“दलित स्त्री लेखन की उपलब्धियां और सम्भावनाएँ” -तुपसाखरे श्यामराव पुंडलिक
“दलित
स्त्री लेखन की उपलब्धियां और सम्भावनाएँ”
-तुपसाखरे
श्यामराव पुंडलिक
हैदराबाद
विश्वविद्यालय, हैदराबाद,
पीन-
500046
दलित स्त्री की लेखन
प्रक्रिया में एक तरफ जहां आशावाद की किरणें नजर आती हैं तो दूसरी ओर दलित आदिवासी
तथा स्त्री की गरीबी, निर्बलता और विवसता भी दिखाई देने लगती है, साथ ही दलित
स्त्री के उपर होनेवाले प्रतिदिन की
घटनाएं बढते अन्याय-अत्याचार साफ तरह से दिखाई देते हैं। इस आलेख में दलित स्त्री
लेखन की उपलब्धियां क्या रही है और आगे क्या सम्भावनाएं हो सकती है इस पर प्रकाश
डालने की कोशिश की जा रही है।
दलित स्त्री लेखने एक आंदोलन की भांति है
उसमें आदोलन की अधिक दिशा नजर आने लगती है। दलित कवयित्रियां लेखन के साथ-साथ
आंदोलन को भी महत्व देने में आगे आने लगी है। कहना होगा कि दलित स्त्री लेखन एक
आंदोलन है, जिसमें उनके उपर हुए अन्याय-अत्याचार को उद्वेलित करने का कार्य हो रहा
है। दलित स्त्री के हीत में अनेक संगठन
कार्य में लगे हुए है और उसमें दलित लेखिकाओं की भागीदारी विशेष है। दलित महिलाओं
के आंदोलन पर पीटर जे. स्मिथ का कहना है कि, “यह आंदोलन अब विश्व व्यापी बन चूका
है।”[1]
उनका मानना है कि, आज दलित स्त्री संगठन में जो विश्वव्यापी प्रवृत्ति निर्माण हुई
है उसके पीछे का कारण उनके द्वारा निर्मित मानव अधिकारों की मूल्यों को अपनाना है।
दलित स्त्री लेखन के मूल्यों में समता, स्वतंत्रता का सबसे अधिक स्थान दिखाई देता
है। दलित स्त्री लेखन आंदोलन का नया पाडाव है। केवल इसे नया कहना ही पर्याप्त नहीं
है यह भारतीय सामाजिक कुव्यवस्था के विरोध में लेखन परम्परा का ऐतिहासिक दस्तावेज
है। प्रो.बजरंग विहारी तिवारी दलित स्त्री लेखन और दलित नारीवाद को स्पष्ट करते हुए लिखते है, कि
“दलित नारीवादी दलित स्त्रियों द्वारा अपनी स्थिति को अलग से रेखांकित किए जाने के
बाद उभरा है। वैसे तो दलित स्त्रियां कमोबेश दलित लेखन के शुरुआत से ही सक्रिय रही
हैं। लेकिन दलित नारीवाद बाद का विकास है । जाति और लिंग के सम्मिलित बोध ने दलित
नारीवाद की वैचारिक जमिन तयार की है।”[2]
दलित नारीवाद को दलित लेखन से भिन्न एक अलग श्रेणी में रखना चाहिए या नहीं यह
विवाद का विषय है परन्तु दलित साहित्य से दलित स्त्री लेखन को अलग कैटेगरी में
रखना नहीं चाहिए, उसे दलित लेखन के भीतर में ही रखा गया ताकि दलित साहित्य में
एकता टिकी रहे। दलित स्त्री लेखन को अलग से स्वीकृति मिलने के बाद व्यापक दलित
एकता टूटेगी दलित साहित्य का मुख्य हेतू हासिल करने में बादा उत्पन्न होगी साथ ही
दलित आंदोलन कमजोर होगा। दलित स्त्रियों की अनेक समस्याएं दलित साहित्य में नहीं आ
रही है इसलिए दलित स्त्री को अलग से अपनी लेखनी चलाना पडा। इस लेखन को देखकर कुछ
साहित्यकार है जिन्होंने दलित स्त्री लेखन पर अलग से विचार नहीं होना चाहिए इतना
ही नहीं बल्कि उसे दलित आंदोलन और लेखन में विशेष अहमियत भी नहीं मिलनी चाहिए। ऐसी
सोच को बजरंग बिहारी तिवारी जवाब के तौर पर लिखना चाहते है कि, “इस समझ के बरक्स
दलित नारीवाद की पैरोकार लेखिकाएं पितृसत्ता के प्रश्नो को जाति समस्या के बराबर
रखती है । वे जानते है कि, दलित साहित्य को साहित्य की एक भिन्न और स्वतंत्र
कैटिगरी के रुप में स्वीकृति आसानी से नहीं मिली है दलित लेखकों ने तमाम अवरोंधो,
निषेधकारी तर्को को पार करके ही वांछित स्वीकृति पाई है। तो तर्क दलित साहित्य को
