21वी सदी की ‘सुशीला’ को चाहिए ‘अनंत असीम दिगंत.....’: प्रो. डॉ. सौ. रमा प्र. नवले
21वी सदी की ‘सुशीला’ को चाहिए ‘अनंत असीम दिगंत.
प्रो. डॉ. सौ. रमा प्र. नवले
पूर्व प्र.प्राचार्य एवं विभागप्रमुख
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग एवं अनुसन्धान केंद्र
पीपल्स कॉलेज, नांदेड
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------पत्राचार का पता – ९८, माणिक
नगर, डॉ. पाटील हॉस्पिटल के पास, नांदेड (४३१६०५), दूरध्वनी – ०२४६२ – २६१३२५ , मो. ९८९०३५०३२५ Email – ramanawle@gmail.com
सुशीला टाकभौरे की कविताओं के आस्वाद
से यह महसूस किया जा सकता है कि २१वी सदी में अब स्त्री विमर्श युवा होकर अपने
सौंदर्य के जलवे बिखेर रहा है| अब इस विमर्श ने अपने व्यक्तित्व को पहचान लिया है|
इसलिए अपनी अस्मिता से यह कविता दीपदीपाने लगी है| एक साहस, एक आत्मविश्वास,
आत्ममुग्धता, निर्भीड़ता, उचित-अनुचित के निर्णय की क्षमता क्या होती है इसकी पहचान
इस साहित्य ने कर ली है| लग रहा इस साहित्य का लक्ष्य अब निश्चित है| एक साहसी
पथिक की तरह कैसे निरंतर चलते रहना है –
जीवन के इस मर्म को, अब इस कविता ने पहचान लिया है| सुशीलाजी की कविताएँ
स्त्री विमर्श के केवल युवा होने का ही परिचय नहीं देती बल्कि प्रौढत्व का भी
परिचय देती है| हमारे महामहीम राष्ट्रपति अबुलकलाम आज़ाद ने कहा था – ‘ छोटा सपना
देखना पाप होता है’| २१वी सदी की सुशीला भी छोटा सपना नहीं देखती उसे तो चाहिए
‘अनंत असीम दिगंत .... ’ इसलिए यह कहना अत्युक्ति न होगा कि हिंदी महिला लेखन अब
सुशीला जैसी कई कवयित्रियों के माध्यमसे ‘आकाश’ में विचरण कर रहा है, पैर उसके
‘धरती’ पर ही है और मन में उसके ‘सागर’ है|
मेहतर समाज की एक छोटी सी लड़की
‘सुशीला’ का अदम्य साहस अचंभित करता है| अत्यंत दरिद्र और सात भाई-बहनों के साथ एक
बड़े परिवार में जीनेवाली यह लड़की, पिता के पढ़ाई बंद करने के निर्णय के विरुद्ध
उपोषण करती है| एक ओर दरिद्रता और दूसरी ओर निम्न जाति में भी निम्न समझी जानेवाली
मेहतर जाति के दंश की पीड़ा लगातार वह भुगतती रही है | ना वह अपनी सहेलियों के साथ
बैठ पाई न खेल पाई और ना ही पीएच. डी. जैसी उच्चतम उपाधि पाने के बाद भी
‘झाडूवाली’ शब्द से छुटकारा पा सकी; पर ताज्जुब यह है कि जाति और लिंग भेद के अंधे
कुँए के अँधेरे को चीरकर सतरंगी सपने बराबर वह देखती रही है| उनमें साहस इतना है
कि पत्थर पर भी लकीर बनाना आसन है पर उनके निर्णयों को डिगाना या तोड़ पाना
मुश्किल| ‘सुरक्षा’ से अधिक ‘स्व रक्षा’ में अधिक विश्वास करनेवाली यह स्त्री है|
हर चीज की तरह व्यक्ति का भी इस्तेमाल किए जानेवाली इस सदी में ना वह अपना उपयोग
किसी को भी करने देंगी और ना ही नमूने की तरह अपने को शोभा की वस्तु बनाकर रखने
देंगी| वह तो खुद एक ‘आइकॉन’ बनी हुई है – “मगर यह नहीं की बरबस / मुझे किसी
छोटे गमले में / लगाया जाए / या किसी नर्सरी में / मात्र अर्थोपार्जन के लिए
/ एक नमूने के रूप में रखा जाए | मेरा उपयोग / मेरा उपभोग / नहीं सह सकती मैं,
