विश्वहिंदीजन चैनल को सबस्क्राइब करें और यूजीसी केयर जर्नल, शोध, साहित्य इत्यादि जानकारी पाएँ

हिंदी कहानी का बदलता परिदृश्य और लम्बी कहानी


                      हिंदी कहानी का बदलता परिदृश्य और लम्बी कहानी

                                                                                        विवेक कुमार चौरसिया

                     लंबी कहानी: अर्थ एवं परिभाषा 

लम्बी कहानी कहानी का ही रूप है। जिसकी पहचान का मुख्य आधार उसके बढ़ते हुए पृष्ठों की संख्या है। पहले कहानी जहाँ पर 6 या 7 पृष्ठों में समाप्त हो जाती थी, आज वैसा नहीं है। आज लम्बी कहानी अपने विस्तार के कारण उपन्यास के समीप पहुँच गयी है। परन्तु कहानी विधा होने के कारण इसे उपन्यास नहीं कहा जा सकता है। यह कहानी की ही सजातीय विधा है, जिसे अधिक विस्तार के कारण लम्बी कहानी नाम दिया गया है। कहानी विधा होने के बावजूद यह अपनी विशिष्ट रचनाशिल्प के कारण अलग परंपरा विकसित करती है। लम्बी कहानी लेखन का काम समाज में बढ़ती हुई समस्याओं तथा जनता की चित्तवृत्तियों में हो रहे परिवर्तन का सूक्ष्म तरीके से विश्लेषण करना है। आधुनिक समाज में प्रत्येक व्यक्ति की यह प्रवृत्ति है कि वह समाज में सबसे अलग और श्रेष्ठ दिखे। इसी प्रवृत्ति को पूरा करने के लिए उसे विभिन्न परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है जैसे- तकनीकी प्रयोग से जीवन को सरल बनाना, अधिक उपभोग करने की प्रवृत्ति, वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति और समाज की बदलती स्थितियाँ आदि। ये सब जटिलतायें  ही व्यक्ति के जीवन को चारों तरफ से घेरे रहती हैं। इन सारी जटिलताओं को व्यक्त करना ही लम्बी कहानी का काम है। यह नई दृष्टि ही लम्बी कहानी को कहानी कहने की पूर्व परंपरा से अलग करती है। साधारण शब्दों मे कहा जाये तो यह अलगाव घटना और परिवेश में, अंतर्द्वन्द्व में, मनोभाव एवं विचारों मे सामान्य रूप से दिखाई देता है। लम्बी कहानियों के विषय में निर्मल वर्मा का कथन है कि “लम्बी कहानियों के लिए मेरे भीतर कुछ वैसा त्रास भरा स्नेह रहा है, जैसे शायद उन माँओं का अपने बच्चे के लिए, जो बिना चाहे लम्बे होते जाते हैं- जबकि उम्र में छोटे ही रहतें हैं। ऐसी कहानियों को क्या कहा जाए जो कहानी की लगी-बॅधी सीमा का उल्लंघन कर लेती हैं, किन्तु उपन्यास के बड़प्पन में जाने का साहस नहीं कर पाती हैं।”[1] लम्बी कहानी कहानी के अंतर्गत पात्र के जीवन में क्या घटनाएँ घट रही हैं उसको ही नहीं व्यक्त करता है साथ ही वह पात्र के मनः स्थित में उत्पन्न होने वाले विचारों को भी व्यक्त करता है। समाज में आधुनिकता आ जाने के कारण व्यक्ति को कई स्तरों से गुजरना पड़ता है। जैसे उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास का पात्र मोहनदास को नौकरी पाने के लिए कंपनी के छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों तक मिलना पड़ता है और तब भी वह नौकरी नहीं पाता है। जब वह कंपनी के सभी अधिकारियों से मिलता है प्रत्येक के साथ उसे अलग-अलग घटनाओं का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति के जीवन में इन्हीं बढ़ती समस्याओं से कथाकारों की लेखन शैली में भी विस्तार हुआ है। जीवन की इसी गहनता को व्यक्त करना ही लम्बी कहानी का काम है। इन सब को व्यक्त करते हुए लम्बी कहानी, कहानी विधा की सभी शर्तों को मानकर चलती है।

