ बिना विनाश के, और विनाश सारे विवेक को धारण कर लेता है/ बिना विद्रोह के)

इस नाटक के संदर्भ में ये पंक्तियां ट्रौयलस की उन स्व-विरोधी दलीलों के बारे में है जब ट्रौयलस को क्रेसीडा की बेवफाई का पता चलता है ; वह जो कहना चाहता है एक ही सुर में उसके पक्ष और विपक्ष की सारी दलीलें देने लगता है; उसके तर्क उसकी खुद की दलीलों के खिलाफ होते हैं लेकिन उन्हें खारिज नहीं करते, उसकी अतार्किकता तर्क को बिना खारिज किये तर्क का रूप लेने लगती है। एक कर्ता जो खुद अपने खिलाफ काम करता है, एक तर्क जो खुद के अस्वीकार से जुड़ जाता है।

दरअसल, आदमी की आत्म-स्वीकृतियां जितनी अधिक बेलाग और बेलौस होती है, अपनी विसंगतियों पर वह जितना अधिक आत्म-विश्वास के साथ मुखर होता है, वह उतना ही अधिक मिथ्याचार भी कर रहा होता है। उनसे व्यक्ति के अंतरजगत की कोई जानकारी नहीं मिलती। वस्तुत: उसके पास कहने जैसा कुछ होता ही नहीं है। आदमी का आत्मोत्थान तो आत्म-विवर्तन है, उसकी अन्तर्निहित विसंगतियों की देन। वह स्व के दो बाह्य, अजैविक विलोमों के कृत्रिम द्वंद्वों से रूपायित नहीं होता। आखिरकार, शून्य में शून्य का जोड़, घटाव, गुणा, भाग - सब शून्य ही होता है।

अज्ञेय की समग्र बौद्धिक बुनावट में उनके जीवन और मानस के इस पहलू की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। जीवन का यही दंश है जिसकी वजह से ‘हांफती हुई इस सोन मछली’ को फिर कभी कोई ऐसा संगतिपूर्ण वैचारिक ठौर नहीं मिल सका, जिसके संदर्भ में एक आधुनिक विचारक के रूप में उनकी कोई अपनी स्वतंत्र पहचान बनें, अर्थात जो उन्हें व्यग्र करें, कुछ नया कहने के लिये प्रेरित करें।

अज्ञेय परिभाषित होते रहे कम्युनिस्ट-विरोध की नकारात्मकता से। यदि उनके अवचेतन को टटोले, खोजे कि उनकी सोच में दमित क्या है, तो वह कोई ‘स्वतंत्रता’ का तत्व नहीं है। यह तो उनका घोषित नारा था, बिल्कुल प्रकट, एक बार-बार दोहरायी गयी बात। और इसीलिये शायद सबसे अधिक खोखली बात भी। महज एक नियम, एक औपचारिकता! अज्ञेय में जो सर्वत्र है, लेकिन दमित है - वह है प्रगतिशीलता का विरोध, साहित्य के केंद्र में साधारण आदमी की स्थापना पर टिके यथार्थवाद का विरोध, ‘प्रेमचंद’ का विरोध, जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्धता का विरोध - जो छिपे-ढके ढंग से आता है, डंके की चोट पर नहीं। प्रेमचंद शताब्दी पर अज्ञेय अपने लेख ‘उपन्यास सम्राट’ में संकेतों से इस ‘सम्राट’ की कोरी ‘किस्सागोई’, उसके लेखन में ‘सघन संरचना का अभाव’ की तरह की बातों से उनकी अनाधुनिकता और लघुता को जिस प्रकार उठाते हैं, वह है उनके सोच का दमित पहलू, अवचेतन में बैठी उनके विचारों की एक प्रमुख संचालक शक्ति।

इसीलिये, जैसा कि शुरू में ही कहा गया है - ‘नामवर का लोप अज्ञेय का भी लोप है’। आदमी की कामनाओं की अमूर्तता अक्सर किसी नकारात्मकता के जरिये ही मूर्त होती है, उसके किसी अभाव की पूर्ति के लिये नहीं। कामना अभाव का पर्याय नहीं है। अभाव का बोध व्यग्रता और संघर्ष की चेतना पैदा करता है, कामना सिर्फ विलास की लालसा। अज्ञेय का लेखन इसी लालसा की फैंटेसी है।