/ सदियों से / शोषित – पीड़ित / अब नहीं रह सकती मैं / मेरा इतिहास है, स्वाभिमान है, गौरव है / अपने
अस्तित्व के लिए / लड़ सकती हूँ मैं, / जल - थल नभ की / हर लड़ाई चुनौती के साथ |” १
सुशीलाजी डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के
विचारों की मशाल हाथ में लेकर चलती है| उन्हें बापू के तीन बंदर भोले-भाले लोगों
को भर्मानेवाले दिखाई देते हैं - ‘आज हमें लगता है / यही था आपका दूरदर्शी
अभिमान /भोलेभाले लोगों को / भरमाने के लिए / देते रहे ऐसा ज्ञान / सत्य मत देखो /
सत्य मत कहो / सत्य मत सुनो २ और स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक समानता की
दावेदारी पर वह अटल हैं| वह यह मानती है कि इन दो ध्रुवों को बाँधकर रखनेवाला
प्रेम और आकर्षण है| प्रेम और आकर्षण का चुम्बक स्त्री और पुरुष की बराबरी में,
समानता में है – “प्रेम आकर्षण स्नेह प्यार /
रहेगा जबतक / स्त्री-पुरुष समानता का भाव
/ बराबरी के दावेदार / दोनों
रहेंगे महत्वपूर्ण / चुम्बक रहेगा ३
एक
आत्मकथा – ‘शिकंजे का दर्द’ (२०११),
उपन्यास – ‘नीला आकाश’ (२०१३),
‘तुम्हें बदलना ही होगा’ (२०१५), ‘वह लड़की’ (२०१८), कहानी संग्रह – ‘संघर्ष’
(२००६), ‘जरा समझो’ (२०१४) लिखकर अभी तक चार कविता संग्रह ‘स्वाति बूँद और खरे
मोती’ (१९९३), ’यह तुम भी जानो’ (१९९४), ‘तुमने उसे कब पहचाना’ (१९९७), ‘हमारे
हिस्से का सूरज’ (२००५) - उन्होंने दिए हैं| ‘संवादों का सफ़र’ (दलित मुक्ति
आन्दोलन, महिला मुक्ति तथा सामाजिक परिवर्तन से संबंधित पत्रों का संग्रह), ‘सुधीर
शर्मा के पत्र’ (२०१८, पत्र संग्रह) हैं| इसके अलावा ‘हिंदी साहित्य के इतिहास में
नारी’ १९९४), ‘भारतीय नारी, समाज और साहित्य के परिप्रक्ष्य में’ (१९९६), ‘हाशिए
का विमर्श’ (१९९६), ‘अनुभूति के घेरे’ (१९९७), ‘टूटता वहम’ (१९९७), ‘दलित साहित्य
एक आलोचना दृष्टि’ (२०१५) – आदि रचनाओं के
माध्यमसे उनके विचारों को जाना जा सकता है| ‘रंग और व्यंग्य’ (२००६, स्त्री-पुरुष
समानता का संदेश देनेवाले नाटक), ‘नंगा सत्य’ (२००७) नाटक हैं| उनके साक्षात्कारों
का संग्रह ‘मेरे साक्षात्कार’ (२०१५) है| सुशीलाजी को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया
है – ‘यह तुम भी जानो’ इस कविता संग्रह के लिए मध्य प्रदेश दलित साहित्य अकादमी
पुरस्कार, पद्मश्री गुलाबभाई अवार्ड, ‘ज्ञान ज्योती अवार्ड’ तथा महारष्ट्र राज्य
हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा भी उन्हें पुरस्कृत
किया गया है | आज वह पूरे देश्भार में एक जानीमानी साहित्यकार के रूप में पहचानी
जाती है | उन्होंने जो सपना देखा था – ‘और मैं सबकी नज़र बनना चाहती हूँ’ के
मुताबिक़ आज वह सबकी ‘नज़र’ में हैं|
वर्तमान साहित्य के केंद्र में
मनुष्य की अनुभूतियाँ प्रमुख हो गयी हैं| सुशीलाजी एक दलित स्त्री होने के कारण एक
ओर दलित होने की और दूसरी ओर स्त्री होने की पीड़ा से वह गुज़री हैं| भोगी हुई पीड़ा होने के कारण कविता की
