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निष्प्राण गवाह - लुप्त होते उपन्यास के स्वरुप को जीवित करने का प्रयास

 

निष्प्राण गवाह
लुप्त होते उपन्यास के  स्वरुप को जीवित करने का प्रयास

एक साहित्यिक संवाद के दौरान कादम्बरी  जी को व्यक्तिगत रूप से जानने और उनसे अपनत्व प्राप्ति का जो सिलसिला शुरू हुआ वो उनकी कृतियों के माध्यम से उन्हें भीतर तक  जानने का विशेष कारण बना।यूँ तो उनके बारे में थोडा बहुत जानती थी, उनकी कुछ जग की’,’रंगों के उस पार और पथ के फूल कहानी संग्रह पढने का अवसर भी मिला, लेकिन परस्पर संवाद-सूत्र जुड़ने के कारण उनके कृतित्व को समग्र रूप से जानने की उत्कंठा जाग उठी।कोरोना  के खतरों को भांपते हुए वैश्विक लॉकडाउन ने बाहरी गतिविधियों पर तो रोक लगाई लेकिन घर के भीतर रहकर बहुत सारे ऐसे कार्यों को करने का सुखद अवसर मिला जो अक्सर अत्यावश्यक और रूचि के होते हुए भी  चाहे अनचाहे प्राथमिकता की सूची से  बाहर कर दिए जाते थे ।कादंबरी जी ने  वार्तालाप के दौरान एक बार अपने सद्य प्रकाशित उपन्यास निष्प्राण गवाह का उल्लेख किया था ।परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि प्रकाशक से उपन्यास की हार्ड कॉपी प्राप्त करना संभव नहीं था ।मेरी उत्सुकता को देखते हुए कादम्बरी जी ने मेल पर उपन्यास की कॉपी भेज दी ।एक बार जो उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो बिना रुके, एक बैठक में ही पढ़ लिया । 



