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जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'लोकभाषा विशेषांक' (अवधी प्रभाग): अतिथि सम्पादक शैलेन्द्र कुमार शुक्ल




संपादकीय

जनकृति पत्रिका में लोकभाषा विशेषांक के अंतर्गत अवधी प्रभाग का सम्पादन करते हुए यह महसूस हुआ कि मातृभाषाओं के प्रति अभी हिंदी वालों का रुख आधुनिक संदर्भों में बहुत कुछ संकुचित है। लोकभाषा या मातृभाषा के हक की बात होते ही बहुत से कट्टर साम्राज्यवादी हिंदियों के पेट पिराने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बघेली, कन्नौजी आदि तमाम भाषाएँ अगर अपने अस्तित्व की बात करने लगेंगी तो हिंदी का वर्चस्व टूट जाएगा, और हिंदी के भाषा-भाषी कम हो जाएंगे, इस तरह हिंदी संकट की स्थिति में बुरे फंस जाएगी। मुझे लगता है कि अगर हिंदी इतनी ही कमजोर और दयनीय भाषा है तो इसे चुक जाना ही जायज है। और अगर ऐसी बात है तो हिंदी आने वाले समय में संस्कृत की तरह देवलोक की नियति बन कर रह जाएगी। 

आज हमें यह फिर से सोचना चाहिए कि आखिर हिंदी है क्या! उसकी जमीनी ताकत कहाँ है , उसका संकोच और विस्तार कहाँ-कहाँ निहित है। इसके हितैसियों को कम-से-कम भावुक होकर नहीं घबराना चाहिए, कि हिंदी के नाम पर उनका जो धंधा चल रहा है वह बैठ जाएगा। हिंदी हमारी संपर्क भाषा है वह एक मानकीकृत व्याकरण से बाकायदा तैयार की हुई भाषा है। इस भाषा को मानक गद्य के लिए सोच-समझ कर तमाम हिंदियों के बीच से ठीक किया गया है। इसका काम सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने की प्रतिबद्धता का था लेकिन जल्दबाज़ी में और अपनी कमजोरियों के चलते पूरे भारत में न सही कम-से-कम उत्तर भारत को तो जोड़ने का काम इसने प्रमुखता से किया ही है। और यह आगे भी यह काम करती रहेगी। 

सबसे पहले हमें हिंदियों और हिंदी के बीच फर्क समझ लेना चाहिए। हिंदी शब्द का प्राचीन प्रारूप आप यदि देखे तो समझ जाएंगे की कि हिंदी शब्द का प्रयोग बहुबचनात्मक रूप में होता था। प्रांत विशेष के लोगों के लिए। आज समझने के लिए हमारे पास और भी दूसरे उदाहरण हैं। जैसे पंजाब के लोगों को बाहर वाले आज भी पंजाबी कहते हैं। इसका मतलब वहाँ की जनता को हम पंजाबी कहते हैं यह उनकी ‘पहचान’ का शब्द है। उनके व्यवहार और साहित्य की भाषा भी पंजाबी जानी गई। यहाँ जो पंजाबी बनी वह कई पंजाबियों में से एक मानकीकृत है। इसे संस्कृत से भी समझ सकते हैं। संस्कृत अपने समय की एक मानकीकृत रूप में राजाश्रित हो कर प्रतिष्ठित हुई उस समय हम जानना चाहें तो जानेंगे की कई संस्कृतें मानुष व्यापार में थीं। फिराक साहब को याद करते हुये विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस बात का जिक्र भी किया है। फिराक साहब यह मानते और जानते थे- 

“फिराक साहब केवल ऐसी ही बातें नहीं करते थे, दूसरी बातें भी करते थे जैसे एक बात पहले पहल उन्होंने ही मुझसे बताई है। एक दिन वे कहने लगे कि पाणिनी के जमाने में नब्बे संस्कृतियाँ चलती थीं और उसमें से एक को स्टैंडर्डाइज किया था पाणिनी ने। फिराक साहब संस्कृत को संस्कृतियाँ कहते थे। उनके कहने का मतलब था संस्कृतें। तो फिराक ने जब ये बात मुझे बताई तो मैं सुन रहा था लेकिन उनका चेहरा एकदम से बदल गया और बोले कि 'तुम तो बिल्कुल इंसेन्सेटिव आदमी हो। इतनी बड़ी बात मैं कह गया और तुम्हारे चेहरे पर कोई इमोशन ही नहीं आया। जब मैंने पहले पहल ये बात डॉ. तारा चंद के मुँह से सुनी थी तो मैं तो तीन दिन तक रक्स करता घूमा था।'” 

