इक्कीसवीं सदी में आदिवासी अस्मिता के प्रश्न-डॉ.विजय कुमार प्रधान
इक्कीसवीं सदी में आदिवासी अस्मिता के प्रश्न-डॉ.विजय कुमार प्रधान
-डॉ.विजय कुमार प्रधान, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान)
जंगल के साथ-साथ कम पड़ते जा रहे हैं जंगल के लोग/ बढती जा रही है संख्या दिनोदिन बाहरी लोगों की/ पसरते जा रहे हैं कंक्रीट के जंगल/ उग रहे हैं कूड़े-करकट और पथरीली धूल से बने/ नित नए दुखों के कृत्रिम पहाड़। (संताल परगना का दुःख कविता में से —अशोक सिंह) इक्कीसवीं सदी में आदिवासी अस्मिता के संकट को यह कविता जीवन्तता के साथ अभिव्यक्त करती है। कविता भले ही संताल परगना के आदिवासियों पर केन्द्रित है परन्तु यह भारत के समस्त आदिवासियों के दुःख हैं क्योंकि विकास के दुष्परिणाम सभी को एक समान रूप से भुगतने होते हैं। विकास और विनाश साथ-साथ कदम मिलाकर चलते हैं। विकसित राष्ट्र दोमुहें अजगर की तरह समस्त सृष्टि को निगलते जा रहे हैं। एक तरफ अपने देश में प्रकृति का सम्पूर्ण दोहन कर लेने के बाद प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर विकासशील और अविकसित देशों को व्यापार की आड़ में बर्बाद करने के लिए निकल पड़े। दूसरी तरफ प्रकृति एवं पर्यावरण की चिंता प्रकट करने के लिए अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन कर अपने मानवीय उत्तरदायित्वों का रोना रोते हैं। यह मनुष्य जाति के लिए अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि एक शक्तिशाली समुदाय दूसरे समुदाय को छल, बल और कौशल के द्वारा आदिम जनजातियों का शोषण कर विकास का पाठ पढ़ा रहा है।
१९९१ के बाद भारत वैश्विक अर्थनीति के साथ जुड़ गया जिसने भारत के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया है। विकास के नाम पर हमने प्रकृति का सम्पूर्ण दोहन किया –जंगलों को नष्ट किया, पहाड़ों को खोद दिया, नदियों को गंदे नालों में बदल दिया, यहाँ तक कि वायु प्रदूषण के द्वारा समूर्ण वायुमंडल को भी दूषित कर दिया। इसके बाद जब हमने सब कुछ नष्ट कर दिया तब कृत्रिम चिंता करने बैठे हैं कि इसे ठीक कैसे किया जाए। हम कहाँ जा रहे हैं यह तय नहीं है। विकास और विनाश में से एक को चुनने की बजाय दोनों को साथ लेकर चल रहे हैं और यह शोध कर रहे हैं कि तेजाबी बर्षा क्यों हो रही है, ग्लेशियर क्यों पिघल रहे हैं, हवा को प्रदूषण से कैसे रोका जाए, तापमान क्यों बढ़ रहे हैं, समुद्र का जलस्तर क्यों बढ रहा है, अतिवृष्टि–अनावृष्टि क्यों हो रही है आदि। इन प्राकृतिक समस्याओं के अलावा यहाँ पर सदियों से निवास कर रहे आदिवासियों के साथ भी हमने खिलवाड़ किया है जिसके वजह से भारत वर्ष के प्रायः समस्त प्रान्तों के आदिवासी, अस्मिता के संकट से जूझ रहे हैं।
आर्थिक उदारीकरण की नीति ने भारत में निजीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद की संस्कृति को जन्म दिया, फलतः एक विशेष वर्ग में सम्पन्नता आई और साथ-साथ बेरोज़गारी, अपराध, मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, जैव-सम्पदा की चोरी, प्रकृति का शोषण, देहवाद, अप-संस्कृति आदि समस्याएँ लेकर आयीं। इनके कारण यहाँ के मूल निवासियों को जल, जमीन और जंगल के लिए संघर्ष करने पर मजबूर कर दिया। जंगल के मूल निवासियों (आदिवासी) को अपने ही जगह या तो गुलाम बना दिया या फिर विस्थापित जीवन जीने के लिए विवश किया गया। विकास के नाम पर भारत सरकार जमीन