      उपन्यास के नाम से ही अनुमान लग जाता है कि निश्चित ही यह साधारण कथानक से हटकर होगा ।रहस्य- रोमांच से परिपूर्ण शिवना प्रकाशन से प्रकशित 90 पृष्ठों का यह उपन्यास एक भिन्न कथ्य को लेकर बुना है ।  इधर हम सब यह देख रहे हैं  कि जासूसी को केंद्र बनाकर हिंदी में बहुत कम मौलिक उपन्यास लिखे जा रहे हैं ।लेकिन यह भी सर्वविदित है कि हिंदी साहित्य का एक दौर ऐसा भी था, जब जासूसी पर आधारित उपन्यासों ने लोकप्रियता और बिक्री के नए मानदंड स्थापित किए थे।इसमें संदेह नहीं  कि बँगला और अंग्रेजी भाषाओँ की तर्ज़ पर हिंदी में इस तरह के उपन्यास-लेखन की परंपरा  शुरू  हुई।बाबू देवकी नंदन खत्री ने अय्यारी ,तिलिस्म और रहस्य से परिपूर्ण उपन्यासों के लेखन  से हिंदी न जानने वालों  में भी हिंदी  सीखने की उत्कंठा  पैदा कर दी थी।यह  उनकी लेखनी का ही चमत्कार था कि उनो पढने की चाह में अनेक हिंदी पाठक पैदा हुए ।गोपाल राम गहमरी  के जासूसी उपन्यासों का जादू तो लोगों के सर पर चढ़कर बोलता था । गहमरी जी ने कथ्य के परंपरागत स्वरूप की सीमाओं को  तोड़ते हुए न केवल लेखन की नई शैली को जन्म दिया और नए लेखकों को जन्म दिया बल्कि उसे व्यापक स्तर पर पाठकों की स्वीकार्यता भी दिलवाई ।लेकिन दुर्भाग्यवश साहित्यकारों और आलोचकों की उपेक्षा के कारण इस तरह की कथावस्तु से परिपूर्ण उपन्यास लेखन को प्रोत्साहन नहीं मिला और धीरे धीरे इस प्रकार के उपन्यास लेखन पर पूर्ण विराम न भी कहें तो एक तरह का अर्धविराम तो लग ही गया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक भी गहमरी जी के प्रशंसक होने के बावजूद  इन्हें साहित्य की श्रेणी  में रखने में हिचकते दिखे- इन उपन्यासों का लक्ष्य घटना वैचित्र्य रहा,रस संचार, भाव विभूति या चरित्र निर्माण नहीं ।ये वास्तव में घटना प्रधान कथानक या किस्से हैं, जिनमें जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य की कोटि में नहीं आते (रामचन्द्र शुक्ल , हिन्दी साहित्य का इतिहास,पृष्ठ- 340).  इसे साहित्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि अकादमिक हडबडी और पूर्वाग्रहों  के कारण  इस प्रकार के उपन्यासों पर  सस्ता साहित्य/पल्प साहित्य या लुगदी लेखन का आरोप भी लगने लगा।वर्तमान में जासूसी उपन्यास लिखकर पाठकों और प्रकाशकों की प्रशंसा प्राप्त कर  चुके सुरेन्द्र पाठक, जिनकी किताब ‘65 लाख की डकैती’ 18 बार पुनर्मुद्रित हो चुकी है , जासूसी उपन्यासों की अवहेलना का दुःख कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं “अंग्रेजी की किताब की  अगर  पांच सौ प्रतियां बिक जाएँ तो वे बेस्ट सेलर कही जाती हैं और हमारी किताबें लुगदी साहित्य की गिनती में रखी जाती हैं ।”