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राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का 'हंस'- ओमप्रकाश कश्यप






राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का 'हंस'
ओमप्रकाश कश्यप

‘‘विडंबना यह है कि नितांत अधार्मिक साधन ही धर्म की रक्षा करते हैं, मानवता को बचाए रखने के लिए निरंकुश अमानवीयता का इस्तेमाल करना पड़ता है, नैतिकता की शुचिता बनाएरखने के लिए न जाने कितनी अनैतिकताओं का सहारा लेना पड़ता है. गांधी जी की ‘गरीबी’ कितनी महंगी पड़ती थी—इसे खुद सुशीला नैयर ने बताया है....सही है कि साध्य ही साधनों को ‘जस्टीफाई करता है, मगर साध्य स्वयं इतना ‘महान’ है कि उसके लिए हर तरह का साधन सही है, तो सवाल उठेगा कि साध्य की महानता तय करने वाले कौन हैं? रावण गलत है, राम सही या कौरव अधार्मिक हैं, पांडव धार्मिक—यह तय करने वाले राम और पांडव ही हैं न, बल्कि उनसे भी ज्यादा उनकी विजय उन्हें सही बनाती है. एक ही धर्म के दो संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कॉज के प्रति सच्चे होते हैं....अगर हम साध्य और साधन के सवाल को सिर्फ नैतिक या बौद्धिक स्तर पर ही रखेंगे, तो शायद कहीं नहीं पहुंच पाएंगे. या तो साध्य(कॉज) ही हवाई लगने लगेगा या सारे साधन अनैतिक.’’ —राजेंद्र यादव, खंड-खंड पाखंड, पृष्ठ 21.

खुद को ‘हंस’ का पुराना पाठक मानता हूं. इधर कुछ महीनों से संबंध टूटा हुआ था. इसलिए नहीं कि राजेंद्र यादव(अगस्त 28 1929, आगरा—अक्टूबर 28 2013, मयूरविहार, दिल्ली) के लेखन या उनके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों में अविश्वास था. बस इसलिए कि लेखन-पाठन की प्राथमिकताओं में बदलाव था. ‘हंस’ ही क्यों दूसरी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपर्क में भी कम ही रहा. इसका कभी, कोई मलाल भी नहीं हुआ. क्योंकि सामाजिक बदलाव के जिन मुद्दों पर ‘हंस’ बात करता था, या जिन विषयों को राजेंद्र यादव अपने संपादकीय में उत्तेजक बहस के रूप में उठाते थे, उनमें भी वे जिनमें मेरी विशेष रुचि थी—उन्हें विस्तार देती दूसरी और महत्त्वपूर्ण सामग्री आसानी से अन्यत्र उपलब्ध थी. पत्रिका के रूप में ‘हंस’ की जो सीमा थी, उसमें राजेंद्र जी की तमाम सदाशयता और प्रतिबद्धता के बावजूद वैचारिक सामग्री कम ही आ पाती थी. कहानी की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित ‘हंस’ को, उसके बड़े पाठक-लेखक वर्ग से काटकर विशुद्ध वैचारिक पत्रिका में बदल देना संभव भी नहीं था. वैसे भी राजेंद्र यादव का प्रथम अनुराग कहानी से था. साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा नई कहानी आंदोलन के प्रवर्त्तक के रूप में भी थी. लेकिन कहानी, विशेषकर नई कहानी के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जो लिखा जा रहा था, वह अपन के गले नहीं उतरता था.

स्वयं राजेंद्र यादव यह मानते थे कि हिंदी कहानी, कहानी की मूल विशेषता कहानीपन को बिसराकर अधिक से अधिक वर्णनात्मक होती जा रही है. इस व्यतिक्रम से कहानी ने न केवल अपने बंधे-बंधाए पाठक खोए हैं, बल्कि उसकी कसावट एवं प्रभाव में भी कमी आई है. प्रतिष्ठित कहानी-पत्रिका के संपादक की यह निराशा विचारणीय थी. इसके बावजूद ‘हंस’ अपनी सर्वाधिक चहेती पत्रिका बनी थी, तो केवल अपने लेखों तथा उनसे भी अधिक राजेंद्र जी के संपादकीय के नाते. उसमें वे ज्वलंत मुद्दों को पूरी बेबाकी और लेखकीय निष्ठा के साथ उठाते थे. ‘हंस’ के लेखों में मैं हमेशा एक अलंघ्य ऊंचाई पाता रहा. शायद इसीलिए उसमें न तो कभी छपा, न ही एकाध अवसर को छोड़कर कोई रचना प्रकाशन के लिए भेजी. उसपर ठसक यह कि ‘हंस’ या किसी अन्य पत्रिका में न छपने का कभी मलाल भी नहीं हुआ. कहानी विधा में अरुचि के बावजूद ‘हंस’ को नियमित खरीदता और पढ़ता जरूर रहा.