hindi ki pramukh kahani


लम्बी कहानी, कहानी विधा होते हुए भी अपने स्वरूप और विस्तार के कारण कहानी विधा के अन्य रूप जैसे कहानी (छोटी कहानी), लघुकथा से कहीं भिन्न हो जाती है। लम्बी कहानी किसी घटना को बहुत ही सूक्ष्म और विस्तार पूर्वक वर्णन करती है। यह कहानी विस्तार के समय जल्दबाजी नहीं करती और घटना के प्रत्येक पहलू को दिखाना चाहती है। यह कहानी (छोटी कहानी) के समान जल्दबाज़ी नहीं करती है। यह कहानी घटना के संघर्ष को विभिन्न कोणों से देखती है। विभिन्न कोणों से देखने के कारण ही कहानी में विस्तार होता है। परन्तु कहानी का विस्तार होने के कारण मुख्य पात्र के अतरिक्त सहायक पात्रों की संख्या अधिक बढ़ जाती है। जहाँ कथाकार को मुख्य पात्र के चरित्र और परिवेश का वर्णन करता है साथ ही सहायक पात्रों के परिवेश का भी वर्णन करना पड़ जाता है। जैसे मोहनदास कहानी में मोहनदास मुख्य पात्र है लेकिन उसके साथ उसके घर के सभी सदस्यों और घटना से सम्बंधित अन्य लोगों का भी वर्णन किया गया है। जो कहानी के विस्तार के साथ-साथ मुख्य संघर्ष को गहराई तक जाने में आयाम प्रदान करते हैं।

लम्बी कहानी में एक ही मनोभाव की प्रधानता होती है परंतु यह उस मनोभाव का प्रभाव अपने व्यापक फ़लक पर डालती है और जीवन की जो-जो भूमि जहाँ-जहाँ तक उसके प्रभाव में आ जाती है, सबको स्वीकार कर लेती है। लम्बी कहानी किसी घटना के ऊपरी परिदृश्य को दिखाने का प्रयास नहीं करती, वह उस घटना के जड़ तक जाती है और उसको व्यापक विस्तार में ग्रहण करती हुई दिखाई देती है। लम्बी कहानी में घटना के संदर्भ में एकता या ईकाई का पालन नहीं होता, पात्रों के संदर्भ में भी वह एकता की शर्त से नहीं बंधी रहती, उसमें जिस तरह घटनाएँ बढ़ती जाती हैं पात्रों का भी विस्तार हो जाता है। इसी से उसका आकार बढ़ जाता है। साथ ही वह अपने कहानीपन को भी निरंतर बनाए रखती है।

लंबी कहानी की विशेषता 

लम्बी कहानी की मूल विशेषता है कि किसी घटना का विस्तार से विश्लेषण करते हुए चलती है तथा अंत में कहानी की संपूर्ण स्थिति को संश्लेषित करके देखती है। जिसमें कहानी घटना अपने पूरे प्रभाव की गहनता लिए हुये होती है। लम्बी कहानी अपने विस्तार के कारण जहाँ पर कहानी (छोटी कहानी) को नकारते हुए चलती है वहीं पर वह कहानी के मूल भाव की भी रक्षा करती है। वह कहानी शिल्प का पूरी तरह से पालन करती है। कहानी का प्रभाव जहाँ पर शीघ्र दिखाई पड़ जाता है वहीं पर लम्बी कहानी में अधिक समय लगता है। क्योंकि कथाकार लम्बी कहानी में बहुत गहराई में जाने के कारण समय की आवश्यकता पड़ती है। जिसका लम्बी कहानी में पर्याप्त अवसर रहता है। लम्बी कहानी, लम्बी होने के कारण उसकी कहानी विधा में कोई परिवर्तन नहीं होता है क्योंकि वह अपने कहानीपन को बचाए रखती है।

