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हिंदी आत्मकथा साहित्य । Hindi aatmkatha Literature - आत्मकथा का विकास एवं प्रमुख आत्मकथाएँ

हिंदी आत्मकथा Hindi aatmkatha

आत्मकथा का विकास

- जगदीश सिंह

आत्मकथा Atmkatha

एक सम्मोहन और कौतूहल होता है दूसरे व्यक्ति के अन्तरंग संसार में प्रवेश पाने का। यदि वह व्यक्ति विशिष्ट रहा हो और कुछ ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी भी, तो एक अनिवार्य किस्म की दिलचस्पी अपने सम्बन्ध में जगा लेने में सक्षम होता ही है, किन्तु यदि वह व्यक्ति नितान्त अवशिष्ट या बिल्कुल मामूली भी हो तो भी उसे समझने का हमारा एक अन्तहीन कौतूहल होता है और उसकी तुष्टि निःसंदेह आत्मकथाएँ करती हैं। अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई व्यक्ति कौन से मोहों को पालता रहा, कैसी भावनात्मक अनुभूतियाँ उसने खोई और पाई? किन पूर्वाग्रहों, मूल्यों, विश्वासों, परम्पराओं और आग्रहों पर वह बल देता रहा? किन भावुक आत्मीय क्षणों, वासनाओं, संवेदनाओं, परम्पराओं में वह धँसा-फँसा रहा? इसका सही दस्तावेज न केवल जीवन्त होता है बल्कि रोमांचक भी।

विशिष्ट व्यक्तियों की स्थिति में महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक घटनाओं, उनके नेपथ्य में छिपे असली इरादों, परिस्थितियों और कारणों का अध्ययन कभी-कभी तो एक पूरी पीढ़ी और अनेक पीढ़ियों तक के लिए गहरी दिलचस्पी की बात बन जाती है।

आत्मकथा (aatmkatha) के माध्यम से व्यक्ति तत्कालीन समय और सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में रखकर अपने भाषा-कर्म, अपने विचारों और व्यक्तित्व की गहन और पारदर्शी पड़ताल करने की रचनात्मक कोशिश करता है। गहनता जहां रचना के मूल्यांकन और विश्लेषण के लिए जरूरी है, तो पारदर्शिता औरों की आत्मीयता अर्जित करने के लिए, क्योंकि आत्मकथा दूसरों के साथ ‘अपने’ जीवन प्रसंगों का साझा है।  वह एक साथ दोनों को सम्बोधित होती है। इस तरह रचनाकार के व्यक्तित्व और उसके समाज के व्यक्तित्व के बीच लगाव और तनाव की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में वह सम्भव होती है। निराला की कविता सरोज-स्मृति को आत्मकथा के तत्वों से बुना हुआ स्वीकार करें, तो मलयज के शब्दों में हुए विशिष्ट और महत्वपूर्ण अर्थ में कहा जा सकता है कि आत्मकथा ‘छायावादी दुख की स्वनिर्भर दुनिया से बाहर आने की चीज है।’

हिंदी की आत्मकथा और आत्मकथाकार

मगर यह चीख इसलिए है कि अपने किए और भोगे हुए के लिए सिर्फ हम जिम्मेदार नहीं होते। हमारे पीछे खड़ा सारा समाज इस जिंदगी का साक्षी और सहभोक्ता भी है।

आत्मकथा से हम उन सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की प्रकृति को उजागर करने का काम करते हैं जो जीवन के सुख-दुख को तय करती आयी हैं। आत्मकथाएँ ऐसे अन्तः साक्ष्यों की श्रृंखलाएँ हैं जो दूसरे व्यक्तियों की मुद्राओं के भीतर झांकने की अद्वितीय दृष्टि देती है। जो कुछ आत्मकथाकार अपने बारे में बताता है वह यदि पूरा न होकर अधूरा भी हो तो भी अपने बारे में पूरी समझ विकसित करने में वह हमारा सहायक हो सकता है। आत्मकथाकार अपने जीवन की कहानी का स्वयं ही नायक होता है और स्वयं तो संसार में पुनः प्रवेश करता ही है, इस अन्तरंगता में हमें भी दाखिल कर लेता है। जैसे कोई बुजुर्ग या मित्र हमें विश्वास में लेकर अपने बारे में सब कुछ अथवा बहुत कुछ बता रहा है। विश्वास में लिये जाने का यह अनुभव आत्मकथाकार और पाठक के बीच रिश्ते को एक प्रकार की अद्वितीयता देता है और दोनों के आपसी संबंधों को एक विशिष्ट धरातल पर विकसित करने में सक्षम होता है।

साहित्य के स्वरूप-निर्धारण; सृजन-प्रक्रिया के विवेचन तथा तात्विक विश्लेषण करने से पूर्व उसकी व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए उसे किसी सुनिश्चित परिभाषा के घेरे में बांधने का प्रयास करना एक समुचित प्रक्रिया का आमुख होगा।

हिंदी आत्मकथा साहित्य hindi aatmkatha sahitya

आत्मकथा साहित्य की एक बेहद जटिल और उससे कहीं ज्यादा जोखिम-भरी विधा है। जोखिम इसलिए कि ‘आत्म’ में हमें हमेशा तार्किक दूरी पर खड़ा होना होता है। इसके लिए धैर्य और संयम बरतना आवश्यक है। आत्मकथा (Autobiography) शब्द का पहला प्रयोग सन् 1796 ई. में जर्मनी में ‘हर्डर’ ने किया था। तब तक आत्मकथा ऐसी जीवनी मानी जाती थी, जिसे कोई व्यक्ति स्वयं लिखता है ‘आत्म जीवनी’। अठारहवीं शती के उतरार्द्ध और मुख्य रूप से उन्नीसवीं शती के आरम्भिक दौर में आत्मकथात्मक लेखन का आधुनिक रूप प्रकट होता है। यह अपनी विशेषताओं तथा अन्य विधाओं से अपने बारीक फर्कों के कारण विलक्षण है। हिन्दी में आत्मकथा का सैद्धान्तिक विवेचन न के बराबर होने पर भी परिभाषाएँ प्रस्तुत करने का कार्य बाहुलता से हुआ है- ‘‘ऑक्सफार्ड डिक्शनरी में ऑटोबायोग्राफी का अर्थ लेखक की अपने जीवन की स्वयं लिखी कहानी के रूप में दिया गया है।’’ 

हिन्दी साहित्यकोश में आत्मकथा का अर्थ- ‘‘आत्मकथा लेखक के अपने जीवन का सम्बद्ध वर्णन है।’’ 

जर्मन लेखक जार्ज मिच ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ ऑटोबायोग्राफी इन एंटीक्विटी’ में ऑटोबायोग्राफी के महत्व और स्वरूप को पहचान कर उसे जीवनी की उपशाखा मानने से इन्कार किया है।  वस्तुतः यह आत्मकथा को एक स्पष्टता पूर्ण और स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करने का प्रयास है।

डा. नगेन्द्र ने भी इस विषय पर प्रकाश डाला हैः-

‘‘आत्मकथाकार अपने सम्बंध में किसी मिथक की रचना नहीं करता, कोई स्वप्न-सृष्टि नहीं रचता, वरन् अपने गत जीवन के खट्टे-मीठे, उजले-अन्धेरे, प्रसन्न-विषष्ण, साधारण-असाधारण संचरण पर मुड़कर एक दृष्टि डालता है, अतीत को पुनः कुछ क्षणों के लिए स्मृति में जी लेता है और अपने वर्तमान तथा अतीत के मध्य संबंध सूत्रों का अन्वेषण करता है।’’ 

पाण्डेय बेचेन शर्मा ‘उग्र’ ने व्यंग्यपूर्ण शैली में अपने साथ दूसरों के मूल्यांकन की विशेषता प्रकट की है-

‘‘अपनी याद्दाश्त पब्लिक की जानकारी के लिए लिखने में आत्मप्रशंसा और अहंकार-प्रदर्शन का बड़ा खतरा रहता है। ऐसे संस्मरणों में किसी एक मन्द घटना के कारण अनेक गुण-सम्पन्न पुरूष पर अनावश्यक आँच भी आ सकती है।’’ 