स्वीकृति दिलाने के लिए प्रस्तुत किए गए वही दलित नारीवादी साहित्य के संदर्भ में भी
लागू होता है।”[3]
दलित महिलाओं का शोषण सर्वाधिक हुआ है लेकिन साहित्य की मुख्यधारा में उनका जीवन
अनुपस्थित रहा है, मुख्यधारा की बात छोडिए दलित साहित्य में भी वह पर्याप्त
प्रतिनिधित्व की भागीदार नहीं बन पाई है। जिस प्रकार दलित साहित्य को रचने के लिए
दलितों की पीडा की स्वानुभूति की आवश्यकता लगी है ठिक वैसे ही दलित स्त्री लेखन की
सर्जना को भी दलित स्त्री की पीडा, यातनाओं की स्वानुभूति की आवश्यकता अनिवार्य ही
होगी। दलित स्त्रियां जाति और पितृसत्ता दोनों का सम्मिलित अत्याचार झेलती है।
इसलिए उनका अनुभव दूसरों से भिन्न और विशिष्ट है। दलित स्त्री लेखन के द्वारा
भारतीय समाज व्यवस्था के सामने ऐसे अनेक अप्रत्याशित, अनसुने और आधारभूत सवाल किए
साथ ही उसने दलित लेखकों, विचारों व कार्यकर्ताओं के समक्ष ऐसे-ऐसे जटिल सवाल
प्रस्तुत किए उस सवाल के जवाब देने में नाकाम हो जाते हैं। इतना सब कुछ होने के
बावजूद बजरंग बिहारी तिवारी जैसे विचारक भी स्त्री लेखन को अभी भी प्रारंभिक
अवस्था में रखते हुए दिखाई देते है, उन्होंने स्पष्ट लिखा है, “इस स्थिति में जाति
विरोधी संघर्ष को सपाट होने से बचाया और विचार
के नए आयाय तथा संघर्ष के नए मोर्चे खोले दलित नारीवाद बुनियादी सवालों को लेकर
चला है और यह समाज की बुनियाद की बदलने की क्षमता रखता है। क्योंकि दलित नारीवाद
अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है। इसलिए उसकी क्षमताओं का ठीक-ठीक आकलन इस
वक्त नहीं किया जा सकता।”[4]
इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि, दलित स्त्री
लेखन का प्रारंभिक दौर शुरु है, साथ ही दलित स्त्री संगठित होने, आंदोलनों को
चलाने का सीधा मतलब स्त्री जीवन की स्थिति में परिवर्तन की शुरुआत हुई है।
दलित
स्त्री लेखन की उपलब्धियां
हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण उपलब्धी है
कि दलित स्त्री का लेखन प्रक्रिया में आना। उन्होंने अपने अनुभव स्वत: रचनाओं के
माध्यम से समाज के सामने रखने की सफल कोशिश करने में तत्पर है। वैसे हिंदी दलित
स्त्री लेखन में अनेक कमियां है परन्तु उन कमियों को दूर करने के प्रयत्न जारी है।
केवल ऐसा नहीं बल्कि उनके लेखन की कुछ उपलब्धियां भी सामने आती है उसे चित्रित
करना महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। कारण ऐसा करने से दलित स्त्री लेखन की
दिशा और दशा को भी तय किया जा सकता है।
दलित
स्त्रियों का कारवां
दलित स्त्री लेखन की उपलब्धियां रही है कि वह
लेखन के साथ-साथ स्वयं दलित आंदोलन को साथ लेकर चलने में अपनी सार्थक भूमिका अदा
करती है। डॉ. अम्बेडकर भारतीय साहित्य के साथ-साथ विदेशी साहित्य के अच्छे जानकार
थे उन्होंने अध्ययन में पाया कि विदेश में स्त्रियों को किस प्रकार स्वतंत्रता
प्राप्त है और भारत में स्त्री जीवन की क्या हालत है। साहित्य अध्ययन के दौरान
हमारे सामने कई उदाहरण है जिसमें बुद्ध की थेरियों से लेकर सावित्रीमाई फुले व
अन्य उनकी कई महिला मित्र थी जिन्होंने स्वयं पढ-लिखकर बाद में समाज के विकास और
परिवर्तन के लिए कार्य किया है। आगे जाकर डॉ. अम्बेडकर के समय का काल स्त्रियों के
लिए सवर्ण काल समझा जाता है। कारण उनके साथ दलित स्त्रियों का कारवां बढकर आगे आने
लगा और अपने हक एवं अधिकारों की मांग करने लगा। अनिता भारती लिखती है, “डॉ.