विचारों की डोर कहीं न कहीं ‘हंस’ की वैचारिकी से जुड़ती थी, इसलिए कभी निराश नहीं होना पड़ता था. कुछ और चाहे न हो, ‘हंस’ का संपादकीय मन को अनूठी तृप्ति दे जाता था. कुछ वर्ष पहले ‘हंस’ में आत्मस्वीकृतियों का दौर चला था. ईसाई धर्म में आत्मस्वीकृति को धार्मिक मान्यता प्राप्त है. गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर व्यक्ति अपने अपकर्मों को स्वीकार कर बोझ मुक्त हो सकता है. आदमी देवता नहीं है. देवता नामक मिथ उसने मनुष्यता के आदर्श के रूप में गढ़े हैं. अपनी सीमाओं के चलते मनुष्य गलती भी करता है. उन गलतियों से कई बार सबक लेता है, कई बार नहीं भी लेता. फिर भी जाने-अनजाने हुई गलती या अपराध की आत्मस्वीकृति मानव-मन से अनावश्यक विकारों को दूर कर उसे तनावमुक्त करती है. ‘आत्मस्वीकृति’ अथवा ‘अपराध-स्वीकृति’ के मूल में यही अवधारणा है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पश्चिम में धर्मों का विकास अध्यात्मपरक होने से ज्यादा तत्वपरक ढंग से हुआ है. भारतीय दर्शनों में जो स्थान ब्रह्म का है, यूनानी दर्शन में वही ‘शुभ’ का है. उसके अनुसार ‘शुभ’ नैतिक उत्थान की सर्वोच्च अवस्था है. अपने जीवन को ‘शुभता’ की ओर निरंतर अग्रसर करना, मानव-मात्र का लक्ष्य है. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को अपनी कमजोरियों की जानकारी हो. उन गलतियों का बोध हो जो उसने जाने-अनजाने की हैं. उनके लिए क्षमा-याचना और पुन: न दोहराने का संकल्प ही आत्मस्वीकृतियों को सार्थक बनाता है. आत्मस्वीकृतियों के पीछे निहित यह दर्शन मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं को स्वीकारने का साहस जगाकर उनमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा जगाता है. हिंदू धर्म में यह काम ईश्वर भरोसे छोड़ दिया जाता है. 

भारतीय प्रज्ञा ने दर्शन की अनेक ऊंचाइयों को छुआ, अपनी उपलब्धियों से विश्व-भर को चमत्कृत भी किया है. इसके बावजूद यदि समग्र रूप से देखें तो उसमें आस्था का अनुपात कुछ ज्यादा ही रहा है. अपनी उपलब्धि पर गुमान करने, आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति वैदिक मनीषियों में आरंभ से ही थी. ऋग्वेद की ऋचाओं के अस्तित्व में आने में जो समय लगा सो लगा. बाद के मनीषियों की सारी की सारी मेहनत उन्हें सहेजने तथा उनका कर्मकांडीकरण करने में नजर आती है. मौलिकता और ज्ञान के विस्तार पर बहुत कम ध्यान गया है. वैदिक ऋचाओं का गायन कैसे हो, यह सामवेद में समझाया गया. यजुर्वेद में उसके कर्मकांड पक्ष को विस्तार दिया गया. यज्ञों के प्रकार तथा उनके आयोजन पर विस्तार से लिखा गया. अथर्ववेद सहित बाकी उपनिषदों में भी उसी को आगे बढ़ाया गया है. कई स्थानों पर तो मौलिकता की चिंता किए बगैर ऋग्वेद के मंत्रों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया गया है.