अधिग्रहित कर लेती है और आदिवासियों को मूल स्थान से विस्थापित होना पड़ता है। बाजारवाद के युग में प्राकृतिक संसाधनों पर ही सबकी नज़र है किसी को भी आदिवासियों की फ़िक्र नहीं है। आदिवासी विविध जंगलों, पर्वतों, पठारों आदि निर्जन क्षेत्रों में निवास करने के कारण अन्य उन्नत समाजों से भिन्न होते हैं। उनका रहन-सहन, जीवन-शैली, पर्व-त्यौहार साथ ही उनकी समस्याएँ भी अन्य आदिवासी समूह से भिन्न होते हैं। ”लगभग ९० प्रतिशत आदिवासी अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इसके अलावा शिकार और बनोपज जमा करना भी उनके जीवन का आधार है लेकिन जैसे-जैसे आदिवासियों को उनकी जीविका के साधन के स्रोतों से दूर किया जा रहा है, वैसे-वैसे उनके आधारभूत कार्यकलापों में कमी आती जा रही है। आदिवासियों से उनके वनों और आवास भूमि छिनी जा रही है।”१
आदिवासी आजीविका के संकट से जूझ रहे हैं। भौतिक विकास के दौड़ में प्राकृतिक स्रोतों का दोहन हो रहा है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव आदिवासियों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए ओडिशा के आदिवासियों को देखा जा सकता है, यहाँ के बिंझाल, सउरा, कंध आदि आदिवासी आजीविका के तलाश में विस्थापित होने के लिए मजबूर हैं। अपने गाँव को छोड़कर जो बाहर राज्यों में मजदूर के रूप में काम करने जाते हैं। उन्हें ओडिशा में दादन श्रमिक कहा जाता है। वे अपनी अस्मिता को लेकर संघर्षरत हैं। २०११ के जनगणना के अनुसार ओडिशा की जनसंख्या ४, १९, ७४, २१८ है। उनमें ९५, ९०, ७५६ आदिवासी हैं। जिनमे पुरुषों की संख्या ४७, २७, ७३२ एवं महिलाओं की संख्या ४८, ६३, ०२४ है। यहाँ के ३० जिलों में शबर, बोंडा, परजा, गोंड, बिंझाल, डंगरिया कंध, मुंडा, भूयान, कोल, किशान, खड़िया, एवं ओराम आदि आदिवासी निवास करते हैं। इन आदिवासियों के लिए आजीविका की समस्या प्रमुख है। जंगलों के आदिवासी पहले अपनी आजीविका जंगलात द्रव्यों में तलाश लेते थे परन्तु डेम निर्माण, औद्योगिक विकास, शहरीकरण आदि के कारण जंगल समाप्त प्रायः हैं। खेत हैं परन्तु जलाभाव के कारण खेती संभव नहीं है। आजीविका की समस्या बढ़ी और ये पलायन करने के लिए विवश हुए एवं भारत के विभिन्न प्रान्त में मजदूरी के लिए जाना पड़ा। यहाँ के आदिवासियों के पास स्थानीय काम-धंधे न होने के कारण दक्षिण भारत में बंधुआ मजदूरी के लिए जाना पड़ता है। वहाँ पर इन भोले-भाले आदिवासियों का शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक शोषण दलाल एवं मालिकों द्वारा होता है। इनकी सुरक्षा के लिए कानून तो है परन्तु उनका अनुपालन नहीं होता। ”संविधान में अनुसूचित जनजातियों से सम्बधित कई प्रावधान है। मुख्यतः इन्हें दो भागों में बाँटा जाता है— (१)सुरक्षा (२) विकास। अनुच्छेद २३ मानव शरीर की सौदेबाजी , बेगार, बंधक मजदूर तथा अन्य प्रकार के जबरन श्रम का निषेध करता है। जहाँ तक अनुसूचित जनजातियों का प्रश्न है,यह प्रावधान बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनमे से अधिकांश लोग बंधक मजदूर के रूप में नियोजित है।” २ परन्तु चिंता का विषय यह है कि आदिवासियों के लिए बनाये गए क़ानून की जानकारी उन्हें नहीं है, इसलिए उनका शोषण होता है। वस्तुतः सारी लड़ाई जल, जंगल और जमीन की है। एक तरफ आदिवासियों से विकास के नाम पर सबकुछ छीना जा रहा है तो दूसरी तरफ वहाँ के आदिम आदिवासी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। हम महाशक्तिशाली राष्ट्रों में अपना नाम दर्ज करा रहे हैं परन्तु प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर ओडिशा के जाजपुर और केउँझर जिले के बच्चे कुपोषण के कारण मारे जा रहे हैं। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे जुलाई १०, २०१६ के समाचार के अनुसार जाजपुर एवं केउँझर जिले के जंगल के पहाड़ों में रहने वाले १०,००० जूआंग आदिवासी पलायन कर चुके हैं। न तो जंगल और न ही प्राकृतिक सम्पदा के ऊपर उनका कोई अधिकार रह गया है इसीलिए आजीविका के तलाश में वे बाहर जा चुके हैं । यही कारण है कि बाह्य शहरी समाज के द्वारा वे शारीरिक, मानसिक रूप से शोषित हैं।
सरकारी योजनायें केवल कागज पर या सत्ताकेंद्रित राजनेताओं की सम्पत्ति में ही दिखाई देते हैं। ओडिशा के तीन जिलों– कालाहांडी, बलांगीर और कोरापुट को उदहारण के लिए देखा जा सकता है। इन पिछड़े जिलों के लिए स्वर्गीय पी.वी.नरसिंह राव की सरकार ने अत्यंत संवेदनशील मान कर केबीके परियोजना की शुरुआत की थी और यहाँ के उत्थान के लिए करोड़ों रुपयों की सहायता राशि दी गई थी। समय-समय पर अन्य सरकारें भी सहायता करती आई हैं परन्तु इन क्षेत्रों के लोगों का विकास आज तक नहीं हो सका है। आज भी मनरेगा, पीडीएस आदि सरकारी योजनायें होने के वावजूद पलायन जारी है। केबीके इलाकों में आदिवासी दादन, दिन मजदूर और बंधुआ मजदूर बनने के लिए विवश हैं। ओडिशा टाइम्स के अनुसार “दादन समस्या एक व्याधि का रूप धारण कर चुकी है, सरकारी योजनायें केवल कागजों तक सीमित है, जमीनी हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है। गरीब आदिवासियों की मानव तस्करी, दलाल एवं दलाल एवं मिल मालिक सरकार की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। इन क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों का यह कहना है कि जब तक आँध्रप्रदेश के मिल मालिकों एवं दलालों को रोकने के लिए कड़े कदम नहीं उठाये जायेंगे तब तक इन समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलेगी।”३
इक्कीसवीं सदी में भी अगर आदिवासी बंधुआ मजदूर बनते रहें तो यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एच.एल.दत्तू का कहना है कि ”किसी भी सभ्य समाज में बंधुआ मजदूरी एक कलंक है । भारत में लम्बे समय से यह बुराई कायम रही है और इसे खत्म करने के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद कई जगह पर यह अब भी बदस्तूर जारी है।”४ अक्तूबर ५,२०१६ के ओडिया दैनिक समाचार पत्र ‘संवाद’ के अनुसार आदिवासी बहुल जिलों की स्थिति दयनीय है। आदिवासी श्रमिक गाँव छोड़कर जाने के लिए विवश हैं। अल्पवृष्टि के कारण खेती नहीं हो पाती, किसान चिंतामग्न है। मनरेगा योजना असफल है, राज्य में रोजगार के अवसर नहीं है। इसलिए दादन के रूप में, बंधुआ मजदूर के रूप में राज्य के बाहर जाने के लिए मजबूर हैं। अक्तूबर २८, २०१६ में प्रकाशित ‘समाज’ के अनुसार मुख्यमंत्री का यह कहना है कि २०१८ तक दादन समस्या को संपूर्णतः दूर कर दिया जाएगा परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि बलांगीर, कालाहांडी, कोरापुट के आदिवासी राज्य के बाहर जा रहे हैं। ”अध्ययन के दौरान यह भी पाया गया कि पलायित होने वाले बंधुआ मजदूर अधिकांशतः अनुसूचित जाति या जनजाति के हैं, जिनमे बहुतों के पास न तो घर के जमीन का पट्टा है, न ही खेत का, जंगल की जमीन पर रहते हैं।”५
