भारतीय राजनीतिक प्रणाली-सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पक्ष- दिग्विजय विश्वकर्मा
भारतीय राजनीतिक प्रणाली-सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पक्ष
दिग्विजय विश्वकर्मा*
भूमिका
भारत
मे लोकतांत्रिक प्रणाली का शासन है। भारत ने अपनी आजादी के बाद लोकतांत्रिक देश
बनने का निर्णय लिया और 1950 में
लिखित संविधान लागू किया और उसी के साथ भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनकर
उभरा और आज भी वो दुनिया का सबसे बड़ा और एक कामयाब लोकतांत्रिक देश है। आज़ादी से
लेकर आजतक के इतिहास में केवल 2 वर्ष आपातकाल के छोड़ दिये
जायें तो भारतीय लोकतंत्र का सफर एक गौरमवमय गाथा है।
लेकिन
इस विशाल लोकतंत्र की कहानी में सैंद्धांतिक और व्यवहारिक पक्ष हमे अलग-2 नजर आते है और ये तब से है
जब से भारत का संविधान लागू हुआ , हम ये कह सकते है कि
भारतीय संविधान सिंद्धांत के रूप में जैसा है वैसा व्यवहार में नही है और न ही
यहाँ अपने हुई राजनीतिक प्रणाली। भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के सैद्धान्तिक और
व्यवहारिक पक्ष पर कटाक्ष करने के लिए एक लाइन ही काफी है कि -- भारत दुनिया
का सबसे बड़ा लोकतंत्र तो है लेकिन क्या यह सबसे अच्छा लोकतंत्र है?
लोकतंत्र का अर्थ क्या होता हैं? जान-साधारण का सशक्तिकरण, क्या भारत मे लोकतंत्र ने लोगो को सशक्त बनाया है या उनके सामने के
समस्याओं को खड़ा किया है? ये सब जानने के लिए हमे भारतीय
लोकतांत्रिक प्रणाली के उन मुख्य पक्षों या बिंदुओ को देखना चाहिए जो भारतीय
लोकतांत्रिक प्रणाली की विशेषता रहे है।
भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली
भारतीय
लोकतांत्रिक व्यवस्था एक संवैधानिक व्यवस्था है, भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित और विस्तृत संविधान है, या संविधान न तो कठोर है और न ही कमजोर बल्कि ये इन दोनों का मिश्रण है
अर्थात लचीला है।
तो
सबसे पहले भारतीय संविधान के ही सिंद्धान्तों कि व्यवहारिकता को परखते है।
भारतीय
संविधान में स्पष्ट लिखा है कि भारत राज्यो का एक संघ है और भारत के सभी राज्यो पर
एक भारतीय संविधान लागू होता है,
लेकिन भारत का एक अभिन्न अंग जम्मू और कश्मीर राज्य में उसका अपना
संविधान है। यही नही उसका अपना ध्वज और प्रतीक चिन्ह है। ये साफ दर्शाता है कि
भारतीय संविधान के सिद्धांत कैसे है और उनका व्यवहारिक रूप कैसा है। कुछ कह सकते
है कि उसे विशेष दर्जा दिया गया है लेकिन क्यो वो इसका जवाब नही दे पाते क्योकि
जिस विलयपत्र के द्वारा अन्य राज्य भारत का हिस्सा बने उसी विलयपत्र के द्वारा
जम्मू और कश्मीर भी। फिर उसे ये अलग दर्जा देने का कारण? निःसंदेह
ये भारतीय संविधान के सिद्धांतों का व्यवहारिक रूप से उपेक्षा करने के समान है।
दूसरा पहलू ये है कि भारतीय संविधान में कुछ भी जोड़ने और घटाने के लिए
संविधान संशोधन करने पड़ता है ,
भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 368 में
दी हुई है, जिसके तहत साधारण संविधान संशोधन के लिए विधेयक
को लोकसभा और राज्यसभा से 2/3 बहुमत से पारित होने अनिवार्य
है। और विशेष संविधान संशोधन के लिए इस प्रक्रिया के अतिरिक्त आधे से अधिक राज्यो
की विधानसभाओ द्वारा भी पारित होने चाहिए , ये भारतीय
संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है अर्थात ये संशोधन का सिद्धांत है और ये
प्रक्रिया पूरी किये बिना कोई भी लाइन या शब्द भारतीय संविधान का हिस्सा नही बन
सकती। लेकिन भारतीय संविधान का ये सिद्धान्त व्यवहार में नही उतरा जब संविधान लागू
हुए अभी 10 वर्ष भी नही हुए थे कि बिना संसद के किसी सदन में
चर्चा किये एक धारा को संविधान का हिस्सा बना दिया गया और उस धारा का नाम है 35(A)।
भारतीय
संविधान में राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वो आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश जारी कर
सकता है लेकिन वो अध्यादेश 6
महीने तक ही मान्य होगा यदि उसे 6 महीने के
भीतर संसद से मंजूरी नही मिलती है तो वह अध्यादेश 6 महीने
बाद स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
