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हिंदी साहित्य - नयी कहानी की वैचारिक बहस : एक अवलोकन

नयी कहानी की वैचारिक बहस : एक अवलोकन

                                                                 पंकज शर्मा

सारांश

                  नयी कहानी के शुरुआती दिनों में ही इसमें दो धाराएँ स्पष्ट रूप में झलकने लगी थीं। एक धारा उन प्रगतिशील लेखकों की थी जो मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थे और शोषितों, उपेक्षितोंकिसानोंमजदूरों के दुखदर्द को कहानी का विषय बना रहे थे जबकि दूसरी धारा के कहानीकार मध्यवर्गीय टूटन, पारिवारिक विघटन, सैक्स, कुंठा आदि को कहानी का कथ्य बनाकर प्रस्तुत कर रहे थे। उस दौर में हुई वैचारिक बहस का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा रहा है।

 बीज शब्द

1. कहानी
2. विचारधारा
3. नवीनता
4. आधुनिकता
5. मध्यवर्ग
nayi kahani


विस्तार

'नयी कहानी' की शुरुआत सन् 1950 से मानी जाती है। इससे पहले हिन्दी कहानी में तो इतनी विविधता थी और ही इतनी व्यापकता। नयी कहानी से पूर्व हिन्दी कहानी घटना प्रधान थी। समूची कहानी आदर्शात्मक होती थी और निश्चित मूल्यों के आधार पर रची जाती थी। इन सभी प्रवृत्तियों से इतर नयी कहानी के दौर में विशिष्ट भावबोध की कहानियाँ लिखी जाने लगीं। पुरानी और नयी कहानी में फर्क करते हुए भैरव प्रसाद गुप्त ने लिखा है- "यशपाल, इलाचन्द जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा या वे लेखक जो प्रेमचन्द के जमाने से लिखते चले रहे थे, उनकी कहानियाँ नाटकीय होती थीं, काल्पनिक होती थीं, ये लेखक किसी सवाल या समस्या को उठा लिया करते थे। लेकिन जो नये कहानीकार आये, उन्होंने सचमुच जीवन के यथार्थ को अपना विषय बनाया और उसी तरह भाषा और शिल्प को अपनाया। नये कहानीकारों की कहानियाँ हर रूप में भिन्न थीं-कथ्य की दृष्टि से, कला की दृष्टि से, भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी।’’¹ हालांकि शुरुआती दिनों में नयी कहानी आन्दोलन का तीव्र विरोध भी हुआ था, किन्तु आगे चलकर यही नाम हिन्दी कहानी के इतिहास में प्रतिष्ठित हुआ।

                        ‘नयी कहानीआन्दोलन में अनेक विचारधारा के कहानीकार कहानियाँ लिख रहे थे। इसी कारण इसमें एक साथ कई प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। निश्चित रूप से इन प्रवृत्तियों को अलगा पाना आसान था। नयी कहानी के सन्दर्भ में नयेपुराने का जो विवाद शुरू हुआ था उसे सुलझाने का प्रयास अनेक रचनाकारों तथा आलोचकों ने किया। नामवर सिंह ने लिखा है-‘‘इस कहानीचर्चा में उपलब्धिसम्बन्धी ऐतिहासिक प्रश्न इतने रूपों  में उठाये गये हैं। कभी 'ग्रामकथा' बनाम 'शहरी कथा' का प्रश्न उठा है, तो कभी परम्परा बनाम प्रयोग या प्रगति का। कुछ लोगों नेजातीय कहानीका भी नारा दिया है और कुछ नेनयी कहानीके सम्भावित खतरनाक अर्थ की ओर से आगाह करते हुए हिन्दी कहानी के अपनेऐतिहासिक दायकी याद दिलायी है। कहानियों की एक प्रवृत्ति को एकदम विदेशी करार देना और कुछ शिल्प प्रयोगों कोकहानीमानने से इनकार करना भी इसी सैध्दान्तिक संघर्ष का पहलू है। व्यक्तिवादी दृष्टि और समूचे सामाजिक तथा साहित्यिक परिवेशबोध के अभाव के कारण ही इस बहस में भटकाव आये हैं।’’² इस भटकाव के बावजूदनयी कहानीकी अनेक तरह से व्याख्या हुई हैं। कहानी के क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले लगभग सभी महत्त्वपूर्ण लेखकों ने अपनेअपने विचार व्यक्त किये और प्राय: सभी ने इसे एक स्वर में हिन्दी कहानी का सबसे उर्वर दौर घोषित किया है। फिर भी इस आन्दोलन को लेकर वैचारिक बहस गहराती गयी। शुरुआती दिनों मेंनयी कहानीके नाम पर ही सन्देह व्यक्त किया जा रहा था।