आस्था को रूढ़ि अथवा जीवन की अनिवार्यता के रूप में थोपने का दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य को चलने के लिए बंधी-बंधाई लीक मिली. जिसमें आदमी के अपने विवेक, निर्णय-सामर्थ्य, रुचि, स्वभाव आदि का हस्तक्षेप अनपेक्षित था. इसका कुफल यह हुआ कि सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में मनुष्य विवेक के उपयोग से निरंतर कटता गया. धार्मिक आडंबरवाद के चलते गलतियों को सार्वजनिक रूप में स्वीकारने के बजाए उनपर पर्दा डालने की परंपरा बनी रही. जबकि धार्मिक रूप में स्वीकार्य होने के कारण पश्चिम में पश्चाताप और अपराध-स्वीकृति को साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई. रूसो के बाकी लेखन के साथ उसकी आत्मस्वीकृतियां भी पर्याप्त चर्चित रही हैं. भारत में ऐसे विषय उठाने की परंपरा न होने के बावजूद ‘हंस’ ने उसकी शुरुआत की थी. ये राजेंद्र जी ही थे जो नई पहल से घबराते नहीं थे. न आलोचकों की कभी परवाह करते थे. उनमें गजब का लोकतांत्रिक साहस था. अभिव्यक्ति और विचार के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाने को वे हरदम तैयार रहते थे. उनके सत्साहस के फलस्वरूप ‘हंस’ हिंदी-पट्टी की अनेक बौद्धिक-सामाजिक जड़ताओं पर प्रहार करने में कामयाब हुई, विशेषकर दलित और स्त्री-मुक्ति के सवालों को लेकर. इसके लिए राजेंद्र जी को सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत रूप से यथास्थितिवादियों की आलोचनाओं, यहां तक कि व्यक्तिगत हमलों का शिकार भी होना पड़ा. लेकिन वे अपने मोर्चे पर अडिग रहे. उनके समय में नई और उत्तेजक बहसों को जितना वैचारिक स्पेस ‘हंस’ ने दिया, हिंदी की दूसरी पत्रिकाएं शायद वैसा कर सकीं. 

‘हंस’ की उस बहुचर्चित श्रंखला में कई नामी-गिरामी लेखक-लेखिकाओं की आत्मस्वीकृतियां छपी थीं. तथाकथित शुद्धतावादियों को उसमें ‘अनर्थ’ ही दिखा था. आत्मस्वीकृति का साहस दिखाने वाले लेखक भी सर्वथा निर्दोष न थे. वे नैतिक और सामाजिक अपराधों को तो थोड़े-बहुत स्पष्टीकरण के साथ स्वीकारने का साहस दिखा रहे थे, किंतु कानूनी और आर्थिक भ्रष्टाचार के प्रति आत्मस्वीकृति का साहस पूरी तरह गायब था. कुल मिलाकर आत्मस्वीकृतियों का वह सिलसिला लेखिकाओं की ‘बोल्डनेस’ तथा लेखकों के विचलन तक सिमटा हुआ था. शायद इसीलिए भी आलोचकों को सवाल उठाने का अवसर मिला था. आत्मस्वीकृतियों का सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल सका. यूं भी अपने अपकर्म सार्वजनिक करने के लिए शेर का कलेजा चाहिए, जो भारतीय परिवेश में कदाचित असंभव है. बहरहाल, शुद्धतावादियों के बीच राजेंद्र जी की उस पहल की भी वैसी ही आलोचना हुई जैसी ‘हंस’ के दूसरे प्रयासों को लेकर होती थी. नाराजगी के असली कारण दूसरे थे. बहाना देह-संबंधों पर बेबाक लेखन को बनाया गया. आलोचकों में अधिकांश वही थे जो अजंता-एलोरा की गुफाओं में भारतीयता का गौरव खोजते आए हैं, ‘गीत-गोविंद’ की प्रशंसा करते न अघाते थे; और जिनके लिए भारतीय कविता का श्रेष्ठतम हिस्सा ‘रीतिकाल’ से आता है. जिनके लिए वर्ण-भेद समर्थक तुलसी हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं. 