तथापि, अंतिम दिनों में जब वे अपनी कुछ ग्रंथियों से मुक्त हुए, कामनाओं की ज्वाला शांत हुई तो ‘विद्रोह‘ और ‘क्रांति’ की तरह के विषयों पर इतना जरूर कह पाये कि ‘‘इनके बारे में जरूर कुछ सोचने को है। सोचने को है तो कहने को भी होगा। लेकिन ...इनकी जो परिकल्पना ‘शेखर : एक जीवनी’ के चरित-नायक की थी वह आज मेरी नहीं है, इतना तो जरूर कह सकता हूं। रोमानी भावना का मुलम्मा काफी-कुछ उतर चुका है।‘‘ और मार्क्स की कही इस बात को कि ‘‘ स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है", वे अपने ढंग से कहते हैं कि ‘‘मानव की स्वाधीनता मानव मात्र की होने के कारण अविभाज्य है: किसी एक की स्वाधीनता को विक्षत या सीमित कर के दूसरे की स्वाधीनता नहीं बढ़ायी जायेगी।’’(‘जोग लिखी’ में संकलित विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, परमानंद श्रीवास्तव तथा केदारनाथ सिंह से 1975 में की गई बातचीत से)

हिंदी में अज्ञेय जी की चर्चा अक्सर एक मनीषी विचारक के रूप में ज्यादा की जाती है। वे खुद भी, इसको लेकर काफी सतर्क रहने की कोशिश करते थे। विश्वनाथ तिवारी ने बताया है कि कैसे अपने व्याख्यानों को लेकर वे सजग रहते थे। फिर भी उनका रूझान किसी शोधकर्ता या प्रवर्त्तक का नहीं था। प्रवर्त्तक जीवन में परिवर्तनों को निश्चित भविष्य-दृष्टि से अर्थ प्रदान करता है। उसके सोच में तर्क की एकसूत्रता दिखाई देती है। अज्ञेय तो युगीन विचारधारा के एक ऐसे कनस्तर थे जिसमें समय की असंतुलित, अलौकिक, रहस्यमय विचित्र संरचनाएं छिपाई जाती है। असंगतियों का सम्मिश्रण ही इसका आकर्षण होता है, जो कोई प्रभावी सामाजिक भूमिका अदा करने के लिये हमेशा तमाम विसंगतियों से मेल बैठाता है। यही उनके प्रति सांस्थानिक साहित्य जगत के स्वीकार का एक रहस्य भी है। इसकी सही पड़ताल उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक अज्ञेय को उन्हीं के मानदंडों पर मापने का काम जारी रहेगा। लेखक को उसके मापदंड पर मापने की तरह ही एक जरूरी काम उसके मापदंडों को दुरुस्त करने का भी होता है। अगर हेगेल को हेगेल के मानदंडों पर ही मापा जाता रहता तो फिर उस द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की कोई संभावना ही नहीं बनती जिसने हेगेल को, जो सिर के बल खड़ा था, पैर के बल खड़ा किया।

‘अज्ञेय’ की पुस्तक ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’ के लेखों को थोड़ी सजगता से देख लीजिये, असंगतियों का पिटारा होने का हमारा आरोप प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखेगा। 1976 में प्रकाशित यह किताब उनकी कुछ वर्ष पहले की किताब ‘‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’’का नया संस्करण है। पहले की किताब के लेखों के अलावा इसमें एक ही नया लेख जोड़ा गया था - ‘भाषा और अस्मिता’। इस लेख के योग से उन्होंने अपनी पुस्तक की उपयोगिता को नवीनता प्रदान की है, ऐसा उनका मानना था। आईये, हम इस एक, पंद्रह पेज के नये लेख को ही लेते हैं।

इस लेख की शुरूआत वे जापानी भाषा में ‘मानव’ शब्द के न होने की उस बात से करते हैं जिसे उन्होंने बाद में ‘जोग लिखी’ के अपने लेख ‘आंखों देखी और कागद लेखी’ में भी दोहराया है। बताते हैं कि जापान में मानव शब्द जिन दो धातुओं से बना है उनका अर्थ होता है ‘मानवीय मध्यवर्ती’। और इसके साथ ही फिर उनकी कोरी अटकलपच्चियों का जो दौर शुरू होता है कि अंत तक आते-आते यह लेख बेसिर-पैर की बातों की बेस्वाद खिचड़ी का एक क्लासिक उदाहरण बन जाता है। जिस लेख से वे अपने पूर्व-संकलन को एक नया रूप दिये जाने का दावा कर रहे थे, वही शायद हिंदी में उनका सबसे कम समझा गया लेख होगा !

