हंसराज रहबर के साहित्यिक कृतियों में राष्ट्रवाद और मार्क्सवाद का द्वंद: पंकज कुमार
हंसराज रहबर के साहित्यिक कृतियों में राष्ट्रवाद और मार्क्सवाद का द्वंद
पंकज कुमार
हंसराज
रहबर मार्क्सवादी भी हैं और राष्ट्रवादी भी हैं, लेकिन
मार्क्सवाद हो या राष्ट्रवाद दोनों का ढोंग उन्हें पसंद नहीं। अपने उपन्यास ‘बिना
रीढ़ का आदमी’
में रहबर ने मुहम्मद हसन रिजवी के ढोंग को इस प्रकार व्यक्त किया है कि ‘‘जिस इंसान के दिल में एक बार मार्किंसिज्म का नूर दाखिल हो गया, वह ‘हमेशा क्रांतिकारी बना रहेगा और मौलिक चिंतन करेगा।’’1 मनुष्य को क्रांतिकारी अथवा मार्क्सवादी बने रहने के लिए एक ही जीवन में कई
जन्म लेने पड़ते हैं। हंसराज’ क्रांतिकारी अथवा मार्क्सवादी अध्ययन
लम्बे अनुभव के ‘बहुत बाद ‘रहबर’
बने। अपनी आत्मकथा ‘मेरे सात जन्म में
उन्होंने उल्लेख किया है कि ‘‘मैं अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदेलन में गिरफ्तार हुआ। दो वर्ष जेल में रहा। दूसरा विश्व
युद्ध चल रहा था। परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। मैंने गांधीवाद, राष्ट्रवाद,
मार्क्सवाद और इतिहास का अध्ययन किया। समझ बढ़ी और जेल में
कम्युनिष्ठ बन गया। यह मेरा पाचवाँ जन्म था’’2 रहबर के व्यक्तित्व एवं
कृतित्व के आलोक में इनकी विचारधारा का सहज ही मूल्यांकन किया जा सकता है। यदि
उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘‘मैं सैद्धान्तिक रूप से सन् 1942 तक समाजवादी या आदर्शवादी ही था। कहने की जरूरत नहीं। इसके बाद से मार्क्सवाद
और जीवन ही मेरा प्रेरणास्रोत है।’’3 जो व्यक्ति इस प्रकार की
उद्घोषणा करता हुआ आगे बढ़ता है, उसके मार्क्सवाद होने की संदिग्ध
दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। ‘रहबर’ 1943
सं. कम्यूनिष्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रहे।
मार्क्सवादी
विचारधारा को,
उन्होंने भारतीय परिप्रेक्ष्य में आत्मसात किया, इन्होंने इसे आँख मूंदकर नहीं, बल्कि व्यवहार की कसौटी पर
परखकर इन्हें जो सही और सार्थक लगा, उसी का समर्थन किया, अन्यथा विरोध में खड़े हो जाते। चाहे इसकी कीमत उन्हें जो भी चुकानी परे चुनौती
के लिए तैयार रहते थे। इस संदर्भ में दो घटनाओं का उल्लेख अपरिहार्य है। पहला ‘‘सन् 63-64 के दिनों में में कम्यूनिस्ट पार्टी पर डांगे का एकाधिकार था। उन्हीं दिनों
किसी बात पर इन्होंने नेशनल कौन्सिल के प्रस्ताव से विरोध जाहिर किया और जब बात
बढ़ी तो लिख कर दे दिया कि मैं नेशनल कौन्सिल प्रस्ताव को नहीं मानता और उस पर अमल
नहीं नहीं करूँगा। जिसके परिणामस्वरूप इन्हें सन् 64
में पार्टी से निकाल दिया,
किन्तु ये झुके नहीं और लड़ाई जारी रखी।’’4 दूसरा अपने इसी व्यक्तित्व का परिचय इन्होंने तब भी दिया जब ये ‘योद्धा