                        श्रीकान्त वर्मा की शिकायत थी कि ‘‘वह नयी क्यों है, बल्कि यह है कि वह नयी क्यों नहीं है।’’³ दरअसल वे मानते थे कि नयी कहानी ‘‘आत्मछल से पैदा हुई है। यह भी एक संयोग नहीं कि हिन्दी कहानी अपने नयेपन का जरूरत से ज्यादा शोर कर रही है। वह, असल में आपको नहीं, अपने आपको विश्वास दिलाना चाहती है कि वह सचमुच नयी है।’’ सच तो यह है कि किसी भी नवीनता को सहजता से स्वीकार कर पाना आसान नहीं होता है कमलेश्वर ने लिखा है-‘‘नवीनता को स्वीकार कर पाना हरेक के वश में नहीं होता, खासतौर से उस पीढ़ी के लिए जो अपने समय के मानमूल्य स्थापित कर उनके प्रति प्रतिबद्ध हो चुकी है।’’ नयी कहानी के नयेपन को स्पष्ट करते हुए मार्कण्डेय ने लिखा है-"नवीनता का गहरा सम्बन्ध लेखक की दृष्टि और उससे भी जीवन को देखने, समझने के कोण से है। आदमी नया होता है विचारों से, इसलिए नया लेखक वही है जो इस बात पर ध्यान लगाकर बैठा है कि आदमी कहाँ बदल रहा है। यह सच है कि सच्चाइयों के इस परिवर्तन में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का मुख्य हाथ है पर इसके सजग सम्पर्क में बिना किसी कुंठा के बने रहने वाले को हम नया मानेंगे।’’ मार्कण्डेय नवीनता का आग्रह जीवन दृष्टि के सन्दर्भ में करते हैं। उन्होंने स्वीकार किया है कि सिर्फ गाँवों की संवेदनाओं को नया नहीं माना जा सकता है। 

                        वास्तव में नयी कहानी आन्दोलन के कहानीकारों ने नयी दृष्टि अपनायी। उनकी नयी दृष्टि का ही परिणाम था कि उन पहलुओं और संवेदनाओं पर भी कहानियाँ लिखी जाने लगीं, जो बिल्कुल नयी बात थी। नामवर सिंह ने लिखा है-‘‘यह नवीनता केवल शिल्पगत नहीं है, बल्कि इसके मूल में कहानीकार की नवीन दृष्टि है। इसका मतलब यह है कि आज का यह कहानीकार वस्तुओं को उसी रूप में नहीं देखता, जिस रूप में वे देखी जाती रही हैं रचनात्मक दृष्टि का यह परिवर्तन कहानीकार के समूचे व्यक्तित्व के परिवर्तन का द्योतक है।’’ इस नवीन दृष्टि को अपनाने के बावजूद नयी कहानी के कहानीकारों पर विचारधारा उस तरह हावी नहीं हुई जिस तरह लोगों ने उसे प्रचारितप्रसारित किया। वास्तव में ‘‘नयी कहानी का आग्रह जीवन यथार्थ पर था, विचारधारा विशेष के आलोक में देखे गये यथार्थ पर नहीं।’’ जब यथार्थ की अनेक परतें हों तब यह तय करना आवश्यक हो जाता है कि यथार्थ का स्वरूप कैसा है। इसी स्वरूप के सन्दर्भ में मार्कण्डेय ने लिखा है-‘‘कहानी जीवन की कला है, उसके बाह्य और अन्तर को बहुत दूर तक झुठलाना भी सम्भव नहीं है। इसीलिए जब हम नये जीवन सत्यों की बात करते हैं और उसे कहानी के सन्दर्भ में ढूँढते हैं तो यथार्थ जीवन के प्रकाश में उसका मानदंड भी ढूँढना होगा।’’ इस मानदंड को ढूँढने के प्रयास में कुछ नये कहानीकारों ने यथार्थ के वृत्त से बाहर भी झाँकना प्रारम्भ कर दिया। चंचल चौहान ने ठीक ही लिखा है-‘‘नयी कहानी के कथाकारों ने यथार्थवाद को किसी संकरे दायरे जाकर नहीं छोड़ा, हालाँकि मोहन राकेश, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा और कमलेश्वर सरीखे दोचार कहानीकार ऐसे जरूर थे जो अस्तित्ववाद के टोटके उधार लेकर हिन्दी कहानी पर आधुनिक की छाप लगा रहे थे और उन्होंने एक हद तक फार्मूलेबाजी शुरु कर दी थी।’’¹

