हिंदी आलेख- भारतीय समाज और स्त्री मुक्ति आंदोलन
स्त्री विमर्श
भारतीय समाज और स्त्री मुक्ति आंदोलन
डॉ सूर्या ई .वी
समाज
में परिवर्तन आंदोलन द्वारा ही होता रहा है।
पुराने युग में स्त्री की इतनी दयनीय स्थिति के कारण मुख्यत: उसकी अशिक्षा
व अज्ञानता थी। पितृसत्तात्मक समाज के स्त्री विरोधी नियमों ने उसे ऐसे अँधेरे में
डाल दिया, ऐसा किसी अन्य वर्ग के साथ नहीं हुआ होगा। परंतु बदलते समाज ने स्त्री
के दर्द को समझा और ऐसा ही समाधान ढूंढा जिससे स्त्री अँधेरे से बाहर निकल आयीं।
भारत
में अग्रेजों के आने के बाद, १९वीं, २०वीं शताब्दी में जो परिवर्तन हुए हैं जिनका
प्रभाव व्यक्ति, परिवार, समाज और इनसे जुड़े जीवन पर भी दिखाई पड़ता है। समाज में
स्त्री आंदोलन अलग-अलग मुद्दे को लेकर चला है जैसे कि मद्यवर्ग की स्त्रियाँ एक
तरफ दहेज के नाम से, दूसरी तरफ गाँव की महिलाएँ शराब के नाम से। इसतरह भारतीय
स्त्री आंदोलन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मुद्दों को लेकर जा रहा था। स्त्री
-स्वतंत्रता में समाज सुधारकों और साहित्यकारों का स्थान अग्रणीय रहा। मुख्य रूप
से स्वतंत्रत्ता के बाद ही समाज और साहित्य में स्त्री-सशक्तीकरण का प्रखर तेजी से
होने लगा था।
भारत
में स्त्री आंदोलन का पहला लहर १९ वीं शताब्दी में सुधारवादी आन्दोलनों के रूप में
हमारे सामने आया है। इसमें महिलाओं की
मुक्ति हेतु अनेक प्रयास किए गए हैं- सती प्रथा व बाल विवाह का विरोध,विधवा
पुनर्विवाह,स्त्री शिक्षा आदि प्रमुख मुद्दे थे। स्त्री आंदोलन का दूसरा लहर तब
निकल आया जब स्त्रियों ने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु घर के चार दीवारी के बाहर
निकलीं थीं। तीसरा लहर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से शुरू हुआ है। नवजागरण और
स्वाधीनता आंदोलन के प्रभाव ने स्वातंत्रोत्तर स्त्री की स्थिति में अनेक परिवर्तन
लाये। स्त्रियों ने यह महसूस किया है कि समाज में परिवर्तन तभी संभव होगा जब हम
अपनी आवश्यकता को बताएँ और उसके लिए लडें। ऐसे ही इन युगों में अनेक प्रकार के
आंदोलन चलें तथा अनेक महिला संगठन जैसे
‘आल इंडिया विमेंस कांफेरास’, ‘नेशनल फेदेरातिओं ऑफ इंडियन विमीन’, ‘विमिंस इंडिया
एसोसिएशन’बनें, इनमें स्त्री शिक्षा, मताधिकार, पर्दा और व्यक्तिकत अधिकारों को
प्रधानता दी गई है। उपरुक्त बातों के अनुसार महिला आन्दोलनों को मुख्यत: तीन भागों
में बाँट सकते हैं:-
१) नवजागरण
और स्त्री आंदोलन
२) स्वत्रन्त्रता
संग्राम और स्त्री आंदोलन
३) स्वातंत्रोत्तर
और स्त्री आंदोलन
१)नवजागरण और स्त्री आंदोलन:-
उन्नीसवीं
शताब्दी के आरंभ से नवजागरण का दौर शुरू हुआ था, इस समय अग्रेजी राज्य पूर्ण रूपेण
स्थापित हो चुका था। समाज में अनेक प्रकार की कुरीतियाँ, अंधविश्वास, छुआछूत आदि