अनुभूतियाँ बहुत तीव्र रूप में पाठकों को भी कचोटती हैं| यह लेख उनकी कविता में
अभिव्यक्त स्त्री मन पर केन्द्रित है, यह इस लेख की सीमा है| सुशीलाजी की कविताएँ
स्त्रियों के अंतर्मन की सूक्ष्म पतों को खोलकर रखती है| उस पर छाये अमूर्त दबाव
तंत्र को विश्लेषित करती हैं| और सबसे बड़ी बात उनकी कविताएँ स्त्री के ‘व्यक्तित्व’ को व्याख्यायित करते हुए
उसके स्वरूप पर बहुत स्पष्ट शब्दों में प्रकाश डालती है| यह कार्य करते समय उनकी
भाषा इन अमूर्त भावों को मूर्त करने में ज़रा भी हिचकिचाती नहीं है| शब्द बहुत
विश्वास के साथ एक-एक परतों को खोलते जाते हैं |
मनुष्य जितना-जितना सुसंस्कृत एवं सभ्य होता
जा रहा है ; शोषण के तरीके भी उतने ही प्रौढ़ और शिष्ट रूप में आ रहें हैं|
व्यवस्था का शिकंजा स्त्री को अपने ही कब्जे में रखना चाहता है| एक दबाव तंत्र जो
स्त्रियों के जीने के साथ-साथ ही चलते
रहता है| जो दिखाई नहीं देता ; पर दिलोंदिमाग पर नाग के फन की तरह बैठे रहता है|
ज़रा हिले नहीं कि फूफकारते रहता है| ज़रा सी नज़र हिलने पर फूसफूस करते रहता है| यह आतंक
की तरह हमेशा साथ रहता है| इसका स्वरूप इतना सूक्ष्म होता है कि इस दबाव तंत्र को
समझना सामान्य से परे की बात होती है|
सुशीलाजी इस दबाव तंत्र को ज़रा खोलती है| इसके निराकार नुकीले दांत वह
दिखाती है| इसकी कुरूपता और भयावहता से वह परिचित कराती है - एक स्त्री / जब भी कोई कोशिश करती है - / लिखने
की, बोलने की, समझाने की, / सदा भयभीत - सी रहती है / मानो / पहरेदारी करता हुआ /
कोई / सर पर सवार हो / पहरेदार / जैसे एक मजदूर औरत के लिए / ठेकेदार / या खरीदी
संपत्ति के लिए / चौकीदार ४ एक सामान्य स्त्री पर यह दबाव तंत्र अपना
वर्चस्व बनाए रखने में कामयाब होता है| इसके भी माया की तरह अनेक रूप होते है| कभी
स्त्री को महिमा मंडित कर, कभी प्रशंसा कर, कभी प्रेम के जाल में उलझाकर, कभी
आश्वस्त कर, कभी भ्रम - जाल निर्माण कर ... नाना रूपों से यह दबाव तंत्र स्त्री को ठगते रहता है, वह स्त्री को अपने
कब्जे में घेर लेता है| पर २१ वी शती की स्त्री को अपने कब्जे में घेरना दबाव
तंत्र के लिए भी मुश्किल हो गया है ; क्यों कि ‘जानकी जान गयी है’- “आज जानकी
सब जान गयी है / अब वह धरती में नहीं आकाश में जाना चाहती है / बिजली - सी चमक कर
/ सन्देश देना चाहती है / ‘पुरुष प्रधान समाज में / स्त्री भी / समानता की अधिकारी
है’ / उसकी अस्मिता के प्रति / तुमने जो भेदभाव किया / तुम्हारे देशवासी भी करते
हैं / इसलिए देवभूमि के इस देश में / ‘भूकंप’ आते रहते हैं| ५ यह दबाव तंत्र
सुशीला जैसी सुशिक्षित और प्रबुद्ध साहित्यकार महिला पर भी अपना असर दिखाने लगता
है| इस दबाव तंत्र की तकलीफ सामान्य महिला को उतनी चुभती नहीं है ; पर जो सब जानती
है उसे यह पीड़ा बहुत कचोटती है| जो प्रबुद्ध साहित्यकार महिला अपनी कलम से समाज का
दिशा निर्देश करती है उसी कलम को अन्य दिशाओं का पालन करने के लिए दबाव बढ़ने लगता
है तब सुशीला की कलम जुझारू हो जाती है| स्त्री कैसे रहे? कैसे जिए? कैसे सोचे?