दरअसल जिस सामाजिक न्याय के प्रति ‘हंस’ समर्पित था, उसका ठोस संवैधानिक आधार था. एक संवैधानिक प्रतिबद्धता की ओर से आंखें मोड़ लेने का एकमात्र हथियार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हो सकता था. इसलिए जब-जब ‘हंस’ और राजेंद्र यादव पर उंगली उठी, मामला ‘संस्कृति पर खतरा‘ बताया गया. इसके बावजूद उनके नेतृत्व में ‘हंस’ दमित अस्मिताओं के उभार के लिए निरंतर पहल करता रहा. स्त्री और दलित स्वाभिमान की लड़ाई को उसने हिंदी पट्टी पर सबसे बड़ा मंच दिया. इससे यथास्थितिवादी शक्तियां उसके विरुद्ध लामबंध होती गईं. ‘अक्षर प्रकाशन’ और ‘हंस’ के जमाने से जो मित्र उनके साथ लगे थे, वे अपने लिए सुरक्षित कोना देखकर उसमें समाने लगे. हंस कार्यालय को 'एक ऐसा षड्यंत्र कक्ष कहा गया, जहां हर समय किसी को उठाने-गिराने, पटाने-मिटाने की खुराफातें होती रहती हैं....' उसे 'अपराध डैन(मांद)' की संज्ञा दी गई, 'जहां काला चश्मा चढ़ाए, पाइप फूंकता एक माफिया-डॉन ठेठ फिल्मी अंदाज में साहित्यिक जालसाजियों का संचालन करता रहता है.' इसके बावजूद अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं के साथ राजेंद्र जी डटे रहे. इससे उन्हें नए मित्र और संगी-साथी मिले. फलस्वरूप कारवां बढ़ता गया. राजेंद्र जी के संपादन में ही ‘हंस’ ने कांतिकुमार जैन के संस्मरण सिलसिलेवार छापे थे, जो खूब चर्चित हुए. उनके अलावा समाजविज्ञान पर योगेंद्र यादव जी ने उसमें लिखा. स्त्री, दलित अस्मिता तथा अल्पसंख्यक मुद्दों पर ज्वलंत सामग्री ‘हंस’ में लगातार आती रही, जिसने हिंदी पट्टी में वैचारिक आंदोलनों को गति दी.



कोई भी पत्रिका अपने समय के आंदोलनों, समाजार्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से निरपेक्ष नहीं रह सकती. साहित्यिक पत्रिका पर तो यह नियम और भी गंभीरता से लागू होता है. राजेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘हंस’ ने सदैव समसामयिक विषयों को विमर्श का मुद्दा बनाया. प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई 1986 से इस पत्रिका ने राजेंद्र यादव के संपादन में जब दुबारा दस्तक दी तो उसने बहुत जल्दी अपना विशिष्ट पाठक-वर्ग बना लिया. एक साहित्यिक पत्रिका की खूबी पाठक की बौद्धिक क्षुधा को शांत करना-भर नहीं है, बल्कि उसे नई परिस्थितियों और चुनौतियों को समझने तथा और उनका समाधान खोजते रहने की समझ देना भी है. ‘हंस’ ने यही किया, इसलिए वह समाज में बड़े बौद्धिक आयोजनों की गवाह और उत्प्रेरक बन सकी. आलोचकों के कटाक्ष, ‘हंस’ कार्यालय को ‘छज्जु का चौबारा’, ‘राजदरबार’ तथा वहां आनेवालों को ‘राजदरबारी’ कहने के बावजूद यह पत्रिका गत 27 वर्ष की अपनी पुनः-प्रकाशन अवधि में, जनसरोकारों से शायद ही कभी दूर गई हो. प्रेमचंद का नाम लिए बिना ही राजेंद्र जी उनकी परंपरा को निरंतर विस्तार देते रहे. जनसरोकारों के प्रति ‘हंस’ की प्रतिबद्धता का क्या कोई ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है? यह जानना भी जरूरी है, इसके लिए स्मृति में तत्कालीन दौर की कुछ यादें ताजा करनी होंगी.