लेकिन 14 मई 1954 को भारत के राष्ट्रपति ने एक आदेश दिया और उसके फलस्वरूप भारतीय संविधान
में एक धारा जोड़ दी गई जिसके नाम 35(A) है।
अब संविधान के सिद्धांत के अनुसार इस धारा को संविधान का हिस्सा बनाने से पूर्व
सांसद के दोनों सदनों में बहस होनी चाहिए थी लेकिन नही हुई और तब से लेकर आज तक न
जाने कितनी सरकार बनी और बिगड़ी लेकिन किसी ने इस धारा के ऊपर चर्चा तक करने की
कोशिश नही की, सरकारो को यदि छोड़ भी दे तो किसी सांसद ने भी
आजतक सदन में ये प्रश्न तक पूछने की जहमत नही उड़ाई, ये सरासर
संवैधानिक सिंद्धान्तों का मज़ाक उड़ाना ही है।
न्यायपालिका
भारतीय
संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गई है जो बिना किसी दबाव व किसी
के प्रभाव में आये बिना आपने निर्णय दे तथा उसका निर्णय समस्त भारत में लागू होगा, लेकिन यहाँ भी न्यायपालिका
अपने इस सिद्धांत पर खरी नही उतरती क्योकि भारत के अभिन्न भाग जम्मू और कश्मीर पर
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय लागू नही होता है ये एक कड़वी व्यवहारिक सच्चाई है। जिसे
कुछ लोग जानते ही नही है लेकिन आज तक इस पर किसी ने चिंता तक प्रकट नही की।
भारत
ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ी और स्वन्त्रता प्राप्त की तब लोगो मे यह आशा जगी थी
कि अब लोगो को न्यायलयों से न्याय मिलेगा लेकिन यहाँ भी न्याय के सिद्धांत का
उल्लंघन ही हुआ है । न्याय की मांग है कि वादी को न्याय सरल और सुलभ तथा उसको उस
भाषा मे दिया जाए जिसमे को आसानी से समझ सके , लेकिन इस नैतिक सिद्धान्त का भी व्यवहारिक रूप
में पालन नही हुआ क्योकि भारतीय संविधान में भी इस सिद्धांत को स्वीकार ही नही
किया गया वहाँ तो लिख दिया गया कि भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय की आधिकारिक
भाषा औपनिवेशिक ही होगी अर्थात अंग्रेजी ।
आप
भारतीय संविधान के उस अनुच्छेद को देखिए ---
अनुच्छेद 348.
उच्चतम
न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा--
(1)
इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब
तक--
(क)
उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा
में होंगी,
(ख)
(i) संसद के प्रत्येक
सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुरःस्थापित किए जाने
वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के,
(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा
पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल 1*** द्वारा प्रख्यापित सभी अपयादेशों के, और
(iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी
राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी
आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों
के, प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।
(2)
खंड (1) के उपखंड (क) में किसी बात के होते हुए भी,
किसी राज्य का राज्यपाल 1***
राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में,
जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी
भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा
का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा :परन्तु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा
दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश को लागू नहीं होगी।
(3) खंड (1) के उपखंड (ख) में किसी बात के होते हुए भी,
जहाँ किसी राज्य के विधान-मंडल ने, उस
विधान-मंडल में पुरःस्थापित विधेयकों में या उसके द्वारा पारित ओंधनियमों में अथवा
उस राज्य के राज्यपाल 1*** द्वारा प्रख्यापित
अध्यादेशों में अथवा उस उपखंड के पैरा (ii) में निर्दिष्ट
किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में
प्रयोग के लिए अँग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहाँ उस राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल1***के
प्राधिकार से प्रकाशित अँग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद इस अनुच्छेद के अधीन उसका
अँग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।
क्या ये प्रावधान न्याय के नैतिक सिद्धान्त का व्यवहार में न उतार कर उसका
मजाक उड़ाना नही है?