                       नयी कहानी आन्दोलन में एक साथ कई प्रभावशाली कथाकारों का उदय हुआ था। सभी अलग-अलग विचारधारा सम्बद्ध थे। इस कारण इन नये कहानीकारों के बीच वाद-विवाद की स्थितियाँ खूब निर्मित होती थी। रमेश उपाध्याय ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है ‘‘नयी कहानी के आन्दोलनकारी विभिन्न दृष्टियों और विचारधाराओं के रचनाकार थे। उनमें अमरकान्त, मार्कण्डेय, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, शेखर जोशी, हरिशंकर परसाई आदि प्रगतिशील लेखक भी थे तो दूसरी ओर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, शिव प्रसाद सिंह, धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय जैसे आधुनिकतावादी लेखक भी थे, जिनकी कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं थी या जो उदारतावादी अथवा ढुलमुल थे या जो अवसरानुकूल किसी विचारधारा के समर्थक या विरोधी हो सकते थे।’’¹¹ यह ठीक है कि नयी कहानी आन्दोलन में स्पष्ट रूप से कोई निश्चित विचारधारा उभरकर सामने नहीं पाती है। फिर भी-‘‘नयी कहानीके दौरान होने वाली लम्बी वैचारिक बहस इस बात का प्रमाण है कि उस समय का मध्यवर्ग अपने सब स्वप्नों के बावजूद राजनीतिक चेतना विकसित करने की क्षमता रखता था, लेकिन इस आन्दोलन में दो धाराएँ थी-एक धारा प्रेमचन्द से शुरू होने वाली परम्परा को आगे बढ़ाने वाली थी, जिसमें उद्देश्यपूर्ण लेखन का वह रूप दिखाई देता है, जो शीतयुद्ध के दौरान विकृत और गलत सौन्दर्यदृष्टि से टक्कर लेने की कोशिश में विकसित हुआ था। यह धारा भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकान्त, रांगेय राघव, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भीष्म साहनी, शिव प्रसाद सिंह आदि की कहानियों में लगातार और राजेन्द्र यादव कमलेश्वर, मन्नू भंडारी आदि की कहानियों के प्रारम्भिक दौर में देखी जा सकती है।’’¹² नयी कहानी की प्रगतिशील धारा के लेखक मजदूरोंकिसानों, उपेक्षितों, शोषितों की पीड़ा को अपनी कहानियों में चित्रित कर रहे थे। गाँवों में सरल और सहज जीवन व्यतीत करने वाले मानव समुदाय की संवेदना को केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिख रहे थे। 

                        इस धारा के रचनाकारों ने प्रेमचन्द की परम्परा को सिर्पफ स्वीकारा ही नहीं, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया। भैरव प्रसाद गुप्त ने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘प्रगतिशील आन्दोलन के दौरान निश्चिय ही लेखकों ने प्रेमचन्द की विरासत को सम्भाला और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया। वह साम्राज्यवाद के विरोध का दौर था। लेकिन प्रगतिशील आन्दोलन सिर्फ साम्राज्यवाद विरोध तक सीमित नहीं रहा, बल्कि राष्ट्रीय पूँजीपतियों और सामन्तों के खिलाफ भी उसने काम किया और सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रगतिशील लेखकों ने प्रेमचन्द से आगे बढ़कर मजदूरों और किसानों पर लिखना शुरू किया। यह एक बहुत बड़ा मोड़ था।’’¹³ यह बात ध्यान रखने वाली है कि प्रगतिशील धारा के कहानीकारों ने सिर्फ गाँव, किसान और उसके दुखदर्द तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि उन्होंने मध्यवर्गीय अर्न्तद्वन्द्व को भी बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी कहानियों में उजागर किया। इतना जरूर था कि वे व्यक्तिवादी मनोवृत्ति से मुक्त थे।