समकालीन कहानियों के विषय में सुरेन्द्र चौधरी का कहना है कि “सामायिक कहानी लेखक व्यक्ति-व्यापारों को केवल घटना के साथ जोड़कर कथावस्तु का निर्माण नहीं करता, वह ऐसा संतुलन बनाने की चेष्टा करता है जिसमें व्यापार कहानी की परिधि की ओर सहज गति से बढ़ते हुए जीवन-प्रवाह का संकेत दे सके।”[2] इस सन्दर्भ में लम्बी कहानी के विषय में कहा जाय तो लम्बी कहानियां घटना का संतुलित ढंग से विस्तार तथा कहानी की परिधि को भी ध्यान में रखते हुए कहानी को नया रूप प्रदान करती हैं। यही नया रूप ही कहानी में घटित समस्याओं से अवगत कराते हुए वह अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त करती है। लम्बी कहानी की यह विशेषता है कि घटित घटना के किसी भी दृश्य को अछूता नहीं छोड़ती, सभी का ब्यौरा देते हुए चलती है। आज का कहानीकार अपने पात्रों के कार्य व्यापार को सहज ढंग से प्रस्तुत नहीं करता, वह पात्रों के परिस्थितियों के आधार पर उसके कार्य व्यापर का विश्लेषण करता है। इस प्रक्रिया के दौरान वह पात्रों के आतंरिक परिस्थितियों के निर्माण में बड़ी सूक्ष्मता बरतता है। जो कहानी के विस्तार में सहायक सिद्ध होती है।

लंबी कहानी का विकास 

लंबी कहानी का आविर्भाव कब से माना जाय यह विवाद का विषय है लेकिन यह कहानी विधा के काफी समय बाद हुआ। लंबी कहानी लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी इसके लिए कहानी तथा साहित्य की अन्य विधाओं की विकास यात्रा को देखा जाय तो, लम्बी कहानी लेखन की पड़ताल की जा सकती है। कहानी लेखन के पहले साहित्य में प्रबंध काव्य, खंडकाव्य, नाटक, उपन्यास आदि का विकास हो चुका था। जिसमे समाज के विस्तृत फलक को लोगों के सामने प्रस्तुत की जाती थी। परन्तु उसी समय देखा गया कि कवियों द्वारा छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से लोगों में जागरूकता फैलाने का कार्य किया जा रहा था। जिसका प्रभाव लोगों पर कम पड़ा क्योंकि एक ही समस्या को व्यक्त करने में कई छोटी कविताओं का निर्माण करना पड़ता था। इस समस्या से निजात पाने के लिए कवियों ने लम्बी कविता लिखना आरंभ किया। जिसमें एक ही घटना से जुड़ी सारी समस्याओं को  व्यक्त करने में सफल हुए। इसी के अनुरूप ही कहानी से लंबी कहानी का भी विकास हुआ।

