मेहरून्निसा परवेज़ की कहानियों में आदिवासी स्त्री: आरती
मेहरून्निसा परवेज़ की कहानियों में आदिवासी स्त्री
नाम- आरती
(शोधार्थी)
जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय,नई दिल्ली.
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21 वीं सदी को विमर्शों की सदी कहे तो गलत न होगा। जिसमें अनेक विमर्श हमारे समक्ष मौजूद है जैसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श इत्यादि। दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के समान ही आदिवासी विमर्श की गूँज भी सुनाई देने लगी। भारत भले ही समृद्ध विकासशील देश की श्रेणी में शामिल है, लेकिन आदिवासी अब भी समाज की मुख्यधारा से कटे नज़र आते हैं। आज भी आदिवासी अपने ही देश में हाशिये पर स्थित है। रचनाकारों ने इन्हीं हाशिये पर स्थित आदिवासियों को अपनी रचनाओं के केंद्र में लाने का प्रयास किया है। जिसमें उन्होंने विकास के नाम पर सरकारी तंत्र द्वारा किया गया उनका शोषण, आदिवासी समाज की गरीबी-लाचारी, उनके विडम्बनापूर्ण जीवन आदि को अभिव्यक्त किया है। समकालीन कहानीकारों में जिन्होंने इन सब समस्याओं को केंद्र बनाकर कहानी लिखीं, उनमें मेहरून्निसा परवेज़ का विशिष्ट स्थान है। मेहरून्निसा परवेज़ की कहानियों का एक बड़ा भाग बस्तर क्षेत्र के आदिवासी समाज और उनकी संस्कृति को चित्रित करता है। लेखिका का जन्म और बचपन आदिवासियों के बीच ही हुआ और गुजरा। उन्होंने आदिवासी जीवन को बहुत करीब से देखा ही नहीं बल्कि जिया भी है। इसलिए उनके साहित्य में आदिवासी समाज मौजूद है। वह लिखती हैं, “बस्तर। जिसे मैं कभी भूल नहीं पाई। जिंदगी का पहला पाठ, यथार्थ का पहला शब्द मैंने यही गढ़ा था। बस्तर की माटी में खेलकर मेरे नन्हें पैर जवान हुए थे। बस्तर का भयानक जंगल आज भी मेरे मन में बसा हुआ है.....”1 उनकी आदिवासी कहानियों के केंद्र में आदिवासी स्त्रियों के शोषण, उनके जीवन-संघर्षों और उनकी समस्याओं आदि का यथार्थ चित्रण हुआ है।
जब हम आदिवासी स्त्री की बात करते हैं तो हमारे ज़हन में उनकी स्वच्छ्न्द, स्वतंत्र, संघर्षशील, आत्मनिर्भर छवि सामने आती है। भारतीय समाज और संस्कृति की तुलना में आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही स्वतंत्र और स्वछंद रही है। चाहे प्रेम करने की स्वतंत्रता हो या फिर वर के चयन करने की स्वतंत्रता हो, आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही आत्मनिर्भर रही है। यही विशेषता है जो आदिवासी स्त्रियों को अन्य स्त्रियों से विशिष्ट बनाती है। मेहरून्निसा परवेज़ ने अपनी कहानियों में इन्हीं आदिवासी स्त्रियों को चित्रित किया है। आदिवासी स्त्रियाँ स्वावलंबी होती है। वे खट-कमाकर अपना और अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण करने में समक्ष होती है। मेहरून्निसा परवेज़ की कहानी ‘कानीबाट’ में दुलेसा और उसकी माँ जंगलों में काम करती है और उसका पिता खेतों में काम करता है। वह और उसकी माँ जंगलों से लकड़ी काटना, बोड़ा लाना, मछलियाँ पकड़ना जैसे कार्य करती है साथ ही मुर्गी पालन का कार्य भी करती है। इसी प्रकार का कार्य ‘जंगली हिरनी’ में लच्छो और उसकी माँ भी करती है। ‘शनाख्त’ कहानी में बत्ती का बाप शराबी है। वह उनके साथ नहीं रहता है। कभी-कभी आता है। ऐसी स्थिति में बत्ती की माँ और वह घर-घर अण्डे बेचकर अपनी गृहस्थी चलाती हैं। आदिवासी स्त्रियाँ अपने पति पर निर्भर नहीं रहती हैं। वह घर से बाहर निकल कर जंगलों और खेतों में काम करती हैं और अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके अपने पति के साथ परिवार का भरण-पोषण करने में सहायता करती है।