सन्यासी विवेकानन्द’
लिख रहे थे। यह तथ्य जगजाहिर है कि ‘रहबर’ उस विचारधारा के प्रबल समर्थक हैं। जिसे मार्क्सवादी ‘लेनिनवादी’ कहा जाता है। जब दल के नेतृत्व को पता चला कि ‘रहबर’ विवेकानन्द पर पुस्तक लिख रहे हैं, तो फरमान आया और तलब करके
पूछा गया कि क्या ‘रहबर’
भी वही काम करेंगे जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कर रहे हैं? तब रहबर जी अडिग रहे तो चेताया कि प्रकाशन से पूर्व दिखा लेना। इस प्रकार रहबर
मार्क्सवादी चेतना के आयातित रूप अथवा किसी मापदंडों को स्वीकार करने के बजाय
भारतीय परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक विधि का सहारा लिया, जिससे मार्क्सवादी विचारधारा का उचित उपयोग भारतीय जनमानस पर हो सके न कि किसी
रुढ़गत् नीति को अपनाया जो इन्हें प्रगतिशील वैचारिकी का युग पुरुष बनाता है। इस
बात में स्पष्टीकरण उनके आत्मकथा में मिलता है।
‘‘पौधा धरती से और मनुष्य अपने अतीत से जीवन शक्ति ग्रहण करता है।’’4
रहबर
जी ने उल्लेख किया है कि माओत्सेतुंग को पार्टी विभाजित होने के बाद मैंने पढ़ा, उसने लिखा है- ‘‘संस्कृति विहीन सेना मन्द बुद्धि सेना है, वह शत्रु को नहीं नहीं हरा
सकती। हमारी क्रांति के लिए हमें दो तरह के सिपाहियों की जरूरत है। बन्दूक के
सिपाही और कलम के सिपाही लेकिन हमारे कम्यूनिष्ट नेता कलम को कोई महत्व नहीं देते।
वे संस्कृति के बारे में न कुछ जानते हैं और न जानना चाहते हैं।’’5
चीन
में कम्यूनिस्ट पार्टी की सहायता का रहस्य बताते हुए रहबर जी ने उल्लेख किया है कि
उसने संस्कृति और साहित्य के इस क्रांतिकारी पक्ष की कभी अवहेलना नहीं की।
जहा-जहाँ लाल सेना ने मुक्त क्षेत्र कायम किए वहाँ तुरन्त सांस्कृति कार्यक्रम के
द्वारा उस क्षेत्र की विशिष्ट जन संस्कृति को बढ़ावा दिया और उसका मार्कसी विश्लेषण
करके जनचेतना को सही दिशा प्रदान की। कोचीन की कम्यूनिस्ट पार्टी में बन्दूक के
साथ कलम को और बन्दूकें कन्धे पर रखकर लड़ने वाले सैनिकों के साथ-साथ सांस्कृतिक, कार्यकर्ताओं,
लेखकों और बुद्धिजीवियों को हमेशा एक महत्वपूर्ण स्थान
प्राप्त रहा है और पार्टी के नेता कामरेड माओत्सेतुंग ने उनकी रहनुमाई के लिये
येनान सम्मेलन में साहित्य और संस्कृति पर प्रसिद्ध थीसित प्रस्तुत किया।
इसी
समझ और दूरदर्शिता के कारण चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी एक जुट रही। इसी कारण क्रांति
सफल रही और इसी कारण देश को संशोधनवाद के खतरे से बचाना सम्भव हो सका।
क्रांति
न केवल व्यक्ति,
बल्कि समूचे राष्ट्र के विकास की जमानत है। इससे पुराने
दुराग्रह एवं भ्रम टूटते हैं और जीवनदायक विचारों की सृष्टि होती है। लोग विशेषकर
युवक क्रांतिकारी पार्टी और क्रांतिकारी आन्दोलन में इसलिये शामिल होते हैं उन्हें