आदिवासियों का सतत विकास कैसे हो किसी भी सरकार के पास कई योजनायें हैं परन्तु नाकाफी हैं। जंगल की सुरक्षा के नाम पर वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण का कार्य किया जाता है परन्तु प्राकृतिक दूरदर्शिता के अभाव में आदिवासियों के आजीविका का ख़याल नहीं किया जाता। ओडिशा के कंधमाल जिले में अत्यंत संवेदनशील आदिम कुटिया कंध जनजाति बुनियादी अनाज और फल एवं अन्य खाद्य पदार्थ से वंचित हो गए हैं क्योंकि वहां के जंगलों में टीक क पेड लगा दिए गए, जो उनके किसी काम के नहीं हैं। उन आदिवासियों का मानना है कि वे जंगल को भगवान मानते हैं एवं जंगल उनके लिए खाद्य, औषधि एवं जल के स्रोत हैं, इन आवश्यकताओं की पूर्ति टीक के पेड़ नहीं कर सकते । (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, २ अगस्त, २०१६)
इक्कीसवीं सदी में विदेशी निवेश से ही देश आगे बढ़ सकता है यह धारणा बना दी गयी है। वैश्वीकरण के दौर में भारत का आर्थिक विकास के साथ-साथ आदिवासियों का सतत विकास कैसे हो इसकी चिंता सरकारों को नहीं है। आदिवासी विस्थापन की समस्या, नक्सलवाद की समस्या, शिक्षा, भाषा एवं संस्कृति की समस्या के साथ-साथ महत्वपूर्ण है प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग, जिससे समग्र मानवीय विकास हो सके तथाकथित विकास के भस्मासुर से अगर दुनिया को बचाना है तो सर्वोदय या सर्वनाश में से किसी एक को चुनना पड़ेगा।
आधुनिक समाज में विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास तक ही सीमित है। जल, जमीन और जंगल की सुरक्षा कैसे हो उसके लिए केवल कागज़ी क़ानून और उनके क्रियान्वयन का दिखावा ही है। विदेशी पूँजी निवेश ही भारत को आगे ले जाने का एकमात्र रास्ता है, यह धारणा विगत दो तीन दशकों से सरकारों द्वारा निर्मित है। प्रकृति पर उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है इसको लेकर अनंत वैठकें आयोजित किये जाते हैं जो किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँचते। वैश्विक व्यापार नीति का खूब का ढिंढोरा खूब पीटा जाता है परन्तु सारी दुनिया में बेरोज़गारी बढती जा रही है और महंगाई किसी के काबू में नहीं आ रही है। इसके वावजूद आदिवासियों के सतत विकास संभव है जब सरकारी योजनाओं को ऐसे तैयार किया जाए कि जिससे उन्हें प्रत्यक्ष लाभ हो। इसका रास्ता भी कालाहांडी के आदिवासियों ने दिखाया है– जिसमे जल संरक्षण, जमीन को समतल करना, शस्य की विविधता, जैविक खेती, जैविक सार उत्पादन तैयार करना आदि कुछ कार्य इसके उदहारण है। झरने के पानी को खेती के जमीन तक पहुँचाया गया है, ताकि यहाँ के आदिवासियों को काम करने के लिए बाहर न जाना पड़े। वस्तुतः आदिवासी संकट सरकारी उदासीनता एवं संवेदनहीनता के कारण ही है। विकास और विनाश में से एक को चुन कर सतत विकास के लिए ठोस कार्य करने होंगे अन्यथा आजादी के ७० वर्ष बीत जाने के बाद भी यहाँ के मूल आदिवासी बुनियादी सुविधा, मौलिक अधिकार से वंचित होंगे और गुलामी की जिंदगी जीने के विवश होंगे।
सन्दर्भ :
१. रत्नाकर भेंगरा, सी.आर.बिजोय और शिमरी चौन लुइथुई, ‘माय नौरिटी राइट्स ग्रुप इंटरनेशनल, पृष्ठ-२६
२. हरिश्चंद्र शाक्य, आदिवासी और उनका इतिहास, अनुराग प्रकाशन, नई दिल्ली, २०११, पृष्ठ-१०७
३. ओडिशा टाइम्स, नवम्बर २,२०१६
४. आउटलुक, फ़रवरी १५, २०१७
५. चन्द्रिका, जनादेश, फ़रवरी ७, २०१७
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