पढ़कर याद रह जाने वाली किताब- पेपलौ चमार: समीक्षक- राजीव कुमार स्वामी
एकता प्रकाशन चूरू से प्रकाशित शिक्षक, कवि उम्मेद गोठवाल की राजस्थानी में कविता की पहली ही किताब ’पेपलौ चमार’ दलित जीवन के यातनापूर्ण इतिहास और वर्तमान का दस्तावेज़ी बयान है। दलित विमर्श हिंदी में अब एक स्थापित विषय के रूप में जगह पा चुका है, बावज़ूद इसके दलित जीवन-संघर्ष और शोषण चक्र को इस तरह इतिहास, वर्तमान, राजनीति और धर्म के अनेक कोनों से देखने दिखाने वाली कविता की कोई ऐसी किताब शायद अभी तक हिंदी में भी नहीं है। राजस्थानी में प्रकाशित यह किताब न केवल अपने विषय को व्यापकता प्रदान करती है बल्कि दलित और अछूत कहे जाते रहे समाज की मुक्ति के संघर्ष में एक प्रभावी आवाज़ भी जोड़ती है। जाति आधारित शोषण की विद्रूपताओं को उद्घाटित करती पैनी और मार्मिक कविताओं से भरी यह किताब राजस्थानी साहित्य में मील का पत्थर कही जा सकती है।
पेपलौ चमार की कविताओं को पढ़ना जहां एक ओर गहरे अवसाद से भर देने वाला है वहीं कुछ कविताओं में बदलाव और चेतावनी का स्वर भी स्पष्ट सुनाई देता है। संकलन की अनेक कविताएं दलित राजनीति की नई समझ की ओर इशारा करती है। कविता को औजार की तरह प्रयोग करने की कवि की सजगता हाशिए की राजनीति के बदलने की ओर संकेत करती है।
संकलन की कविताओं के मुख्य किरदार ’पेपलौ चमार’ का परिचय ही उसके प्रति गहरी सहानुभूति और दुख को जगाने वाला है। कवि की पहली सफलता तो यही है कि वह पेपले के बहाने पूरे दलित समाज की पीड़ा को पाठक तक संप्रेषित कर पाने में बहुत सफल रहा है।
वो एक दुख है / कै मिनख है / कै पछै एक विकार है / वौ समाज रौ हिस्सौ है
कै समाज रौ खंखार है, / वौ छोटै-सै गांव रौ / एक गिणतबायरौ / चमार है।
खंखार के प्रति जुगुप्सा को अछूत और दलित के प्रति सवर्णों की भावनाओं के रूप में समझा जा सकता है। खंखार का यह अकेला बिंब पेपले की सामाजिक पहचान और उसके पीछे के सवर्ण अत्याचार को एकदम नंगा कर देता है। पढ़ने और सुनने वाले को भी दूषित-सा कर देने वाला, भद्रलोक में वर्जित यह भाव सदियों से पेपले के जीवन का हिस्सा है; सोचकर ही मन ग्लानि से भर उठता है। अछूत की पीड़ा का यह बिंब इकलौता नहीं है। पेपले की पीड़ा और यातना भी तो कोई छोटी नहीं है। कवि ने पूरी सहानुभूति से पेपले की यातना को कविता में बांधा है।
वौ जांणै ऊमरकैद री / सज़ा काटै वौ दुखियारां बिचालै / दुख ई बांटै
वौ गांठ है, गूमड़ौ है / गिंधलौ और बेकार है / वौ छोटै-सै गांव रौ / एक गिणतबायरौ चमार है।
उम्मेद जी की कविताओं को पढ़ते हुए कबीर की याद भी बार-बार आती है। ’सुण पेपला’ और ’जी, ग्यानी जी’ जैसे उद्बोधन वाक्य कबीर के ’सुनो भाई साधो’ और ’पांडे कौन कुमति तोहे लागी...’ का अनुवाद सरीखा होकर भी नई भाव-भंगिमा रचते हैं। ’जी, ग्यानी जी’ के तीन शब्दों का इकलौता व्यंग्य इतना नुकीला है कि ज्ञान के दंभ और पाखंड को आर-पार बेध देता है।
जी, ग्यानी जी! / आप जलम सूं ई पूजीजता हौ,
पेट पड़तां ई आपरी / उघड़ जावै मांयली आंख्यां
हाथ आय जावै कैवल्य
ज्ञानी जी को संबोधित कविताओं में ब्राह्मणवाद की जड़ों पर गहरी चोट की गई है। इन कविताओं में ज्ञानी जी के ज्ञान पर एकाधिकार और उसके परवर्ती प्रपंचों की कलई खुलती नजर आती है।
जी, ग्यानी जी! / आपरी व्यवस्था मांय / गाय, गोमूत,गोबर / पूजीजता हुय सकै,
पण नीच जात / वीरै लेखे लात / फगत लात।