कैसे लिखे? कैसे अभिव्यक्त हो? इस पर
परिवार और समाज की नज़रे रहती ही है| यह नज़र चाहे पुरुष की हो या स्त्री की वह
पितृसत्ताक व्यवस्था से उत्पन्न हुई नज़र है| इन नज़रों के अमूर्त नुकीलेपन को
कवयित्री ने अपनी ‘स्त्री’ कविता के माध्यमसे अत्यंत स्पष्ट और मूर्त रूप में
उजागर कर दिया है | यह दबाव तंत्र कलम को भी झुकाने के निर्देश देने लगता है तब वह
बहुत बेचैन हो जाती है – “वह
सोचती है / लिखते समय कलम को झुका ले / बोलते समय बात को सँभाल ले / और समझने के
लिए / सबके दृष्टिकोण से देखे, / क्योंकि वह एक स्त्री है / लेकिन कब तक?” ६ कविता की
इन पंक्तियों में कवयित्री की अपनी अनुभूतियों को उनके मूल रूप के साथ अभिव्यक्त न कर पाने की
पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है| एक सृजनशील स्त्री (कवयित्री का दर्द) इन पंक्तियों
में उभरा है| अपनी और समस्त स्त्री जाति की अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री को अपनी ‘कलम
को झुकाना’ कितना मुश्किल होता है? कलम को झुकाना अर्थात अपनी अस्मिता को गिरवी
रखना है| अस्मिता के प्रति सजग व्यक्ति को मृत्यु भी इतनी यातना नहीं देता जितनी
उसे अपनी अस्मिता को गिरवी रखने से होती है| अपनी ताकतवर नज़र को भुलाकर सबके
दृष्टिकोण से देखना यह और भी कठिन है| प्लेटो ने कहा था ‘गुलामी मृत्यु से भी
भयंकर होती है’ – सुशीला की इन पंक्तियों को पढ़ते समय इन शब्दों को सहज ही बड़ी तीव्रता से हम महसूस
किया जा सकता है| सुशीलाजी ‘कलम को झुकाने की पीड़ा, टीस की तरह पाठकों के लिए
छोड़ती हैं| यह टीस तब तक शाश्वत रहेगी जब तक स्त्री की कलम इस दबाव तंत्र के आगे
झुकने के लिए बाध्य रहेगी| स्त्रियों की अभिव्यक्ति पर रही पाबंदियों का इतना
वास्तव चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है|
सुशीलाजी की कविताएँ स्त्री के ‘व्यक्तित्व’
को बहुत प्रखर रूप में उभारती है एवं स्त्री के व्यक्तित्व का एक पूरा स्केच अपनी
कविताओं के माध्यमसे प्रस्तुत करती है| इनकी कविताओं में आई स्त्री २१वी सदी की
शिक्षित एवं प्रबुद्ध स्त्री है; जो अपनी अस्मिता के प्रति सजग है| यह स्त्री
‘स्त्री’ होने का हक़ नहीं जताती और ना ही अपने लिए केवल स्त्री होने के नाते कुछ
विशेष सुविधाएँ चाहती है| यह स्त्री समाज के अन्य ‘मनुष्य सदस्यों’ की तरह (स्त्री
और पुरुष) अपने को भी मनुष्य सदस्य मानती है| केवल स्त्री होने के कारण अपनी अलग
विशेषता यह रेखांकित नहीं करती ; और ना ही अपने लिए कोई विशेष सुविधा चाहती है| वह
पुरुष के प्रति देखने के श्रेष्ठता भाव (ग्रंथी) से और स्त्री को हीन माननेवाले
हीनता भाव (हीनता ग्रंथी) से मुक्त है| यह स्त्री ‘अपनी सुरक्षा’ के लिए किसी
दूसरे का इंतजार नहीं करती बल्कि ‘स्वरक्षा’ में विश्वास करती है| इसकी सबसे बड़ी
विशेषता तो यह है कि ऊपर उल्लिखित दबावतंत्र के प्रति वह पूरी तरह से सजग है| उसके
विकास के बाधक तत्वों को वह पहचानती है| यह बात ही सुशीला को २१ वी सदी की