रवीन्द्रनाथ टैगोर की आत्मकथा की भूमिका में आत्मकथा के महत्व का उजागर हुआ है- ‘‘आत्मकथा जीवन का सत्यान्वेषण है, कल्पना के आकाश की कोरी उड़ान नहीं है। आम आदमी का जीवन प्रेरणास्पद नहीं हो सकता, महान् व्यक्तियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व आम आदमी के लिए दिशाबोध का काम करता है; उनके जीवन के आदर्शनिष्ठ मूल्यों को स्वीकार करता हुआ उस पथ पर अपने आपको ढालने का प्रयास करता है। आत्मकथा सत्य एवं स्पष्टवादिता को लेकर चलती है।’’ 

इस तरह देशी और विदेशी लेखकों द्वारा आत्मकथा की दी गई परिभाषा से स्पष्ट होता है कि स्वयं की समीक्षा की प्रवृत्ति से प्रेरित लोककल्याण की बुद्धि ही वास्तविक आत्मकथा की प्रेरक होती है। ऐसी ही आत्मकथा राह के अन्वेषी के जीवन में सही मार्ग-प्रदर्शन का काम करती है। अतः आत्मकथा व्यक्तिगत कटु अनुभवों, कोमल अनुभूतियों, मार्मिक उद्भावनाओं के साथ-साथ दर्पण के समान यथार्थ-अनुकृति एवं स्पष्ट, निर्भीक, निष्पक्ष अभिव्यक्ति का माध्यम है।

आत्मकथा और जीवनी

जीवन के वास्तविक धरातल पर आधारित घटनाओं के एक प्रमुख कारण के आधार पर जीवनी और आत्मकथा को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया जाता है। यही कारण है कि सामान्य दृष्टि से देखने पर अनेक समीक्षक आत्मकथा को जीवनी का अन्य प्रकार ही मान लेते हैं। डॉ.. शान्ति खन्ना का यह कथन आत्मकथा और जीवनी दोनों के अलग-अलग महत्त्व के अस्तित्व को उजागर करने के बजाय उलझाव ही पैदा कर रहा है। उनका कथन है, ‘‘जीवनी, संस्मरण एवं आत्मकथा तीनों ही आत्माभिव्यक्ति से है।... कोई भी जीवनी ऐसी नहीं होती जिसमें लेखक व्यक्तिगत संस्मरणों का प्रयोग न करता हो।’’ 

जीवनी के नायक के साथ लेखक के आत्म-संबंधों की अभिव्यक्ति भी अनिवार्य नहीं होती, क्योंकि लेखक द्वारा जीवनी में निजी व्यक्तिगत संस्मरणों का उपयोग यदि हो भी तो अपवाद रूप में होता है न कि निश्चित अनिवार्यता के रूप में। कई ऐसी श्रेष्ठ जीवनियाँ भी मिल जाएगी, जो कि उन लेखकों द्वारा लिखी गई हैं जिनका जन्म ही उनके कथानायक की मृत्यु के पश्चात् हुआ है। आत्मकथा और जीवनी में महत्वपूर्ण अन्तर है लेखक से सम्बन्धित , जहाँ ‘आत्मकथा’ लेखक के जीवन पर आधारित होती है वहीं ‘जीवनी’ लेखक से इतर महान व्यक्ति पर। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि जीवनी और आत्मकथा में केवल शैलीभेद या लेखकभेद ही नहीं है, अनेक अन्य स्पष्ट अन्तर भी हैं- जैसे कि आत्मकथा तो एक व्यक्ति की एक ही होती है, जबकि जीवनियाँ अनेक। जीवनी अनेक लेखकों द्वारा अलग-अलग लिखी जाने के कारण तथ्यात्मक भिन्नता आ सकती है जबकि आत्मकथा में ऐसा होना सम्भव नहीं है। आत्मकथाकार का मुख्य प्रयास अन्तर्जगत में होता है जबकि जीवनीकार का विचरण केवल बाह्य जगत में संभव है, जहाँ आत्मकथाकार अपनी विश्वसनीय स्मृतियों के सहारे अनुभव-खण्डों का चयन करके स्वयं उनका क्रम संधान करता हुआ आत्मविवेचन और आत्मपरीक्षण करता है, वहीं जीवनीकार वैज्ञानिक आधार पर ठोस प्रमाण जुटाकर घटनाओं के विवरण मात्र प्रस्तुत करता है।

वस्तुतः यह बात पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि आत्मकथा और जीवनी लक्ष्य-भेद, यात्रा-भेद, शैली-भेद और लेखक-भेद आदि अनेक कारणों से एक-दूसरे से इतनी अलग विधाएँ हैं कि इनके स्वरूप को किसी प्रकार से घुला-मिलाकर देखना अज्ञान या भ्रान्ति को दिखाना है।

जीवनी के अतिरिक्त अन्य पड़ोसी विधाओं से फ़र्क स्पष्ट करें तो पाते हैं, संस्मरण में लेखक अपने जीवन की घटनाओं को सिर्फ एक बाहरी प्रेक्षक की मुद्रा में बयां करता है; जबकि आत्मकथा लिखते समय वह इन घटनाओं को दृश्य के भीतर से समझने और उन्हें एक संगठित निजी अर्थ देने की कोशिश करता है। इसी तरह ‘डायरी’ मूलतः अपने लिए लिखी जाती है तथा वह एक गहरे व्यक्तिगत रूझान से चालित होती है; जबकि आत्मकथा अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी लिखी जाती है।

अच्छा! यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आत्मकथा दूसरों को ध्यान में रखकर चलती है, इसलिए अपनी सुर्खियाँ बटोरने या प्रदर्शन-प्रियता का शिकार हो सकती है जिससे वह अपनी महत्वपूर्ण विशेषता आत्म विवेचन या परीक्षण को गँवा सकती है। अतः एक तटस्थ आत्मकथा में अहं और संयम का संज्ञान बेहद जरूरी है। एक महत्वपूर्ण आत्मकथा जिससे समाज लाभान्वित हो सके उसमें तटस्थता तथा व्यष्टि और समष्टि के बीच संतुलन सधा हुआ होना चाहिए।

आत्मकथा के तत्व (atmkatha ke tatva)

आत्मकथा विधा के मूल्यांकन का पथ प्रशस्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि उसके तत्वों का विशद विवेचन हो। तत्वों का विचनन कुछ इस प्रकार है-

वण्र्य विषय

आत्मकथा में लेखक का वण्र्य विषय उसका अपना जीवन, व्यक्तित्व, निजी अस्तित्व और उसका अपना अतीत ही होता है। उसमें यदि कोई विषय आत्मेत्तर होता हुआ भी आता है, तो वह अन्तःबाह्य की सुसंगति के परिणाम स्वरूप लेखक के अपने मन में पूरी तरह विलीन होकर ही पटल पर उभरता है।          आत्मकथा का लेखक अपने वण्र्य विषय में अपने जन्म से भी पूर्व अपने माता-पिता, दादा-नाना आदि का वर्णन अपनी आनुवांशिकता के विकासार्थ करता है। कई लेखक तो पृष्ठभूमि के रूप में राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों तक का चित्रण करते हैं जोकि इसका महत्वपूर्ण हिस्सा है। सत्यकथन, तथ्यात्मक, अनुभूति प्रवणता, मौलिकता, स्मृति समुज्जवलता, स्वाभाविकता, रोचकता आदि वण्र्यविषय के गुण हैं तो अति संक्षेप, अति विस्तार, अरोचकता, बिखराव, संकोचशीलता, प्रच्छन्न भाव, आत्म श्लाघा इत्यादि दोष भी है।

पात्र (चरित्र-चित्रण)

जैसाकि ‘आत्म’ शब्द से ही स्पष्ट है कथा का वास्तविक नायक-पात्र लेखक स्वयं होता है। जहां तक आत्मेत्तर पात्रों के चित्रण का प्रश्न है, उनका केवल आवश्यक और प्रभाव-वर्धक प्रवेश ही वांछनीय है। वह भी मात्र प्रवेश न कि विस्तृत वर्णन। लेखक के व्यक्तित्व का विकास, अन्तर्मन्थन और अन्तर्द्वन्द्व के साथ-साथ अन्तर्बाह्य-संघर्ष का परिणाम प्रस्तुत करना चरित्रांकन की चरम सार्थकता है।