अपना विकास प्रिय होता है।
वे
अपने समूचे राष्ट्र के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास चाहते हैं। इसी कारण हजारों
लोग बड़ी-बड़ी आशाएँ-अभिलाषाएँ और आकांक्षाएँ लेकर पार्टी के करीब आए। उसके सदस्य
बने लेकिन पार्टी के भीतर आकर उन्हें सख्त मायूसी हुई। चूँकि पार्टी के लोगों ने
संस्कृति के क्रांतिकारी पक्ष पर कभी ध्यान नहीं दिया और सांस्कृतिक समस्याओं को
समझने समझाने और उनका राजनीति से द्वन्दात्मक सम्बन्ध स्थापित करने की कभी चेष्टा
नहीं की। इसलिये कम्यूनिस्ट पार्टी की हालत किसी भी बुर्जुआ तथा पैटी बुर्जुआ
पार्टी से बेहतर नहीं थी।
बुर्जुआ
और पैटी बुर्जुआ क्रान्ति विरोधी प्रवृत्तियों से इसका भीतरी वातावरण इतना भ्रष्ट
था कि व्यक्तित्व के विकास का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। उल्टा इस माहौल में भले
आदमी का दम घुटता था। अगर उसे संस्कृतिविहीन जोड़-तोड़ और गुटबाजी में ग्रस्त बनना
स्वीकार न होता,
वहां कोई भी भाग खड़ा होता और फिर पार्टी की ओर देखने से भी
तौबा कर लेता था। अगर मेरे जैसा सख्त जान जिसने अनुभव से सीख लिया हो कि किसी
दूसरी जगह भी व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं है।
हमारा
कम्यूनिज्म आन्दोलन अपने प्रारम्भ् से ही राष्ट्रीयता को नकार कर अन्तर्राष्ट्रीय
बन गया था। परिणाम यह कि इतिहास और परम्परा को नकारा गया। परिणाम यह कि देशभक्त और
राष्ट्रवादी कहलाना रुढ़िवाद अैर प्रतिक्रियावादी समझा जाने लगा। साथ ही यह कि
हमारे वामपक्ष ने प्रेमचन्द जी की ‘कफन’ कहानी के ‘घीसूमाधव’
पैदा किये जिनकी न कोई मान्यता है और न नैतिकता।
मार्क्सवाद लेनिनवाद के सिद्धान्त को अगर जनता के क्रान्तिकारी व्यवहार से न जोड़ा जाये तो
वह हवाई मार्क्सवाद है। खोखला माक्र्सवाद है। ऐसे मार्क्सवादी क्रांति की पंक्ति
में क्रान्ति के शत्रु हैं। जैसे-जैसे उत्पादन ऊँचा उठा है, विचार भी ऊँचा उठा सर्वहारा वर्ग अस्तित्व में आया। जिसका वह जीवनदर्शन है।
सभी राष्ट्रों की अपनी-अपनी विशिष्टता है। इन विशिष्टताओं से जुड़कर मार्क्सवादी हर
देश में अपना एक राष्ट्रीय रूप धारण करेगा।
अपनी
आत्मकथा में रहबर लिखते हैं- विचार और साहित्य का अपना एक वर्ग चरित्र होता है, लेकिन भौगोलिक सीमा नहीं होती। जिस विचार और साहित्य से शोषक-शासक वर्ग का हित
पोषित होता है,
वह उसे प्रचारित प्रसारित करता है, चाहे वह किसी भी देश का हो। उदाहरण के लियो तालस्ताय और कनफ्यूशिस के विचार और
साहित्य से हमारे पुस्तकालय भरे पड़े हैं, और उन्हें पाठ्य पुस्तकों
में भी पढ़ाया जाता है,
फिर अगर हम लेनिन और माओत्सेतुंग का साहित्य पढ़े और उनके
विचारों को शोषित उत्पीड़ित और निष्पेशित जनता में प्रचारित-प्रसारित करें तो
हो-हल्ला क्यों मचता है?