प्रबुद्ध स्त्री के रूप में सिद्ध करती है| उसे पता है कि उसके व्यक्तित्व के खुलने
या उसके व्यक्तित्व के विकास में ये तत्व उसके सामने महा ठगिनी माया की तरह उसे
ठगने के लिए आये हैं| ये बाधक तत्व कभी-मीठी छूरी की तरह स्नेह का रूप भी धारण कर
आते हैं| इनको पहचानना आसान नहीं है| यह
तंत्र इतना सूक्ष्म है कि कब स्त्री को अपने भुलावे में लेकर अपनी धूर्तता से
उसके आत्मविश्वास को ख़त्म कर देगा उसे पता
ही नही चलेगा| किसी के व्यक्तित्व को मिटाने की पहली सीढ़ी उसके आत्मविश्वास को,
उसके मनोबल को तोड़ना है| दुनिया की नज़रों से गिरा हुआ व्यक्ति आसानी से ऊपर उठ
सकता है ; पर अपनी ही नज़र से गिरे व्यक्ति का ऊपर उठना बहुत-बहुत मुश्किल होता है|
कवयित्री इस चाल को समझती है| इसलिए सबसे पहले अपने विश्वास को ; जिसके कारण उसका
व्यक्तित्व खुल नहीं पाया, पहले उसे लौटा
देने की बात करती है| इसी कारण अब उसे किसी भी पुरुष के व्यवहार पर विश्वास नहीं
है| वह उसकी हर बात को संदेह की नज़र से देखती है| ‘लौटा दो मेरा विश्वास’ कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य है –
“मैं करने लगी हूँ अविश्वास / तुम्हारे हर व्यवहार पर / ........... . . . जब भी
मैंने पंख फैलाये / तुमने उनको क़तर दिया है / स्नेह संरक्षण के भ्रम से / मुझे
पनपने नहीं दिया है| ७ बावजूद
कवयित्री अपने व्यक्तित्व को फैलाने और पनपाने से बाज नहीं आती| यह साहस एवं
आत्मविश्वास काबिले तारीफ़ है| वह खुरच-खुरच कर दबाव तंत्र की सारी परतों को उतार
फेंकती है| वह किसी भी प्रकार के भुलावे में नही फँसती| अपनी कविता ‘आज की खुद्दार
औरत’ में कवयित्री ने इन सारे पुराने जेवरों को त्यागने की बात की है – “पहचानों
उसके नए तेवर / श्रद्धा, शर्म, दया, धरम / किसमें खोजते हो? / सँभालो अपने /
पुराने जेवर / थान के थान / परिधान” ८
सुशीलाजी
की कविताओं में न स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंध है और ना ही विवाह बाह्य संबंध|
इनकी कविताएँ केवल और केवल ‘स्त्री के व्यक्तित्व’ पर ध्यान केन्द्रीत करती है|
अपने व्यक्तित्व के अलावा कवयित्री को कुछ भी प्रिय नहीं है| यह व्यक्तित्व ‘असीम
अनंत दिगंत’ की चाहत रखता है| उड़ान की क्षमता तो देखिए..... अब इस स्त्री को छत का
खुला आसमान नहीं, आसमान की खुली छत चाहिए –
“मुझे अनंत असीम दिगंत चाहिए, / छत का खुला आसमान नहीं, / आसमान की खुली छत
चाहिए / मुझे अनंत आसमान चाहिए”९ २१वी
सदी की स्त्री की सोच में इस प्रकार का परिवर्तन आना ही इस सदी की स्त्री की विशेष
विशेषता है| स्त्री के जिस ‘व्यक्तित्व’ की बात की जा रही है वह आखिर है क्या? वह
असीम अनंत दिगंत क्या है? कवयित्री अपनी कविताओं में इसका विश्लेषण करती है| स्त्री
के व्यक्तित्व को सुशीलाजी बहुत स्पष्ट शब्दों में रेखांकित कर रही है| व्यक्तित्व की पहचान अपनी अस्मिता के प्रति सजग
होने में है| अपने व्यक्तित्व के विकास में रोड़े डालने के लिए फैलाए गए जाल को