का बोलबाला था। इस समय की स्त्री की स्थिती अधिक दयनीय थी। स्त्री का स्थान पुरुष
के अधीन रहीं। उसका अपना कोई अधिकार नहीं था। इस युग में कुछ समाज सुधारकों ने पहली बार स्त्री की इस
दयनीय स्थिति के प्रति जागरूक होकर, स्त्री के प्रति सदियों से होती रही
कुरीतियों, अंधविश्वासों के विरुद्द अपनी आवाज उठाईं। इसतरह भारतीय स्त्रीयों की
जीवन- स्थिति में सुधार के प्रारंभिक प्रयास पुरुषों द्वारा किए गए। विवेच्य काल में स्त्री सुधार हेतु एक कारण ‘सती उन्मूलन आंदोलन’ है तो दूसरा कारण
‘शिक्षा का आंदोलन’ था। उन्नीसवीं सदी के मद्य में बंबई
प्रेसिडेंसी में ‘सुधार आंदोलन’ उभरे। ‘जाति विरोधी आंदोलन’ नीची जातियों
द्वारा और ऊंची जातियों का आंदोलन, सुधार के लिए
भी किया गया। सन् 1848 के दशक में दलित ‘ज्योतिबा फुले’ ने पूना में लड़कियों
केलिए अपना पहला स्कूल खोला ।लगभग एक वर्ष के बाद ब्रामणों-गैर ब्रामणों ने मिलकर
‘परमहंस मंडल’ की स्थापना की। इसके सदस्यों ने जाति बहिष्कार विरोध में अभियान
चलाया और इसी साल में बंबई के छात्रों ने एक कन्या पाठशाला शुरू की तथा स्त्रीयों
के लिए मासिक –पत्रिका निकाली।1852 तक ‘फुले’ ने तीन कन्या
पाठशालाएं और अछूतों के लिए एक स्कूल खोला।इस समय समाज सुधार आंदोलन के खिलाफ रूढ़ीवादी हिंदूवादी प्रतिक्रिया तेज होने लगी।1850 में ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर’ ने
विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और कहा कि विधवा पुनर्विवाह शास्त्र-सम्मत
है। ‘विवाह पुनर्विवाह ब्यूरो’ नामक
समिति इसपर अमल करने की कोशिशि की ।1856 में
कानून पारित कर दिया गया ।परन्तु इसके बाद भी कम ही पुनर्विवाह हुए ।1860 के समाज सुधार आंदोलन में अनेक
भिन्न तत्व दिखाई पड़े। उस समय कुछ लोग अग्रेजी शिक्षा को और कुछ लोग धर्म शिक्षा को अपनाया था। लेकिन ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर’
ने अपनी कन्या पाठशालाओं में धर्म शिक्षा
के जगह बंगाली तथा संस्कृत पढ़ाया।
‘मुस्लीम समाज सुधार’ आंदोलन के प्रणेता सैयद अहमद खान ने मुसलमान लड़कियों को
अंग्रेजियत के खिलाफ आगाह किया ,साथ में उन्होंने यह भी कहा था कि मुस्लीम औरतों
को तालीम जरूर हासिल करनी चाहिए लेकिन घर
में। इसके जवाब स्वरूप ‘ईश्वरचंद्र
विद्यासागर’ ने कहा कि हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों ही स्त्री की क्षति के लिए जिन्मेदार थे, इन्हें ‘निरक्षरता एवं
अज्ञानता से बाहर निकालने किए ‘धर्म निरपेक्षता ‘पर शिक्षित करने की बहुत जरूरत है। इसी समय ‘दयानंद
सरस्वती’ द्वारा समाज सुधार का नया सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। उनके अनुसार
स्त्रीयों को शिक्षा की आवश्यकता इसलिए कि वे शिक्षित होकर पत्नी तथा माँ के रूप