उद्देश्य 

निःसंदेह श्रेष्ठ आत्मकथा स्वतः स्फुरित कुसुम की भांति प्रकृति का निर्मल उपहार है। स्तरीय आत्मकथा का उद्देश्य भावनाओं के सहज उच्छलन द्वारा अपनी संवेदनाओं, संवेगों, अनुभूतियों का सम्प्रेषण एवं अपने मन-मस्तिष्क के विकास की प्रक्रिया का प्रस्तुतिकरण करना ही होता है। आत्मकथा विधा का उद्देश्य भले ही लोक कल्याण किन्तु स्तरीय लेखक उपदेशात्मकता, अति बौद्धिकता या प्रचारात्मकता का अवलम्ब ग्रहण नहीं कर सकता। भावों और विचारों, भावुकता और दार्शनिकता, कृतित्व एवं व्यक्तित्व, सामायिकता और चिरन्तनता का समन्वय और संतुलन ही आत्मकथा प्रमुख उद्देश्य है।

देशकाल 

परिस्थितियाँ मनुष्य में निखार लाती है। अपनी अन्तःस्थिति के बल पर जो लोग परिस्थितियों पर विजयी होते हैं, वही लोग महायना, लोक-समादृत और लोकप्रिय आदर्श मानव कहलाते हैं। पाठक या तो रचना की गहनता और यथार्थधर्मिता का अवगाहन करने की दृष्टि से स्वयं को कृति के पर्यावरण में स्थापित करके अपनी मनःदशा में तात्कालिक वातावरण की उपस्थिति का आभास अनुभव करता है या वह अपने ही पर्यावरण में लेखक के वातावरण के सूक्ष्म विवरणों का मेल बैठाने की योजना का निर्माण करता है। आत्मकथा में देशकाल तत्व का उचित परिमाण में अपेक्षित प्रवेश ही समर्थनीय है। अयाचित रूप से अनपेक्षित पर्यावरण-चित्रण कथायात्रा में नीरसता उत्पन्न करता है। यही कारण है कि कुछ आत्मकथाएँ सर्वाधिक व्यापक और विश्लेषणात्मक होकर भी संगुफित प्रतीत नहीं होती है।

संवाद -

हालांकि अन्य पात्रों का प्रवेश अत्यंत अपेक्षित होने के कारण संवाद तत्व का अस्तित्व अप्रत्यक्ष ही होता है। फिर भी उसके अस्तित्व की सार्थकता इसी में है कि संवाद संक्षिप्त, सरस, सरल, भावपूर्ण, अर्थपूर्ण, व्यंग्य-विनोदात्मक एवं सबसे महत्वपूर्ण कथायात्रा के सहायक हो।

भाषा-शैली 

सहृदय पाठक कृति से प्रथम साक्षात्कार भाषा-शैली के माध्यम से ही होता है। आत्मकथा की एक विशिष्टता यह भी है कि उसके सभी लेखकों से परिष्कृत, अलंकृत, परिनिष्ठित भाषा की अपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसी किसी साध्यता का निर्माण नहीं किया जा सकता कि उच्च स्तरीय लेखक या साहित्यकार ही आत्मकथा लिखने के अधिकारी है। जानकी देवी, धर्मेन्द गौड़, मावलांकर इत्यादि लेखकों की आत्मकथाएँ इसका उदाहरण है। भाषा शैली कीदृष्टि से आत्मकथाओं में विविधताएँ मिलेंगी। साहित्यकारों की आत्मकथाओं में भाषा लालित्यपूर्ण, रसपूर्ण, कलात्मक, परिष्कृत होती है जो कहीं न कहीं पाठकों के मन पर अधिकार कर लेती है। वहीं राजनेताओं तथा इतिहास निर्माताओं की भाषा-शैली में क्षिप्रता, भागा-दौड़ी की ठेल-पेल, अनलंकृत वर्णन तथा यदा-कदा नीरस चित्रण की भरमार रहती है किन्तु लेखकों के व्यक्तित्व की महानता, विशिष्टता उनके जीवनादर्शों के प्रति पाठक की आस्था और निष्ठा भाषा-शैली की अनलंकृतता या नीरसता का आभास नहीं होने देती।

अतः उपर्युक्त तत्वों का आत्मकथा में होना अनिवार्य है जिसकी बदौलत वह इतिहास को बदलने-बनाने की क्षमता और जिम्मेदारी से सम्पन्न व्यापक जन समाज के लिए महत्वशील हो जाती है। इन्हीं तत्वों की वजह से आत्मकथा निश्चित रूप से जीवन की सार्थकता की चाह और खोज का साहित्य रूप है।

आत्मकथाओं का वर्गीकरण atmkathaon ka vargikaran

आत्मकथाओं के वर्गीकरण-क्रम में हमारे सामने दोहरे तिहरे जोखिम हैं। इन्हें वर्गीकृत करता एक चौखट दूसरे चौखटे को तोड़ने की सुविधाजनक स्थिति में होता है। स्वयं के माध्यम से स्वयं को ही विषय-वस्तु के रूप में वर्णित करती कृति आत्मकथा एक ओर पाठकों के लिए असीम कौतूहल, मानवीय संवेदनाओं और जिज्ञासाओं का कारण है, दूसरी ओर आत्मकथाकार के लिए निर्मम एवं भयावह स्थितियों की सृजनकर्ता भी। इस विधा के आधार पर आत्मकथाकार खुद के बहाने से परिवेशगत चरित्रों, सामाजिक रूढ़ियों, राजनीतिक आंदोलनों, सांस्कृतिक क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं शिथिलताओं का भी अंकन करता है।

इन स्थितियों में आत्मकथा कभी एकदम व्यक्तिगत होती है, कभी संस्मरणात्मक और कभी सार्वजनिक घटनाओं को महत्त्व देकर मात्र इतिहास बन जाती है। इसलिए इस विधा को वर्गीकृत करना कठिन है। मूलभूत दृष्टिकोण के आधार पर हम आत्मकथा को अन्तरंग और बहिरंग के रूप में विभाजित कर सकते हैं।

अन्तरंग आत्मकथा

इन आत्मकथाओं का मूल दृष्टिकोण निजी और नितान्त वैयक्तिक होता है। आत्मकथाकार आत्मकथा में अन्तरंगता का, निजता का निर्वहन करने में सफल हो पाता है। हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में नितान्त निजी घटना, निजी अनुभूति को सहज स्वाभाविक महत्व देते हुए जो अभिव्यक्ति दी है वह अपनी निजता में अपूर्व है। पत्नी की मौत की छाया के नीचे का छोटा सा परिवार और आत्मकथाकार का पराजित अहम् अपनी पूरी कातरता के व्यंजित है-

‘‘घर पर मौत की छाया मंडराने लगी थी और हमारा छोटा-सा परिवार श्यामा की चारपाई को घेरकर बैठ गया था- सिर लटकाए, सर्वथा असमर्थ पूर्णतया पराजित। मृत्यु की प्रतीक्षा मृत्यु से अधिक डरावनी होती है।... नियति व्यंग्य से हंस ही तो रही थी, और मेरी हँसी शायद उसी की प्रतिध्वनि थी। उस हँसी के साथ मेरी आस्था, श्रद्धा, विश्वास के सारे आधार न जाने कहाँ विलुप्त हो गए और मुझे यह स्पष्ट हो गया कि अगर पहाड़ भी मुझ पर टूटना है तो मुझे निःसंग निःसहाय, निराश्रय और एकांकी रहकर उसको झेलना है।’’ 

अन्तरंग आत्मकथाओं में आत्मकथाकार अनायास ही अपने अन्दर मन और बीते हुए जीवन की एकाकी यात्रा में प्रवृत्त होते हैं।

बहिरंग आत्मकथा

बहिरंग आत्मकथा पूरी तरह से समाज, सभा, राष्ट्र सम्बन्धी योजनाओं या कि राजनीतिक क्रियाकलापों से जुड़ी रहती है। अधिकांशतः राजनीतिक कार्यों से जुड़े व्यक्ति और धर्म को समर्पित समाज सुधारक की आत्मकथाएं अपने भावगत और शिल्पगत रूप में बहिरंग हो जाती है। कभी-कभी साहित्यिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति भी अपनी कथा कहने के बहाने तत्कालीन साहित्यिक गतिविधियों, सभाओं और समितियों का इतना ब्यौरेवार वर्णन देते हैं कि सायास ही उनका निजी जीवन आत्मकथा से लुप्त सा हो जाता है। श्यामसुन्दरदास की आत्मकथा ‘मेरी आत्मकहानी’ बहिरंग आत्मकथा का अच्छा उदाहरण है-

‘‘इसी पहले वर्ष में सभा ने हिन्दी पुस्तकों खोज का सूत्रपात किया। उसने भारत गवर्नमेन्ट... बंगाल की एशियाटिक सुसाइटी से प्रार्थना की कि संस्कृत हस्तालिखित पुस्तकों के साथ हिन्दी पुस्तकों की भी खोज की जाय।’’ 