पहचानकर उसे तोड़ने में है| कहाँ – कहाँ पर अपनी प्रगति के पंखों को, किन – किन
भ्रमों को फैलाकर काटा जा रहा है – उसकी पहचान में है (लौटा दो मेरा विश्वास) इन पंक्तियों में ‘मुझे पनपने नहीं दिया है’ – यह पंक्ति स्त्री के भीतर की उन सारी क्षमताओं
की ओर इशारा करती है जिसके कारन उसका व्यक्तित्व बनता है| पितृ व्यवस्था या परिवार व्यवस्था ने उसकी इन
क्षमताओं को कभी उभरने नहीं दिया| एक ‘स्त्री’ को कभी ‘व्यक्तित्व’ में परिणित
नहीं होने दिया| उसे भ्रमजाल में उलझाकर रखा| वह यह भी जानती है कि स्त्री को
अक्सर उपेक्षा की ठंडक से और आक्रोश के तेज़ाब से रौंदा जाता है (तुमने उसे कब
पहचाना) यह बात वही स्त्री पह्चान सकती है
जो शिक्षित एवं प्रबुद्ध है| यह वही स्त्री हो सकती है जो अपने को समानता की
अधिकारिणी मानती है और केवल स्त्री होने के कारण अपने लिए किसी विशेष स्थान की
अपेक्षा नहीं करती| यह वही स्त्री हो सकती है जिसके ह्रदय में सागर होगा और मन में
आकाश पर पैर उसके अपनी धरती पर ही होंगे ; क्षितीज वह खुद ही ढूंढ लेंगी (सागर और आकाश)| यह वही
स्त्री होगी जो यह सोचती है कि कोई दूसरा आकर उसकी सुरक्षा नहीं करेगा, बल्कि उसे स्व की सुरक्षा स्वयं ही करनी है| सुशीलाजी व्यक्तित्वधारिणी है| इसलिए इनकी कविताएँ धरती से उपजी है ; पर विचरण
आकाश में करती है| रस धरती से लेती है और आकाश में सपनों के रंग बिखेरती है| इनके
सपनों पर लाख पाबंदियां हो पर इनके सपने उन पाबंदियों को काटकर मुक्त हो ही जाते
हैं और आकाश में इंद्रधनुषी रंग बिखेर देते है|
व्यक्तित्व की पहचान संघर्ष के साहस
से बनती है| यह संघर्ष स्वयं के लिए भी हो सकता है और समग्र स्त्री जाति के लिए भी
एवं दलितों – शोषितों के लिए भी | ऊपर बताया जा चुका है कि सुशीलाजी स्वयं पर विश्वास
कर जीनेवाली महिला है| हम उनके लेखन के
माध्यमसे नयी दृष्टि का परिचय पाते हैं| जहां दलित विमर्श का एक महत्वपूर्ण हिस्सा
अपनी स्थिती से रूबरू कराना है वही सुशीलाजी दलितों की स्थिति से परिचित कराने के
बजाए उन्हें ही उनकी स्थिति का जिम्मेदार मानती है| उनके मन में यह प्रश्न उठता है,
उनके पूर्वजों ने क्यों नहीं इस घिनौनी और लाचार जिंदगी का विरोध किया? खतरे किसी
भी युग में कम नहीं होते| स्थितियां समान रूप से हर युग में उतनी ही चुनौतीपूर्ण
होती है| फिर अपनी स्थिति बदलने का प्रयास क्यों नहीं हुआ? सुशीलाजी की यह दृष्टि उनके व्यक्तित्व की पहचान
है| खुद को तराशना और निरंतर अपने आपको निखारते जाना किसी भी सामर्थ्यशाली व्यक्ति
के व्यक्तित्व का हिस्सा होता है| अपने संकुचित वृत्तों से परे जाकर सोचनेवाला
आदमी ही बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा कहने का सामर्थ्य रखता है| इसलिए वह अपने
पूर्वजों की नपूंसकता को ललकारती हैं| वह प्रश्न पूछती है – “हाथ नहीं उठाया/ किसी ने भी, / गुरु-भक्ति के नाम पर / आवाज नहीं उठाई? /
विषमता और स्वार्थ की बात को / तुम सबने / मौन रूप से स्वीकार किया| /
.............. किसकी प्रशंसा करे इतिहास?