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन कई मायने में अनूठा था. यह बोध कि देश के जमींदार, साहूकार, व्यापारी और पुरोहित वर्ग के स्वार्थ अंग्रेजों से जुड़े हैं, और वे सरकार के विरोध में जाने वाले नहीं हैं—जनसाधारण के संगठित विद्रोह की प्रेरणा बना था. यह वर्ग सामाजिक-राजनीति मुक्ति की आस लेकर आंबेडकर और गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में उतरा था. उसे अंग्रेजों से उतनी शिकायत न थी, जितनी अपने ही देश के धर्म के ठेकेदारों तथा जाति के अलंबरदारों से जो हजारों वर्षों से उनका शारीरिक-मानसिक शोषण करते आए थे. उन्हें लगता था कि देश की आजादी उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति का संदेश भी लेकर आएगी. लेकिन आजादी मिलते ही जनता को किनारे कर वर्चस्वकारी शक्तियां पुनः सत्ता पर सवार हो गईं. इससे जनाक्रोश बढ़ना स्वाभाविक था. सत्ताओं के खेल में उनके साथ हमेशा छल हुआ है—यह एहसास उन्हें लामबंद कर रहा था. जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया तो वे नई स्फूर्ति एवं प्रेरणाओं के साथ पुनः एकजुट होने लगीं. उस आंदोलन फलस्वरूप अस्तित्व में आई ‘जनता पार्टी’ अपने प्रमुख नेताओं के वर्गीय सोच का शिकार थी. असल में इंदिरा विरोध के नाम पर लोकतंत्र विरोधी, सत्ता की भूख से आकुल-व्याकुल, प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हुई थीं. उनके लिए राजनीतिक सत्ता वर्षों पुराने सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का माध्यम थी. इस वर्ग के नेताओं द्वारा सामूहिक हितों पर स्वार्थ को वरीयता देने के कारण संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य पूरा न हो सका. क्रांति-संकल्प के साथ तेजी से उभरी ‘जनता पाटी’ कांतिविहीन होकर बिखर गई. देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प देने का जनता पार्टी का प्रयोग असफल हुआ था. 1984 में कांग्रेस का पुनः सत्ता में आना, इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, फिर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार और नाकारापन के आरोप, तत्कालीन उथल-पुथल से भरपूर भारतीय राजनीति की ये प्रमुख घटनाएं थीं. इससे भारत के राजनीतिक हलकों में थोड़ी-बहुत अस्थिरता पनपी, किंतु सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि सहस्राब्दियों से शोषण, उत्पीड़न, तिरष्कार और उपेक्षा का दंश झेलती आई जातियों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भूख जागने लगी थी. अभी तक दूसरों के आदेश अथवा इशारों पर मतदान करने वाले लोग अपने नफा-नुकसान को देख स्वतंत्र निर्णय लेने लगे. विशेषकर स्त्री और दलित, लोकतांत्रिक माहौल का फायदा उठाने के लिए एकजुट हो रहे थे. उसके फलस्वरूप शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, एच. डी. देवगौड़ा, रवि राय, रामविलास पासवान, चौ. चरण सिंह, देवीलाल जैसे हाशिये के अनेक नेता अचानक महत्त्वपूर्ण हो उठे थे. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता-शिखर पर पहुंचना एक बात है तथा शिखर पर रहकर देश का नेतृत्व करना दूसरी. शताब्दियों से शासित होते इन वर्गों में शासन करने का कोई संस्कार न था. उनकी संस्कृति ही ऐसी थी, जो सत्ता से अनुकूलन करना सिखाती थी. इसलिए लोकतंत्र के सहारे सत्ता-शिखर पहुंचे उत्पीड़ित वर्गों के नेताओं की हैसियत, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में दूसरे दर्जे की थी. यदा-कदा अवसर भी मिलता था तो अनुभव और आत्मविश्वास की कमी से सरकार चला पाने में नाकाम सिद्ध होते थे. लोकतंत्र की सफलता सामान्य सहमति और विरोधों के समाहार पर टिकी होती है, उसके लिए आवश्यक अनुभव उन्हें न था. दक्षिण भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष अपेक्षाकृत पहले शुरू हो चुका था, इसलिए वहां के हालात में किंचित सुधार था. तत्कालीन परिवर्तनकामी राजनीति की वह स्वाभाविक विडंबना थी.