इसमें एक जगह ‘अमेरिकी बृहत्पूजा’ के सिलसिले में अनायास ही पण्य के मूल्य के निर्धारण में काम करने वाली कोरी अतार्किकता की मार्क्स की बात भी आ जाती है। ‘‘दाम के बारे में तो स्थिति और भी विचित्र है। आप कोई चीज उसके दाम पर नहीं खरीदते...आपको जो कुछ दिया जाता है एक ऐसे परिमाण या आधार की अपेक्षा में दिया जाता है जिससे आपका कोई साक्षात्कार नहीं होता - और न हो सकता है क्यों कि उस परिमाण या प्रतिमान का अस्तित्व ही नहीं है। आप जिस संसार में रहते हैं उसी को सापेक्ष कर दिया गया है।’’

भाषा और अस्मिता के प्रसंग में पूरे पंद्रह पेज तक बिना किसी संगति की ऐसी तमाम बातों को कहते हुए अंत में आते-आते अज्ञेय लिखते हैं - ‘‘भाषा की बात को शायद अधिक तूल दे दिया गया है। लेकिन दूसरी ओर यह भी उतना ही स्पष्ट है कि पूरी बात नहीं कही गयी है।’’ ‘मानव मध्यवर्ती’ की जिस रोमांचक बात से लेख शुरू होता है, अंत में उसे ही यह कह कर बेकार करार देते हैं कि ‘‘शायद इस नाम के उत्तरार्ध से तत्काल उलझना उतना आवश्यक नहीं है’’, और लेख का समापन इस आप्त वाक्य से होता हैं कि ‘‘भाषा के आविष्कार में मानवीय अस्मिता का आविष्कार होता है : उसकी सृष्टि होती है।’’

यह है हमारे चिंतक मनीषी का चिंतन ! भाषा जिसकी तुलना नदी के प्रवाह से की जाती है, जो अपने क्रिया पद, सर्वनाम, अव्यय और प्रत्यय-विभक्तियों से अपनी विशिष्टता बनाये रखती है, संज्ञा पदों, विशेषणों और प्रत्ययों से नहीं। वह राष्ट्रीय अस्मिता का एक प्रमुख तत्व होने पर भी, आज बहु-भाषी राष्ट्रीयता भी उतना ही बड़ा सच है। इसीलिये इस विषय में कोरी अंधश्रद्धा वाली बातों का कोई औचित्य नहीं है।

मजे की बात यह है कि बारीकी से देखने पर जिन अज्ञेय की चिंतन प्रणाली में किसी भी प्रकार की संगति और तर्क का सर्वथा अभाव दिखाई देता है, उनके बारे में ही हिंदी में धारणा यह है कि ‘‘उनके चिंतनपरक निबंधों में एक दार्शनिक - बल्कि वैज्ञानिक की तर्कपद्धति का पूरा इस्तेमाल है’’। (संचयिता, अज्ञेय, राजकमल प्रकाशन, संपादक नंदकिशोर आचार्य की भूमिका, पृ: xxxi)

दरअसल, तर्क तो चिंतन की महज कोई यांत्रिक पद्धति नहीं है। विचार में उसकी अपनी एक तात्विक महत्ता भी होती है। वह व्यक्ति के विचार के सार-तत्व तक को प्रभावित करता है। हेगेल अपने Science of Logic में बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं कि तर्क को शुद्धविवेक की प्रणाली समझना होगा, शुद्ध विचार का क्षेत्र । यह सच का क्षेत्र है, क्योंकि इसपर कोई आवरण नहीं है, यह दिगंबर है। इससे जुड़ी चिंतन प्रणाली में विषय का प्रारंभ ही उचित-अनुचित के अवबोध पर टिका होता है।

हमारे यहां तो तर्क की तात्विक-सत्ता का सबसे बड़ा और चिरंतन उदाहरण है रवीन्द्रनाथ, जो रचना और विचार के हर कदम पर अपने गहन औपनिषदिक चिंतन की रहस्यवादिता की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। उनके औपनिषदिक संस्कार किसी अंध आत्म-गौरव के नहीं, चिंतन की गहराई और जड़सूत्रों से मुक्ति के हेतु बनते हैं तो इसके मूल में तर्क की यही तात्विकता है। यह तर्क ही है जो किसी यथार्थवादी लेखक को अपने विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों की सीमाओं से परे जाकर देखने की दृष्टि देता हैं।