लंबी कहानी एवं कविता 

लम्बी कहानियों का विकास लम्बी कविताओं के कारण से हुआ। क्योंकि छोटी-छोटी कविताओं में कवि अपने समय की सम्पूर्ण समस्याओं को व्यक्त कर पाने में असमर्थ थे। इसलिए वे टुकड़ो में व्यक्त करते थे। जिससे पाठक को उनकी सभी छोटी-छोटी कविताओं को एकत्रित करके पढ़ना पड़ता था, तब जाकर कवि के भावों को समझ पाता था। लेकिन जब से लम्बी कवितायेँ लिखी जाने लगीं तब से ये समस्याएँ दूर हो गयीं क्योंकि वे अपनी एक ही कविता में समय की सारी घटनाओं को व्यक्त कर देते हैं। जैसे मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ एक लम्बी कविता है, जो अपने समय की घटनाओं का जाल बुनता हुआ चला जाता है, और कविता लम्बी होती चली जाती हैं। उसी प्रकार कहानियां भी जीवन की किसी एक घटना को लेकर उनके मध्य आने वाली विभिन्न समस्याओं का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखी जाने लगी। तब से कहानियाँ लम्बी होने लगी। बींसवी सदी के अंतिम दशक से अनेक चर्चित कहानियाँ प्रायः लम्बी ही हैं। जहाँ पर उपन्यास और कहानी के शास्त्रीय भेद को मिटा देने की जैसे कहानीकरों ने ठान ली है। एक-एक कहानी के किताब बनने की प्रक्रिया को देखते हुए लगता है कि कहानी और उपन्यास विधा के बीच ‘लघु उपंन्यास’ की श्रेणी स्थापित हो गयी है। वैसे लम्बी कहानियों का लेखन क्रम पहले भी था, पर उनका विस्तार आज की कहानियों जैसा नहीं था। जीवन और परिवेश का यथार्थ चित्रण करना कहानी का प्राण है लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के कारण कहानी की पुरानी सीमाएं लांघना आज के कहानीकर के लिए आवश्यक हो गया है क्योंकि वह अपनी बात थोड़े में नहीं व्यक्त करना चाहता। वह अपनी बात को विस्तार में खुलकर कहना चाहता है। इस प्रकार कहानी विधा में नयी पीढ़ी के कहानीकारों द्वारा पुरानी पीढ़ी को संकेत देना है कि अनुभवों और घटनाओं की पारस्परिक निर्भरता पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ गयी है। अब किसी यथार्थ घटना का वर्णन करते समय उसकी स्थिति-परिस्थिति,समय तथा इनके माध्यम से अन्य घटनाओं का क्या सम्बन्ध है आदि का वर्णन करना पड़ता है। कहानी विधा में यकायक परिवर्तन नहीं हुआ कि कहानीकार की इच्छा हुई और वह कुछ भी लिखता चला गया। इसके पीछे अख़बारी पत्रिकारिता, फ़िल्म, धारावाहिक आदि का कहानी शिल्प विधा पर परोक्ष या अपरोक्ष प्रभाव पड़ा है। फ़िल्म तथा धारावाहिक का समाज पर अधिक प्रभाव पड़ा है। इसी कारण समकालीन कहानीकारों ने कहानी लिखने का नाटकीय अंदाज में अधिक प्रयोग किया है। उदय प्रकाश की अधिकतर कहानियां इसी अंदाज में लिखी गयी। जैसे उनकी कहानी मोहनदास का अनेकों बार मंचन और फिल्म का निर्माण हो चुका है। यही नहीं अधिक लोकप्रियता के कारण कई भाषाओं में इसका अनुवाद भी हो चुका है।

हिंदी की प्रमुख लंबी कहानी 

लम्बी कहानी का समय कब से माना जाय इसका कोई निश्चित समय नहीं है लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा की इसकी शुरुआत आजादी के बाद हुई। नई कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक निर्मल वर्मा ने ग्यारह लम्बी कहानियों का संकलन निकला जिसमें परिंदे (1955) कहानी को लम्बी कहानी के रूप में माना है। इसलिए नई कहानी आन्दोलन से ही लम्बी कहानी की विकास यात्रा को मानना चाहिए। परन्तु जिसके प्रभाव के कारण लम्बी कहानियां लिखी जाने लगी वे लम्बी कवितायें थीं। जो आजादी के बाद ही लिखी जाने लगी थी, लेकिन कुछ कविताएँ आजादी के पहले भी लिखी जा चुकी थी जैसे ‘राम की शक्ति पूजा’। अधिकतर लम्बी कविताएँ आजादी के बाद ही लिखी गयी। उसी के प्रभाव के कारण लम्बी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। डा.पुष्पा वंसल का मानना है कि लम्बी कहानी को कुछ पहले से ही स्वीकृति मिलने लगी थी विशेष रूप से 1977 के आसपास। पुष्पा वंसल ने अपने शोधपत्र हिन्दी कहानी की नवीन विधा : लम्बी कहानी में कहानी, उपन्यास, लघु उपन्यास और लम्बी कहानी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये लम्बी कहानी की भिन्नता को उदाहरण सहित स्पष्ट किया है। लगभग इसी समय केआसपास से लम्बी कहानियां लिखी जाने लगी। जिसमें 

  • दूधनाथ सिंह ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’,‘निष्कासन’, 
  • कृष्णा सोबती ‘ऐ लड़की’, 
  • अखिलेश ‘जलडमरुमध्य’,‘शापग्रस्त’ 
  • शिवमूर्ति ‘तिरिया चरित्र’ ‘कुच्ची का कानून’, 
  • संजीव ‘पाँव तले दूब’ 
  • अरुण प्रकाश ‘भैया एक्सप्रेस’, 
  • स्वयं प्रकाश ‘बलि’, 
  • जितेन्द्र भाटिया ‘अगले अँधेरे तक’ 
  • उदय प्रकाश ‘पीली छतरी वाली लड़की’, ‘मोहनदास’, 