व्यक्ति मन की सहज अभिव्यक्ति आत्मकथा अंशों में अंतरंग और अंशों में बहिरंग होने को विवश है। क्योंकि व्यक्ति को सुनहरी और भयावह परिस्थितियों में अभिनेता और दर्शक दोनों होना होता है।

विवेचन की सुविधा के लिए आत्मकथाओं का स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार हो सकता है-

1.         धार्मिक आत्मकथाएँ

धर्म और भारतीय समाज इस तरह एक-दूसरे में अन्तर्गुम्फित है कि दोनों को अलग दृष्टि से देखना जटिल सा कार्य है। भारतीय जन-जीवन का कुछ इतना सहज अंग स्थापित हो चुकी है कि जन-जीवन को अभिव्यक्त करते कला-रूपों, साहित्यिक विधाओं में उस विशिष्ट चेतना ने व्यापक एवं बहुरंगी रूपाकार पाया है। आत्मकथाओं के समूह में ‘धर्म’ को समर्पित आवश्यकताओं का एक निश्चित भिन्न स्वर मिलता है। ईश्वर तक पहुँचाने वाले पथ, उस पर लौकिक ब्रह्म तक ले जाने वाले रास्ते की अनेक कठिनाइयों से जूझता आत्म-कथाकार अपने मन और शरीर की गिरावटों की लौकिक कथाएँ, विशिष्ट धर्म-शाखा को अपनाने की प्रेरणा से उद्भुत कहानियाँ सुनाने के क्रम में होता है।

धार्मिक आत्मकथाओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द संन्यासी, स्वामी सहजानन्द सरस्वती की आत्मकथाएँ प्रमुख हैं।

हंस के आत्मकथांक में संकलित आनन्द भिक्षु सरस्वती का आत्मकथात्मक लेख धर्म को समर्पित आत्मकथाओं का बीज रूप निश्चिततः माना जाएगा। लड़कपन के संयासी बनने की आकांक्षा और आज संन्यासी के रूप में अपने जीवन को देखता लेखक मानता है कि सपना और यथार्थ और होता है। साथ ही वर्तमान संन्यासियों को स्पष्टता के साथ परखता लेखक सच्चे संन्यासी के लक्षण भी निरूपित कर देता है- ‘‘मुझे लड़कपन से संन्यासी बनने का चाव था। अब बन गया हूँ, परन्तु जब बना था, तब मेरे चाव और थे, अब और हैं।... किसी समाज के अधीन, किसी संस्था के अधीन, किसी विशेष व्यक्ति के अधीन और तो और किसी व्यसन के अधीन भी होकर कोई संन्यासी सच्चा संन्यासी, निस्पृह संन्यासी नहीं बन सकता।... आज इन्हीं दोषों से अनेक संन्यासी - संन्यासी नहीं रहे और संन्यास पद की पहली-सी प्रतिष्ठा भी नहीं रही।’’ 

राजनीतिक आत्मकथाएँ

लेखन की अन्य विधाओं की तरह, आत्मकथा पर भी राजनीतिक का प्रभाव पड़ा है। राजनीतिक गतिविधियों के प्रति दिनोदिन बढ़ती चेतना राजनीतिक नेताओं के प्रति व्यक्तिगत मात्र की सहज जिज्ञासा और विशिष्ट घटना प्रवाहों से जुड़े हुए जीवन की ऐतिहासिक महत्ता आत्मकथाओं के प्रति हमारे असीम कौतूहल को जगाती है।

महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, राजेन्द्र प्रसाद, सचिन्द्रदेव सान्याल जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अज्ञेय सेनानियों ने अपनी आत्मकथाओं के द्वारा इतिहास को महत्वपूर्ण दस्तावेज प्रदान किए हैं। राजनीतिक आत्मकथा में राजनीति को विशिष्ट कालखण्ड में चित्रित्त और व्याख्यायित करने का आत्मकथाकार का मूल केन्द्र बिन्दु आत्मकथा की विधा से कई ‘छूटें’ अनायास ही पा लेता है।

हिन्दी को व्यावहारिक स्तर पर समृद्ध करती राजेन्द्र बाबू की आत्मकथा ने एक ओर अपने अंतरंग व्यक्तिगत जीवन को कुण्ठारहित होकर उघारा है दूसरी ओर नेवी विद्रोह, गोखले और गांधी से अपनी मुलाकातों का उनके अपने जीवन पर प्रभाव, रोलेट बिल सम्बंधी आँदोलन, गाँधी के सत्याग्रह के रह-रहकर स्थगित हो जाने, 1942 से जुड़ी तमाम स्मृतियों को दुहराती आत्मकथा के रूप में अधिकारिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है।

साहित्यिक आत्मकथाएँ

निःसंदेह कलाकारों ने अपनी कलाओं और साहित्यकारों ने अपने साहित्य में अपने अन्तर के सौन्दर्य, आशा-निराशा, पीड़ा, चाह, भय, सुख और दुःख के विविध छायातपों को ही बाह्य सौन्दर्यमयी कलाभिव्यिक्त दी है। कवि की कविता, कथाकार की कथा, आलोचक की आलोचना, संगीतज्ञ का संगीत, मूर्तिकार की मूर्ति, चित्रकार के चित्र और अभिनेता के अभिनय से सर्वथा भिन्न उनकी आत्मकथाएँ हैं जिनका नायक प्रामाणिक जीवित व्यक्ति होता है। जिसकी वर्जनाएँ कुण्ठाएँ और विवशताएँ निजतः भोगी हुई होती हैं।

साहित्यिकों की आत्मकथाएँ आत्मकथा की विधा के मूलभूत नियम का पालन अनायास ही करती हैं, वस्तुतः उनकी आत्मकथाएँ ‘आत्म की कथा’ कहने की कठिन कोशिशों से अभ्यस्त जूझती मिलती हैं। अन्तरमुखी मन को प्रवाय देती इन आत्मकथाओं में निजता का निर्वाह अधिक हो पाता है।

पहली आत्मकथा (हिन्दी)

हिन्दी के संदर्भ में बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्ध कथानक’ पहली आत्मकथा है। इसकी रचनाविधि सन् 1641 ई. है। सत्रहवीं शताब्दी में रचित् जीवन के इस अर्द्धकथानक में घटना, चरित्र-चित्रण, देशकाल, रोचकता, उद्देश्य प्रवृति का सजग निर्वाह आत्मकथानक तकनीकी गठाव के साथ है। स्व और अहम् के त्याग की दीनता भरी धारणा और कण-कण में धर्म की छवि देखने वाली भारतीय मानसिकता से अलग अपने विषय में निःसंकोच स्वीकार करती कवि आत्म कथाकार की परम्परा विरोधी साहसिकता की परिचायक हैं और साथ ही भारतीय मानसिकता पर दुराव का आरोप लगाने वालों के लिए एक बड़ा प्रश्न चिह्न भी।

अर्द्धकथा में दो प्रकार के एतिहासिक उल्लेख मिलते हैं- एक वे जिनका सम्बन्ध कवि के जन्मकाल के पूर्व से है और दूसरे वे जिनका सम्बंध उसके जीवनकाल से है। पहले प्रकार के उल्लेखों की एतिहासिक पर कदाचित हमें विचार करने की आवश्यकता नहीं। दूसरे प्रकार के उल्लेखों को इतिहास की कसौटी पर इतिहासकारों और पाठालोचन के विशेषज्ञों ने करना है, और कई ऐतिहासिक घटनाओं की प्रामाणिकता पाने पर डॉ.. माता प्रसाद गुप्त ने अपनी ‘भूमिका’ में ‘अर्द्धकथा’ की ऐतिहासिकता भलीभाँति प्रमाणित है जैसी निश्चित टिप्पणी दी हैं।

एक असफल व्यापारी की कथा के रूप में कृति ने व्यापारी वर्ग को जिन यातनाओं, संकटों और असुविधाओं को झेलना पड़ा उन परिस्थितियों का व्यापक रूप में चित्रण किया है। डॉ.. माताप्रसाद गुप्त ने अर्द्धकथा का महत्त्व एक अन्य दृष्टि में और भी अधिक पाया है-

