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आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आलोचना विवेक और इतिहास के सवाल- प्रफुल्ल कोलख्यान

 

परिचय- 

हिंदी साहित्य का इतिहास और आलोचना प्रारंभ से ही धर्म और भक्ति के अंतर को नजरअंदाज करती आई है एवं दोनों को एक दूसरे का पर्याय मानकर विवेचन करती आई है। इस आधार पर होनेवाले विवेचन में स्वाभाविक रूप से असंगतियों के लिए अवकाश रह जाता है। ‘भक्ति’ और ‘धर्म’ में अंतर है, ‘लेकिन, दिक्कत यह है कि हिंदी आलोचना के मनोभाव में शुरू से ही ‘भक्ति’ और ‘धर्म’ पर्याय की तरह अंत:सक्रिय रहे हैं। इस अंत:सक्रियता के ऐतिहासिक आधार भी रहे हैं। हिंदी आलोचना को भक्ति काल के साहित्य के अध्ययन के क्रम में इस कठिन सवाल से जूझना अभी बाकी है कि क्या धर्म और भक्ति एक ही चीज है? 

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