सचमुच यह कितना दारुण यथार्थ है कि पशुपक्षियों, जीव-जंतुओं और यहां तक कि निर्जीव पहाड़-नदियों को भी पूजा और आदर करने वाला तथाकथित सर्वाधिक सहिष्णु हिंदू समाज किस तरह अपने ही जैसे हाड़-मांस के कुछ लोगों को छूना तो दूर देखना भी गवारा न करने का गौरवपूर्ण इतिहास रखता है? उनकी छाया भी उन्हें छू नहीं सकती। तभी तो पेपले को आज भी अपनी छाया पर नज़र रखनी पड़ती है।
सुण पेपला! / मिटग्या हुयसी / थारै डील रा वै चकानां, / पण म्हैं अजैई
किणी रै कन्नै / ऊभौ हुवण सूं पैलां / निरखूं हूं / खुद री छीयां।
कवि इन विद्रूपताओं के उद्घाटन के साथ-साथ इनकी मूल वजह की पड़ताल भी करता चलता है और संकलन के आखिर तक आते-आते उनसे मुक्ति का मार्ग भी खोजता है। सवर्णों के देवी-देवताओं, तीज-त्योहारों और शोषण के लिए गढ़ी गई तमाम कहानियों किस्सों को एक-एक कर तर्क से खारिज़ करता हुआ वह अपने समाज को इनसे आगाह करता चलता है। जाति और धर्म के गठबंधन को समझ चुका कवि उसके आक्रमण की हर चाल को काटता है। मूलचंद को मलचंद कहकर उसका मखौल उड़ाने वाली इस शर्मा (बे-शर्मा) मानसिकता को वह पहचान चुका है तभी तो वह उसके भीतर पैठकर उसके मुहावरे की पोल खोलता है। बदलते संदर्भ में सवर्ण की तिलमिलाहट और विवशता देखिए-
’कीं ई हुवौ भलांई / किणी ढेढ रौ / हुकम नीं बजायीजसी।’
परंतु वह जानता है कि इस सवर्ण तंत्र को तोड़ना इतना आसान नहीं है। गांव से शहर तक, सड़क से संसद तक, जाति से धर्म तक और दुकान से बाज़ार तक इसकी जड़ें सर्वत्र फैली हैं। ’अजै ऐन स्यापो है’ शीर्षक कविताओं में कवि वर्तमान के इसी अंधकार की पड़ताल करता है। दलित होने का अपराध किस तरह कदम-कदम पर सज़ा सुनाता है एक बानगी देखिए-
जी, ग्यानी जी! / विकास रै इण नाप-सांधै
ऐन आधुनिक लोगां बिचालै / भाड़ै रौ कमरौ लेवण सारू
परबस / अर लाचार हूं / क्यूंकै / म्हैं चमार हूं।
परंतु चूंकि वह जाति के इस कपटजाल को समझ चुका है इसलिए अगले ही पल वह इस अपराधबोध से मुक्ति की घोषणा भी करता है और ज्ञानी के ज्ञान को चुनौती देता है। कबीर की बात, ’पूछ लीजिए ज्ञान...’ को कुछ-कुछ पलटता हुआ-सा कि पूछ लीजिए जात- तो मैं बताउंगा- और बताता है-
सुणौ ज्ञानी जी! / अबै बूझीजौ कदै / म्हारी जात / वीं कुचरणीगारी मुलक साथै
अबै नीं हांफसी म्हारी सांस, / लगायनै आखौ दम
हलकारै साथै कैयसूं / हां, / हां, म्हैं चमार हूं।
इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि कबीर के समय में शिक्षा और सामाजिक जीवन में भागीदारी से वंचित शूद्रों के लिए शायद ज्ञान की धौंस ही प्रमुख रही होगी और इसीलिए कबीर को ज्ञान की चुनौती स्वीकार करनी पड़ी, अन्यथा कोरा ज्ञान कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होता है। परिणामस्वरूप कबीर ने अपने अनुभव और परिश्रम से ज्ञान अर्जित किया और पांडे को खुली चुनौती दी। परंतु कबीर के इतने बरस बाद अब जबकि शूद्र पढ़-लिख भी गए हैं फिर भी सवर्ण मानसिकता में कोई विशेष अंतर नहीं आया है तो शायद कवि का यह कहना ठीक ही है कि ज्ञान के साथ मेरी जाति भी पूछ लेना जिसे लेकर अब मुझमें कोई हीन भावना नहीं है।
दलित और अछूत होकर जीना कैसा होता है इसकी मार्मिकता का उद्घाटन करती कई कविताएं संकलन में हैं जिनमें ’चमार हुवण सुं चौखो है!’ कविता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। तिल-तिल कर मरने से अच्छा है एक ही दिन में समूचा मर जाना। दलित जीवन की कैसी मार्मिक अभिव्यक्ति इस कविता में हुई है।
सुण पेपला! / चमार हुवण सूं चोखौ है / कीं ई हुवणौ / भलांई भैंरूजी रौ बकरौ हुवणौ
कसाई रौ पाडियौ हुवणौ / पण चमार / कदै नीं हुवणौ। / मौत सारू थरपीजेड़ौ है