यहाँ जो नब्बे संस्कृतियां (संस्कृतें) फिराक साहब कह रहे हैं इसका मतलब उस समय बहुत सी और भी भाषाएँ थी जो जीती-जागती थी। संस्कृत सत्ता और शासन के लिए तैयार की गई भाषा थी, यह मानक रूप में लाई गई थी, जैसे तमाम हिंदियों के बीच से एक खड़ी को मानकीकृत कर हिंदी के रूप में सरकारी कामकाज के लिए उपयोगी बनाई गई। यह सिर्फ भारत में संस्कृत और हिंदी के साथ घटित होने वाली घटना नहीं है यह दुनिया के तमाम देशों की पुरानी भाषाओं के साथ यही हुआ है। इसे शुद्धतावादी सुन कर अपवित्रता महसूस कर सकते हैं। जिस समय संस्कृत का मानकीकृत रूप सामने आया तो इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता की दूसरी संस्कृतें सभ्यता के ठेकेदारों ने मिटा दी होंगी, या उनके बलबूते यह संभव हो सका हो । वह भी जीवित रहीं। पाली और प्राकृत इसके प्रमाण हैं। आज जिन्हें मैं हिंदियाँ कह रहा हूँ इनके प्राचीन रूप कभी फिराक की भाषा में नब्बे संस्कृतों में मौजूद थे। 

आजकल मातृभाषाओं के संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल होने की बात लगातार उठ रही है, इनमें सबसे प्रमुख स्वर भोजपुरी का है। भोजपुरिए अपनी आवाज सत्ता तक लगातार पहुंचा रहे हैं और अपनी वाजिब मांग रख रहे हैं। वह जिस भाषा में जीते-जागते हैं उसके लिए उनका आवाज उठाना उनकी संस्कृति धर्मिता को पुष्ट करता है। यह काम सारी उपेक्षित मातृभाषा वालों को नितांत आवश्यक रूप में करना चाहिए। दरअसल ये मूल-भाषाएँ बचेंगी तो हिंदी भी बची रहेगी, इनमें ही हिंदी की ताकत निहित है, यह संपर्क-रूप में हिंदी को अपनाते हैं। इनकी पहली स्कूलिंग के तौर पर सीखी हुई भाषा हिंदी है। मातृभाषाओं को सम्मानित संवैधानिक दर्जा मिलने से हिंदी की संपर्क-भाषिक आवश्यकता ठीक तरीके समझी जा सकेगी। इससे हिंदी का कोई नुकसान नहीं होगा हाँ हिंदी के एकल वर्चस्ववादी मठाधीशों के सामने अन्य, इत्यादि या हासिए के लोग भी सम्मान का भाव अपने में जगा सकने में समर्थ होंगे। 

अवधी प्रभाग की संपादकीय अवधी में ही लिखने का मन मेरा मन था, लेकिन इधर उठे सवालों को ध्यान में रखते हुए, और उनके लिए भी जो सवाल धांगेने में तो माहिर हैं लेकिन अवधी आदि मातृभाषाओं की समझ नहीं। कहेंगे यह तो समझ में ही नहीं आता तब याद आते हैं लोकविद विजयादान देथा, आचार्य किशोरीदास वाजपेई जो यह कब से अपने पुष्ट तर्कों पर यह ख़ारिज करते आए हैं यह हिंदी से इतर भाषाएँ हैं। इस बोध के बावजूद हिंदी वर्चस्ववाद का झण्डा उठाने वालों को और मातृभाषाओं को बोली कह कर छुट्टी लेने वालों को शर्म नहीं आती। खैर राहुल सांकृत्यायन जी ने इन्हें खूब फटकारा था, काश उन्हें ही पढ़े होते यह। यह काम हिंदी में इन्हीं वीरों के लिए कर रहा हूँ। वैसे संपादकीय का काम पत्रिका के लिए नितांत आवश्यक नहीं होता, फिर भी अपने उद्देश्य बताने में क्या हर्ज। यह अवधी वाले तो समझेंगे ही बाकी जो हिंदी के शुद्धतावादी मानकीकृत पुरोहित हैं वह भी समझ सकेंगे। 