ऐसे ही चुनौतीपूर्ण समय में ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन आरंभ हुआ. एक प्रबुद्ध साहित्यकार के रूप में राजेंद्रजी सामाजिक-राजनीतिक हलचल को बहुत करीब से देख रहे थे. वे समझ भी रहे थे कि वैकल्पिक राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति बनाने के लिए जमीनी तैयारी की जरूरत है. यह कार्य स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक सहित अन्य वंचित जमातों के प्रबोधीकरण तथा उनके आत्मविश्वास को लौटाने के साथ ही संभव है. दरअसल सांस्कृतिक पूर्वाग्रह प्रायः इतने जटिल होते हैं, कि एक बार उनके चंगुल में फंस जाने के बाद व्यक्ति की हालत अनुसरणकर्ता जैसी हो जाती है. इसके विपरीत अभिजात संस्कृति का समस्त तामझाम सत्ता से अनुकूलन पर टिका होता है. वहां शिखर पर बने रहने हेतु आवश्यक समझौता की अंदरूनी छूट होती है. ग्राम्शी ने समानता और स्वतंत्रता हेतु अभिजन वर्गों के सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति को जरूरी माना है. इसके लिए उसने अभिजन संस्कृति के समानांतर जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया है. उसके अनुसार दास इसलिए दास होता है, क्योंकि उसकी संस्कृति उसको दास होना सिखाती है. डॉ. आंबेडकर का कहना था कि गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास करा दो, वह क्रांति कर देगा. राजनीतिक चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की अनुगामी है. इसलिए अंबेडकर और ग्राम्शी दोनों, सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता जितनी ही महत्त्वपूर्ण मानते थे. ‘हंस’ द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दों में स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि प्रमुख थे. राजेंद्र यादव ने पिछड़े वर्ग को छुआ तक नहीं था. न ही कभी पिछड़े साहित्य की मांग को आगे रखा था. राजेंद्र यादव स्वयं पिछड़े वर्ग से आते थे; और उनकी दमदार उपस्थिति को यदि पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व स्वीकार लिया जाए तो यह परिकल्पना आसान हो सकती है कि सदियों से उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों यथा पिछड़ों, स्त्री, अल्पसंख्यक आदि को लेकर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बड़ा मोर्चा बनाने का संकल्प ‘हंस’ की शुरुआत से ही उनके मन में था. जिस तरह से उन्होंने अकेले ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मोर्चा साधा, उसके आधार पर उन्हें हिंदी का वाल्तेयर कहा जा सकता है.   



राजेंद्र यादव राजनेता न थे. उन्हें हम लेखक-विचारक कह सकते हैं, किंतु उनका पहला प्यार रचनात्मक साहित्य से था. प्रेमचंद ने लिखा था—‘साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मशाल है.’ यही सूत्र राजेंद्रजी का मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ. उम्मीदों को बचाए रखने, नए सपनों को गढ़ने की चाहत, अपने बूते आगे बढ़ने का आत्मविश्वा, घोर नैराश्य के विरुद्ध आशाबाद उनके आरंभिक उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं(सारा आकाश)’ की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर की कविता-पंक्ति के माध्यम से कुछ यों प्रकट हुआ था—‘सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है/ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.’ यह अनायास न होकर भविष्य की कार्ययोजना का प्रेरणा बिंदू था. अपने लेखों, संपादकियों के माध्यम से राजेंद्र यादव दमित वर्गों को इसी प्रयाण-यात्रा के लिए अनुप्रेत करते रहे.

प्रेमचंद को आदर्श मानने वाला, साहित्य को समाज और राजनीति की मशाल बनाने को उद्धत कलम का एक योद्धा यही कर सकता था. कह सकते हैं कि राजेंद्र यादव को कहानीकार आजादी के बाद के युवामन के सपनों और समाज के कड़वी हकीकतों ने बनाया था, किंतु उनके संपादक को गढ़ने में प्रेमचंद के अलावा जयप्रकाश नारायण के संघर्ष तथा उनके ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का भी योगदान था. ‘हंस’ से पहले उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ की शुरुआत अपने कुछ मित्रों के साथ की थी. हिंदी में जहां पुस्तकों का सीधा बाजार न हो, जहां प्रकाशकों को सरकारी खरीद पर निर्भर रहना पड़ता हो, वहां एक लेखक के लिए जिसकी अपनी नैतिक प्रतिबद्धताएं भी होती हैं, प्रकाशन चलाना हंसी खेल न था. प्रकाशन की असफलता और नौकरी न करने की जिद के बीच ‘हंस’ की स्थापना, ऐसे ही संघर्षपूर्ण जिजीविषा की देन थी. आगे जैसा कि सभी जानते हैं, अपनी स्थापना के बाद ‘हंस’ ने जो डगर पकड़ी, उसकी सही-सही परिकल्पना संभवतः राजेंद्रजी को भी नहीं रही होगी. लेखकों-विचारकों के मामले में प्रायः ऐसा होता है. वे किसी नई कृति या विचार को जन्म देकर, उसे अपनी तरह विस्तार देने के लिए आगे बढ़ते हैं. मगर एक स्थिति ऐसी आती है, जब कथानक स्वयं आगे बढ़ने लगता है. लेखक की भूमिका उसकी डोर पकड़कर पीछा करने तक सिमट जाती है. यही बात विचार के भी साथ है. उसका बीज तत्व मानस में उमगता है. उसके बाद विचारक को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता. दिमाग में पहले से मौजूद प्रत्ययों, अवधारणाओं तथा तर्कशक्ति के ताने-बाने के बीच वह स्वयं विस्तार लेने लगता है. ‘हंस’ के साथ भी यही हुआ था. एक कहानी के रूप में आरंभ हुई पत्रिका ने अपने विशिष्ट सरोकार के साथ जैसे ही जनमानस में अपनी पहचान निर्मित की, उसे वहीं से खाद-पानी मिलने लगा. उसके बाद ‘हंस’ के संपादक मंडल का काम पत्रिका को चेतना-संपन्न पाठकों की इच्छा और जनसरोकारों से जोड़कर आगे बढ़ाते रहने तक सिमट गया.

भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव या कहो कि कुप्रभाव इतना गहरा है कि बड़े से बड़ा लेखक विचारक उसके प्रभाव में आ ही जाता है. बचपन से बड़ा होने तक व्यक्ति जिन जातीय संस्कारों के बीच वह पलता और बड़ा होता है, उनसे एकाएक मुक्त हो पाना असंभव होता है. यदि बचना भी चाहे तो दूसरे लोग उसकी पहचान जाति नाम के पुच्छल्ले से जोड़कर करने लगते हैं. इसलिए आजाद भारत के निर्माण को जाति और संप्रदाय के प्रभावों से दूर रखने हेतु आवश्यक व्यवस्थाएं संविधान निर्माताओं द्वारा की गई थीं. इसके बावजूद कुछ जातियों की सत्ता पर पकड़ इतनी गहरी थी कि वे लोकतंत्र को भी अपने स्वार्थ और सुविधा के अनुसार हांक सकती थीं. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना एक ऐसा निर्णय था, जिससे जाति-व्यवस्था जो अभी तक बहुसंख्यक वर्गों के शोषण का माध्यम थी—परिवर्तन का उपकरण बनने लगी. जिस जाति के नाम पर दलितों और पिछड़ों का शोषण होता आया था उसी को हथियार बनाकर लोग संगठित होने लगे. दूसरों के लिए, दूसरों के कहने पर मतदान करते आई दमित जातियों के मतदाताओं ने पहली बार अपने जाति/वर्ग के नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुंचाना आरंभ कर दिया. संख्या में बहुसंख्यक होने के नाते उन्हें यह अधिकार भी था. जरूरत इस अधिकार चेतना को जन-जन तक पहुंचाने की थी.

बहरहाल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो देश-भर में उपद्रव हुए, उसके विरोध में जैसी राजनीतिक लाठियां भांजी गईं, उससे ‘हंस’ को परिवर्तनकामी शक्तियों के बीच पैठ बनाने में मदद की. हालांकि इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी. आरंभ में पत्रिका के साथ ऐसे बहुत से लेखक जुड़े जो राजेंद्रजी के कहानीकार को तो महत्त्व देते थे, किंतु परिवर्तनकामी विचारधारा या साहित्य की पत्रिका को वैचारिक प्रतिबद्धता जोड़ना उन्हें स्वीकार न था—वे धीरे-धीरे उनसे किनारा करने लगे. राजेंद्र यादव को उसकी कोई चिंता न थी. इस मामले में गजब के लोकतांत्रिक थे. दूसरों की असहमतियों का सम्मान करना उन्हें आता था. असहमतियों के बीच अपनी वैचारिक निष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास भी उनमें था. उनके नेतृत्व में दमित चेतनाओं को स्वर देने की जो डगर ‘हंस’ ने पकड़ी, उसपर साथ देने के लिए नए और समर्पित यायावार पहले से ही प्रतीक्षारत थे.