‘‘वह मध्यकालीन उत्तरी भारत की सामाजिक अवस्था तथा धनी और निर्धन प्रजा के सुख-दुख का यथार्थ परिचय देती है। बादशाहों की लिखी दिनचर्याओं और मुसलमान इतिहास लेखकों द्वारा लिखित तत्कालीन तारीखों से हमें शासन और युद्ध सम्बन्धी घटनाओं की अटूट श्रृंखलाएँ भले ही मिल जावें, किंतु इतिहास के उस स्वर्ण युग में राजधानियों से दूर हिन्दू जनता-विशेष करके धनी और व्यापारी वर्ग को अहर्निश कितनी यातनाएँ भोगनी पड़ती थी इसका अनुमान उन दिनचर्याओं और तारीखों से नहीं किया जा सकता। उसके लिए हमें ‘अर्द्धकथा’ ऐसी रचनाओं का ही आश्रय लेना पड़ेगा।’’ 

ब्रज और खड़ी बोली हिन्दी बोलने वाले क्षेत्र को ही कवि ने मध्यदेश के शब्द से सम्बोधित किया है। व्याकरण की दृष्टि से भी कृति में अनेक विशिष्ट प्रयोग मिलते है। इसमें विसर्ग और ल् के अतिरिक्त देवनागरी के समस्त स्वरों और व्यंजनों का प्रयोग हुआ है। उच्चारण सौंदर्य की दृष्टि से कहीं स्वर बढ़ाया गया है तो कहीं किसी अक्षर का लोप ही कर दिया गया है। ‘कर्ता’ और ‘कर्म’ के प्रयोग वर्तमान का हिन्दी में अपने चलन के अनुसार है।

आत्मकथा की विकास-यात्रा atmkatha ki vikas yatra

उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोतार्ज, यात्रा वृतान्त और डायरी की ही भाँति आत्मकथा एक विदेशी साहित्य विधा है। डॉ.. नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि ‘अपना लेने पर कोई चीज परायी नहीं रह जाती, बल्कि अपनी हो जाती है।’ इसलिए बहस अपनाव को लेकर नहीं, उसकी चेतना और प्रक्रिया को लेकर हो सकती है। आधुनिक काल में पाश्चात्य संस्कृति से संवाद स्थापित होने पर हिन्दी के रचनाकारों ने इन विधाओं को अपनाया और अपने जातीय संदर्भ से जोड़कर उन्हें विकसित किया। महात्मा गांधी कहते थे कि अपने चिन्तन के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए, ताकि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की हवाएँ उसमें बे-रोक-टोक आएँ-जाएँ; मगर यह ध्यान रहे कि उसी समय अपनी सांस्कृतिक परम्परा में हमारी जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हो।

यह कहना पर्याप्त नहीं है कि आत्मकथा की विधा परिचम से भारत में आयी। भारत में वह कब और किस सामाजिक-राजनैतिक जागरण की बदौलत आयी; हमारी अपनी सांस्कृतिक परम्परा में उसका विधान किन कारणों से नहीं रहा और अगर उसके आधुनिक रूप से भिन्न कुछ आत्मकथा-सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ रही भी, तो वे कैसी हैं तथा कितनी महत्वपूर्ण हैं? आत्मकथा का सम्यक् आधुनिक रूप कब अपनाया गया तथा इस विधा की महत्वपूर्ण कृतियों के जरिए उसका अब तक कितना विकास हुआ है? वर्तमान स्थिति क्या है और उसमें आत्मकथा की क्या भूमिका होनी चाहिए? किस लिहाज से वह एक बेहद प्रासंगिक और मूल्यवान् विधा है? इन सभी सवालों पर बात करके ही आत्मकथा की विकास सम्बन्धी यात्रा की बहस को कोई सम्पूर्णता प्रदान की जा सकती है।

प्राचीनकाल से हमारी साहित्यिक परम्परा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के सांस्कृतिक कारण है। हमारे दर्शन में वास्तविक महत्ता आत्मा की रही है। जहाँ मनुष्य के अस्तित्व को ही नश्वर माना जाता हो वहां स्वतंत्रता को महत्त्व नहीं मिलना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। चूँकि आत्मा ही वास्तविक है और सारे मनुष्यों में समान है, इसलिए दार्शनिकों का तर्क है कि सभी मनुष्य अन्ततः एक है। वैयक्तिक्ता, आत्मवत्ता या फिर विश्ष्टिता का बोध-इनको एक-दूसरे के पर्याय के रूप में ‘माया’ की माना जाता है।

चूँकि आत्मकथा एक स्वतंत्र ‘आत्म’ की कथा है, इसलिए उसे अपने जन्म और विकास के लिए ऐसी संस्कृति की जरूरत होती है, जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व और पोषण प्राप्त हो।

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा की परम्परा नहीं रही लेकिन ऐसा नहीं है कि कथाकारों ने आत्म वचन को नहीं अपनाया हो। एक सूक्ष्म जाँच-पड़ताल के बाद आत्मकथा-सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति के कुछ टुकड़े जरूर मिलते हैं, हालांकि उनसे कोई संतुष्टि नहीं मिल पाती है। हर्षचरित का वह आरम्भिक हिस्सा है, जिसमें रचायिता बाणभट्ट ने अपमान, वंचना और हताशा में भरे अपने बचपन, विद्यार्थी जीवन और शुरूआती युवावस्था की चर्चा की है। इसी तरह कुछ और नाम भी आते हैं जिनमें बिलहण (विक्रमांकदेव चरित), दण्डी (दशकुमारचरित) आदि प्रमुख हैं।

प्राप्त सामग्री के आधार पर काल क्रमानुसार इतिहास की दीर्घा में आत्मकथाओं के तीन निश्चित चरण दिखते हैं- प्रथम चरण (1600-1875):

प्रथम चरणः- 

के सुदीर्घ कालखण्ड में तीन महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ मिलती हैं। हिन्दी में सत्रहवीं शताब्दी में रचित बनारसीदास की अर्द्धकथा अपनी बेबाकी में चैंकाने वाली आत्मकथा है। बनारसीदास की अर्द्धकथा के बाद एक लम्बा कालखण्ड अभिव्यक्ति की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लम्बे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने ‘आत्मचरित’ से तोड़ा है। सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है। सीताराम सूबेदार द्वारा रचित ‘सिपाही से सूबेदार तक’ जैसी आत्मकथा अपने अंग्रेजी अनुवादों के अनेक संस्करणों में उपलब्ध है। सरकार को पितावत मानता आत्म-कथाकार अपनी अड़तालीस वर्षों की ब्रितानी फौज की सेवा में पाये जंग के घाव, चोट के निशानों और छह मेडलों के प्रति गर्वोत्तम है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है इस आत्मकथा का अपने मौलिक रूप हिन्दी में नहीं उपलब्ध होना।

द्वितीय चरणः- 

(1876-1946): भारतेन्दु के छोटे आत्मकथात्मक लेख ‘एक कहानीः कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ से प्रारम्भ होती यात्रा अपने द्वितीय चरण में आत्मकथाओं की दृष्टि से अनेक छोटे-बड़े प्रयोग करती है। इस छोटे-से लेख में भारतेन्दु ने अपने निज एवं अपने परिवेश को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि के साथ उकेरा है।

इस चरण में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई जिनमें राधाचरण गोस्वामी की ‘राधाचरण गोस्वामी का जीवन चरित्र’; इस छोटी सी कृति में वैयक्तिक संदर्भों से ज्यादा तत्कालीन साहित्य और समाज की चर्चा का निर्वाह किया गया है भाई परमानन्द की आप बीती (मेरी राम कहानी) का प्रकाशन वर्ष 1922 ई. है।

स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। गिरफ्तारी का पहला दिन, हवालात की अंधेरी कोठड़ी के अन्दर, न्याय की निराशा जैसे शीर्षकों में आपबीती विभक्त है जो कहीं न कहीं ‘डायरी’ के समीप लगती है।

1924 में प्रकाशित स्वामी श्रद्धानन्द संन्यासी की ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ हिन्दी की वह प्रारम्भिक आत्मकथा है जो आत्मकथात्मक शिल्प की सम्पूर्ण गोलाई और अनिवार्य चेतना के साथ है।

रामप्रसाद बिस्मिल की जेल में फांसी के दो दिन पूर्व लिखी हुई ‘आत्मकथा’ एवं लाला लाजपत राय की आत्मकथा का प्रथम भाग कुछ ऐसी महत्वपूर्ण लघु आत्मकथाएँ जिन्हें अभी तक वो सम्मान नहीं मिला जिसकी हकदार थी।