जासूसी उपन्यासों की अक्सर यह कहकर उपेक्षा की जाती है कि उसमें जीवन मूल्यों का अभाव है, इसलिए वे समाजोपयोगी नहीं होते।यह सत्य है कि जासूसी उपन्यासों का मूल विषय अपराध, कुंठाएं, मानसिक रुग्णता, अति महत्वाकांक्षा आदि मनोविकार होते हैं लेकिन किसी समाज को जानने-समझने और उसके निष्पक्ष  विश्लेषण  के लिए ये एक महत्वपूर्ण जरिया भी  हैं ।इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पाश्चात्य विचारक कार्ल मार्क्स ने पश्चिम के समाज का अध्ययन करने के लिए  इस प्रकार के उपन्यासों की पुरजोर वकालत करते हुए लिखा किपादरी उपदेश गढ़ता है और प्रोफ़ेसर मोटी मोटी किताबें लिखता है ,वैसे ही कोई अपराधी अपराध पैदा करता है ।अगर हम समाज से अपराध के उत्पादन के संबंध को गौर से देखेंगे तो कई तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकते हैं ।अपराधी केवल अपराध ही पैदा नहीं करता बल्कि वह अपराध संबंधी क़ानून, उन कानूनों  के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर और उनकी मोटी महंगी कानून की किताबें भी पैदा करता है ,साथ ही उसके कारण और प्रेरणा से कला और साहित्य उपन्यास,कथा,कहानी यहाँ तक की ट्रेजेडी  की रचना भी  होती है । अपनी इसी भावना के कारण मार्क्स ने युजेन सुई के पेरिस रहस्य पर एक विवेचनात्मक  और  शोधपरक लेख लिखा है और विचारकों के सामने एक ज्वलंत सवाल रखा है कि क्या आदम के समय से ही पाप का वृक्ष इस  ज्ञान का वृक्ष नहीं रहा ।इसी मुद्दे को आगे बढाते हुए इटली के क्रांतिकारी विचारक एन्टोनियो ग्राम्शी ने विविध परिदृश्यों में इस श्रेणी के  उपन्यासों के महत्त्व को रेखांकित किया है (Cultural writings,p342).  मैनेजर पाण्डेय आदि विद्वान भी जासूसी और तिलिस्म प्रधान उपन्यासों  की व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता और लोकप्रियता को अनदेखी नहीं कर सके और  इनकी पक्षधरता करते नज़र आये ।”केवल गंभीर साहित्य ही साहित्य की दुनिया की एकमात्र वास्तविकता नहीं है, तथाकथित लोकप्रिय साहित्य भी एक वास्तविकता है--- कहने का तात्पर्य है लोकप्रिय साहित्य हिंदी के साहित्य संसार की समग्रता की एक ऐसी सच्चाई है जिसके अस्तित्व को अस्वीकार करना भ्रम में जीना है ।वह अच्छा है या बुरा,आवश्यक है कि अनावश्यक,समाज के लिए हानिकारक है या लाभकारी ये सवाल विचारणीय है।लेकिन इन सवालों पर विचार करने से पहले ये स्वीकारना जरूरी है कि उसका अस्तित्व है और वह अस्तित्व साहित्य संसार की विशिष्ट नागरिकों अर्थात गंभीर लेखकों की आकांक्षा के विपरीत और अनिच्छा के बावजूद सच है।” (मैनेजर पाण्डेय,साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकादेमी ,पंचकुला ,पृष्ठ-304)