अम्बेडकर के समय में चले दलित आंदोलन में लाखों-लाख शिक्षित-अशिक्षित, घरेलू, गरीब
मजदूर, किसान व दलित शोषित महिलाएं जुडीं। जिन्होंने जिस निर्भीकता बेबाकी और
उत्साह से दलित आंदोलन में भागीदारी निभाई वह अभूतपूर्व थी। दलित महिला आंदोलन और
डॉ. अम्बेडकर के साथ महिला आंदोलन की सुसंगत शुरुआत 1920 से मान सकते हैं हालांकि
सुगबुगाहट सन 1913 से ही हो गई थी।”[5]
1920 में ‘भारतीय बहिष्कृत परिषद’ की सभा में शाहू महाराज की अध्यक्षता में हुई
सभा में पहली बार दलित महिलाओं ने भाग लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। उस सभा में
तुलसीबाई बनसोडे और रुकमणिबाई लडकियों को उनकी भाषा में शिक्षा की ताकत का महत्व बताकर उनमें परिवर्तन की जोति
जगाई। आगे चलकर देशभर में स्त्री कारवां दलित महिला आंदोलन के रुप में आकार ले रहा
दिखाई देने लगा। तभी 20 जुलाई 1924 ई. में मुंबई में आयोजित ‘बहिष्कृत हितकारिणी
सभा’ की स्थापना की गई। “बहिष्कृत हितकारिणी सभा की अधिसंख्य सभाएं जो जगह-जगह
गांव देहातों में आयोजित की जाती थी। उनमें दलित महिलाओं की उपस्थिति लगातार रही
है। इस समय दलित महिलाएं अपने समाज और परिवार जनित पीडा को सार्वजनिक रुप से
अभिव्यक्त कर रही थीं। पर उनकी अभिव्यक्ति अधिकतर गानों व स्वागत गान रुप में ही
होती थी।”[6]
इस प्रकार के गित गाने के लिए वेनुमाई भटकर और रंगमाई शुभरकर अपने मधुर कंठ से
दलित पीडा की मार्मिक और संघर्षपूर्ण अभिव्यक्ति को गीतों में ढालकर समाज को
संबोधित करती थी।
ज्योतिराव फुले, डॉ. अम्बेडकर के स्त्री
उद्धार कार्य से दलित महिलाओं ने आंदोलन को स्वयं चलाने का निर्णय लेकर दलित
स्त्रियों का कारवां निर्माण किया और उनको अधिकार दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान
दिया। उसमें जईमाई चौधरी का नाम आता है, “एक दलित महिला द्वारा दलित बच्चियों के
लिए विद्यालय स्थापित करना। उच्च शिक्षित दलित महिला जाईमाई चौधरी जो बाद में
सशक्त दलित महिला नेता के रुप में स्थापित हुई। उन्होंने 1924 में चोखा मेला कन्या
पाठशाला आरंभ की। जाईमाई चौधरी स्वयं बहुत ही मुसीबतों से पढ लिख पायी थी। जाईमाई
चौधरी शिक्षिका के साथ-साथ एक जागरुख लेखिका एवं अच्छी वक्ता भी थीं। जाईमाई चौधरी
बाबासाहब के कार्य से और शिक्षा प्रणाली से प्रभावित होकर उनकी पक्की अनुयायी बनी
थी।”[7]
इस प्रकार जाईमाई चौधरी ने डॉ. अम्बेडकर की स्त्री विषयक विकास की दृष्टि का
प्रचार-प्रसार करके स्त्री शिक्षा को अत्याधिक महत्वपूर्ण मानते हुए स्त्री शिक्षा
पर बल दिया। इस प्रकार दलित महिला आंदोलन की माला में संघर्ष का एक मोती और जुड
गया। दलित कवयित्रियां लेखन कार्य के साथ-साथ अम्बेडकरवादी आंदोलन को आगे बढाने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अम्बेडकरवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना
ही उनके लेखन का महत्वपूर्ण इद्देश्य हैं।
विश्वव्यापी
दलित स्त्री लेखन
हिंदी का दलित साहित्य जिस प्रकार से
विश्व में अपना डंका बजाने लगा है। वैसे ही दलित स्त्री कवयित्रियां भी अपनी
अभिव्यक्ति को न केवल सिमीत रखती है बल्कि उसे विश्वव्यापी बनाकर भारतीय समाज में
दलित स्त्री की योग्यता को समझाने लगी है। यह अलग है कि ब्राह्मणवादियों के मन में
उनके प्रति ऐसा करने से कोई सहभाव नहीं है परन्तु उन्हें सच्चाई के सामने कुछ करने
का साहस ही नहीं होता। यही वजह है कि दलित स्त्री अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ
आावाज उठाने से न ही परिवार के सदस्यों से डरती है और नहीं सवर्ण मानसिकता से डरती
है। दलित कवित्रियों की हिंम्मत व संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से दलित स्त्री
लेखन को विश्वव्यापी बनने में बडी सहायता प्राप्त हुई है। “दलित महिलाओं का आंदोलन
बीजिंग के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन से देश की परिधि बाहर भी विस्तृत होने लगता है।
इसमें संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र
संघ ने अपने संम्मेलन में स्वयंसेवी संस्था एवं विश्वव्यापी नेटवर्क के लिए एक जगह
प्रदान किया है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों पर जोर दिए
जाने से दलित महिलाओं के आंदोलन को बल मिला है।”[8] इस प्रकार से संयुक्त राष्ट्र के दबाव के कारण
सभी देशों को दबाव में बनाया जा सकता है।
स्मित लिखते है, “स्वयं सेवा संस्था अपना देस की परिधि से बाहर दलितों एवं