दरअसल, अगर हम थोड़ी गहराई से, इधर-उधर देखते हुए सोचे तो अज्ञेय की कथित ‘तार्किकता’ (वस्तुत: अतार्किकता) के रहस्य के सूत्र कहीं और ही दिखाई देंगे। यह एक प्रकार की सापेक्ष तार्किकता है। हिंदी साहित्य में दक्षिणपंथी अध्यापकीय दुरात्माओं की उस दुनिया की सापेक्षता, जिन्होंने आनंदवर्द्धन और उनके रस-सिद्धांत का चर्वण करते हुए भी जिस चीज को सबसे अधिक गंवाया था वह वही सहृदयता है, जिसे रस सिद्धांत में ही न सिर्फ रचनाकार के लिये, बल्कि ग्राहक पाठक और विवेचक के लिये भी जरूरी माना गया है। शुक्ल जी के जमाने से ही वह दुनिया डंके की चोट पर नये साहित्य की प्रत्येक उद्भावना को दुत्कारती रही है। उसके लिये जो चला आ रहा है, उसकी सनातनता ही उसका आकट्य तर्क है। हर नया, रचनात्मक प्रयत्न शुद्ध विध्वंस है। इसीलिये प्रगतिशील रचनाकार तो उसे कभी फूटी आंखों नहीं सुहाते थे। दूसरी ओर, साहित्य की तमाम प्रवृत्तियों को अपनी सेवा में लगाने का ‘अध्यापकीय प्रगतिशीलों’ के विचारधारात्मक उन्माद का भी अपना एक पहलू था। उसमें भी हर व्यक्ति किसी अभियान के एक यंत्र के पुर्जे से अधिक कोई महत्व नहीं रखता था। इसने मुक्तिबोध सहित रचनाकारों के एक अच्छे खासे तबके का सांस लेना दुष्कर कर रखा था। विचारधारा की जड़सूत्रता कम अतार्किक नहीं होती !

इनके बीच, अज्ञेय का किंचित खुलापन यदा-कदा कई सच्चे लेखकों को आकर्षित करता था। तारसप्तकों से लेकर ‘प्रतीक’ और ‘नया प्रतीक’ की योजनाओं से कई नये प्रतिभाशाली रचनाकार जुड़े। लेकिन, अज्ञेय में वे सारे तत्व मौजूद थे, जो डा. नगेन्द्र से लेकर विद्यानिवास मिश्र तक के दक्षिणपंथी अध्यापकीय सनातनपंथियों को आश्वस्त करते थे। उन्होंने जैसे-जैसे अज्ञेय को अपनाया, अज्ञेय यायावर से तीर्थयात्री में बदलते चले गये।

इसी सिलसिले में हम, अज्ञेय की सर्वोत्कृष्ट मानी गयी रचना ‘असाध्य वीणा’ को ही लेते हैं। वीणा-वंदना की लंबी कविता, संवेदना के स्तर पर निराला की ‘वर दे वीणा वादिनी’ के धरातल पर ही टिकी हुई।

इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है कि वज्रकीर्ति द्वारा अति प्राचीन किरीट तरु से गढ़ी गई एक ‘मंत्रपूत वीणा’ को साधक प्रियंवद को बजाना है। कविता शुरू होती है इस विकट वीणा के गढ़न की रहस्यमयता के बयान से। वीणा देख विह्वल साधक तमाम संशयों से भरा इसे गोद में उठाता है।

अज्ञेय लिखते हैं - ‘‘मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-/ नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था। / सघन निविड़ में वह अपने को / सौंप रहा था उस किरीट तरु को।’’

यहीं से शुरू होता है अज्ञेय का अपना जीवन-दर्शन। साधक प्रियंवद स्वयं के शोधन के लिये अपने अन्तर में झांक कर अपने अंत:सार के विवर्तन की ओर, अपनी सीमाओं, अपनी विसंगतियों से मुक्ति के आत्म-संघर्ष की ओर बढ़ने के बजाय, वह बाहर के, अन्य के अन्त:सार की, वीणा ही नहीं, उसके मूल तत्व, किरीट तरु की वंदना करने लगता है। और इस प्रकार वीणा के साथ भक्त और भगवान वाला एक गहन रिश्ता कायम करता है।