विधायिका
न्यायपालिका के बाद अब हम विधायिका की बात कर लेते है प्रतिनिधित्व
का सिद्धांत यह है कि प्रतिनिधित्व करने वाले लोग सदन में बैठकर लोगो की समस्याओं
को हल करने के लिए कानूनों का निर्माण करे , लेकिन पिछले 70 वर्षों से
हमने देखा है कि कानून-पर-कानून बनाये गए है और लोगो की समस्याओं में कोई कमी नही आई ,बल्कि उल्टा समस्याओं की संख्या बढ़ती ही गई है। इस प्रकार हम ये कह सकते
है कि विधायिका अपने सिद्धांतों पर भी खरी नही उतरी क्योकि आज वहाँ गंभीर अपराधों
के आरोपी बैठे हुए है जो जन-कल्याण के कानूनों का निर्माण नही कर रहे है तो इस
प्रकार इसका व्यवहारिक पक्ष यह रहा कि विधायिका के सिद्धांत अपनी व्यवहारिकता पर
खरे नही उतरते।
धर्मनिरपेक्षता(सेकुलरिज्म)
भारतीय राजनीतिक प्रणाली में धर्मनिरपेक्षता एक अहम व महत्वपूर्ण तत्व है ।धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है कि राज्य और धर्म दोनो अलग-2 रहेंगे
तथा राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नही करेगा और राज्य सभी धर्मों को एक
दृष्टि से देखेगा और यह न केवल राज्य पर लागू होता है बल्कि राज्य में लोगो का
प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दलों पर भी लागू होता है। लेकिन भारत मे इस
सिद्धान्त की भी अवहेलना व्यवहारिक पक्ष में की गई है इसके लिए दो उदाहरणों पर
विचार करना चाहिए ।
इस देश मे महिला अधिकारों पर जोरदार बहस होती है और नेता और
संविधान महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की बात करते नही थकते। लेकिन
समानता के इसी सिद्धान्त का उल्लंघन व्यवहारिकता में किया गया , राजनीतिक दलों ने तो अल्पसंख्यक
वर्ग का इतना तुष्टीकरण किया कि वो सीधे -2 धर्म के आधार पर
वोट बैंक बनाने लगे और अल्पसंख्यकों के समर्थन प्राप्त करने के लिए वो किसी भी हद
तक जाने के लिए तैयार है । सेकुलरिज्म का अर्थ तो ये होता है कि धर्म का इस्तेमाल राजनीति में न हो लेकिन ऐसा हो
रहा है तो ये सिद्धान्त अपने व्यवहारिक रूप में नही उतरता।
दूसरा उदाहरण राज्य द्वारा एक महिला के अधिकारों के हनन का है । सन
1986 में
एक महिला शाहबानो ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ते हुए उच्चतम न्यायालय से गुहार
लगाई , न्यायालय के उस महिला के साथ न्याय किया उर उसके
अधिकार की रक्षा की तथा उसके पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन तत्कालीन सरकार ने
उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए एक संविधान संशोधन कर डाला एयर ये सब
उसने केवल एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी लोगो को खुश करने के लिए किया और सुप्रीम
कोर्ट ने भी उस संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित नही किया जो एक महिला के
अधिकारों का हनन करने वाला कानून था तो ये कैसे माना जाए कि न्यायालय को देश मे
नागरिकों के अधिकारों का रक्षक की भूमिका दी गई है और यदि दी गई है तो क्या वो
व्यवहारिक रूप में उसका पालन कर रहा है जवाब है - नही।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते है कि भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में एक-से-एक
उच्च सिंद्धान्तों को अपनाया लेकिन वो सिद्धान्त केवल सिद्धान्त बनाकर रह गए
व्यवहारिक रूप में न तो वो धरातल पर उतरे और न ही उनका पालन करवाने की कोशिश की
गई। भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में कुछ ऐसे प्रयास तो हुए की इन सिद्धांतों और
मूल्यों को लागू करने की कोशिश की गई लेकिन ये जरा सा भी सफल होती दिखाई नही
दी। भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली का सैद्धान्तिक पक्ष ये रहा है कि इसमें
सिंद्धान्तों को लिखित रुप में तो अपनाया गया, लेकिन व्यवहारिक रूप में लागू करने में असफलता ही
प्राप्त हुई है , लेकिन इन सब के बावजूद भारतीय लोकतांत्रिक
प्रणाली मजबूती के साथ आज भी विद्यमान है और निरंतर आगे बढ़ते हुए सुधार का प्रयास
कर रही है तथा लोकतांत्रिक सिंद्धान्तों को व्यवहारिक रूप में लागू करने का प्रयास
कर रही है।
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नाम- दिग्विजय विश्वकर्मा
कोर्स - राजनीति विज्ञान (M.A)
मो. --- 9911426697
[जनकृति के राजनीतिक विमर्श विशेषांक में प्रकाशित]
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