           भले ही इस वर्ग के कुछ उपन्यास साहित्य के शास्त्रीय मानदंडों पर पूरी तरह खरे नहीं उतरते हों, लेकिन  लोकप्रियता, रोचकता  और मूल्यों के वाहक होने के कारण इनको साहित्य की श्रेणी में न रखना निश्चित ही न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता ।साहित्यिक आलोचकों की जासूसी  उपन्यासों के प्रति इस तरह की सोच और अवधारणा के कारण ही साहित्यिक वर्ग में इस प्रकार के उपन्यास लिखना एक जोखिम भरा चुनौती पूर्ण काम हो गया और कादम्बरी जी इस  जोखिम को उठाने का साहस करने के लिए बधाई की पात्र हैं ।कादम्बरी जी ने इस चुनौती को किस प्रकार निभाया है ,किसी  निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले उनके इस उपन्यास की थोड़ी सी जांच परख करते हैं ।

         सीमित कलेवर वाला  निष्प्राण गवाह उपन्यास मूलतः घटना प्रधान उपन्यास है, जिसमें दस साल पहले हुई मर्डर मिस्ट्री को सुलझाया गया है ।कहानी का आरंभ होता है मार्टिन गिलबर्ग नाम के पेशे से  शिक्षक व्यक्ति  के समुद्र के किनारे एक घर खरीदने से।व्यस्तताओं के कारण अपनी पत्नी को पर्याप्त समय नहीं दे पाने के कारण  उसकी पत्नी उसे छोड़कर एक व्यवसायी के संग रहने लगती है ।शांति की तलाश में मार्टिन समुद्री तट पर एक घर खरीदता है, जो काफी जीर्ण हालत में है ।अपने आसपास के  पडौसी मित्रों के साथ एक दिन वह पार्टी का आयोजन करता है,तभी उसे समुद्र की रेत में कार्पेट में ढकी एक युवती की लाश मिलती है , जिसके कंकाल मात्र अवशिष्ट हैं और कार्पेट का एक कोना उसके घर के कमरे की दीवार में फंसा हुआ है ।मामला पुलिस के पास जाता है और जमा पूँजी से खरीदे गए मार्टिन के इस घर पर पुलिस का ताला जड़ दिया जाता है।ह्त्या की गुत्थी सुलझाने का दायित्व मिलता है वरिष्ठ जासूस जिमी डंकन को ।चूँकि ह्त्या को लगभग  एक दशक पूर्व अंजाम दिया गया था, अतएव साक्ष्यों के अभाव और अवशेषों के नष्ट होने के कारण इस रहस्य को खोलना आसान काम नहीं था ।लेकिन जिमी डंकन अपने अनुभवों, वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों के बल पर  काफी जद्दोजहद के बाद  हत्यारे को पकड़ लेने में सफल होता है ।आरंभ से अंत तक  उपन्यास तीव्र घटनाक्रम के साथ चलता रहता है ।कथावस्तु जैसे जैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे नए पात्र घटना से जुड़ते जाते हैं ।खूबी यह कि  आने वाले  हर नए पात्र की ओर शक की सुई घूमती जाती है ।आशंकाओं और संदेह भरे वातावरण में यह अनुमान लगाना  मुश्किल हो जाता है कि वास्तविक अपराधी कौन है ? अपराधी तक पहुँचने की  जिमी डंकन की कोशिशें एक के बाद एक नाकाम होती जाती हैं, लेकिन एक कर्तव्यपरायण इन्स्पेक्टर होने के नाते डंकन हार नहीं मानता और एक बार फाइल पर अनसाल्व्ड का स्टीकर लगाने के बावजूद  अंत में अपराधी को पकड़ने में कामयाब हो जाता है ।असली मुजरिम का कथानक में यकायक प्रवेश लेखिका की कथानक पर  पकड़ दिखाता  है जो समस्त घटनाक्रम को  और भी चमत्कारिक बना देता है ।अंत में ऐसे व्यक्ति का हत्यारा सिद्ध होना,जिसकी कल्पना भी पाठकों ने नही की थी ,बहुत ही अप्रत्याशित है ।और इस प्रकार हत्यारे को जानने का कुतूहल अंत तक बना रहता है ।असंभावित घटनाओं और अकस्मात् आये हुए पात्रों के माध्यम से पाठक एक सांस में उपन्यास को पढने के लिए विवश हो जाता है, जो लेखिका की कलात्मक खूबी की दयोतक है ।थोड़ी  जटिल और  पेंचदार होने पर भी कथावस्तु काफी हद तक स्वाभाविक और विश्वसनीय प्रतीत होती है ।गहमरी के जासूसी उपन्यासों की सफलता के इस  सूत्र को लेखिका ने काफी हद तक अपने कथानक पर भी लागू किया है कि ...पहले  जानने योग्य बात ,घटना की यवनिका में छिपा रखना ,पहले कहना और घटना पर घटना का तूमार बांधकर  असल भेद जानने  के लिए पाठकों के ह्रदय में कौतुहल बढ़ाना और रहस्य पर रहस्य साजकर ऐसा उपन्यास गढ़ना कि पूरा पढ़े बिना पूरा स्वाद न मिले ..

         चूँकि उपन्यास का घटनाक्रम  ब्रिटेन के एक छोटे से शहर से शुरू होकर उसके आसपास की पृष्ठभूमि में घूमता रहता है, स्थान स्थान पर सम्बद्ध देशकाल और वातावरण की छाया देखी जा सकती है ।पाश्चात्य परिवेश, पृष्ठभूमि, जीवन-शैली, रहनसहन, आचरण आदि को लेखिका समस्त घटनाक्रम में अपने साथ बांधकर चलती है और यथास्थान चतुराई से  उसका उपयोग भी करती है।उपन्यास में कई स्थल ऐसे हैं जो पाश्चात्य जीवन शैली की यथार्थता पर प्रकाश डालते हैं ।पब का एक दृश्य देखें : लडकियां खूब भड़कीले अर्धनग्न लिबास पहनकर अपनी कमर के पीछे खरगोश की दुम के जैसे फुंदना सजा लेती हैं ।शराब की ट्रे उठाकर ग्राहकों तक खूब मटक-मटक कर जाती हैं, जिससे उनका फुंदना हिलता जाता है ।इसलिए उसको बनी गर्ल कहा जाता है ।”