उपेक्षितों की स्थिति को सामने लाकर ‘शर्मनाक’ तथ्यों को दर्शाते हैं। इस
अन्तर्राष्ट्रीय कार्य से उन देशों की सरकारों पर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं
का एक राजनीतिक और नैतिक दबाव पडता है तब ये देश उस दिशा में सक्रिय होते दिखते
है।”[9]
दलित कवयित्रियों ने विश्व के अनेक देशों में यात्राएं की है। रमणिका गुप्ता भी “विश्व
के उन्नीस देशों की यात्रा कर चुकी हैं। भारत के प्रतिनिधि के रुप में उन्होंने
मजदूर परिषद मैक्सिको, बर्लिन, रुस, युगोस्लव्हिया, फिलीपाईन्स, तथा क्यूबा में
भाग लिया। उन्होंने कई राष्ट्र की साहित्यिक यात्राएँ की हैं। अमेरिका, कनाडा,
हाँगकाँग, बँकॉक, इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, नार्वे, स्विटजरलैण्ड का दौरा किया है।”[10]
संयुक्त राष्ट्र संग के अलावा अनेक
सामाजिक संस्थाएं दलित स्त्री के लिए कार्य करने में तत्पर है जैसे- विश्व सामाजिक
मंच, हेग सम्मेलन, ऑल इंडिया दलित वूमेन फोरम, महिला दल, बहुजन महिला संघ, बहुजन
महिला परिषद आदि कई संगठन है जो दलित स्त्री के हीत में कार्य करने में आगे है।
विश्व सामाजिक मंच में जनवरी 2007 में अफ्रीका एवं दक्षिण एशिया की महिलाएं एकत्र
आयीं। ये मंच जाति एवं रंगभेद की नीति के प्रतिरोद में था इसमें भी दलित महिलाओं
के मुद्दे पर विचार किया गया। विश्व सामाजिक मंच वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव के
खिलाफ एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिरोध है। दलित महिलाओं ने विश्व सामाजिक मंच में
वैश्वीकरण को दलित समाज और उनके उपर हो रहे नकारात्मक प्रभाव को हमेशा से सामने
रखने का सफल प्रयास किया है। नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (एनसीडीएचआर) ने
2003 में वैश्वीकरण के दलित महिलाओं पर हो रहे दुष्परिणाम को उजागर किया। विमल
थोरात इस एनसीडीएचआर की सदस्या है जे कि दलित है। उन्होंने बताया है कि, “दलित
महिलाओं को वैश्वीकरण का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा झेलना पडता है। इसमें दलित
महिलाओं में गरीबी, बेरोजगारी, श्रमिकों की दुर्दशा, अनौपचारिक क्षेत्रों में
वृद्धि, निजीकरण में वृद्धि, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, सार्वजनिक क्षेत्रों
में नौकरियों में कमी, स्वास्थ्य सुविधाों का महंगा होना शामिल है। इसके साथ ही
कृषि का वाणिज्यीकरण, पाणी जैसे संसाधनों का निजीकरण आदि से ग्रामीण इलाकों में रहनेवाले
दलित महिलाओं के परेशानी हो रही है। दलित महिलाएं जो सर पर मैला ढोने के कामों में
लगी हुई हैं। उनके प्रश्न पर भी चिन्तन किया गया।”[11]
विविध
विधाओं में लेखन कार्य
दलित स्त्री को समाज के द्वारा गूँगा पैदा
करना पहला अभिशाप है, लडकी को घर परिवार में न बोलने का या कम बोलने की शिक्षा
मिलती है। घर के बाहर तो वह कोई बलता है तो वह चूपचाप सुनने के लिए तयार रहना और
गुस्सा भी आए तो चूपचाप पी जाओं, ऐसा नही करेगी तो समजा उसे कुलटा और न जाने कितनी
उपाधियां देगा यह सोचकर वह खुद को नाकाम समझकर चूप बैठने के अलावा कुछ नहीं करती
है। ऐसे में अगर कोई दलित कवयित्री अपनी बेडियां तोडने रचनाओं का निर्माण करती है
तो यह साहित्य के लिए बहुत बडी उपलब्धि है।
कोई दलित लडकी समाज की बुराईयों को सामने
लाना चाहती है, यह अच्छी बात है। आज के समय में दलित लेखकों के साथ-साथ दलित कवयित्रियां
भी साहित्य में अपने जीवन को अभिव्यक्त कर रही है। हिंदी की दलित कवयित्रियां अपने
लेखनी में ऐसे विषयों को लेकर आने लगी है जिस पर ब्राह्मणवादी मानसिकता लडखडा रही
है।
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा,
आलोचनात्मक लेख आदि विधाओं में दलित स्त्री साहित्य लिखा जा रहा है। और उसकी
सराहना भी बहुत होने लगी है। स्त्री
आंदोलन के शुरुआती दिनों में महिलाओं के अनुभव की अभिव्यक्ति करने केवल एक ही मंच
उपस्थित था लेकिन दलित लेखिकाओं ने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि विभिन्न वर्ग की
महिलाएं अनेक अपने मुद्दों पर अलग-अलग ढंग से प्रभावित रही है। और उसे महसूस हुआ
कि अपनी अभिव्यक्ति का अलग से रास्ता निकाला जा सकता है। ठिक वैसे दलित नारी
संगठित होकर उनके साथ हो रहे दाहरे शोषण को विविध विधाओं द्वारा साहित्य में
प्रस्तुत करने लगी है। “दलित स्त्री साहित्यिक आंदोलन में दलित स्त्री अब सभी
विधाओं में अपनी बाते कह रही है। वह है, आत्मकथा, कविता, नाटक, एकांकी, यात्रा
