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'बहुजन वैचारिकी' पर वरिष्ठ आलोचक कर्मेंदु शिशिर जी के विचार


 Karmendu Shishir ke vichaar.....
बहुजन वैचारिकी के प्रवेशांक से गुजरना एक विचारोत्तेजक अनुभव है. धर्मवीर जी और रामबचन जी ने अपने साथियों के साथ प्रख्यात विचारक डा. तुलसीराम पर दो अंकों का विशेषांक आयोजित किया है.पहला भाग ही हमे गहरे आह्लाद और विस्मय से भर देता है. इन युवा संपादकों ने अपने श्रम, समर्पण और समझ से हमें न सिर्फ आश्वस्त करते हैं बल्कि इस गौरव का एहसास भी कराते हैं कि युवा पीढ़ी बेहद सशक्त और मजबूत इरादों वाली है. वे न्याय,समानता,और आज़ादी के लम्बे संघर्ष को निर्णायक दौर तक पहुँचाने का दम-खम रखते हैं.यह अकारण नहीं है कि वंचितों के विचारों की अब अनदेखी असंभव है. ये विचार धीरे धीरे हाशिये से निकलकर समय के केंद्र में आ गए हैं और इनको सहज स्वीकृति भी मिलने लगी है. इतिहास के यथार्थ को आधुनिक दौर में में स्थापित करने का जो लम्बा वैचारिक संघर्ष चला उसके एक महानायक तुलसीराम रहे. इस प्रवेशांक के पहले भाग में उनके जीवन और विचारों की सामग्री को जिस सम्पादकीय कौशल से वर्गीकृत कर प्रस्तुत किया है वह बेहद सराहनीय है. तुलसीराम जी के आखिरी जीवन संघर्षों से गुजरना एक मार्मिक अनुभव तो है ही लेकिन उनका लौह संकल्प बार-बार ‘अग्निदीक्षा’ के निकोलाई आस्त्रवस्की की याद भी दिलाता है.

उनके लेख, साक्षात्कार और उनपर लिखे गए संस्मरणों को पढ़ते हुए हम एक नई विचारोत्तेजकता से भर जाते हैं. भारतीय इतिहास के संभवतः सबसे बड़े दुर्भाग्य ब्राह्मणवाद के उदय और अभिशाप के ऐतिहासिक यथार्थ को जिस तरह तुलसीराम जी ने बताया है –वह हमारे जैसे बहुतों के लिए सर्वथा अभिनव वैचारिक अनुभव है . बौद्ध चिंतन की ऐसे सामयिक संदर्भ से जुडी व्याख्या मैंने इसके पहले नहीं पढ़ी थी. उनके व्यक्तित्व और विचारों के वैविध्य-विस्तार को समग्रता में प्रस्तुत करने का जो संकल्प और शिल्पन इन संपादकों ने दिखाया है उसके लिए सराहना के शब्द कम पड़ रहे हैं. यह अंक सिर्फ पढ़ने और विचारने तक ही नहीं बल्कि इससे आगे बढ़कर कुछ करने और बदलाव के संघर्ष में सहभागिता को भी प्ररित करता है. हम बहुत अधीरता से इसके अगले अंक की प्रतीक्षा कर रहे हैं .



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