सिंहासन खाली करो कि ...
भारतीय राजनैतिक प्रतिबद्धता का प्रश्न वक्त की सीमाओं का
इतनी बार अतिक्रमण कर चुका है कि भारतीय बुद्धिजीवियों को अपने विश्लेषण के औजारों
को दुरुस्त करने में तनिक भी देरी नहीं करनी चाहिए. यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि
भारतीय बुद्धिजीवियों के औज़ार भोथड़े हो चुके हैं. इतिहास उलट कर देखा जाए तो हंसी
सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी जी के ऐतिहासिक समझ पर ही नहीं आती जिसे वो अक्सर चुनावों
में बांचते हैं,
बल्कि हंसी उन बुद्धिजीवियों की ऐतिहासिक चेतना पर भी आती है जो
हमेशा प्राइम टाइम पर राजनैतिक-सामाजिक विश्लेषण बांचते रहते हैं.
प्रूधों ने जब हृदय परिवर्तन के दर्शन की ओर मुड़ते हुए
‘आर्थिक विरोधों की व्यवस्था’ जिसका दूसरा नाम ‘दरिद्रता का दर्शन’ था, पुस्तक
लिखी क्या तब मार्क्स ने ‘दरिद्रता का दर्शन’ लिखकर उसका खंडन नहीं किया था?
यह अलग बात थी कि प्रूधों का फ़्रांस के सर्वहारा पर बहुत अधिक
प्रभाव था. ऐसे में स्वाभाविक था कि प्रूधों का प्रभाव हटाने में मार्क्स को सफलता
मिलना लगभग असंभव था. लेकिन मार्क्स ने इस उद्देश्य से अपने विचारों को प्रकाशित
किया कि प्रूधों स्वयं अपने विचारों की आलोचना देख सके साथ ही उसके अनुयायियों को
भी अपनी कमज़ोरी का पता चले. भले मार्क्स अपने उद्देश्य को तत्काल प्राप्त नहीं कर
सके लेकिन ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ के व्यवस्थित रूप का वैचारिक योगदान तो उन्होंने
किया ही.
क्या कुछ ऐसा ही प्रसंग हमें गाँधी और भगत सिंह के बीच देखने
को नहीं मिलता है?
23 दिसम्बर 1929 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चर्चित वायसराय की गाड़ी
को उड़ाने के प्रयास के बाद गाँधी ने ‘दि कल्ट ऑफ दि बम’ लेख द्वारा क्रांतिकारियों
की जम कर निंदा की. इसके तहत गाँधी जी ने हिंसा का विरोध करते हुए अपने तर्क दिए.
इस तर्क का खंडन भगवतीचरण वोहरा ने ‘बम का दर्शन’ लेख में किया, जिस लेख को भगत सिंह ने जेल में पूर्ण किया. इस लेख का अध्ययन इसलिए जरुरी
है क्योंकि इसमें भगत सिंह ने हिंसा और क्रांति के बीच स्पष्ट भेद दिखाया है. वे
कहते भी हैं कि –
‘‘क्रन्तिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक और
नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है और इस सिद्धांत का समर्थन इतिहास
की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है.’’
गाँधी ने क्रांतिकारियों को बुजदिल और घृणित कहते हुए
विचारशील लोगों से क्रांतिकारियों को सहयोग न करने के लिए अपील किया था जिसका
प्रतिवाद इस लेख में देखा जा सकता है. इसी क्रम में जवाब में भगत सिंह ने लिखा भी
था कि—
‘यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिले तो हम उद्देश्य छोड़
देंगे, निरी मूर्खता है’. इसके साथ ही क्रांतिकारियों ने बहस के लिए ललकारा भी.
जब हम यह कहते नहीं थकते कि यह देश गाँधी का है तब हमें क्या
यह देश भगत सिंह का नहीं लगता है? यदि नहीं लगता है तब तो दिक्कत की बात है और
यदि लगता है तब भारत में लगातार राजनैतिक लूट पर बुद्धिजीवियों की यह दृष्टिहीनता
विचार करने लायक है. ऐसा इसलिए क्योंकि गाँधी के देश में हत्यारे ख़ुद अनशन पर बैठ
जाते हैं, इरोम के 16 वर्षों के अनशन पर अंगराई तक नहीं लेते
और तब भी हम प्रतिरोध के तरीकों पर बात करने के बजाय क्रांति के मार्ग को बहिष्कृत
करते हुए ‘यह गांधी का देश है’ कहते हुए अपने दैनिक जीवन के प्रति घनघोर आस्था में
डूबे रहते हैं.
सवाल जितना शोषकों के तौर-तरीकों पर उठने चाहिए उससे रत्ती
भर भी कम हमारे प्रतिरोध के तरीकों पर भी सवाल उठाने से हमें चूकना नहीं चाहिए.