अंधी गुरु भक्ति की / या नपुंसक वीरता की? / महाभारत का विजेता / पार्थ / प्रशंसनीय
है, / तुम / क्यों दया के पात्र हो ? १० सुशीलाजी
पूर्वजों से मिली विचारों की जमीन पर स्थिर खड़े रहने से निजात पाती है| वह आ तो गयी
है अँधेरे कुँए से पर साहस इतना है कि केवल
कुँए से बाहर निकलना उसका लक्ष्य नहीं है; यह कोई भी कर सकता है| कवयित्री
इससे इतना आगे बढ़ना चाहती है कि ; इन परंपराओं के निशान वह पूरी तरह से मिटा देना
चाहती है| व्यक्तित्व का परिचय तो तब मिलता है जहाँ वह केवल पुराने निशान मिटाकर भी
रुकना नहीं चाहती ; बल्कि प्रकाश के पूंजों की वह खुद भी पूर्वज बनना चाहती है और
समग्र जाति को भी पूर्वज बनाना चाहती है| बंधक गुलाम पीढी के / वंशज कहलाना /
शर्म की बात है / तुम पूर्वज बनो प्रकाश पुंजों के/ प्रकाश तुम में निहित है| ११ इसी तरह वह स्त्रियों की भी प्रकाश पुंज बनना
चाहती है और अन्य स्त्रियों को भी प्रकाश पुंज बनाने के लिए प्रेरित करती है| जिन
स्त्रियों के आँख, कान और विचार स्वतंत्र हैं पर अभी भी पांवों में बंधन हैं,
इसलिए वह चौखट के बाहर आना नहीं चाहती उन स्त्रियों को आनेवाली पीढ़ियों के लिए
रास्ता बनाने के लिए प्रेरित करती है – “आँख, कान, विचार स्वतंत्र है / बंधन है सिर्फ पांवों में| / कुल की लाज /
सीमाओं का दायरा / घर की चौखट तक / मायका हो या ससुराल / दरवाजे के पीछे /परदे की ओट
से /वह देखती रहती है संसार / आनेवाली पीढ़ियों / नहीं रह सकती उसके पीछे / उन्हें
रास्ता देना होगा आगे बढ़कर, / घर की चौखट से बाहर निकलकर| १२ यह
रास्ता उनके लिए बनाना है जिनके जन्म की ज़मीन (बेटियों के) ही नदारद है उनके लिए
पैर जमाकर खड़े होने के लिए ज़मीन बनाने के लिए इन औरतों को चौखट के बहार लाना चाहती
है|
सुशीलाजी की कविताओं को पढ़ते समय यह
जिज्ञासा थी कि इनकी कविताओं में दलित स्त्री की अलग अनुभूतियों से परिचय होगा|
हिंदी में अभी भी इन अनुभवों का इंतजार है| सुशीलाजी के साहित्य के केंद्र में
सामान्य स्त्री ही है| दलित स्त्री की अनुभूतियाँ न के बराबर हैं| ‘मेरा अस्तित्व’
नामक कविता में दलित स्त्री चेतना की हल्की सी झलक मिलती है| एक ब्राह्मणवाद (
अपने को श्रेष्ठ और अन्यों को कनिष्ठ मानने की वृत्ति के अर्थ में) समूची व्यवस्था
पर छाया हुआ है| अपने अहं के प्रतिपादन के मौके आदमी छोड़ नहीं पाता| यह मनुष्य की असाध्य
बीमारी है| यह बीमारी छूत की तरह दलितों को भी लगी है| सुशीलाजी इमानदार कवयित्री है| एक पल के लिए
उनके भी मन में यह अहंकार जगता है; पर तुरंत वह अपने आप को सँभाल लेती है| आज वह
भले ही ‘सवर्ण’ बन गयी है ; पर इस वृत्ति को तुरंत वह ताड़ लेती है| इस कविता में
यह संघर्ष अभिव्यक्त हुआ है| परन्तु कविता के अंत तक पहुंचते-पहुँचते वह अपना
अस्तित्व बिरादरी के अस्तित्व में ही ढूंढ लेती है|
दलित साहित्य अनुभूति का साहित्य