आदिवासी समाज में लड़की के होने पर परिवार वाले खुशियाँ मनाते हैं। आदिवासी समाज में ऐसी मान्यता है कि बेटी का जन्म होने से परिवार में धन-दौलत में वृद्धि होती है। ‘कानीबाट’ कहानी में जोनी और लिकेन की लड़की होने पर वह गाँव वालों को दावत देते हैं, “लड़की होना रईसी का सूचक माना जाता है, क्योंकि लड़की घर में धन लाती है।”2 हिंदू समाज की तरह आदिवासी समाज में बेटा और बेटी में भेदभाव नहीं करते हैं। इसके विपरित आदिवासी समाज में बेटी को ज्यादा मान-सम्मान और महत्व दिया जाता है। आदिवासी समाज में जहाँ बेटी को विशेष स्थान है वहीं त्यौहार, मेला, हाट आदि में स्त्रियों की प्रमुख भूमिका होती है। नाच-गाने में भी आदिवासी स्त्रियाँ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। त्यौहारों, घोटुल और विवाह में स्त्रियाँ नृत्य और संगीत करती हैं। ‘जंगली हिरनी’ कहानी में दियारी त्यौहार पर लच्छो नाचने के साथ-साथ सुरीली आवाज़ में गाती है, “देवी बलों में दन्तेसरी,देवी बले में माता मावती, बड़े देवी आस आया, तुई बड़े देवी आस।”3 आदिवासी समाज में लड़की को प्रेम करने, वर चुनने और शादी करने की स्वतंत्रता है। ‘कानीबाट’ और ‘जंगली हिरनी’ में प्रेम करने की स्वतंत्रता को व्यक्त किया है। यह अलग बात है कि दोनों कहानी की नायिका अपने-अपने प्रेम में असफल होती है।
उपर्युक्त वर्णन सिक्के का एक पहलू है लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आदिवासी स्त्रियाँ स्वतंत्र और आत्मनिर्भर तो है परंतु इसके बावजूद, उनके अपने समाज में कुछ ऐसे नियम और कानून है जो स्त्री को पुरूष से कमतर आंकने के लिए बनाये गये है। आदिवासी स्त्रियाँ अपने समाज के साथ ही मुख्यधारा के समाज द्वारा भी शोषित और प्रताड़ित होती आयी है।
मुख्यधारा का समाज आदिवासी स्त्री को मात्र मनोरंजन और भोग का साधन मानते हैं। उनकी नज़र में आदिवासी स्त्री को कोई अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार वह सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर और असहाय होती है। उनके भोलेपन और मासूमियत का मुख्यधारा का समाज गलत फायदा उठाकर शोषण करता है। मेहरून्निसा परवेज़ की कहानी ‘जंगली हिरनी’ बाहरी व्यक्ति द्वारा भोली-भाली आदिवासी स्त्री को छलने की कथा का यथार्थ चित्रण व्यक्त किया है। प्रस्तुत कहानी में मेंगन को जंगलों में लकड़ी तोड़ते समय एक अंग्रेज शिकारी उसकी इज्जत का शिकार करता है। उसे जब बेटी लच्छो होती है तो हूबहू वह अंग्रेजी शिकारी की तरह होती है। मेंगन के पति को भी शक होता है। बुधु बड़बड़ाता है, “न जाने कहाँ से आ मरते हैं खुले साँड की तरह हमारी इज्जत लूटने। मैं देखता उसे तो टँगिया से एक बार में ही काट देता।”