वृतांत एवं लोकगीतों के माध्यम से आत्मकथा के माध्यम से दलित स्त्री घर के अंदर पितृसत्ता को रेखांकित
कर रही है। जिसके निसाने पर आमतौर पर पति का व्यवहार घर के अंदर के अन्य लोगों का
व्यवहार निसाने पर आता है। इस संदर्भ में पुस्तक का तिसरा खंड दलित स्त्री लेखन
जिसमें केवल अनिता भारती ने अपने आलेख ‘दलित लेखन में स्त्री चेतना की दस्तक’ में
संपूर्ण दलित स्त्री लेखन पर चर्चा की है।”[12]
विवाह
के बाद भी पढाई के साथ-साथ साहित्य से समाज को सही दिशा देती रहीं। रमणिका गुप्ता
हर विधा में कई सारे विषयों को उजागर करती हैं। वह एक साहित्यकार के साथ-साथ सफल
पत्रकार भी हैं। ‘युद्धरत
आम आदमी’ पत्रिका
की संपादिका हैं। उन्होंने साहित्य के माध्यम से न केवल भारत में चर्चित हैं बल्कि
विदेशों में भी अपनी अलग छाप छोडी हैं। मानवतावाद रमणिका गुप्ता के साहित्य का
केंद्र बिंदू है। इसी को आधार बनाकर विविध विधाओं में अपनी वैचारिक दृष्टि समाज
में रुजाने के लिए तत्पर रहती हैं। कविता, कहनी, उपन्यास, नाटक, आलोचनात्मक लेख और
आत्मकथा विधाओं पर हिंदी में लेखनी चलाई हैं और साथ ही बहुआयामी व्यक्तित्व होने
के कारण उन्हें बहुभाषा का ज्ञान होने से उन्होंने हिंदी साहित्य तेलगु, गुजराती,
पंजाबी, मराठी, मलयालम आदि भाषाओं में अनुवादित कर अनेक संस्कृतियों को मिलाने व
समझाने का कार्य किया हैं।
दलित
स्त्री लेखन पर शोध तथा शैक्षणिक हलचल
आज दलित स्त्री लेखन विविध प्रकार की
साहित्य की विधाओं को स्थान देकर व्यापक रूप धारण किया हुआ है। विविध
विश्वविद्यालयों में दलित स्त्री लेखन को पाठ्यक्रम में पढाया जा रहा है। और साथ
ही दलित स्त्री लेखन पर केवल चर्चा न होकर विविध विषय के शोध कार्य हो रहे है। यह
दलित स्त्री लेखन की बडी उपलब्धि मानी जायगी अब दलित मुद्दों पर एवं दलित
स्त्रियों के मुद्दों पर लेखन और बोध में वृद्धि होती दिखती है। जिस आक्रोश के
तेजाब से स्त्री आस्मिता को रौंदा जाता रहा है, उस आक्रोश का प्रतिउत्तर देना दलित
स्त्रियां सीख लिया है। वे आज आत्मनिर्भर हो रहीं है तथा आत्मबल से लबालब हैं। वह
साक्षर होना जान गई है इसलिए खुद की आत्मरक्षा करने में समर्थ बनी है, आज दलित
स्त्री अपनी खुदारी को पहचाना है, अब वह बेबस, बेचारी, लाचार, अबला नहीं हैं बल्कि
किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए तयार है। यह हिंमत उन्हें डॉ. अम्बेडकर के
कार्य से प्राप्त हुई है। संविधान ने सभी स्त्रियों को समानता का अधिकार देकर उनके
जीवन में क्रांति का बीज बोया है। परिणाम स्वरुप आज दलित स्त्री भी अपनी लेखनी में
स्त्री समाज के उपर हो रहे अन्याय- अत्याचार को वाणी दे रही है। पुष्पा विवेक ने
बहुत अच्छी बात की है, “धर्मवीर जी, जब चीटी पर पैर पडता है तो वह भी काटती है।
यहां तो दलित-शुद्र स्त्री का सवाल है जो एक इंसान है, फिर चाहे वह कायस्त हो,
चमार हो या कोई भी जाति की स्त्री। जब
उनके साथ अन्याय होगा तो वह भी पलटवार तो करेंगे ही, अब चाहे ब्राह्मण विरोधी
कायस्थ हो या धर्मवीर विरोधी स्त्री। जब उनके साथ अभद्र व्यवहार, अश्लील भाषा का
प्रयोग किया जायेगा तो क्या वह चूपचाप बर्दास्त कर लें। आज की स्त्री पढी-लिकी व
समझदार है, उसे अपने अधिकारों व अच्छे बूरे का ज्ञान है। निर्लज्ज और समाज विरोधी व्यक्ति का विरोध
कर आज की स्त्री ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह धर्मवीर जैसे ओछी प्रवृत्ति के
व्यक्ति को सबक सिखाने का हौसला रखती है।”[13]
दलित स्त्री लेखन का
विस्तार आज की तारीख में पुरे देश में विश्वविद्यालय और महाविद्यलय में होते हुए
नजर आ रहा है। विश्वविद्यलय में अनेकों दलित कवयित्रियों के रचनाओं पर शोध कार्य
चल रहा है। यह उनके किए कार्य का ही फल कहना चाहिए। सुशीला टाकभौरे, रजनी तिलक,
कौशल्या बैसंत्री, रजतरानी मीनू, अनिता भारती आदि कवयित्रियों के रचनाओं को लेकर
विविध विषयों को सामने रखकर शोधकार्य हो रहे है।
दलित लेखिकाओं ने स्त्री हिंसा के खिलाफ
अपना विरोध प्रकट किया है। दलित हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करते समय अनोकों
स्त्रियों को हिंसा व बलात्कार का शिकार होना पडा।
डॉ. अम्बेडकर ने स्त्री जीवन को सशक्त
बनाने के लिए स्त्री-पुरुष की समानता अधिक
महत्वपूर्ण तथा आवश्यक मानते थे। लडकों के साथ-साथ बिना भेदभाव किए लडकियों को भी
समान रुप से शिक्षा दी जाए तो भारतीय समाज विश्वजगत में अतिशीघृ प्रगति कर सकेगा। डॉ.