में अपने कर्ताव्यों का सम्यक निर्वाहन कर सकें।
जहाँ
उन्नीसवीं के पूर्वार्द्ध में समाज के पतन
हेतु स्त्रीयों को जिन्म्मेदार ठहराया गया था वहीं उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध
में शोषण का मुख बच्चों की ओर भी गया था ।तत्पस्चात समाज सुधारकों ने अपना ध्यान
वंश और जैविक परिभाषाओं के मुद्दे पर केंद्रित किया ।इन्होंने सती प्रथा, शिक्षा,
विधवा- पुनर्विवाह आदि के साथ बाल विवाह ,पर्दा प्रथा पर बोलने शुरू कर दिए ।
इसप्रकार 1880 के दौर में दो मुख्य आंदोलन सामने आए जो
कि एक ,औद्योगिक श्रमिकों की दशा में सुधार हेतु ‘फैक्ट्री कानून बनाए जाने की
मांग का आंदोलन’ एवं दूसरा था ‘बाल विवाह विरोधी आंदोलन’ । उस समय हिंदू समाज
की रचना इसप्रकार की गयी है कि उसकी समाज
व्यवस्था को कायम रखने केलिए बाल विवाह की
जरूरत है। विवाह की उम्र बढाने के समाज सुधारों का समर्थन करते हुए कलकत्त की
महिला चिकित्सकनों ने 1890 में ‘महारानी विक्टोरिया’ के
सम्मुख एक याचिका प्रस्तुत की। हालांकि बंबई में बाल विवाह विरुद्ध आंदोलन शुरू
हुआ था। सन् 1875
में बंबई प्रेसीडेंसी पधारे तो उनकी सभाओं में ‘रानाडे’,’फुले’आदी अनेक समाज
सुधारकों ने भाग लिया। ‘पंडित रामाभाई’ ने पूना में ‘आर्यामहिला समाज’ की स्थापना
की ।१८९१ में ‘तिलक’ ने सहमति आयु क़ानून के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया इसके
परिणाम स्वरूप विवाह की उम्र १० वर्ष से
बढ़ाकर १२ वर्ष कर दी गई। इस समय ‘टैगोर’ भी बाल विवाह का समर्थन किया।
इसतरह स्वतंत्रता के पहले का इस कालसीमा में समाज में स्त्री की प्रगति हेतु अनेक
कार्य हुआ है। अत: इस काल को स्त्री उत्थान का पहला चरण के साथ –साथ नवजागरण काल
भी कह सकते हैं। इसी युग में ही नारी-शिक्षा
द्वारा नारी के नव जागरण का युग प्रारम्भ हुआ। नवजागरण की सुधारवादी लहर में कई स्त्रीयाँ कार्यरत थीं। बीसवीं शताब्दी तक
आते-आते सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियो का प्रवेश हुआ। ‘सरोजिनी नायडू’
,’सरलादेवी’,’एनीबेसेंट’ आदि अनेक महिलाएं
कार्यरत थीं।1910 में ‘सरलादेवी’ द्वारा स्थापित ‘भारत
स्त्री मंडल’ ने स्त्री शिक्षा ,पर्दा-प्रथा, बाल विवाह जैसे मुद्दों के विरुद्ध
आवाज उठाया।1910-1920के दशक में सर्वप्रथम ‘अखिल भारतीय
महिला संगठनों’ के गठन के प्रयास किए गए ।1931 में ‘सरोजिनी
नायडू’ अखिल भारतीय महिला संगठनों की अध्यक्ष बनीं। इस समय अलग अलग क्षेत्रों में अलग-अलग संगठन जैसे बंगाल
में ‘बंग महिला समाज’, महाराष्ट्र में ‘सतारा अमलोनति
सभा’, बेंगलूर में ‘महिला सेवा समाज’, इलाहाबाद में ‘प्रयाग महिला समिति’ आदि ने
‘अखिल भारतीय महिला संगठन’ का समर्थन किया। ‘गांधीजी’ ने स्त्री शिक्षा ,स्त्री