सन् 1932 में मुंशी प्रेमचंद ने ‘हंस’ का एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके, अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी। तब के एक नए समीक्षक नन्ददुलारे वाजपेयी ने इस अंक में लिखना तो स्वीकार नहीं ही किया, उलटे इस योजना का जबरदस्त सैद्धान्तिक विरोध किया। मसलन वाजपेयी जी आत्मकथा न लिखने को आत्म-त्याग के महान दर्शन से ‘जोड़’ रहे थे और जो परम्परा में नहीं है।

वह वर्तमान में क्यों ही, कुछ इस तरह के मुग्ध आवेश के वे वशीभूत थे। पर जो परम्परा में नहीं है उन्हें आधुनिक विवेक के साथ अपनाया और समृद्ध भी तो किया जा सकता है। इस प्रसंग में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को याद करना जरूरी है- ‘‘फिर यूरोपीय प्रभाव होने मात्र से कोई चीज अस्पृश्य नहीं हो जाती। प्रेमचंद की कहानियाँ, बैतालपचीसी के ढंग की न होकर आधुनिक यूरोपीय कहानियों के ढंग की हुई हैं, इतना कह देने से प्रेमचन्द का महत्त्व कम नहीं हो जाता।... प्रभाव तो मनुष्य पर तब तक पड़ेगा, जब तक उसमें जीवन है। जहाँ जीवन का वेग अधिक है, प्राण धारा बहाव तेज है, उसी स्थान से उसका ऐश्वर्य छितराएगा ही। आलोक सीमा में बंधना नहीं चाहता उसका धर्म ही प्रकाशित होना और प्रकाशित करना है।’’ 

1941 में प्रकाशित आत्मकथा ‘मेरी आत्म कहानी’ के आत्मकथाकार प्रसिद्ध साहित्यकार श्यामसुन्दर दास हैं। सम्पूर्ण कृति में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। एक उच्चकोटि के भाषाविद् की आत्मकथा होने के बावजूद भी आत्मकथा में भाषा-शैली का या अभिव्यक्ति का माधुर्य नहीं है। पत्रों के उद्धरण, अंग्रेजी दस्तावेज, आँकड़ों का विस्तृत वर्णन लेखक के ऐतिहासिक महत्त्व को प्रमाणित तो करते हैं लेकिन आत्मकथा की सहज निर्बन्ध व्यक्तिक गति को खंडित करते हैं।

1946 में ‘मेरी जीवन यात्रा’ (भाग 1) का प्रकाशन हिन्दी की एक विशिष्ट घटना है। आत्मकथाकार राहुल सांस्कृत्यायन ‘प्राक्कथन’ में ही जीवन यात्राओं के महत्त्व को निरूपित करते हैं।

आत्मकथा की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है- ‘‘मालूम हुआ, अकाल में अपनी थालियों को किसी चमार ने कुछ सेर अनाज के लिए गिरवी रखा था।’’   ऐसी पंक्तियां अकाल की भीषणता के साथ-साथ छुआछूत की कुरीति पर प्रकाश डालती हैं। यह आत्मकथा तीन भागों में प्रकाशित है।

तृतीय चरण (1947- अब तक ):- 

औपनिवेशिक काल के दौरान विपरीत परिस्थितियों में जन्मी देश की जाग्रत व्यक्तिनिष्ठ एवं सामूहिक चेतना अभिव्यक्ति के इस विशिष्ट क्षेत्र की ओर भी गतिमयता के साथ प्रवाहित हुई। तत्कालीन राष्ट्रीयता का प्रभाव आत्मकथाओं के विस्तार में प्रतिच्छायित है।

1947 में प्रकाशित बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में जीवन की दीर्घकालीन घटनाओं का अंकन एवं स्वचित्रण बिना किसी लाल-बाग के तटस्थता के साथ आत्मकथा में सम्पादित है। लेखक के बचपन के तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों का, संकुचित प्रथाओं से होने वाली हानियों का, तत्कालीन गँवई जीवन का, धार्मिक व्रतों, उत्सवों और त्यौहारों का, शिक्षा की स्थितियों का सही हूबहू चित्र राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में अंकित है। तत्कालीन हिन्दू-मुसलमानों के बीच की असाम्प्रदायिक सहज सामान्य सामाजिक समन्वय की भावना का चित्र भी आत्मकथा अनायास ही उरेहती है। सरदार बल्लभभाई पटेल ‘आत्मकथा’ को मात्र कृति ही नहीं इतिहास मानते हैं- ‘‘प्रायः पिछले 25 वर्षों से हमारा देश किस स्थिति को पहुँच गया है इसका सजीव और एक पवित्र देशभक्त के हृदय में रंगा हुआ इतिहास पाठकों को इस आत्मकथा में मिलेगा।’’ 

20वीं शती के चौथे दशक में ही महात्मा गांधी ने ‘आत्म-दर्शन’ की अपनी जीवनव्यापी कोशिशों को आत्मकथा का रूप दिया, जिसे उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ की संज्ञा दी। मूल रूप से यह आत्मकथा गुजराती में थी जो अनुवादित होकर बाद में हिन्दी में भी प्रकाशित होती है। आत्मकथा की प्रस्तावना में अपने उद्देश्यों की घोषणा करते हुए उन्होंने लिखा है- ‘‘मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।’’  गांधी इस बात से सहमत थे कि आत्मकथा लिखने का पश्चिमी ढंग अनिवार्यतः आत्म-केन्द्रित और अहम्मन्यतापूर्ण है। परन्तु गांधी ने अपने व्यक्ति या ‘मैं’ के बजाय ‘आत्मा’ को आत्मकथा के केन्द्र में लाकर इन पाश्चात्य विकृतियों का प्रतिकार किया। सही मायने में गाँधीजी ने आत्मकथा का भारतीयकरण किया है।

1951 में प्रकाशित स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की ‘स्वतंत्रता की खोज में, अर्थात् मेरी आत्मकथा’ हिन्दी की अत्यन्त महत्वपूर्ण आत्मकथा है। स्वतंत्रता की खोज में भटकते पथिक की यह कथा मानवता से जुड़ी आत्मा की छटपटाहट एवं तत्कालीन भारतीय राजनीतिक स्थितियों से सम्बद्ध है।

यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ का प्रकाशन लखनऊ से तीन खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में लेखक के बाल्य, शिक्षा तथा क्रान्तिकारी दल के कार्यों का उल्लेख होने से वैयक्तिक जीवन पर प्रचुर प्रकाश पड़ा है। कृति में आन्दोलन की घटनाओं की रहस्यात्मकता और रोमांचता के साथ-साथ अपनी विशिष्ट क्रान्तिकारी विचारधारा के महत्त्व को लेखक ने निरूपित किया है, व्यक्ति, परिवार और राजनीतिक दासता की स्थितियाँ और उनमें पनपती और विकसित होती क्रान्तिकारी चेतना को एकसाथ अंकित करती यह आत्मकथा (सशस्त्र क्रान्ति की कहानी) की शैली विवेचनात्मक है। जो कहीं न कहीं उनके उपन्यासों की भाँति रोचक और मर्मस्पर्शी है।

सन् 1956 ई. में जानकी देवी बजाज की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ प्रकाशित हुई। लेखिका के अशिक्षित होने के कारण ऋषभदेव रांका ने इसे लिपिबद्ध किया। यह कौतूहल का विषय है कि इस कृति के कारण हिन्दी की प्रथम महिला आत्मकथाकार होने का गौरव एक अशिक्षित महिला को मिला। पिता की पुण्य स्मृति के साथ आत्मकथा का प्रारम्भ होता है। यह कृति तत्कालीन हिन्दू और मुसलमानों के आपसी सद्भाव को अंकित करती युगीन प्रवृत्तियों को चित्रित करती है। राजस्थानी शब्दों का अत्यन्त सहजता के साथ हिन्दी में घुलामिला स्वरूप आत्मकथा को असाधारण बनाता है।

हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार और हिन्दी सेवी सेठ गोविनन्ददास की आत्मकथा के तीन भाग ‘प्रयत्न, प्रत्याशा और नियतारित’ उपशीर्षकों सहित ‘आत्म-निरीक्षण’ शीर्षक से 1957 ई. में प्रकाशित हुए। तथ्यात्मकता, विश्लेषणात्मकता, निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता आदि गुणों के कारण यह आत्मकथा और महत्वपूर्ण हो जाती है। लेखक ने अपने किये प्रेम और पिता की वेश्यानुसक्ति तक को छुपाया नहीं है। लेखक का सजग व्यक्तित्व उसकी आत्मकथा में सर्वत्र मुखर है। गांधी तथा नेहरू तक की आलोचना करने में उसने झिझक नहीं दिखाई। साहित्यकार सेठ गोविन्ददास की आत्मकथा की भाषा शैली की सृजनात्मकता इस विशिष्ट विधा को एक और आयाम देती है।