                        प्रगतिशील धारा के कहानीकारों की विषयवस्तु बिल्कुल भिन्न थी। वे निम्नवर्गीय विपन्नता, शोषितों, उत्पीड़ितों के पक्ष में कहानी लिख रहे थे। मध्यवर्गीय संवेदना तथा आत्मकेन्द्रित भावों को वर्जित मानकर खुद को उससे अलगा पाने में सफल रहे थे। प्रगतिशील धारा के कहानीकारों ने नगरीय बोध तथा आधुनिकता का आवरण ओढ़ने से इनकार कर दिया शिवप्रसाद सिंह ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-'‘यदि नगर के जीवन का अर्थ ऑफिसों या कॉलेजों की लड़कियों के पीछे चीलकौओंसा मंडरानामात्र है या आधुनिक सभ्यता के नाम पर हर प्राचीन को तोड़ने के लिए चिल्लानाभर है, तो साफ है कि यह नगर का जीवन नहीं, उस कहानीकार का अपना जीवन है।’’¹

              यह अकारण नहीं था कि शेखर जोशी, अमरकांत, मार्कण्डेय, भैरवप्रसाद गुप्त, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी आदि कहानीकारों ने व्यक्तिवादी खाँचे में खुद को फिट नहीं किया, बल्कि उन असहायों की मुखर आवाज बनकर कहानी को प्रस्तुत किया जिन्हें लम्बे समय से दबाया जा रहा था। उन्होंने कमजोर वर्गों के लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को एक हद तक सन्तुलित करने का भरसक प्रयास किया। एक बात और ध्यान देने वाली है कि नये कहानीकारों ने फार्मूलेबाजी से अपना नाता तोड़ लिया और अतिरेक भावुकता से भी खुद को अलग कर लिया। इस सन्दर्भ में अमरकान्त ने कहा है-‘‘नयी कहानीआन्दोलन के जमाने में भावुकता से मुक्त होने की कुछ कोशिश की गयी और जीवन तथा समाज के अन्तर्विरोधों को पकड़ने की भी कोशिश हुई।’’¹

                        इन कहानीकारों ने अपने आस-पास के दबाव को शिद्दत से महसूस किया, मानवीय विद्रूपताओं को अपनी कहानियों में चित्रित किया। जिन सामाजिक परिस्थितियों के कारण कुछ कहानीकारों ने दर्द, कुंठा, निराशा आदि को अपनी कहानी का विषय बनाया और समाज से विमुख होकर कहानियाँ लिखी उसे नये कहानीकारों ने दरकिनार कर दिया। हरिशंकर परसाई ने लिखा हैµ‘‘यद्यपि इस सारी परिस्थिति को मानवसमाज की प्रवृत्ति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा, परन्तु किसी ढाँचे के आधार पर नहीं बल्कि जीवन से वास्तविक, निकटसम्पर्क स्थापित कर, सच्चे अनुभवसम्वेदन ग्रहण कर, कहानियाँ लिखी हैं, जिनमें यथार्थ के विभिन्न स्तर और विभिन्न कोण उभरे हैं ’’¹

                       मुख्य रूप से दो खेमों में बँटी नयी कहानीकारों ने एकदूसरे का जमकर विरोध भी किया। जहाँ एक ओर प्रगतिशील धारा के नये कहानीकारों को पुराना, बासी, घटिया, नकली और निरर्थक बताया वही दूसरी ओर वे टूटन, घुटन, पीड़ा, निराशा आदि की बातें कर रहे थे और ‘‘अनुभव की प्रामाणिकताके नारे देकर सारे प्रगतिशील लेखन को खारिज कर रहे थे। ग्रामकथा की निरर्थकता की बात करते हुए। राजेन्द्र यादव ने लिखा है-‘‘ग्राम परिवेश पर मिलने वाली इधर की कहानियाँ गुणात्मक रूप से उन कहानियों से अलग हैं जो 50–60 के दौरान लिखी गयी थी। तब की अधिकांश कहानियाँ, शहर से छुट्टियों में लौटे हुए युवक या प्रौढ़ की ऐसी कहानियाँ थीं जो किसी बूढ़ेबूढ़ी, या पेड़ या विगतप्यार के लिए श्रद्धांजलि की तरह लिखी जाती थी और जब तक यह नायक उसके साथ जुड़ना शुरू करें, तब तक पढ़ाई या नौकरी पर उसके लौटने का समय हो जाता था।’’¹ वास्तव में, ग्राम कथा का तीव्र विरोध होने के बावजूद नयी कहानी में अपना एक खास स्थान बनाया और यह धारा सतत गतिशील बनी रही। ग्रामकथा ने सभी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।