जो बुद्धिजीवी आज नीतीश-लालू के महागठबंधन के टूटने पर और अब
शरद यादव क्या खा कर बीजेपी को गरियायेंगे पर विधवा विलाप कर रहे हैं उनसे पूछना
चाहिए कि तुमने भारतीय राजनीति के किस काल में विधवा-विलाप नहीं किया है? मुझे
लगता है यह पूछा जाना अधिक वाजिब होगा कि ‘तुमने इस विधवा-विलाप की संस्कृति को
जिंदा रखने की कस्में खा रखी है क्या? यदि यह कहा जाए कि
भारतीय जनता अपनी त्रास्दी को तकदीर मानकर चुप हो जाए की प्रवृति अपना ले तो इसका
सारा श्रेय हमारे बुद्धिजीवियों को जाना चाहिए. कृप्या आप यह न कहें कि हम जनता को
दिशा देने का कार्य कर रहे हैं या उसे जागृत कर रहे हैं. आप गाहे-बगाहे
साम्राज्यवादियों के वे दलाल हैं जिनके होते हुए तो जनता की हजारों पीढियां सिर्फ
गुलामी के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाएगी. ऐसा कहना इसलिए भी तर्क-संगत है क्योंकि
जिस जनता को जागृत करने का आप दंभ भर रहे हैं वह जनता कब जागृत नहीं थी?
क्या 19 महीने के इमरजेंसी के बाद जनता जागृत नहीं थी? क्या
तब भारतीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण के ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ कहने
पर जनता नहीं आई? आई और आकर ‘जनता सरकार’ को स्थापित भी की.
जनसंघ, कांग्रेस(ओ), भारतीय लोकदल और
सोशलिस्ट पार्टी को राजनैतिक प्रतिबद्धता साबित करने का मौका दिया. लेकिन परिणाम
क्या निकला? चौधरी चरण सिंह, जगजीवन
राम और मोरारजी देसाई जैसे अनेकों दिग्गज नेताओं ने आपसी भिडंत में ही समय गुज़ार
दिया और जिस जनता ने ‘जनता सरकार’ बनवाई उसको बदले में मिला अपराध, मंहगाई और भ्रष्टाचार. बुद्धिजीवियों ने ऐसे ही जनता-जागृति का काम मिस्टर
क्लीन राजीव गाँधी के समय में किया. जनता उस समय भी जागी और छोटी-मोटी सभी
पार्टियों के ‘राष्ट्रीय मोर्चा’ की सरकार बनवाई. फिर सांसदों के कुर्सी की
खींचतान में 11 महीने में ही सरकार गिर गई.
जनता की जागृति पर सवाल उठाने वालों को बहुत देरी से नेताओं
की राजनैतिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते देख आश्चर्य होता है.
नीतीश सरकार को जब पहली बार जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया
था तब जब रामविलास पासवान जी अपने पार्टी बदलने की छवि से मुक्ति हेतु नीतीश से
जुड़ नहीं रहे थे तब जब वे दुबारा जनता में गए तब क्या जनता ने उन्हें बहुमत नहीं
दिया था? लेकिन इस बार क्या हुआ कि वे जनता में नहीं गए और जागृत जनता के मतों का
सौदा कर आए? और जब कर आए तब प्राइम टाइम, अखबारों और सोशल साइट्स पर बुद्धिजीवियों को इसमें राजनैतिक प्रतिबद्धता
की कमी दिखी. वे 70 वर्षों से यही दिखा रहे थे और ये 70 वर्षों से यही देख रहे
हैं. बालकृष्ण भट्ट सही कहते थे कि हम मूलतः देखने वाले लोग हैं. दरअसल वे ‘लोग’
शब्द का प्रयोग जनता के लिए नहीं बल्कि इन्हीं बुद्धिजीवियों के लिए कर रहे थे. जो
भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ‘भारत-दुर्दशा’ के पात्रों की भांति बातें तो बड़ी-बड़ी
करते हैं लेकिन अंग्रेजों के आने की ख़बर सुनते ही ‘हाथ में चुड़ी पहनकर तालाब
किनारे घूँघट कर यह कहने से भी नहीं चूकते कि ‘ओए मुए इधर मत अइयो, इधर जनाना नहा रही है’. हमारे बुद्धिजीवियों का यह जनानापन (सिर्फ़ प्रवृति
के अर्थ में लें) न जाने कब छूटेगा?