व्यक्ति के चिंतन में हर चीज का स्वरूप उसके विलोम के जरिये उत्पन्न होता है। अभेद भेद के जरिये, प्रत्यक्ष परोक्ष के जरिये, रूप सारतत्व के जरिये। कहां जा सकता है, किसी अन्य के जरिये। लेकिन जब प्रश्न आत्म-उत्थान के स्वरूप का हो, तो वह कभी सीधे किसी अन्य के जरिये, यहां तक कि परिवेश के जरिये भी प्रकट नहीं होता है। इसमें आदमी खुद को ही प्रकट करता है, अपनी विसंगतियों से जूझते हुए अपना ही पूर्ण विवर्तन करता है। अर्थात यह पूरी तरह से व्यक्ति का अन्तर्निहित उपक्रम होता है। अपने अन्तर के असाध्य को साधने की प्रक्रिया बाहरी अन्य की वंदना नहीं हो सकती। यह तो धर्म की तरह की कोरी आत्म-प्रवंचना है।

इसीलिये प्रियंवद स्वयं के शोधन की बात के दूसरे क्षण ही जब वीणा के मूल ‘किरीट तरु’ की ओर उन्मुख हो जाता है, यह जानते देर नहीं लगती कि प्रियंवद अपने अंतर में झांकने से सख्त परहेज करने वाले अज्ञेय का ही एक प्रतिरूप है। मुक्तिबोध होते तो इस असंभव चुनौती में उत्तीर्ण होने के लिये गहरे आत्म-संघर्ष की, अपनी सामथ्‍र्य के विकास के घनघोर उद्यम के जंजाल में फंस जाने की कहानी कहते। लेकिन अज्ञेय इस प्रकार के आत्म विकास के किसी उत्कट आत्म-संघर्ष के बजाय घंटा-घडि़यालों के साथ भगवान की पूजा-अर्चना का पवित्र वातावरण रचते हैं।



आगे की कविता किरीट तरु की अर्चना और भगवान के दर्शन, अर्थात वीणा के बज उठने की आर्त-पुकार की कविता है।



‘‘मैं तुझे सुनूँ/ देखूँ ध्याऊँ/ अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :/ कहाँ साहस पाऊँ/ छू सकूँ तुझे !’’

एक ही लालसा है कि साधक के बिना किसी उद्यम के, वीणा पर बिना किसी आघात के ही वह बज उठे।

‘‘किस स्पर्घा से/ हाथ का आघात/ छीनने को तारो से/ एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में/ स्वयं न जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए।’’

रचना के प्रयत्नों से दूसरों के प्राण रच गए, लेकिन प्रियंवद को बिना प्रयत्न के वीणा का वरदान चाहिए! इसी से जाहिर है कि प्रियंवद के ‘स्वयं के शोधन’ की शुरू की बात कोरी मिथ्या थी। वीणा में संगीत की रचना से उसमें अपने किसी रचाव का कोई आग्रह नहीं है। वह तो राजा का कृपाकांक्षी है। याचक है। कहता है –

‘‘तेरी लय पर मेरी सांसें/ भरे, पूरें, रीतें, विश्रांति पायें। / तू गा:/ मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा/ स्मृति का/ श्रुति का -’’

और यह ‘स्मृति’ क्या है ? एक भरे-पूरे जीवन की फंतासी। ‘स्तब्ध विजड़ित करते चित्रों का संसार’।

कहना न होगा, फंतासी हमेशा आदमी की कामनाओं और उनकी पूर्ति के लिये प्रयत्नों के बीच की दीवार होती है। उद्यम तो यहां कवि के लिये भारी आतंक है।

‘‘हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको सोख-/ वायु सा नाद में उड़ जाता हूं/ मुझे स्मरण है-/ पर मुझको मैं भूल गया हूं।’’

‘‘मैं नहीं, नहीं, मैं कहीं नहीं/ ओ रे तरु! ओ वन!/ ओ स्वर संभार।’’
जो खुद को याद तक नहीं करना चाहता, वह खुद का शोधन करेगा !

जो भी हो, अंत में भक्त की पुकार पर भगवान का अवतार हो जाता है। वीणा बज उठती है। चारो ओर से मंगल ध्वनियां, शंखनाद शुरू हो जाते हैं। राजा खुश और प्रियंवद - रानी की सतलड़ी ले - ‘तेरा तुझको अर्पित’ का वीतराग सुनाता हुआ लौट जाता है।

कविता की अंतिम सारवान पंक्ति है - ‘‘प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी / मौन हुई।’’

कहना न होगा, सब कुछ यूं ही घटता गया और दैव योग से ही निरुद्दम, हमारे मित्र नीलकांत जी की शब्दावली में, मृत सौन्दर्य के उपासक अज्ञेय हिंदी साहित्य की एक घटना बन गये ।



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