अम्बेडकर इस तरह इसलिए चाहते थे कि, स्त्री और दलित स्त्री को कई हजारों सालों से
केवल शिक्षा में ही नही बल्कि सभी क्षेत्रों से दूर रखा गया और पुरुषसत्ता के
वर्चस्व के अधिन रखकर उन्हें गुलाम, दास, बनाया गया। इसका जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर
ने हिन्दू धर्म ग्रंथों और मनु को माना है कारण मनु ने स्त्रियों को वेद पढने नही
दिया, “स्त्रियों
को पढने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए उनके संस्कार वेद मंत्रों के बिना किए जाते
है। स्त्रियों को वेद जानने को अधिकार नहीं है इसलिए उन्हें धर्म का कोई ज्ञान नही
होता।”[14]
मनु
के समय के पूर्व स्त्रियों को गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी, इसका उलेख
डॉ.अम्बेडकर करते है, “श्रोत
सूत्र से यह स्पष्ट है कि नारी वेद मंत्रों का अनुपाठ कर सकती थी और उसे वेदों का
अध्ययन करने के लिए शिक्षा दी जाती थी पाणिनि की अष्टाध्यायी से इस बात के भी
प्रमाण मिलते है कि, नारियाँ गुरुकुलों में जाती और वेदों की विभिन्न शाखाओं का
अध्ययन करती थी। और वे मीमांसा में प्रविण होती थी। पतंजली के महाभाष्य का कहना है
कि, नारियां शिक्षक होती थीं और बालिकाओं को वेदों का अध्ययन कराती थी।”[15]
बाबासाहेब
डॉ.अम्बेडकर शिक्षा को अन्याय के खिलाफ लडने का शास्त्र माना है। ‘शिक्षा
शेरनी का दूध है, यह दूध जो भी कोई पिएगा वह अन्याय के खिलाफ जंग छेडे बीना नही
रहेगा’,
‘जब तक गुलामों को
उसकी गुलामी का ज्ञान नही होगा तब तक वह गुलामी से मुक्त नही होगा।’
बिना शिक्षा से कोई भी व्यक्ति गुलामी को पहचान नहीं सकता। गुलामों को गुलामी की
पहचान तब हो सकती है, जब वह शिक्षा आत्मसात करके सही गलत की पहचान करने में
परिपूर्ण साबित हो, “डॉ.अम्बेडकर
जब विदेश में पढने गए तो वहां के स्वतंत्र जीवन में उन्होंने स्त्रियों को
चहुंमुखी विकास करते देखा तो उन्हें समझ में आया कि, बिना स्त्री शिक्षा के कोई भी
प्रगति अधूरी है। विदेश में होते हुए वहां की स्त्रियों को स्वतंत्रतापूर्वक जीवन
जीते हुए, चिंतन मनन करते हुए, उनकी प्रगति देख स्त्री चेतना को धार मिली।”[16]
डॉ.अम्बेडकर का अपना मानना था कि, “यह
गलत है कि माँ-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड दे सकते है, यह बात अपने मन पर
अंकित कर यदि हम लोग अपने लडकों की शिक्षा के साथ ही लडकियों की शिक्षा के लिए भी
प्रयास करे तो हमारे समाज की उन्नति तीवृ होगी। इसलिए आपको नजदीकी रिस्तेदारों में
यह विचार तेजी से फैलाना चहिए।”[17]
शिक्षा मनुष्य की आँखों के समान होती है, जिस प्रकार आँखों के बिना हम कुछ देख और
समझ नही सकते उसी प्रकार शिक्षा के बिना भी समाज को सही ढंग से समझ नही सकते।
इसलिए जीवन में शिक्षा का होना महत्वपूर्ण ही नही बल्कि अनिवार्य है।
शिक्षा से ही विवेक-बुद्धि प्राप्त होती
हैं जिसके द्वारा हम अपनी स्थिति और सही-गलत का भेद करके सत्य को आधार बनाकर सच्चा
इतिहास लिखेंगें। कहा जाता है कि जिनकों अपने इतिहास के बारे में कुछ जानकारी नहीं
वह अपना इतिहास लिख नही सकते। आज तक वही होते आ रहा था लेकिन आज दलित, आदिवासी और
स्त्रियों ने शिक्षा के बल पर अपना इतिहास जानकर स्वयं इतिहास लिखने का काम ही
बल्कि इतिहास में अपनी खास जगह बना रही है। अतः स्पष्ट है कि, इतिहास जानने के लिए
शिक्षा बहुत जरुरी है। शिक्षा प्राप्ति के उपरांत हम अपना इतिहास और वर्तमान को
अच्छे से समझकर भविष्य में उन्नति-प्रगति पर राह का इतिहास खुद बना सकते है।
सुशीला टाकभौरे लिखती है, “सर्वप्रथम
महात्मा ज्योतिबा फुले स्त्री शिक्षा का
अभियान चलाया था क्रांति माँ सावित्री फुले ने प्रथम शिक्षिका बनकर, स्त्री शिक्षण
अभियान को आगे बढाया। बाबासाहेब डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने स्त्रियों के हक में कानून