अधिकारों के लिए क़ानून बनाने हेतु स्त्री नेताओं को प्रेरित किया है। १९२६ ‘अखिल
भारतीय महिला परिषद’ की स्थापना की । १९२८ में ‘बाल विवाह निरोधन’ कानून बना ।
समाज में प्रचलित अनेकानक
कुरीतियों ने स्त्री को विभिन्न तरह की मुसीबतों में डाल दिया था जिससे स्त्री कि मुक्ति अनिवार्य
थी। ऐसी माहौल में बदलाव लाने हेतु समाज सुधारक के रूप में ‘राजा राममोहन राय’
जैसे एक श्रेष्ट व्यक्ति सामने आए,जिन्होंने स्त्री-स्वतत्रता के लिए अपना रास्ता
खोल दिया। समाज में प्रचालित इस तरह के अन्धविश्वासों के पीछे लोगों की अशिक्षा और
अज्ञान एक कारण थी,इस बात को समझते हुए उनहोंने भारतीय समाज को जागरूक करने के लिए
शिक्षा की अनिवार्यता पर बल दिया ।सन 1815 में
उन्होंने ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की।
समाज में सामाजिक एवं धार्मिक
सुधार की शुरूआत की । तात्कालीन समाज में अमानवीय कुरीति
सती-प्रथा प्रचालित थी जो पति के मरने के बाद पत्नी को जिन्दा से मार दिया जाता था।
‘राजा राममोहन राय’ ने इसका खुलकर विरोध किया। इस लड़ाई में उन्हें अपने परिवार का
विरोध झेलना पड़ा।सती-प्रथा को रोकने
के लिए राजा
राम मोहन राय ने ‘लार्ड विलियम बेंटिक’ की मदद से महिलाओं के अधिकारों के लिए
संघर्ष किया और कानून बनवाकर न केवल सती प्रथा को अवैध करार दिया बल्कि इस मुद्दे
पर सामाजिक जागरूकता भी फैलाई। ‘राजा राममोहन राय’ मूर्ति पूजा और कट्टरपंथी
धार्मिक कर्मकांडों, धर्मांधता,
अंधविश्वास के खिलाफ थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह एवं संपत्ति में स्त्रियों के अधिकार समेत
महिलाओं के अधिकार के पक्ष में अभियान चलाया। उनके प्रयास से 1829 में कानून
बनाकर सती प्रथा अवैध करार दिया गया। 1822
में उन्होंने ‘एंग्लो हिंदू स्कूल’ की स्थापना की और उसके चार साल
बाद ‘वेदांत कॉलेज’ खोला। उन्होंने ने 1828 में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना और उसके जरिये समाज सुधार
को गति प्रदान की। आधुनिक ज्ञान विज्ञान के पैरोकार ‘राजा मोहन राय’ ने कुरीतियां
दूर की और कहा कि ऐसा करना धर्मानुकूल है।
उन्होंने ने ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया बल्कि उसके अंतर्गत ही
समाज सुधार, ज्ञानार्जन पर बल दिया। ‘राजा राम मोहन राय’ ने 19
वीं सदी में जो सामाजिक सुधार शुरू किया था, 20 वीं सदी में उसकी गति धीमी पड़ गयी।1830 में वे मुगल सम्राट के दूत के रूप उनकी पेंशन और भत्ते
के बारे में पक्ष रखने ब्रिटेन गए। ब्रिस्टल के समीप स्टेप्लटन में 27 सितंबर, 1833 को इस महान विभूति का निधन हो गया।
‘केशवचंद्र सेन’ धार्मिक उपदेशक एवं
समाज सुधारक थे। ब्रह्मसमाज के अंतर्गत केशवचंद्र सेन
के आगमन के साथ द्रुत गति से प्रसार पानेवाले इस आध्यात्मिक आंदोलन के सबसे गतिशील