छठे दशक के प्रारम्भ में ही पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाशित हुई। दुषित एवं गर्हित परिवेश, पितृ-प्रेम का अभाव तथा उन्मत्त एवं क्रोधी भाई साहब का नियन्त्रण, ‘उग्र’ की नियति थी। ‘अपनी खबर’ में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने मुक्तिबोध के से आत्मीय और आकुल आवेग के साथ अपनी ‘अजीब जिंदगी में आए कुछ प्रमुख व्यक्तियों के चरित्र की गहरी छानबीन की है।

उग्र के सम्बंध में पंकज चतुर्वेदी का यह कथन सशक्त मालूम होता है, ‘‘जिस समाज के साहित्य में जीवन के गर्हित सच से मुँह चुराने की नैतिक दुर्बलता के कारण न तो आत्मकथाओं की समृद्ध परम्परा बन पायी हो और न सशक्त वर्तमान; उसी हिन्दी समाज में रहते हुए उग्र ने उस दुनिया के वीभत्स अंधेरों को उजागर किया, जिसके वे मूक दर्शक नहीं रह पाए बल्कि विवश हिस्सेदार हुए।’’ 

लोकप्रियता के क्रम में महात्मा गांधी और पण्डित नेहरू के बाद हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा आती है जिसने गद्य की इस विधा के लेखन में नवीन कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आत्मकथा का प्रथम खण्ड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ 1969 ई. में प्रकाशित हुआ। द्वितीय खण्ड 1970 ई. में ‘नीड़ का निर्माण फिर’ नाम से प्रकाशित। प्रथम खण्ड में जहाँ बच्चन ने अपने भाव-जगत् और यौवनारम्भ के प्रथम अभिसारों का चित्रण किया है, वहाँ अपने कुल, परिवेश तथा पूर्व पुरूषों का भी अत्यन्त रोचक तथा सरस शैली में वर्णन किया है। द्वितीय खण्ड अपेक्षाकृत अधिक अन्तर्मुखी और आत्म विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से युक्त है। तृतीय खण्ड ‘बसेरे से दूर’ में प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापक बनने और सहाध्यापक लोगों से द्वेष का चित्रण है। कृति की दृष्टि से रामधारीसिंह दिनकर ने इसे ‘अनमोल एवं अत्यन्त महत्त्व की रचना’ घोषित किया है।’

1970 में प्रकाशित ‘निराला की आत्मकथा’ सूर्यप्रसाद दीक्षित द्वारा संकलित संयोजित एवं सम्पादित है। इस आत्मकथा में निराला के बाल्यकाल की स्मृतियाँ, विवाह, दाम्पत्यभाव, राजा की नौकरी, हिन्दी पढ़ना एवं वंश क्षति आदि से सम्बन्धित घटनाओं के साथ रचना-प्रक्रिया तथा साहित्यिक जीवन का भी विस्तृत विवेचन है।

मोरारजी देसाई की ‘मेरा जीवन वृत्तांत’ और बलराज साहनी की मेरी पहली आत्मकथा, यादों के झरोखे आत्मकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

वर्तमान आत्मकथा के क्षेत्र में मराठी साहित्यकारों से प्रभावित होकर दलित रचनाकारों द्वारा अपनी स्वानुभूति व्यक्त करना क्रान्ति ही कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सदियों से हमारी पुरूषवादी और सवर्ण-वर्चस्ववादी संस्कृति की सबसे ज्यादा प्रताड़ना स्त्रियाँ और दलित जन सहते आ रहे हैं। आज यही लोग आत्मकथा के जरिए अपने दारूण अनुभवों का विषण्ण संसार उद्घाटित करेंगे, तो हमारा भाव-लोक भी बदलेगा और वस्तु- जगत भी। मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन, मैत्रेयी पुष्पा की ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’, तुलसीराम की मुर्दहिया और मणिकर्णिका, श्यौराज सिंह ‘बैचेन’ की  ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर’ आत्मकथाएँ इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल है जो कहीं न कहीं इसके उज्जवल भविष्य की ओर इशारा करती है।

उपसंहार

अगर सृष्टि (प्रकृति) की अनुपम कृति मनुष्य है तो निसंदेह मनुष्य की श्रेष्ठ कृति आत्मकथा है जिसके माध्यम से वह अपने परिदृश्य अनुभवों, प्रत्यक्षीकृत अनुभूतियों, मृदुल संवेदनाओं, लोकागीत उद्भावनाओं तक का सरलतापूर्वक उद्घाटन करता है। अन्य विधाओं में भी लेखक और पाठक आमने सामने होते हैं परन्तु आत्मकथा सी सहजता और सरलता कहाँ प्राप्य है, जो बिना किसी मुखौटे के यथार्थ दर्शन का विश्वास जगाती है।

आत्मकथा को लिखने का निर्णय लेना स्वयं में जीवन की एक निर्णायक और महत्वपूर्ण घटना है क्योंकि निश्चित आत्मकथा ‘स्व-परीक्षण’ का निर्मम कार्य है। एक ओर आत्मकथा निजी स्मृतियों को अंकित करने की आकांक्षा है तो दूसरी ओर उलझनों एवं विसंगतियों से भरे संसार में निजी ‘स्व’ को प्रक्षेपित करने का प्रयास भी।

अन्य विधाओं की तुलना में, हिन्दी में आत्मकथाएँ बहुत कम लिखी गई है निसंदेह इसके पीछे अपने बारे में कुछ न कहने लिखने की विवशता रही है साथ ही अति सामान्यता के अहसास ने भी बाधित किया है। अज्ञेय सा आधुनिक चिन्तक एवं सर्जक भी आत्मकथाकार के लिए ‘अतिरिक्त अहंकार’ घोषित करता है।

निश्चित रूप से पराधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार की बदौलत कुछ नए जीवन-मूल्य अस्तित्व में आए, एक नई वैज्ञानिक चेतना के प्रति आत्मीयता बढ़ी, कुछ अनिवार्य सांस्कृतिक परिस्थितियाँ निर्मित्त हुई जिसने आत्मकथा लेखन में सहायक भूमिका निभाई। औपनिवेशिक काल की चोट से भारतीयों के समक्ष अस्मिता का खतरा प्रकट हुआ। ‘आत्म’ को विश्लेषित करने की, उसे ठीक से समझने और उसकी दिशाएं तय करने की जरूरत आन पड़ी जिसे बखूबी हमारे आत्मकथाकारों ने निभाने की सफल कोशिश की। स्वतंत्रता-संग्राम की पृष्ठभूमि में पनपती आत्मकथाओं ने वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति को रख कर परिवेश के कोलाहल तथा अन्तर्मन के एकालाप को एक साथ बांधने का प्रयास किया। निरन्तर कई पीढ़ियाँ व्यापक मूल्यों से जुड़ती हुई उन सारी राष्ट्रीय स्थितियों को अपने-अपने लक्ष्य के साथ वैयक्तिक जीवन-संदर्भ में आत्मकथा की विधा को एक निश्चित रूपाकार देने में समर्थ हुई।

  कैसी भी परिस्थितियाँ में आत्मकथाकार अपने जीवन को वर्तमान की आँखों से देखता है। इस तरह से अतीत को देखने, परखने और निर्मित करने की कोशिश एक ऐसी स्थिति है जो अनेक विधागत, शिल्पगत सीमाओं से बंधी हुई है। अतीत की प्रस्तुति को निरन्तर वर्तमान से नियंत्रित करती हिन्दी आत्मकथाओं ने अहर्निश दुहरे जोखिम के मध्य अपनी इयत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया है। एक ओर उसके शिल्प पर वर्तमान का असंतुलित झुकाव मिला है। लेखक के वर्तमान विवेक से वह बोझिल हो जाती है और दूसरी ओर आकर्षक अतीत-स्मृति के सम्मोहन में वर्तमान उपेक्षित भी हुआ है। अतीत से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की ओर जाने वाली रेखाओं को निरन्तर विशिष्ट प्रौढ़ मानसिकता से संतुलित करते आत्मकथाकारों के प्रयास स्पष्ट है कि जीवन की अपनी सहज गंध और छोटी-छोटी अनुभूतियाँ कहीं खो न जाएँ।