इत्यादि का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है।

अभी तक लम्बी कहानी के स्वरूप में हो रहे परिवर्तन और उसका आरंभ कहाँ से माना जाय इसके विषय में बताया गया। लेकिन प्रमुख विवाद का विषय यह है कि लम्बी कहानी का निर्धारण किस आधार पर किया जाय। इसके लिए पृष्ठों की संख्या या उसके बदलते हुए शिल्प स्वरूप के आधार पर या दोनों को ध्यान में रखना होगा। लंबी कहानी और कहानी के विषय में गोपालराय का कहना है –“कहानी और लंबी कहानी की शिनाख्त करने का भी एक आसान नुख्सा निश्चित किया जा सकता है। आकर की दृष्टि से लंबी कहानी की अधिकतम शब्द संख्या 15000 और न्यूनतम शब्द संख्या 4000 के आसपास हो सकता है। प्रकृति की दृष्टि से कहानी में कथा के दिक् और काल के आयाम के विकास के लिए गुंजाइश नहीं होती। एक अच्छी कहानी में संवेदना या तनाव का कोई क्षण ही चित्रणीय होता है, यद्यपि उसके इर्द गिर्द किसी एक पात्र या अधिक से अधिक दो-तीन पात्रों के बाह्य और मानसिक कार्यकलाप नियोजित किये जा सकते हैं। लंबी कहानी में संवेदना या तनाव का क्षण विस्तारित हो सकता है। यही चीज उसे कहानी से अलग करती है। लंबी कहानी में कथा का दिक् और काल में विकास संभव नहीं होता। आकार की दृष्टि से कहानी का विस्तार 1000 से 3000 हजार शब्दों के बीच रखा जा सकता है।”[3] जिस तरह से गोपालराय जी ने शब्द संख्या के आधार पर कहानी और लंबी कहानी का निर्धारण किया है उसके अनुरूप देखा जाय तो कभी-कभी कहानी का जो शिल्प है उसके अनुरूप न लिखा गया हो और खाना पूर्ती के लिए पृष्ठों की संख्या भर दी गयी हो।इसलिए हमें पृष्ठों की संख्या और उसके शिल्प स्वरूप दोनों पर ध्यान देना होगा पहल पत्रिका-106 जनवरी अंक में देखा गया कि कहानीकार मनोज रूपड़ा की कहानी ‘अनुभूति’ और कहानी लेखिका प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’ की कहानी को पृष्ठों की अधिकता के कारण लम्बी कहानी के नाम से प्रकाशित हुई। जबकि इसी पत्रिका के दूसरे अंक में कम पृष्ठों वाली कहानी को कहानी नाम से प्रकाशित हुई है। अतः पृष्ठों की अधिकता को ही देखकर ही लम्बी कहानी नाम दिया जाता है। परन्तु आलोचक को पृष्ठों की संख्या और शिल्प दोनों पर ध्यान देना होगा तभी जा करके लम्बी कहानी के साथ निर्णय हो सकता है।

संदर्भ सूची

1. ग्यारह लम्बी कहानियाँ, निर्मल वर्मा, भूमिका, प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ

2. हिंदी कहानी : प्रक्रिया और पाठ, सुरेन्द्र चौधरी, हिंदी कहानी:रचना प्रक्रिया 3, तारा प्रेस पटना-7, प्रथम संस्करण- 1963, पृष्ठ संख्या-71

3. हिंदी कहानी का इतिहास 1900-1950, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-36


                  शोधार्थी
                                                                               हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय
                                                                                                मो. 9454611878
                                                               ई. मेल. Vivekkumarvns1@gmail.com 

[उम्मीद है, कि आपको हमारी यह पोस्ट पसंद आई होगी। और यदि पोस्ट पसंद आई है, तो इसे अपने दोस्तों में शेयर करें ताकि अन्य लोगों को भी इस पोस्ट के बारे में पता चल सके। और नीचे कमेंट करें, कि आपको हमारी यह पोस्ट कैसी लगी।]

कोई टिप्पणी नहीं:

सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-