है| इस साहित्य की परख अनुभूति के आधारपर ही होनी चाहिए ; न कि कलात्मकता के आधारपर|
सुशीलाजी की रचनाएँ एक कदम आगे चलती है| स्त्रियों के अमूर्त भाव, उसकी पीडाओं –
यातनाओं के साथ उसके सपनों को बुनने में
इनकी काव्य - भाषा समर्थ है| स्त्री के व्यक्तित्व को रौंदने के लिए ‘उपेक्षा की
ठंडक’ और ‘आक्रोश का तेज़ाब’ जैसे शब्दों का प्रयोग बड़ा सार्थक है| स्त्री मस्तिष्क
पर छाये समूचे दबाव तंत्र को साधारण एवं
बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्त करने में कवयित्री को कमाल की सफलता मिली है| दबाव
तंत्र के कारन अभिव्यक्ति में निर्माण बाधक तत्वों को, स्त्री की ‘तथाकथित
समझदारी’ को तथा उसकी सृजनात्मकता पर कार्यरत पहरेदारी को बहुत साधारण और बोलचाल
के दो-तीन शब्दों में ही अभिव्यक्त करने में कवयित्री सफल हो पायी है| जैसे सहज
अभिव्यक्ति के लिए – ‘बोलते समय बात को सँभाल ले’, उसकी ‘समझदारी’ अपने दृष्टिकोण से देखने में नहीं बल्कि औरों की
दृष्टि से देखने में हैं - इस बात को - ‘और समझने के लिए / सबके दृष्टिकोण से देखे /
क्योंकि वह एक स्त्री है’ तथा एक प्रबुद्ध
स्त्री की सृजनात्मक पहरेदारी को – ‘लिखते समय कलम को झुका ले’ – जैसे छोटे-छोटे वाक्य अमूर्त दबावतंत्र को मूर्त रूप
देते है| बेटी के ‘जन्म की जमीन नदारद है’ (आस की पीड़ा) कहकर कवयित्री इस बेटी के ‘जन्म की जमीन पाने
के सपने को, आस को’ - ‘बेटी झील सी आँखों से / राह तकती रहेगी’ कहकर इस पीड़ा को
झील जितना गहारा बना देती है और पाठकों को बेचैन कर वास्तविकता की जमीन पर ला
पटकती है| उसे ‘असीम अनंत दिगंत चाहिए’ में ऐसे महीन दबाव तंत्र को भी दबाकर बहुत
ऊपर उठने के सपनों को बुनती है ; जो इक्कीसवी सदी की शिक्षित एवं प्रबुद्ध स्त्री
की पहचान कराने में समर्थ है| इन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में भाषा उनके सामने
झुक जाती है|
संदर्भ
सूची
१. स्वाती
बूद और खारे मोती – सुशीला टाकभौरे, पृ. २४
२. बलि
के बकरे - यातना के स्वर – सुशीला टाकभौरे, पृ. १६
३. चुम्बक
- स्वाती बूँद और खरे मोती - सुशीला टाकभौरे, – पृ. ४३
४. स्त्री
– यह तुम भी जानो - सुशीला टाकभौरे, पृ.
३०
५. जानकी
जान गयी है – तुमने उसे कब पहचाना – सुशीला टाकभौरे, पृ ६६
६. स्त्री
– यह तुम भी जानो - सुशीला टाकभौरे, पृ.
३०
७. लौटा
दो मेरा विश्वास – तुमने उसे कब पहचाना – सुशीला टाकभौरे, पृ. ९३
८. आज
की खुद्दार औरत – तुमने उसे कब पहचाना - सुशीला टाकभौरे, पृ. ७९
९. विद्रोहिणी
– तुमने उसे कब पहचाना – सुशीला टाकभौरे, पृ. ८४
१०. भील
एकलव्य – यह तुम भी जानो - सुशीला टाकभौरे, पृ. ३४
११. प्रकाश
पुंज - यह तुम भी जानो - सुशीला टाकभौरे, पृ. २४
१२. घर
की चौखट से बाहर - तुमने उसे कब पहचाना - सुशीला टाकभौरे, पृ.७७
प्रो.
रमा प्र. नवले
९८९०३५०३२५
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