1991 के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर पूंजी और कारपोरेट घरानों का जल-जंगल और जमीन को लूटने का खेल चला. नतीजा यह हुआ कि पूंजीवादी ताकतें समाज और सरकार पर अपनी पकड़ बनाने लगीं. मनुष्य का अवमूल्यन कर उसको महज ‘उपभोक्ता’ मान लिया गया. यह साम्राज्यवाद का नया रूप था, जिसमें राष्ट्रों को तलवार के बजाय आर्थिक नीतियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से समर्पण के लिए मजबूर किया जाता था. ‘हंस’ ने इस मोर्चे पर भी काम किया. जहां जरूरी लगा, राजेंद्रजी ने कथित उदारीकरण के नाम पर कारपोरेटीकरण का जमकर विरोध किया.

राजेंद्र यादव के ‘हंस’ की विशेषता थी कि उसमें जो छपता था, वह विमर्श की दृष्टि से नया, बेबाक और बेलाग होगा था. उसकी गमक दिलो-दिमाग पर देर तक सवार रहती थी. चाहे वह विषय के चयन को लेकर हो या भाषा को, राजेंद्रजी सभी में मौलिक नजर आते थे. उन्होंने ‘हंस’ में महिला और दलित साहित्यकारों को खुलकर स्थान दिया. इसके लिए उन्हें लंबा विरोध भी झेलना पड़ा. ‘हंस’ को बदनाम करने के लिए लोगों ने उनपर अश्लीलता के आरोप लगाए. उसे सांस्कृतिक अपसंस्करण का वाहक कहा गया. तमाम किस्म के दबावों के बीच राजेंद्रजी अपने मूल्यों पर अडिग बने रहे. दलित-अस्मिता के संघर्ष में उन्होंने सदैव दलित साहित्यकारों, विचारकों का साथ दिया. ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को शीर्षक देने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

राजेंद्र यादव और ’हंस’ के सरोकारों को केवल स्त्री और दलित तक सीमित कर देना, उनके योगदान को कम करके आंकना होगा. हालांकि ’हंस’ तो इतने भर से भी साहित्यिक पत्रिकाओं में शीर्ष पर बना रह सकता है. ‘हंस’ की प्रतिबद्धता पूरे जनसमाज के प्रति थी. ‘हंस’ ने जिस तरह धर्म के आडंबरवाद पर चोट की, उतनी मुखरता से शायद ही किसी और पत्रिका ने आवाज उठाई हो. राजेंद्र यादव हिंदी में स्त्री-विमर्श के सूत्रधारों में से थे. उन्होंने प्रभा खेतान को सीमोन दा बोउआर की कृति ‘दि सेकिंड सेक्स’ का हिंदी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया, जो हिंदी में ‘स्त्री-उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी में स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने में जितना योगदान इस अकेली पुस्तक का है, उतना शायद ही किसी और पुस्तक का होगा. निश्चय ही इसका श्रेय राजेंद्र यादव को जाता है. भारत में लड़की को होश संभालते ही समझाया जाता है, तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं है. उसपर तुम्हारे पति का अधिकार होगा. और जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक तुम पिता के संरक्षण में हो. राजेंद्र का स्त्री विमर्श इसी विसंगति पर केंद्रित था. वे मानते थे कि व्यक्ति होने के नाते अपने शरीर पर सबसे पहला अधिकार स्त्री का होता है. पुरुष समाज को स्त्री के इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए.

राजेंद्र यादव के आलोचक भी कम न थे. कुछ तो मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी भड़ास निकालते रहे. उनपर तरह-तरह के लांछन लगाते रहे. यह उनकी मजबूरी है—यह हकीकत को राजेंद्र जी भी जानते थे. इसलिए आलोचकों की बातों की परवाह किए बगैर वे अपने काम में लगे रहते थे. इसी लिए वे राजेंद्र यादव थे. अंत में बस इतना कि राजेंद्र यादव के आलोचक आज चाहे जितना दंभ कर लें, समय की छननी में उनके नाम कहीं दूर बिला जाएंगे, मगर राजेंद्र यादव साहित्य-जगत में दीपस्तंभ की भांति रहेंगे, उनके संपादकीय अपने युग की आवाज की तरह पढ़े जाएंगे.

— ओमप्रकाश कश्यप
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[साभार: जनकृति पत्रिका के 'हिन्दी पत्रिका विशेषांक' में प्रकाशित आलेख]

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