समस्या यह है कि आखिर हम कब तक अपने जेनरेशन को यह सिखाते
रहेंगे कि ‘समझौता करके चलो’. कन्हैया कुमार जब यह कहते हैं कि- ‘मैं कोई हिंसा
नहीं कर रहा हूँ,
या हिंसा का समर्थक नहीं हूँ’ तब वे क्या हिंसा और क्रांति को समझने
में वही भूल नहीं करते हैं जो भूल गाँधी भगत सिंह को समझने में करते हैं. और फिर
क्रांति सचमुच सिर्फ हिंसा के चश्मे से ही देखा जाना जरुरी है तब हम 1857 की
क्रांति की शौर्य-गाथा गाने क्यों बैठ जाते हैं? प्रो.
अपूर्वानंद और रवीश कुमार जब प्राइम टाइम पे सालों से हत्याओं पर शोक मनाकर
टी.आर.पी बढ़ाते हैं तब क्या उन्हें यह नहीं सूझता है कि आंदोलन के मार्ग बदलने पर
भी कुछ प्राइम टाइम होने चाहिए थे. सभी क्रांतिकारियों को जब यह कहकर ख़ारिज कर
दिया जाता है कि हिंसा से समाधान नहीं होगा तब ‘राज्य द्वारा इसी हिंसा के दम पर
सत्ता को बनाए रखने पर बहस क्यों नहीं होती है? और जब ये ऐसा
करते नहीं दिखते हैं तब क्या ये अरुंधति राय के ‘क्लास-पोर्नोग्राफी’ के कांसेप्ट
को पूर्ण नहीं कर रहे होते हैं?
स्पष्ट रूप में कहा जाए तो हमारे पूर्वजों ने हमें विरासत
में सवालों के सिवा कुछ दिया ही नहीं? इसलिए जरुरी है कि इनकी दोगली
बातों और विधवा विलापों को सुनना हमें सबसे पहले बंद करना होगा. दरअसल ये असली
अर्थ में हमें मानसिक गुलामी की ओर धकेल रहे हैं. हमारे शोषण से भरे यादास्त के
साथ खेलना इनका मशगला बना हुआ है. यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि पिछले 70
वर्षों से राजनेताओं की प्रतिबद्धता को देखते रहने के बावजूद भी नितीश की
प्रतिबद्धता का सवाल इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि समूचे मीडिया संसार से किसान
हत्या और हाल में हुए इंसानियत की हत्याओं पर एक टिपण्णी तक मौजूद नहीं है?
क्या यह बाजार के काला जादू का खेल हमारे साथ नहीं खेला जा रहा है.
दरअसल जब आप कहते हैं कि –‘ लम्बी है गम की शाम मगर शाम ही तो है’ तब आप हमें ठग
रहे होते हैं. इस संदर्भ में पलास विश्वास का लगातार ऐसे व्याख्याकारों का ठुकराना
वाजिब रूप में किसी जगदीश्वर चतुर्वेदी को असहमत होने के लिए मजबूर करता है. ऐसी
मजबूरियों से गले तक डूबे हमारे चिंतकों से इस देश में बदलाव तो होने से रहा.
इसलिए हमें हमारे नए ‘ओरगेनिक इन्टिलेक्चुअल’ तैयार करने होंगे जो शोक मनाते गज़लें
भी लिखे तो लिखे कि – ‘और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’ और जिसकी व्याख्या
भी सटीक की जाए.
जब तक ये खाए-पीये-बौराए लोग हैं तब तक इस देश में क्रांति
नहीं हो सकती है और शोषण के इस चरम काल में भारतीय समाज के लिए क्रांति के अलावा
कोई अन्य मार्ग भी नहीं बचा है. यदि ऐसा ही रहा तो दिन प्रतिदिन छात्र-संगठनों के
दूषित होते उनके विचार भी बहुत जल्दी अपंग बना दिए जाएंगे जिसका सारा श्रेय भी
इन्हीं बुद्धिजीवियों को जाएगा. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि हमें आज की भारतीय
राजनैतिक व्यवस्था की अर्थहीन आलोचना करने और सुनने से बाज आने की आवश्यकता है और
साथ ही यह तय करने की भी जरुरत है कि इन 70 वर्षों के बावजूद हमें और कितना वर्ष
इस बात में खर्च करने के लिए चाहिए जिसमें सुधार की उम्मीदें की जा सके.
स्पष्ट है आज का शोषण तंत्र दुर्योधन की भाषा में साफ़-साफ़ कह
रहा है कि –“ सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन शोषितः. इसलिए शोषितों के पास
युद्ध के अतिरिक्त अब कोई अन्य मार्ग नहीं है. बुद्धिजीवियों को चाहिए कि भविष्य
में होने वाले इस महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी भूमिका तय करे इसके
अतिरिक्त यदि वे परम्परावादी भूमिका तय करते हैं तो उनका पक्ष शोषितों के साथ नहीं
बल्कि शोषकों के साथ समझा जाएगा.
लेखक: संजीव ‘मजदूर’ झा
संपादक: सारस पत्रिका
[आलेख साभार: हस्तक्षेप]
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