4 लेकिन वह लाचार है। लच्छो भी बड़ी होती है तो उसे बस्ती में स्कूल चलाने आये मास्टर से प्रेम हो जाता है। लच्छो भी सपने देखती है। मास्टर भी उससे शादी का वादा करता है लेकिन स्कूल बंद होने के कारण मास्टर भी शहर चला जाता है और वह अकेली रह जाती है। इस प्रकार जो पीड़ा मेंगन भोग चुकी है वही पीड़ा उसकी बेटी के भाग्य में भी आ जाती है। वहीं ‘कानीबाट’ कहानी में आदिवासी स्त्रियाँ अपने ही समाज द्वारा शोषित है। दुलेसा की शादी उसके माता-पिता रामू नामक युवक से करना चाहते हैं। जिसके लिए वह रामू को कुछ दिनों के लिए अपने घर रखते हैं। दुलेसा को यह रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं क्योंकि वह जिलेन नाम के युवक से सच्चा प्रेम करती है और उसी से शादी करना चाहती है। वह जिलेन के बच्चे की माँ बनने वाली है जबकि जिलेन उसे धोखा देकर अन्य लड़की से शादी कर लेता है। इसी कहानी में दुलेसा की सहेली जलयारी वह भी अपनी शादी से खुश नहीं है, क्योंकि उसकी मंगनी बचपन में ही हो गयी थी। बड़े होने पर वह किसी ओर से प्रेम करती है और मौका देखकर भाग जाती है। आदिवासी समाज में लड़की के भागने पर उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता है, “पहली बार गाँववाले भागी हुई लड़की को पकड़कर लाते हैं और उसे खूब मारते हैं, बाँध देते हैं। लड़की मौका पाकर फिर भाग जाती है, दूसरी बार उसे पकड़कर लाते हैं और उसे आग से दागते हैं, मारते हैं। तीसरी बार यदि लड़की फिर भाग जाती है, तो गाँववाले उसे पकड़कर लाते हैं और एक पैर चक्के के बीच डाल देते हैं या बाँध देते हैं। उसके बाद उसे तेजी से घुमाते हैं। लड़की पीड़ा से चीखती है, उसका पैर सूज जाता है और वह कष्ट से बुरी तरह चिल्लाती है और बेहोश हो जाती है।”5 इस प्रकार आदिवासी लड़कियों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का दण्ड भुगतना पड़ता है। इस दण्ड की प्रक्रिया में कई लड़कियाँ इस कष्ट को सहन भी कर लेती हैं और फिर मौका पाकर भाग जाती है। इस बार गाँव वाले स्वयं उसे उसके प्रेमी के पास पहुँचा देते है। जिस प्रकार कहा जाता है कि आदिवासी स्त्रियों को अपने समाज में प्रेम करने और शादी करने की स्वतंत्रता होती है लेकिन वहीं कई आदिवासी समाज ऐसे भी हैं जहाँ लड़कियों को प्रेम और शादी करने की स्वतंत्रता नहीं है और ऐसा करने पर उन्हें असहनीय दण्ड भी भुगतना पड़ता है। यह कहानी हमारे उस भ्रम को तोड़ती है कि आदिवासी स्त्रियों को प्रेम और विवाह करने की स्वतंत्रता होती है। ‘देहरी की खातिर’ कहानी में मेहरून्निसा परवेज़ ने आदिवासी स्त्री के दोहरे शोषण की व्यथा को व्यक्त किया है कि किस प्रकार मुख्यधारा के समाज के साथ-साथ उसका स्वयं का समाज भी उसको प्रताड़ित और शोषित करता है। जिसके कारण उसे दोहरे शोषण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। कहानी की नायिका पापा (नायिका का नाम) शहर के मास्टर से प्रेम करने लगती है तब नानीआया उससे कहती है, “कहीं प्यार तो नहीं कर बैठी?जानती है वह प्यार में फँसकर तेरी जिंदगी बरबाद करेगा। तुझे घर नहीं बैठायेगा, इतनी हिम्मत शहर वालों में नहीं है। हंडी चाटेंगे पर घर के पलँग पर बिरादरी की बराबर घराने की लड़की को ही बैठायेंगे।”6 गर्भवती होने पर शहरी मास्टर उसे पहचानने से इंकार कर देता है। पापा के गर्भवती होने की बात पिता को पता चली तो उसे घर से बाहर निकाल दिया और वह काका-काकी के पास रहने चली गयी लेकिन वहाँ भी काका की वासनापूर्ण नजर हमेशा उस पर रहती। इस प्रकार मुख्यधारा के समाज के लोग अपने प्रेम में फँसा कर झूठे वादों से भोली-भाली आदिवासी स्त्री को फंसाते है तो वहीं उसके पिता समान काका स्वयं उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता है।
