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जनता -तेरे कितने रंग

 सत्ता कहीं हो  

किसी की हो

रंग रहा सदैव एक सा 

केवल स्वार्थ का

ढोंग -बस सेवा, परमार्थ का,

यह तो जनता है 

जो बदलती है 

कई कई रंग,

जब चुनाव में

दिलाती है विजय

तो लगती है 

रंगी हुई

जागरूकता चैतन्यता के पक्के रंग मे

जो कभी उतर नहीं सकता

न किसी के बहकावे से

न झूठ से न छलावे से

वही जनता जब

त्रस्त होकर

रोजी रोटी के लिए

उठाती है 

पुरजोर आवाज

तो पुती लगती है

मूर्खता और नासमझी के रंगो में

जो सुनती नहीं

सशक्त सत्ता तंत्र का 

मीठा प्रचार

मुट्ठी भर विपक्ष के सामने

मान जाती है हार ,

वाह री जनता

तू कितने रंग बदलती है!!

-ओंम प्रकाश नौटियाल 


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