        ब्रिटेन के यूरोपियन संघटन में सम्मिलित होने के पश्चात् वहां की स्थितियों में आये परिवर्तन की  भी लेखिका ने स्थान स्थान पर चर्चा करके देश की राजनैतिक स्थितियों की जानकार होने का परिचय दिया है: इंग्लॅण्ड ने यूरोपियन यूनियन से गठबंधन कर लिया ।अब लोग धडाधड बिना वीजा लिए यूरोप चले जाते ।लौटानी में कार की डिक्की में शराब की बोतलें खरीदकर भर लाते जिन पर कोई ड्यूटी नहीं देनी पड़ती थी अतः वह इंग्लॅण्ड के बाज़ार में सस्ती बैठती थी इससे पूरे देश को अस्सी के दशक में भयंकर घाटा होने लगा ।लेखिका ने सभी पात्रों को  अपनी परिस्थितियों और विवशताओं के अनुसार गतिविधियों में संलिप्त दिखाकर उनके आचरण को तार्किक ढंग से उचित ठहराया है, इसलिए अधिकाँश पात्र पाठकों की निगाह से गिरते नहीं ।लेखिका द्वारा उपन्यास में  जगहजगह पर उठाये सामायिक विषय, जैसे दाम्पत्य जीवन में बिखराव के कारण, माँ-बाप के टूटते संबंधों का बच्चों के जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव, ड्रग्स लेने की प्रवृत्ति की और बढ़ता युवा समाज, गलत तरीकों से धन कमाने की बढ़ती लालसा आदि ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जिन पर समय रहते गंभीरता से चिंतन नहीं किया गया तो समाज के लिए ये घातक  सिद्ध होंगे । इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति पुरुषों का एक संकुचित  नज़रिया है, जो उपन्यास में व्यक्त इस कथन के माध्यम से कि “पुरुषों को दुनिया में जवान लड़कियों से ज्यादा और किसी बात में मज़ा नहीं आता ।शराब और जुआ बुरी इलामतें हैं मगर औरत सबसे बड़ी कमजोरी” समस्त  पुरुषों की नज़र में पढ़ा जा सकता है।कोई देश कितना भी उन्नत और विकसित क्यों न हो, प्राचीन समय से ही महिलाओं को दोयम दर्जे पर रखकर उन्हें भोग विलास की वस्तु समझा जाता रहा है ।अनेक जगहों पर लेखिका ने महिलाओं की दयनीय स्थिति व्यक्त की है, जो इस सार्वभौम सत्य  की ओर इंगित करती है कि महिलाएं चाहें कितनी भी शिक्षित और आत्मनिर्भर क्यों न हो जाएं असली मुक्ति की उनकी तलाश अभी बाकी है ।पुरुष- स्त्री मनोविज्ञान को समझते हुए लेखिका ने यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अधिकाँश स्त्री-पुरुष सम्बन्ध आवश्यकताओं के ठोस धरातल पर निर्मित होते हैं।पुरुष जहाँ शारीरिक आवश्यकताओं के लिए स्त्री से सम्बन्ध बनाते हैं, वहीँ स्त्रियाँ अपने भाई-बहिन और बच्चों के भरण पोषण के लिए  आर्थिक मजबूरी  के चलते  पुरुषों से विवाह करने के लिए बाध्य होती हैं ।उपन्यास की महिला पात्र आयरीन का  तीनतीन पुरुषों से समय-समय पर विवाह इसी तथ्य को परिपुष्ट करता है।पुरुष चाहे वे भाई हों, पति हों या पिता के रूप में हो, और उनका व्यवहार  महिलाओं के प्रति कितना  भी अमानवीय क्यों न हों, महिलाओं के पास उन्हें क्षमा करने के अपने ही हृदयगत कारण होते हैं जो उन्हें मानवीय से ऊपर का स्थान देते हैं ।पुरुष के प्रेम में धोखा खाई हुई अनब्याही माँ का यह संक्षिप्त सा कथन मानो समस्त स्त्री जाति के दुःख,पीड़ा और ह्रदय के घावों को वाणी देता है : दो अनुभव शब्दों से परे हैं और वे दोनों पुरुष जनित हैं।  ---एक धोखे का दंश और दूसरा नवजात का मोह ''   एक ओर पुरुष की अविश्वसनीय प्रवृत्ति जिस पर स्त्री का सहज विश्वास  उसे अपार पीड़ा के गर्त में डाल देता है और दूसरी ओर मातृत्व का सुख भले ही वह नाजायज क्यों न हो स्त्री को संतोष की चरम पराकाष्ठा  पर पहुँचा देता है ।