मेहरून्निसा परवेज़ ने आदिवासी स्त्रियों के शोषित रूप को ही चित्रित नहीं किया है अपितु उससे एक कदम आगे जाकर उन्होंने आदिवासी स्त्रियों में विरोध करने की क्षमता को भी व्यक्त किया है। आदिवासी समाज की स्त्रियाँ अपने ऊपर हो रहे शोषण, अतयाचार को अपनी नियति नहीं समझ कर नहीं बैठ जाती है बल्कि उसके प्रति विद्रोह प्रकट करती है। ‘देहरी की खातिर’ में जब पापा को घर से निकाल देते हैं। तब गाँव की एक काकी उसे अपने घर में आश्रय देती है। चूँकि वह माँ बनने वाली थी, काका-काकी उसे बहुत स्नेह और दुलार से अपने पास रखते हैं। बच्चे के जन्म के बाद काकी ही उसके और उसके बच्चे का ख्याल रखती है। लेकिन काका की नीयत में खोट आ जाता है। वह बेटी जैसी लड़की को अपने हवस का शिकार बनाना चाहता है लेकिन काकी सही समय पर पहुँचकर उसे बचा लेती है। एक लड़की की अस्मिता को बचाये रखने के लिए काकी टँगिया से अपने ही पति का खून कर देती है। ‘शनाख्त’ कहानी में पिता सेक्स का इतना भूखा रहता है कि अपनी ही बेटी पर उसकी बुरी नजर रहती है। शराब के नशे में अपनी बेटी को ही वासना का शिकार बनाने का प्रयास करता है। और इसी मानसिकता को लिये पिता बेटी के बिस्तर तक पहुँच जाता है, “बच्ची का सारा शरीर सुन्न पड़ गया तो क्या उसके पास वह (पिता) ‘नीच, पापी कुत्ते’, उसे माँ ने गुस्से से फनफनाते हुए उसका हाथ पकड़कर उठा दिया। बच्ची घबड़ायी सी उठकर बैठ गयी। भय के मारे उसका चेहरा सफेद पड़ गया था।”6 माँ गुस्से से अपने पति को घर से बाहर निकाल देती है। कुछ दिनों के बाद उसके मरने पर वह उसे पहचानने से भी इंकार कर देती है। ‘सूकी बयड़ी’ में थोरा का पति जब दूसरी औरत को घर पर लाता है लेकिन थोरा अपने पत्नी होने के अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वह अपने पति का विरोध करती है, “.....जा, चले जा, कोठरी में खाली नी करूँ। म्हारे बापू ने ब्याह कराया हैं फेरे लेकर लाया है। ब्याहवाली हूँ। म्हारी इज्जत है।”7 इस प्रकार आदिवासी स्त्रियाँ भी अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिये आवाज उठा रही है।
लम्बी संस्कृति की परम्परा कोई भी हो उसमें कुप्रथाएँ, कुरीतियाँ, अपने तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास पनपते हैं। आदिवासी समाज भी इनसे मुक्त नहीं है। यह कहा जा सकता है कि अन्य समाज की अपेक्षा आदिवासी समाज में अंधविश्वास की प्रधानता है। इस अंधविश्वास के केंद्र में आदिवासी स्त्री है। ‘टोना’ कहानी में खोड़ी पटेल के साथ शादी करके जब उसके घर आती है, तो पटेल की बड़ी पत्नी को देखकर सहम जाती है। बाद में पता चलता है कि पटेल की बड़ी पत्नी के सिर के बाल नहीं है तथा वह ‘टोनही’ है। उसके विषय में पूर गाँव में यह बात फैली हुई है कि मंत्र की शक्ति से वह अपने दुश्मनों का नाश करती हैं। उसकी आकृति इतनी भयावह है कि खोड़ी उसके बारे में देख और सुन कर सहम जाती है, “बड़ी के सिर में बाल नहीं है, उसका राज जब खुला तो वह कांप-सी गयी। बड़ी पंगनीन(टोनही) थी। वह रात को घर से चली जाती थी और पौ फटने के पहले आदमी का खून पी कर लौटती थी।”