इस तरह निःसंदेह अर्द्धकथानक से वर्तमान तक आत्मकथा की विकास यात्रा जटिल रही है परन्तु उतरोत्तर इस विधा में परिपक्वता का संचार हुआ है। गाँधीजी के शब्दों में ‘‘यद्यपि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुए अपनी भयंक भूलें भी मुझे नगण्य सी लगी है, क्योंकि वैसी भूले करने पर भी मैं बच गया हूँ और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूँ। दूर-दूर से विशुद्ध सत्य की ईश्वर की झाँकी भी मैं कर रहा हूँ। मेरा यह विश्वास दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है कि एक सत्य ही है, उसके अलावा दूसरा कुछ भी इस जगत में नहीं है।’’

सन्दर्भ ग्रन्थ

1.         सत्य के प्रयोग आत्मकथा (अनुवादक काशीनाथ त्रिवेदी), मोहनदास कमरचंद गांधी, वाणी प्रकाशन

2.         जानकी देवी बजाज, समर्पण और साधाना, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली

3.         पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, अपनी खबर, राजकमल प्रकाशन

4.         हरिवंशराय बच्चन, राजपाल एण्ड सन्स दिल्ली

5.         बनारसीदास चतुर्वेदी साहित्य और जीवन सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली

6.         आ. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस

7.         हिन्दी गद्यशैली का विकास, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, नागरी प्रचारणी सभा, काशी

8.         हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, राजस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन

9.         हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डॉ.. नगेन्द्र एवं लाला हरदयाल

10.       A History of Autobiography in Antiquity, Misch, Georg

11.       पंकज चतुर्वेदी, आत्मकथा की संस्कृति, वाणी प्रकाशन

12.       विनीता अग्रवाल, हिन्दी आत्मकथाएँ सिद्धांत एवं स्वरूप विश्लेषण

13.       शिवदान सिंह चैहान, साहित्यानुशीलन, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली

14.       डॉ.. शान्ति खन्ना, आधुनिक हिन्दी का जीवनी परक साहित्य, सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली

15.       आस्था के चरण, डॉ.. नगेन्द्र, राजकमल प्रकशन, दिल्ली

16.       राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, सस्ता साहित्य, दिल्ली


हिंदी आत्मकथात्मक की सूची

लेखक

आत्मकथा

बनारसीदास जैन

अर्द्ध कथानक (ब्रजभाषा पद्य में, 1641)

दयानन्‍द सरस्वती

जीवनचरित्र (1860)

भारतेन्दु हरिश्चंद्र

कुछ आप बीती कुछ जग बीती

भाई परमानन्द

आपबीती (मेरी राम कहानी, 1921)

महात्मा गांधी

सत्य के प्रयोग (1923)

रामविलास शुक्ल

मैं क्रान्तिकारी कैसे बना (1933)

सुभाष चन्‍द्र बोस

तरुण के स्‍वप्‍न (1935)

भवानी दयाल संन्यासी

प्रवासी की कहानी (1939)

श्यामसुन्दरदास

मेरी आत्मकहानी (1941)

हरिभाऊ उपाध्याय

साधना के पथ पर (1946)

गुलाब राय

मेरी असफलताएं

मूलचन्द अग्रवाल

एक पत्रकार की आत्मकथा (1944)

राहुल सांकृत्‍यायन

मेरी जीवनयात्रा (5 खंड, 1946, 47, 67)

राजेन्द्र प्रसाद

आत्मकथा (1947)

भवानी दयाल संन्यासी

प्रवासी की आत्मकथा (1947)

वियोगी हरि

मेरा जीवन प्रवाह (1951)

सत्‍यदेव परिव्राजक

स्‍वतन्‍त्रता की खोज में ()

यशपाल

सिंहावलोकन ( 3 खंड, 1951, 52, 55)

अजितप्रसाद जैन

अज्ञात जीवन (1951)

शान्तिप्रिय द्विवेदी

परिव्राजक की आत्‍मकथा (1952)

देवेन्‍द्र सत्‍यार्थी

चांद सूरज के बीरन

नील यक्षिणी

चतुरसेन शास्त्री

यादों की परछाइयां (1956)

मेरी आत्मकहानी (1963)

सेठ गोविन्ददास

आत्मनिरीक्षण (1957)

नरदेव शास्त्री

आपबीती जगबीती (1957)

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

मेरी अपनी कथा (1958)

देवराज उपाध्याय

बचपन के वो दिन

यौवन के द्वार पर

पाण्‍डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’

अपनी खबर (1960)

सुमित्रानन्‍दन पन्‍त

साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)

चतुरसेन शास्त्री

मेरी आत्मकहानी

सन्तराम बी॰ ए॰

मेरे जीवन के अनुभव

आबिदअली

मजदूर से मिनिस्टर (1968)

हरिवंश राय बच्‍चन

क्‍या भूलूँ क्‍या याद करूं (1969)

नीड़ का निर्माण फिर (1970)

बसेरे से दूर (1978)

दशद्वार से सोपान तक (1985)

वृन्दावनलाल वर्मा

अपनी कहानी (1970)

देवराज उपाध्याय

यौवन के द्वार पर (1970)

चतुभुर्ज शर्मा

विद्रोही की आत्मकथा (1970)

मोरार जी देसाई

मेरा जीवन-वृत्तान्त ( 2 भाग, 1972, 74)

बलराज साहनी

मेरी फ़िल्मी आत्मकथा

कृष्णचन्द्र

आधे सफ़र की पूरी कहानी (1979)

रामविलास शर्मा

घर की बात (1983)

मुडेर पर सूरज

देर सबेर

आपस की बात

अपनी धरती अपने लोग (1996)

विश्वनाथ लाहिरी

एक पुलिस अधिकारी की आत्मकथा (1984)

रामदरश मिश्र

जहां मैं खड़ा हूँ (1984)

रौशनी की पगडंडिया

टूटते-बनते दिन

उत्तर पक्ष

फुरसत के दिन (2000)

सहचर है समय (1991)

शिवपूजन सहाय

मेरा जीवन (1985)

अमृतलाल नागर

टुकड़े-टुकड़े दास्तान (1986)

हंसराज रहबर

मेरा सात जन्म ( 3 खंड )

यशपाल जैन

मेरी जीवनधारा (1987)

डॉ॰ नगेन्द्र

अर्धकथा (1988)

रेणु

आत्मपरिचय (1988)

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

तपती पगडंडियों पर पदयात्रा (1989)

गोपाल प्रसाद व्‍यास

कहो व्‍यास कैसी कटी (1994)

मनोहरश्याम जोशी

लखनऊ मेरा लखनऊ

कमलेश्वर

जो मैंने जिया (1992)

यादों के चिराग़ (1997)

जलती हुई नदी (1999)

रवीन्द्र कालिया

ग़ालिब छुटी शराब (2000)

राजेन्द्र यादव

मुड़-मुड़ कर देखता हूं (2001)

भगवतीचरण वर्मा

कहि न जाए का कहिए

अखिलेश

वह जो यथार्थ था (2001)

भीष्म साहनी

आज के अतीत (2003)

अशोक वाजपेयी

पावभर जीरे में ब्रह्मभोज (2003)

स्वदेश दीपक

मैंने मांडू नहीं देखा

विष्णु प्रभाकर

पंखहीन (2004)

मुक्त गगन में

पंछी उड़ गया

रवीन्द त्यागी

वसन्त से पतझड़ तक

राजकमल चौधरी

भैरवी तंत्र

कन्हैयालाल नन्दन

गुज़रा कहां-कहां से (2007)

कहना ज़रूरी था (2009)

मैं था और मेरा आकाश (2011)

रामकमल राय

एक अन्तहीन की तलाश

दीनानाथ मलहोत्रा

भूली नहीं जो यादें

देवेश ठाकुर

यों ही जिया

कृष्ण बिहारी

सागर के इस पार से उस पार तक (2008)

हृदयेश

जोखिम

एकान्त श्रीवास्तव

मेरे दिन मेरे वर्ष

मिथिलेश्वर

पानी बीच मीन प्यासी

और कहां तक कहें युगों की बात (2012)

नरेन्द्र मोहन

कमबख़्त निन्दर (2013)

पुरुषोतम दास टंडन

राख की लपटें

हरिशंकर परसाई

हम इक उम्र से वाकिफ हैं





















































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1 टिप्पणी:

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