उन पर विदेशी होने का लेविल क्यों लगाया जाता है? सिर्फ इसलिये न कि उससे शोषक-शासक वर्ग के हितों पर आँच आती है। जन साधारण की
चेतना विकसित होती है।6
अपनी
समीक्षात्मक कृति तिलक से आज तक में रहबर लिखते हैं- ‘‘हमारे देश की यह विडम्बनापूर्ण मानसिकता बन गई है कि जो भी व्यक्ति रुढ़ियों का
विरोध करता है,
उन्हें तोड़ने का प्रयास करता है, उसका यथा शक्ति डटकर विरोध किया जाता है। महावीर, बुद्ध,
कबीर, नानक दयानन्द, राजाराममोहन राय,
सभी के साथ ऐसा ही विरोध सामने आया।
लेकिन
वे जिन्हें विरोध स्वीकार ही नहीं, अपने पथ पर अडिग हो अपने
लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। हर वाद में कुछ रुढ़िया और रुढ़िवादि बन जाते हैं। और
वे रुढ़ि जनमानस में रच बस जाती हैं। चाहे उसका परिणाम ऋणात्मक ही क्यों न हो। ये
जिस मान्यता को अपनाते हैं उस पर भली प्रकार सोच विचार करके ही अपनाते। इनकी इस
प्रवृत्ति को हम अन्तर्राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में इन विचारों को देखकर लगा सकते
हैं। इनका कहना है कि ‘अन्तर्राष्ट्रीयता में राष्ट्रीयता भी शामिल है, उसमें
से राष्ट्रीयता निकाल दीजिए तो शेष क्या रह जायेगा। केवल ‘अन्तर’’7।
रहबर
जी की व्यापक दृष्टि कदम-कदम पर विविध आयामों में दृष्टिगोचर होती है। इनकी दृष्टि
में इतना पैनापन पाया गया कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इसी
सन्दर्भ में एक बात यह भी ध्यान देने की है, कि राष्ट्रीय संग्राम में
तथाकथित सनातनी जिन्हें रुढ़िवादी और न जाने क्या-क्या कहा गया था वही गर्म दलीय थे, उन्होंने ही मार्क्स को भली प्रकार समझ कर आत्मसात् किया था। देश की
स्वतन्त्रता के लिये फांसी पर झूलने वाले जिन क्रान्तिकारियों के पास मार्क्स
साहित्य मिलता था। जो रूस की क्रान्ति से प्रेरणा लेते थे उन्हीं के पास तिलक की
गीता-रहस्य और विवेकानन्द साहित्य मिलता था। जबकि उन दिनों के प्रगतिशील विचारों
वाले अंग्रेज-भक्त गांधी के चरखावाद में अपनी शक्ति का अपव्यय कर रहे थे। कौन सी
शक्तियाँ इन रुढ़िवादियों (?)
को मार्क्स की ओर अग्रसर होने को प्रेरित कर रही थीं, जबकि गांधी उनके अधिक करीब थे। यह शोध का विषय हो सकता है। किन्तु इस मान्यता
के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं कि इन उग्रवादी कहे जाने वालों का दृष्टिकोण सही
अर्थ में प्रगतिशील था जो अपने राष्ट्रीय दायित्व को भलीभाँति समझते थे। ‘रहबर’ ने अपनी कृतियों में एक-एक कर इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षित किया है और मार्क्स एवं
माओ को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते हुए जन साधारण तक पहुँचाया है।’’8
‘प्रगतिशीलता’ वस्तुतः एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गई हैं। जिसका सीधा अर्थ मार्क्स से सम्बद्ध
किया जाता है। जो कि इस युग के लिये कोई नवीन नहीं बल्कि पुरातन दर्शन है। शायद
इसीलिये कुछ लोग इसे जनवाद के नाम से फैशन में ला रहे हैं।
‘प्रगति’ के इस रुढ़ अर्थ में ही स्वनामधन्य समालोचक तुलसीदास के महत्व को नकारते हैं
जबकि अपने समय में तुलसी भी प्रगतिशील थे। विवेकानन्द और तिलक ने भी प्रगतिवादी
दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार किया। विवेकानन्द की दृष्टि में ‘मनुष्य
सारे प्राणियों से श्रेष्ठ है, सारे देवताओं से श्रेष्ठ हैं, उससे श्रेष्ठ और कोई नहीं अतएव लिखा है: ‘‘आज हमारे देश को जिस चीज
की आवश्यकता है,
वह है लोहे की मांसपेशियों और फौलाद के स्नायु, प्रचण्ड इच्छा शक्ति,
जिसका अवरोध दुनिया की कोई ताकत न कर सके। और जिस उपाय से
भी हो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में समर्थ हों, फिर
चाहे समुद्र में क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही
सामना क्यों न करना पड़े। और देखिए प्राचीन धर्म ने कहा ‘‘वह नास्तिक है जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता।’’ नया
धर्म कहता है ‘‘नास्तिक हुआ है जो स्वयं में विश्वास नहीं करता।’’9 वे अपने समय के जनमानस से जुड़े थे जबकि आज के प्रगतिशील मधुशालाओं और क्लबों
से जुड़कर ‘प्रगति के नाम पर युग को, परिस्थितियों को नकार रहे हैं। ‘रहबर’ ने इन सब की चिन्ता किये बिना अपनी परम्परा और संस्कृति को समझबूझ कर ही
प्रस्तुत किया है कि तिलक का उत्तराधिकारी वह व्यक्ति बन सकेगा जो मार्क्सवाद का
ज्ञाता होने के साथ-साथ संस्कृत का भी पण्डित हो और जिसने अपने अतीत का आत्मसात कर
लिया हो। वही व्यक्ति हमारी राष्ट्रीय विशिष्टताओं को समझ सकेगा और वही मार्क्सवाद
को राष्ट्रीय रूप दे सकेगा तब देश की जनता उसे सहज में हृदयंगम करके, क्रांतिकारी भौतिक शक्ति में रूपान्तरिक कर देगी, आत्म-विश्वास की बुनियाद मजबूत होगी।
इसीलिये
कहा जाता है कि ‘रहबर जी’
मार्क्सवादी होने के साथ-साथ सही अर्थ में राष्ट्रवादी और
प्रगतिशील थे।
‘‘राष्ट्रवादी के सही अर्थ में कहने का तात्पर्य स्पष्टतः अंध राष्ट्रीयता का
विरोध करना है। जो इन्होंने ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गीत की इस भावना का विरोध करके भी किया है कि हम विश्व पर विजय हासिल करेंगे, जबकि सही दृष्टिकोण तो यह है कि हम भी विश्व के अन्य देशों के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर आत्मविश्वास पूर्ण जीवन यापन करेंगे।’’10
रहबर
की विचारधारा को देखने पर मालुम होता है कि ‘रहबर’ आदर्शों के पक्षधर थे,
आदर्शवाद के नहीं आदर्श जीवन के लिये इनका कथन एक दम स्पष्ट
था। ‘मनुष्य का जब निश्चित सिद्धान्त हो और वह सतत् संघर्ष का मार्ग अपनाएं तो
धीरे-धीरे इसकी प्रतिभा का समुचित विकास होता रहता है, लेकिन इसके विपरीत अगर सिद्धान्त छोड़कर आदर्शहीनता और विलासिता का मार्ग अपना
ले और जनता से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर ले तो धीरे-धीरे उसकी प्रतिभा का हास्य भी
हो जाता है।’’11 स्वच्छन्द विचरण पर भी रहबर जी की विचारधारा नकारात्मक थी वे अंकुश के पक्षधर
थें अब यह स्वच्छन्दता चाहे नारी की हो या चाहे पुरुष की। इनके सम्पूर्ण कथा
साहित्य में जो भी पात्र दिशाहीन स्वच्छन्दता की लीक पकड़ता है। पूर्णतः असफल होता
है। स्त्रियों के स्वातन्त्र्य यानी विमैनलिव की बात उठाकर अपने आपको पश्चिमी
सभ्यता के रंग में रंगने को प्रयत्नशील महिलाअें के अत्यन्त सुन्दर चित्रण ‘इनके