बनाकर स्त्रियों को अधिकार दिलाए, जिसके फलस्वरुप वे शिक्षा और प्रगति के क्षेत्र
में आगे बढ सकी।”[18]
दलित
स्त्री की बदलती परिस्थिति
दलित स्त्री की परिस्थिति पहले से बेहतर हो
रही है। आज वह अपने हक एवं अधिकार के लिए समाज से लड रही है। अब दलित स्त्री के
आंदोलन, मुद्दों पर भी , सोचने का तरिक बदला है। भले ही दलित स्त्री को समानता का
अधिकार न मिला हो लेकिन उसे समाज ने यह कबूल कर लिया है कि दलित स्त्री भी एक
मनुष्य है और उसे मनुष्य होने का अधिकार मिलना चाहिए। वैसे स्त्री बहुत ही सहनशील
होती है समाज ने उसे इस सहनशीलता का फायदा उठाकर कमजोर बनाया। परन्तु पुरुष के यह
पत्ता नहीं था कि सहनशील होने के लिए
हौसला रखना चाहिए। स्त्री के पास इतना सहन करने की शक्ति होती है कि सब कुछ छोडकर
अपने परिवार के लिए जी जान लगा देती है। लेकिन आज स्त्री के पास यह उपलब्धि हैं,
कि वह “आज औरत अपने सीमित दायरे से बाहर निकलकर प्रगति पथ पर अवश्य आगे बढ रही है,
परन्तु समानता ने अभी भी कोसों दूर है।”[19]
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा शैक्षणिक क्षेत्र में दलित स्त्री की स्थिति में
जितनी विकाश की गती होनी थी वह नहीं हो पायी। फिर भा कह सकते है कि दलित स्त्री आज
सभी क्षेत्र में अपना दबदबा निर्माण करना चाहती है।
दलित साहित्य को राजनीति से जोडकर देखना आवश्यक
कारण दलित साहित्य केवल साहित्य ही नहीं बल्कि विचारों का एक राजनीतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आंदोलन भी हैं। एक ऐसा आंदोनल जिसके द्वारा दलित, आदिवासी,
स्त्री तथा दबे-कुचले लोग भी अपनी लडाई खुद लडने के लिए तयार हैं। हक एवं अधिकार की बात करते ही साहित्य अपने आप
राजनीति से जुड जाता है। पर सवाल हि कि क्या दलित साहित्य का राजनीति से कोई संबंद
है या नहीं। कारण हम दलित साहित्य को आंदोलन का रुप मानते है तो फिर कोई भी आंदोलन
राजनीतिक विचारों के बिना आगे नहीं बढ सकता हैं। अनिता भारती ठिक ही लिखती है,
“दलित आंदोलन और दलित साहित्य की भी एक
राजनीतिक विचारधारा है जिसके प्रेरणास्रोत अम्बेडकर, फुले, कबीर, बुद्ध
हैं।”[20] दलित साहित्य और आंदोलन के प्रेरणास्रोत
डॉ.अम्बेडकर के नेत्रत्व में दलित समाज तथा स्त्री समाज जिस चेतना से लाखों करोडों
की संख्या में जुड रहा है। वैसा किसी भी इतिहास में नहीं संभव नहीं है। डॉ.
अम्बेडकर ने केवल दलित समाज को ही सुधारने का या उनको आगे लाने का कार्य नहीं किया
बल्कि उनके दृष्टि में समाज की सभी महिलाओं को न्याय दिलाना ही मकसद रहा है।
तथकालीन समाज में चले स्त्रियों के छोटे-बडे आंदोलनों की आखिर यही राजनीति रही
होगी कि, दलित आंदोलन से जुडकर शोषण और दमन के खिलाफ एक ऐसे स्वस्थ समाज के लिए
संघर्ष करना जहां समाज में दलित पुरुषों के साथ खंदे से खंदा मिलाकर कार्यरत रहे
और वह भी समानता, स्वतंत्रता का हिसा बने। “1977 में कुल 19 महिलाएं ही संसद में पहुंचीं
जबकि 1984 में सबसे अधिक 46 महिलाएं संसद में पहुंचीं। यह इंदिरा गांधी हत्याकांड
का वर्ष था, जब राजीव गांधी सहानूभूति की तेज लहर चली थी उसके बाद संसद में
महिलाओं की संख्या घटती चली गई। 1999 में फिर इसमें थोडा सुधार आया और संसद में
पहुंचने वाली महिलाओं का संख्या 48 हो गयी।”[21]
इतना ही नहीं बल्कि भारत का सबसे बडा राज्य उत्तरप्रदेश की पहली बार एक दलित महिला
मुख्यमंत्री बनी है। और दलित महिलाओं में दूसरी मुख्यमंत्री रही राबडी देवी जो कि
लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद बनी। बात अलग है कि उनका मुख्यमंत्री बनना
मजबूरी थी लेकिन राबडी देवा भी हमेशा लालू प्रसाद को सहयोग की भूमिका में ही दिखाई
देती रही है। इसके अलावा अनेक दलित महिलाओं ने राजनीति में भागीदारी दर्ज की उसमें