एक दिन, / इयां घूंट-घूंट / रोजीनै मरण सूं तौ चोखौ है
एक दिन / समूचौ मर जावणौ।
डा आंबेडकर कहते थे, दलित को दलित होने का अहसास करा दो शेष कार्य वह स्वयं कर लेगा। कवि सदियों से कुचले दलित स्वाभिमान को जगाने का महत्त्व समझता है और दलित समाज को जगाने की हुंकार भरता है। आंबेडकर की ही तरह श्रम और भाईचारे पर आधारित एक नए समाज की आस के साथ वह कहता है-
करड़ ल्यावौ / नाड़ री नसां मांय / जिकी झुकै खुदौखुद / किणी भाठै साम्हीं
बिना कारण री / सिरधा पाण, / निंवण करणौ ई है तौ / वांनै करौ
जिणां रै हजार-हजार हाथां री हथेली / थारी खातर ई खुरदरी है।
ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उन्हीं के द्वारा बनाए गए सदियों से चले आ रहे मिथकों का भंजन भी उतना ही जरूरी है। ‘यदा यदा ही धर्मस्य...’ का आदि उद्घोषक कौन है और वो कौनसे धर्म की रक्षा के लिए बार-बार आने की ताकीद करता है; पेपले के लिए यह समझना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे मिथकों की पोल खोलता कवि अब ज्ञानी जी से अपने पाखंड पर कुछ शर्म करने की बात कहता है।
इतिहास साख भरै / कुणई नीं उतरसी आभै सूं,
’यदा-यदा ही धर्मस्य’ रौ / अवतारी ई नीं आयसी / थारै जैडै म्लेच्छ खातर।
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थूं जांणण लागग्यौ है / कै हरिण्य़कश्यप ई साच है
वीरै कन्नै ई बल है, / नृसिंह भगवांन तौ जथाथितिवाद रौ
सैं सूं बड़ौ छल है।
ज्ञानी जी शर्म ना भी करें लेकिन पेपले के लिए यही कम उप्लब्धि नहीं है कि वो उनके षडयंत्र को समझ चुका है और अब अपने अधिकारों के प्रति सजग है। सुणों ज्ञानी जी की तर्ज़ पर ही जब वह कहता है, ’सुणों ठाकरां...’ तो एक अकाट्य चुनौती सी देता मालूम होता है।
सुणौ ठाकरां! / थारै गढ़ आगैकर
टिपती बगत / खुद री जूती
नीं धरसूं / सिर माथै,
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नीं खुद री भोम / नीं खुद रौ धन / फगत मिणत बेचूं खुद री
म्हारौ पसीनौ ई है / जिकौ सींचै
थारा / गढ़, मिंदर अर खेत।
जाति के इस खोए हुए स्वाभिमान को जगाने के लिए वह दोहरी नीति अपनाता है। एक ओर वह अपनी जाति के दमन और शोषण को प्रतिकार के लिए औज़ार के रूप में काम लेता है तो वहीं दूसरी ओर इसके विपरीत अपनी सीमाओं को तोड़कर साहस की एक नई इबारत लिखता मालूम पड़ता है। शोषण की याद कितनी मारक है-
स्यालियौ पीसां सट्टै / खेत अडांणै धरायसी / अगाऊ पड़ब्याज पेटै / हलदी चढेड़ी छोरी
रात नै बुलायसी
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अगूणै बास मांय / बाजै थाली / आथूणौ बास / मनावै हरख,
जाम्यौ है / एक और हाली!
और फिर अछूत की सीमाओं से आगे निकलने की नई इबारत। सवर्ण लड़की से आंख लड़ाने तक की हद तक। फिर बात तो बिगड़नी ही थी। परंतु ये खतरे उठाने ही होंगे-
आव चाख आव चाख
सरतरियां री / वीं छोरी रै हांसतै होठां / कित्ती मिसरी है।
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अगूणै बास रै किणी छोरै री आंख / आथूणै बास री किणी छोरी रै
रूप माथै पड़ग्यी, / बात बिगड़ग्यी।
आरक्षण को जातिवाद का पोषक बताने वालों और इस देश का घुन कहने वालों को भी कवि ने करारा जवाब दिया है। आरक्षण की बैसाखी को छोड़ने को तैयार पेपला ज्ञानी जी को उनका षडयंत्र याद दिलाता है।
जी, ग्यानी जी! / थारै खुद रै सईकां मांय
एकठ पूंजी / थारौ बडमाणसौ / थारौ धरम / थारा देवता आद
सगला पेपलै नै सूंप देवौ / पेपलौ ई थांनै
खुद रौ आरक्षण सूंपै!