8 आदिवासी समाज में किसी स्त्री के मन:स्थिति और आकांक्षा को न समझ कर उसे डायन, पिशाच, कलंकिनी जैसे शब्दों से पुकारा जाता है। पूरा गाँव उसे प्रताड़ित करता है और कभी-कभी ऐसी स्थिति में उसे गाँव से बेदखल कर दिया जाता है। ‘टोना’ कहानी में पटेल की बड़ी पत्नी के बारे में इस प्रकार की जो भी अफवाहें प्रचलित हैं। उसे तथा उस स्त्री को देखकर यही कहा जा सकता है कि पति की उपेक्षा और संतानोत्पत्ति के अभाव में, वह समाज का सबसे घृणित रूप अपनाने को बाध्य होती है, जिससे कि लोग उसकी तरह आकृष्ट हो तथा उसके विषय में करें। इस प्रकार, लेखिका ने आदिवासी समाज में व्याप्त जादू- टोना जैसे कार्यों में स्त्रियों की स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है।
भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति में काफी सुधार आया है। समाज में स्त्री की स्थिति पहले की तरह द्वितीय स्तर के प्राणी की नहीं रह गयी है। आज स्त्रियाँ अपने अधिकारों को पहचानती है और अपने हक के लिए संघर्ष कर रही है। स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। आज बहुत से संगठन स्त्रियों के अधिकारों, सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि के लिए कार्यरत है। लेकिन ठीक इसके विपरित आदिवासी स्त्रियों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। आरम्भ से आदिवासी स्त्रियाँ स्वतंत्र और आत्मनिर्भर है लेकिन यह भी सच है कि आदिवासी स्त्रियाँ भी सदियों से शोषित होती आयी है। मेहरून्निसा परवेज़ ने आदिवासी स्त्री के स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, संघर्षशील आदि रूपों के साथ उनके शोषित और प्रताड़ित रूप का यथार्थ चित्रण किया है। वहीं उन्होंने आदिवासी स्त्रियों के विरोध के स्वर को भी कहानियों में मुखरित किया है।
संदर्भ सूची –
1.मेहरून्निसा परवेज़,
मेरी बस्तर की कहानियाँ, वाणी प्रकाश्न, नई दिल्ली, 2006, भूमिका
2.मेहरून्निसा परवेज़,
मेरी बस्तर की कहानियाँ, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2006, पृ.सं.-18.
3.मेहरून्निसा परवेज़,
गलत पुरूष, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस,
दिल्ली, 1978, पृ.सं.-97.
4.मेहरून्निसा परवेज़,
गलत पुरूष, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस,
दिल्ली, 1978, पृ.सं.-96.
5.मेहरून्निसा परवेज़,
मेरी बस्तर की कहानियाँ, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2006, पृ.सं.-23-24.
6.मेहरून्निसा परवेज़,
मेरी बस्तर की कहानियाँ, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2006, पृ.सं.-50.
7.मेहरून्निसा परवेज़,
समर, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली,1999, पृ.सं.-144.
8.मेहरून्निसा परवेज़,
गलत पुरूष, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस,
दिल्ली, 1978, पृ.सं.-8.
[चित्र साभार: यू ट्यूब]
[आलेख साभार: जनकृति पत्रिका]
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