कुछ उपन्यासों में मिलते हैं। मसलन, अमिता, उन्माद,
पंखहीन तितली तथा किस्सा तोता पढ़ाने का तो मुख्यतः यही विषय
है। उन्हीं के शब्दों में उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र का कथन देखें ‘‘मैं जो इस देश की शिक्षित और सजग नारी हूँ.... तुम्हारे इस ऐश्वर्य में भागी
बनने से, पैसे की इस गुलामी को अपने ऊपर ओढ़ने से इन्कार करती हूँ... मैं तुम्हारी थी पर
तुम मेरे नहीं बन पाये’’12 जाहिर है कि इन्होंने नारी को मात्र भोग्य नहीं, बल्कि सहधर्मिणी माना।
इनके
समक्ष इनके पत्नी होने के साथ-साथ माँ, बहन, और बेटी के सम्बन्ध भी इतने ही महत्वपूर्ण हैं, बल्कि
कहीं-कहीं तो और अधिक हैं।
‘रहबर’ जी के विचार से शिक्षा नौकरी का जरिया मात्र नहीं है। वह मात्र ज्ञान प्राप्त
करने में सहायक है। देश भक्ति में सहायक हैं, इन्होंने अपनी कहानी में
लिखा है ‘‘पढ़े-लिखे ही अगर देश की सेवा न करेंगे तो और कौन करेगा।’’13
वह
ज्ञान वह शिक्षा बेकार ही है जिसका उपयोग देश हित में न हो। ‘रहबर
जी’ के कृतित्व के आलोक में इनकी विचार धारा पर दृष्टिपात करते समय जिस पक्ष को
विशेष रूप से देखना है,
वह है राजनैतिक चेतना। यद्यपि राजनैतिक प्रतिबद्धता
अन्धानुकरण को जन्म देती है। तथापि इसे अनदेखी करना इससे निरपेक्ष रहना, अपने समय और समाज के साथ-साथ अपने साथ गद्दारी करना है। जिस व्यक्ति में राजनैतिक
चेतना का अभाव है,
वह स्वयं कठमुल्लापन और अन्धानुकरण का शिकार हुए बिना नहीं
रह सकता। इस तथ्य के कारण ही तो हम देखते हैं ‘रहबर’के
सम्पूर्ण कृतित्व में समकालीन राजनीति, जो कि भविष्य का इतिहास है
और अपनी परम्परा के इतिहास से कदम-दर-कदम साक्षात् होता है। कहानी हो या उपन्यास, व्यक्तित्व समीक्षा हो या साहित्यिक समीक्षा इनका विविध लेखन सामयिक राजनीति
के रु-ब-रु होकर ही खड़ा है जो प्रतिबिम्ब स्वरूप अपना चित्र भी प्रस्तुत करता है
और शत्रु के सामने चुनौती भी देता है। इनके लेखन में सामाजिक एवं राजनैतिक इतिहास
के दर्शन जिस ढंग और स्पष्टता के साथ होते हैं, ऐसा चित्रण इतिहास की
पुस्तकों में भी सुलभ नहीं है और यही कारण है कि जब हमारे देश का निरपेक्ष इतिहास
लिखा जायेगा और वह दिन अब दूर नहीं लगता... उस समय इनका कृतित्व पर्याप्त सहायक
होगा।’’14
बुजदिली
से रहबर जी का काफी घृणा थी और तो और अपने जीवन में इस कमजोरी को इन्होंने अपने
पास भी फटकने नहीं दिया। वे कहते ‘मैं बुजदिली और मजबूरी की
मौत नहीं मरना चाहता जब तक जिस्म में खून का एक भी कतरा बाकी है। मैं इस जालिम मौत
का मुकाबला करूंगा।15 और जिस व्यक्ति को बुजदिली से इतनी नफरत है; उसका
परतन्त्रता के प्रति विचार भी अनुमानित नहीं रहने चाहिये, ‘कोई बात नहीं। मेरा बच्चा शहीद है। उसने इन्कार किया है- इन्कार किया है
गुलामी की फ़िजा में साँस लेने से।16
रहबर
की राष्ट्रीयता,
शिक्षा तथा न्यायप्रियता और मार्कसीय विचारधारा प्रश्नातीत
है।
ये
अपनी संस्कृति के रक्षक और परम्परा एवं परिस्थिति से सीखने के पक्षधर रहे। रहबर जी
कभी भी किसी प्रकार के दबाव के सामने नहीं झुके यही उनका स्वभाव था और यही शान। वे
कहते थे-