संकलन में कई दूसरी राजनीतिक कविताएं भी अत्यंत पठनीय हैं। कवि आंबेडकर के ’शिक्षा, संगठन और संघर्ष के मंत्र को जानते हुए भी इनके बीच पसरे भ्रष्टतंत्र के कारण चिंतित है। सवर्ण मास्टर किस तरह अपने दलित विद्यार्थी का भविष्य पहले ही पढ़ लेता है और अपने साथी दूसरे सवर्ण को चेताता है वह भयावह है।
इणां नै तौ आखी जूंण / मजूरी ई मरणौ है / पढ़-लिखनै इणांनै / के करणौ है,
पढ़-लिखनै थारी ई / अकल खायसी / घुरका करनै थांनै ई / आंख दिखायसी।
ऐसे में कवि अपनों को फिकर करने की सीख देता है और गांव को बदलने के लिए सत्ता और राजनीति की केंद्र दिल्ली को बदलने की बात कहता है। दिल्ली में बदलाव को शासन और नीति निर्माण में भागीदारी के रूप में देखा जा सकता है। तभी तो वह कहता है-
सुण पेपला! / जातवाद री जड़ काटणी पड़सी,
आथूणै बास री / पकड़ करणी हुयसी ढीली,
गांव बदलण खातर
बदलणी पड़सी दिल्ली!
किताब में दलित विमर्श के बीच स्त्री की उपस्थिति भी दर्ज़ की गई है। दलित और स्त्री एक ही गाड़ी में जुते दो बैल हैं जो अलग-अलग होकर भी एक ही हैं। दलित के घर की स्त्री सवर्ण के घर की स्त्री की तुलना में अपने घर के मर्दों से भले ही कम प्रताड़ित हो परंतु स्त्री होने का दुर्भाग्य उसे फिर भी भोगना ही पड़ता है। इस लिहाज़ से स्त्री पर यहां दोहरी मार पड़ती है। दलित के घर की गरीबी, अभाव और अपमान में तो उसका हिस्सा है ही, स्त्री होने की यंत्रणाएं अलग से हैं। दलित की हुई तो क्या हुआ, स्त्री देह का सुख तो दे ही सकती है। देह के स्तर पर उसकी जाति यहां उसका बचाव नहीं करती है। हल्दी चढ़ी हुई युवती का विवाह से पूर्व पैसे के दम पर शोषण कितना दारुण है। क्या कोई आरक्षण, कोई कानून इसकी भरपाई कर सकता है? लाल कपड़ों की ओर घूरती हवसी निगाहें स्त्री होने के अपराध की सज़ा है जिससे उसे दलित होना भी बचा नहीं सकता। उसके बचने का रास्ता भी उसकी कैद ही मैं जाकर खत्म होता है। इस संदर्भ में सवर्ण स्त्री के प्रति दलित पुरुष की मानसिकता अधिक प्रेमपूर्ण है।
थूं लाचार हुयनै
निरदोख चीड़ी नैं इयां बचावै
बूढै नैं हाथ सूंपनै
आखी जूंण सारू
बापड़ी नै पींजरै दाब आवै!
दलित समाज के स्त्री और पुरुष दोनों ही अत्याचार, अपमान और शोषण भोगने के लिए अभीशप्त हैं। पूरी किताब पेपले चमार के बहाने सभी दलितों, शूद्रों अथवा अछूतों की मुक्ति का स्वप्न रचती है। मुक्ति का यह स्वप्न उनके पीढ़ियों के भय से मुक्ति के साथ ही साकार हो सकता है जिसके लिए कहीं से कोई जनार्दन नहीं आने वाला है बल्कि उसके लिए स्वयं पेपले को ही मशाल लेकर इस घुप्प अंधेरे में घुसना पड़ेगा।
थारै साम्हीं / दोय ई मारग
तिल-तिल करनै
नरक मांय मरज्या
कै पछै / लेयनै मसाल
अंधेरै मांय बड़ज्या।
पढ़कर याद रह जाने वाली यह किताब उसी मशाल को जलाने वाली चिंगारी पैदा करती है और उस दिन की आस जगाती है जिस दिन भय से मुक्ति पाकर पेपला खुद शोषण, अन्याय, अत्याचार और असमानता के खिलाफ एक भय बनकर उठ खड़ा होगा। क्योंकि- जिकौ भय नै रचै / वौ खुद डर सूं बचै।
-राजीव कुमार स्वामी
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