                      प्रगतिशील धारा के कहानीकारों के बीचबहस के मुद्दे नगर और ग्रामकथा में अन्तर्निहित था बल्कि उन्होंने जीवन को करीब से देखने और उसकी विसंगतियों को उजागर करने का समर्थन किया। शिवप्रसाद सिंह ने ठीक ही लिखा है-‘‘सवाल नगर और ग्रामकथा की श्रेणी बँटवारे का नहीं है, सवाल जिन्दगी को सही देखने और उसे व्यक्त करने का है। इसलिए तथाकथित नगरकथाकारों को, जो गले में ढोल बाँधकर हल्ला मचा रहे हैं कि ग्रामकथा के प्रति किये गये पक्षपात के कारण नगरकथा खतरे में है मैं आश्वस्त करते हुए कहना चाहता हूँ कि खतरा ग्रामकथा से कतई नहीं है, खतरा उन्हें दूसरी ओर से और दुहरा है।’’¹

                        नये कहानीकारों के पास पहले से निष्कर्ष मौजूद नहीं थे। चाहे वे प्रगतिशील धारा के कहानीकार हों अथवा मध्यवर्गीय, शहरी,कस्बाई बोध को अभिव्यक्त करने वाले कथाकार। राजेन्द्र यादव ने ठीक ही लिखा है-"हम सब एक ही परिवेश में जीने साँस लेने वाले लोग हैं जो संक्रमण की एक प्रक्रिया को अपनेअपने स्तरों पर भोगा और समझ रहे हैं। यहअपनाअपना स्तरही नयी कहानी की विविधता और विकासशीलता है। कोई भी रचनाकार अपनी परम्परा का विरोध कर सकता है कि वह अपनी परम्परा से कटकर सृजन नहीं कर सकता।

 

निष्कर्ष

                        नयी कहानी आन्दोलन में जबरदस्त वैचारिक बहस होने के बावजूद यह अनेक विशिष्टताओं को खुद में समेटे हुए है। नयी कहानी की उपलब्धियों की बात करें तो निश्चित रूप से ऐसी अनगिनत बातें कही जा सकती हैं जो नयी कहानी को अर्थगरिमा प्रदान करती हैं। इसी आन्दोलन ने पुरानी कहानी की जड़ता को तोड़ा और बने बनाए साँचे से मुक्त किया। 

 

सन्दर्भ सूची

1 भैरव प्रसाद गुप्त, जनवादी कहानी, सं, रमेश उपाध्याय, पृ 289–90

2 नामवर सिंह, कहानी नयी कहानी, पृ. 42

3          श्रीकान्त वर्मा,नयी कहानी: सन्दर्भ और प्रकृति, सं. देवीशंकर अवस्थी, पृ– 148

4.         वही, पृ. 148

5.         कमलेश्वर, नयी कहानी की भूमिका, पृ. 57

6.         मार्कण्डेय, कहानी की बात, पृ.12-13

7. नामवर सिंह, कहानी नयी कहानी, पृ. 46 

8. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, समकालीन कहानी की भूमिका, पृ. 5

9. मार्कण्डेय, कहानी की बात, भूमिका, पृ. 12

10.  चंचल चैहान, आलोचना की शुरुआत, पृ. 218

11.       रमेश उपाध्याय, जनवादी कहानी की समाजशास्त्रीय समीक्षा, पृ.152

12. रमेश उपाध्याय, जनवादी कहानी, पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक, पृ– 55

13. भैरव प्रसाद गुप्त, जनवादी कहानी, पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक, रमेश उपाध्याय, पृ– 289

14.  शिवप्रसाद सिंह, नयी कहानी, सन्दर्भ और प्रकृति, संदेवी शंकर अवस्थी, पृ.140

15. अमरकान्त, कथारंग, सं. सुरेन्द्र तिवारी, पृ. 152

16.       हरिशंकर परसाई, नयी कहानी: सन्दर्भ और प्रकृति, सं. देवीशंकर अवस्थी, पृ. 59

17. राजेन्द्र यादव, कहानी अनुभव और अभिव्यक्ति, पृ. 183

18 शिवप्रसाद सिंह, नयी कहानी सन्दर्भ और प्रकृति, पृ. 143

19.       राजेन्द्र यादव, कहानी: स्वरूप और सम्वेदना, पृ. 238

 

 

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