       उपन्यास के घटनाक्रम को स्वाभाविक गतिमयता और प्रवाहमय  बनाए रखने के लिए जिस भाषा की अपेक्षा होती है,लेखिका ने सर्वत्र उसी प्रकार की भाषा को अपना प्रभावी टूल बनाया है।घटनाओं के वर्णन करते समय लेखिका ने कभी शुद्ध संस्कृत निष्ठ, कभी सहजसरल और कहीं तद्भव,देशी शब्दों (अद्धी पछद्दी, बिचलना...) और मुहावरों (पुरानी यादें कुण्डली मारकर बैठी हैं ) आदि का यथानुकूल प्रयोग किया है ।भिन्न-भिन्न जगहों पर परिवेश के अनुकूल भिन्नभिन्न भाषाओं का प्रयोग लेखिका के भाषा पर असाधारण अधिकार को प्रदर्शित करता है ।पंजाब के भारतीय पारिवारिक परिवेश में जहाँ पात्रों के मुख से ठेठ पंजाबी भाषा का व्यवहार करते दिखाया गया है,वहीँ अंग्रेज पात्रों का आपस  में अंग्रेजी भाषा में बातचीत करना सहज स्वाभाविक वातावरण की स्थापना करने में सहायक है एक उदाहरण देखिए-  ...जेनिफर ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया तो उसकी हथेली पसीने पसीने हो रही थी ।

“आर यू गोइंग टू टेल डी पुलिस ?

“डोंट नो इफ आई शुद ।आई मे बी रौंग ।”

आई थिंक यू शुड”

नो! आई न्यू अ गर्ल हू लुक्ड लाइक हर बट शी डाइड लॉन्ग टाइम बैक।सो नो ! आई विल नौट बौदर !

        उपन्यास पर विषद आकलन करने के पश्चात् यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि तीव्र गति से बदलते आज के समाज  में जहां सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से साइबर क्राइम का ग्राफ तेजी से ऊपर जा रहा है,ऐसे जासूसी उपन्यासों की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है ।कादम्बरी मेहरा साहित्य प्रेमियों के मध्य एक सफल कहानीकार के रूप में पह्चानी जाती हैं लेकिन  उनका यह प्रथम उपन्यास निश्चित ही एक बेहतरीन उपन्यासकार के रूप में भी उनकी  छवि स्थापित करने में सहायक होगा ।पाठकों तक इस उपन्यास के पहुँचने के साथ ही यह  संभावना भी प्रबल होती दीख रही है कि साहित्यिक जगत की उपेक्षा के कारण लुप्त होते  हुए उपन्यास के इस स्वरुप को जीवंत और पुनः लोकप्रिय  किया जा सकता है ।लेखिका के प्रयास को देखते हुए अन्य लेखक भी इस दिशा में अपनी कलम आजमायेंगे, यह भी  निश्चित है ।

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पुस्तक का नाम : निष्प्राण गवाह (जासूसी उपन्यास)

लेखिका : कादम्बरी मेहरा

प्रकाशक : शिवना प्रकाशन,सीहोर, .प्र.

समीक्षक :           डॉ.नूतन पाण्डेय

सहायक निदेशक

केंद्रीय हिंदी निदेशालय

मानव संसाधन विकास मंत्रालय

नई दिल्ली , भारत

मोबाइल +917303112607

pandeynutan91@gmail.com

 


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