मध्यप्रदेश की जमुना देवी उपमुख्यमंत्री पद पर रही और बिहार में मुसहर जाति की
महिला भगवती देवी राज्यमंत्री भी बनी साथ ही केंद्र में सांसद भी रही।
जहां मायावती ने दलित महिलाओं का स्वाभिमान
जगाया, वही एक बिल्कुल ग्रामिण महिला ने व्यवस्था से विद्रोह कर अपने अपमान का
बदला लिया। जहां लाखों ठाकूरों और ब्राह्मणों की नजर में फूलन देवी एक डकैत थी, जिसने
बेहमई में ठाकूरों को मौत के घाट उतारा, लेकिन ये ही लोग फूलन पर
अत्याचार-दुष्कर्म को भूल जाते हैं। परन्तु हम यह कभी नहीं भूल सकते कि फुलन दलित
महिलाओं की चेतना थी, उनके विद्रोह की कहानी थी।
12 साल जेल में रहकर बाहर आने के बाद राजनीतिक
हलचलें शुरु हुई है। फुलन पर उनकी मल्लाह जाति को बहुत गर्व था, अन्त में उन्होंने
एक राजनैतिक दल की सदस्य बनकर मिर्जापुर से सांसद वनी।
आज संविधान के तहत आरक्षण की बदौलत बडी
संख्या में दलित महिलाएं पंचायत और क्षेत्र पंचायतों की प्रमुख सदस्य हैं। और
हिम्मत और खुशी से अपना काम कर रही है। लेकिन बहुत सारी महिलाएं अपने पति के
निर्देशों पर ही काम करती हैं जो कि संविधान की मुल भावना के खिलाफ है। दलित
महिलाओं को अपने हक एवं अधिकारों की लडाई राजनैतिक ताकत को बढाकर ही लडनी होगी और
यह सही मायनों में तभी संभव होगा सकता है जब सांप्रदायिकता, हिंसा और धार्मिकता से
स्वयं को दूर रखेंगे। यही सबसे अधिक दलित महिलाओं के शोषण के हतियार बनकर आये हैं।
इसलिए दलित महिलाओं को अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सचेत रहकर ही राजनीति में अपना कदम रखना अनिवार्य तथा
महत्वपूर्ण रहेगा।
कहना होगा कि दलित स्त्री हर क्षेत्र में
आगे आने की कोशिश में जूटी हुई है। दलित महिलाएं विभिन्न प्रांतो में सजग तो हो
रही है परन्तु आज भी हिंसा, गरीबी, छुआछूत, शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य की कमी जैसी
समस्याओं के चलते जीने को मजबूर है। इसके चलते हम कह सकते हैं कि दलित महिलाओं के
स्थितियों में बहुत कुछ अन्तर नहीं आया है। शिवकुमार के अनुसार “अभी भी दलित
महिलाओं को अपने ही दलित आंदोलन में पूरी पहचान नहीं मिल पायी है। हांलाकि वे इस
दिशा में प्रयासरत हैं।”[22]
और इस संदर्भ में सुशीला टाकभौरे और अन्य दलित कवयित्रियां चिंतीत है। दलित आंदोलन
व लेखन के सामने यह बहुत बडा प्रश्न है कि समाज में महिलाओं के प्रति ब्राह्मणवादी
मानसिकता को किस प्रकार बदला जाय कारण इस मानसिकता के कारण संपूर्ण दलित महिला
वर्ग नारी मुक्ति आंदोलन से जुड नहीं पाती है। इसका बडा कारण पितृसत्ता का वर्चस्व
कहा जा सकता है। इसलिए आज भी वे घर हो या घर के बाहर का कोई भी कार्य हो परिवार के
पुरुष की अनुमति के बिना कर नही सकती। अत: संभावना कर सकते है कि स्त्री के प्रति
इस तरह की मानसिकता को जब तक बदला न जाय तब तक
नारी मुक्ति के प्रश्नों का समाधान नही कर पायेंगे।
निष्कर्षत: कहा जा
सकता है कि, दलित स्त्री राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, धार्मिक और
सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों से पिछडी हुई हैं। धीरे-धीरे वह पिछडी जिंदगी को पिछे
छोडकर विकास का रास्ता अपना रही है। हिंदी दलित स्त्री लेखन में अनेक संभावनाएं हैं।
कही गयी बात को पुन: पुन: उसी अंदाज में कहना रीपीटेशन अधिक होता है। इसलिए आगे
भविष्य में इस प्रकार एक ही बात को अलग प्रकार से चित्रित करने की कोशिश होनी
चाहिए। विषयों में भी विभिन्नता होनी आवश्यक हैं। दलित स्त्री के अनेक मुद्दे अभी
भी साहित्य में चित्रित करना बाकी रहा है। उम्मीद हैं कि दलित स्त्री आगे इसकी कमी
दुर करेगी।
-तुपसाखरे
श्यामराव पुंडलिक
शोधार्थी-
हिंदी विभाग, मानविकिय संकाय
हैदराबाद
विश्वविद्यालय हैदराबाद,500046
गच्चीबाउली
हैदराबाद,
मो.
न. 7382460576
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