दो-तीन महीने पहले जब लोकभाषा विशेषांक निकालने की बात बनी तो यह बात फेसबुक के माध्यम से हमने लोगों तक पहुंचाई। इसकी सूचना लगते ही हिंदी को बचाने की पैरोकारी करते हुए एक पहला आलेख परम हिंदी भावुक प्रेमी डॉ. अमरनाथ जी का मिला, जिसमें उन्होंने यह आपत्ति जताई कि यह हिंदी विरोधी काम हो रहा है। वह बहुत आहत थे। मैं उस समय से यह सोच रहा हूँ कि 1857 से अब तक हिंदी वालों ने कितने अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, मगही, मैथिली, कन्नौजी, इत्यादि अनेकों मातृभाषा विरोधी काम किए हैं, उनके इतिहासों में आधुनिक युग का अवधी साहित्य कहाँ हैं, पढ़ीस का मूल्यांकन कहाँ किया हैं इन्होंने, वंशीधर शुक्ल पर कितनी बात की है हिंदी के आलोचकों ने, रमई काका को अब तक किस किताब में पूछे हो। अवधी यदि हिंदी की बोली थी तो इसकी कितनी परवाह आप ने की है। अमरनाथ जी से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि रामचरितमानस और पद्मावत के बिना तो आप तो आप काल विशेष को स्वर्ण नहीं कर सकते लेकिन आधुनिकता में थोड़ा खड़ी देख आप सब के साथ ताला-बंद साजिश करने में क्यों मशगूल हुए ? आप ने कितनी परवाह की है मातृभाषाओं की ? आप की इस कायरता को हम क्या कहें कि अवधिये और भोजपुरिये या और सब जो अपनी मातृभाषा में सपना देखते हैं, अपने भाषिक सम्मान की बात करें, साहित्य लिखें, अपनी बात उठाएँ, पत्रिका निकालें, आठवीं अनुसूची में दर्जा मांगे तो आप जैसे हिंदी वालों का दम क्यों घुटने लगता है ? आप की हिंदी ‘चिंदी-चिंदी’ क्यों होने लगती है ? जब की आप की हजार साजिशें और अपमान का घूंट पीकर भी ये मातृभाषाएँ जीवित हैं। 

बाकी बातै फिर कबहूँ होंइहें। अभै बस एतना कि विशेषांक मा अवधी प्रभाग के सम्पादन का जोन काम मिला वहिते यहि बात केर पता चलत की अवधियन का अबही बहुत मेहनत की जरूरत आय। यह ई-पत्रिका आय और पूरेरूप ते अव्योसाइक आय, हम साहित्यिक सामाग्री टाइप करावे का खर्चा उठावे लिए सक्षम न हन, और हमार बहुत अवधिया साहित्यकार कंपूटर की तकनीक ते दूरि हैं, यहिव कारन ते कुछ-कुछ छूटि गा। कुछ पुरान अवधिया यहि कारन हियन न भेजि पाये कि यहि मा कोई नए आदमी लोड न लेय लागें । कुछ ते खूब खुशामद किएन लेकिन बाज न आए। लेकिन जौन कुछ अपने सुधी-बुधी-जन भेजिन और उत्साह देखाइन, औ ताकत दिहीन उनके हम आभारी हन। हम जस यहु अवधी अंक सोचे रहन, वैस न बन सका, यहि बात का हमका खेद है लेकिन यहिके एक कोशिश समझा जाय । हियाँ जौन मटेरियल टाइप मिला वाहिमा ते नीक-नीक छांटि के अविकल प्रस्तुत किन गा है। यहि विशेषांक निकारे मा बड़े भाई और प्रगतिशील अवधिया अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी का बड़ा योगदान रहा, उनके सहयोग के बिना यहु संभव न रहे। बाकी जिनका सहयोग रहा उनका आभार और जौन असहयोग करिन उनकौ धन्यबाद ।

 -शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
वर्धा, महाराष्ट्र

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