‘‘पेड़े के पत्ते गिनने वालों तुम ‘रहबर’ को क्या जानो।’’
कपड़ा-लत्ता
ठीक न हो पर बात तो उसकी भारी है।17
‘रहबर’ की बात हमेशा भारी रही,
उनके विचार उनकी सोच उथली नहीं थीं उसमें हल्कापन नहीं था, बल्कि परिपक्वता थी गुरुता थी।
रहबर
जी ने कथासाहित्य लिखा हो कहानी उपन्यास या आलोचना, समीक्षा
सभी में अपनी स्पष्टवादिता और बिना किसी लाग लपेट के बात को कहा है।
विचारधारा
में घटनाओं,
परिस्थितियों का समावेश होता है। रहबर की कहानियों के
माध्यम से द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त भारत में साम्यवादी विचारधारा को समझने
में सहायता मिलती है जो खुद लेखक के ही शब्दों में कहते हैं। ‘‘मैं कौन-कौन सा दिया अपने दिये से जलाऊँ? यहाँ तो हर घर में अंधेरा
है।’’
सन्
1943 में रहबर जेल में थे। इस दौरान इन्होंने ‘हाथ में हाथ’ तथा ‘कंकर’
दो उपन्यास, दर्जनों कहानियाँ और
नज्मे-गजलें भी लिखीं। इसके साथ ही अनेक महत्वपूर्ण साहित्य की सर्जना की है
जिनमें प्रेमचन्द,
जीवन, कला और कृतित्व, प्रगतिवाद पुर्नमूल्यांकन, नेहरू बेनकाब, गालिब बेनकाब,
गान्धी बेनकाब, राष्ट्रनायक, गुरुगोविन्द सिंह,
भगतसिंह, एक जीवनी तथा योद्धा सन्यासी
विवेकानन्द,
मेरे सात जन्म (चार खण्डों में) के साथ-साथ अनेक कहानियाँ व
उपन्यास में मार्क्सवादी विचारधारा और आलोचक रूप के साथ सजग कहानीकार और
उपन्यासकार के रूप में सामने आते हैं। रहबर का मानना है कि भारत में अभी तक मार्क्सवाद
आया ही नहीं है,
जो है, सब खोखला है तथा वे भारत की आजादी को
आजादी नहीं,
अपितु सत्ता स्थानान्तरण मात्र मानते हैं।
संदर्भ
1. बिना रीढ़ का आदमी, हंसराज रहबर,
प्रभात प्रकाशन, दि. 1977, पृ. 109
2. मेरे सात जन्म भाग-3, हंसराज रहबर,
वाणी प्रकाशन, 1980, पृ. 7
3. नया साहित्य:
दिसंबर,
1963, पृ.-3, मेरा प्रेरणास्रोत-हंसराज
रहबर
4. मेरे सात जन्म भाग-3, हंसराज रहबर वाणी प्रकाशन, दिल्ली-1988, पृ.
17.
5. माओत्से तुंग, लेखक- हंसराज रहबर आलेख प्र. दि. 1982, पृ. 51
6. मेरे सात जन्म भाग-4, वाणी प्रकाशन,
दि. 1989, पृ. 130
7. तिलक से आज तक निधि
प्रकाशन दिन. 1980 पृष्ठ 141
8. रहबर एक चुनौती, श्री विश्रांत वशिष्ट,
पृ.-182-183.
9. गांधी बेनकाब, हंसराज रहबर,
दिशा प्रकाशन, दिल्ली-1971, पृ. 270-71
10. रहबर एक चुनौती, श्री विश्रांत वशिष्ट,
पृ.-182-183.
11. प्रगतिवाद:
पुनर्मूल्यांकन,
नवयुग-प्रकाशन, दिल्ली-1966, पृ. 227
12. किस्सा तोता पढ़ाने
का, लेखक हंसराज रहबर,
राजपाल एण्ड सन्स, प्रकाशन-1971, पृ. 137
13. उपहास, कहानी संग्रह,
(प्रतिध्वनि) इंडियन पब्लिशर, इलाहाबाद, प्र. 1947,
पृ. 5
14. रहबर एक चुनौती, विश्रांत वशिष्ट, पृ. 50
15. उपहास, जिन्दगी की उमंग,
इंडियन पब्लिशर, इलाहाबाद, प्रकाशन 1947,
पृ. 33
16. उपहास जननी कहानी
से, इंडियन पब्लिशर हाऊस,
इलाहाबाद प्रकाशन 1947, पृ. 4
17. एहसास काव्य संग्रह, हंसराज रहबर,
पृ. 15
[साभार: जनकृति पत्रिका]
हंसराज रहबर एक महान व्यक्तित्व के धनी थे।साहित्य में साजिश के चलते उन्हें दबाया गया है। रहबर पर काम होना बहुत ही आवश्यक है।
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