अध्याय का आरंभ हुआ। केशवचन्द्र सेन ने ही आर्यसमाज के संस्थापक ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती’ को सलाह दी
की वे ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिन्दी में करें। ‘केशवचंद्र सेन’ का
जन्म 19 नवंबर,
1838 को कलकत्ता में हुआ। उनके पिता प्यारेमोहन
प्रसिद्ध वैष्णव एवं विद्वान् दीवान रामकमल के पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही
केशवचंद्र का उच्च आध्यात्मिक जीवन था। महर्षि ने उचित ही उन्हें ब्रह्मानंद की
संज्ञा दी तथा उन्हें समाज का आचार्य बनाया। केशवचंद्र के आकर्षक व्यक्तित्व ने
‘ब्रह्मसमाज आंदोलन’ को स्फूर्ति प्रदान की। उन्होंने भारत के शैक्षिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पुनर्जनन
में चिरस्थायी योग दिया। केशवचंद्र के सतत अग्रगामी दृष्टिकोण एवं क्रियाकलापों के
साथ-साथ चल सकना देवेंद्रनाथ के लिए कठिन था, यद्यपि दोनों
महानुभावों की भावना में सदैव मतैक्य था। 1866 में केशवचंद्र
ने भारतवर्षीय
ब्रह्मसमाज की
स्थापना की। इसपर देवेंद्रनाथ ने अपने
समाज का नाम आदि
ब्रह्मसमाज रख
दिया।
उपर्युक्त बातों के अनुसार कहा जा सकता है कि नव
जागरण युग महिला आन्दोलन् का प्ररम्भिक युग रहा।जिसने अनेक समाज सुधारकों को जन्म
दिया तथा स्त्री के अंदर आत्म विश्वास जगाया।
२)स्वतंन्त्रता संग्राम और स्त्री आंदोलन :-
यह स्त्री आदोलन की दूसरी लहर है । स्वाधीनता
संग्राम के इस युग में ही स्त्रियों ने
पहली बार घर से बाहर निकलकर अनेक स्तरों पर भाग लिया। इस समय महिलों के अंदर एक नई चेतना जगी, जिसमें
स्त्रियों के संगठित होने और लड़ने की हिम्मत व सहस देखने को मिला । वास्तव में
महिलाएँ नवजागारण के दौर में ही जागरूक जरूर दिखीं पर उनमें हिम्मत कम थी। लेकिन स्वाधीनता संग्राम के इस युग में स्त्री आंदोलन
नवजागरण की चेतना से प्रभावित होकर पूरी तरह एक आक्रोश या आन्दोलन के रूप में
सामने आने लगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो
अँग्रेज़ी उपनिवेशवाद की पृष्टभूमि में ही नारी आंदोलन पनपना था। लेकिन यह
भी अविस्मरणीय नहीं कि गाँधीजी के आगमन के
बाद ही स्त्री मुक्ति का विषय भारत की स्वतंत्रता के साथ जुड़ा। गांधीजी स्त्री की
प्रगति हेतु स्त्री स्वतंत्रता और स्त्री सुरक्षा की आवश्यकता को समझते थे। उनके
अनुसार स्त्री और पुरुष में अंतर सिर्फ शारीरिक है तथा भारतीय स्त्री का त्याग,
क्षमता और सहनशीलता पुरुष से भी अधिक है।
‘श्रमिक आंदोलन’ १९२० के दशक
में शुरू हुआ। इसमें अनेक महिलाओं की उपस्थिति थीं। कई ट्रेड युनियन महिलाएं सामने
आईं, इसके अलावा महिलाएँ स्वयं संगठित होना भी शुरू हुआ था। अधिक महिलाएँ सूती
मिलों और खदानों में काम कर रहीं थीं। १९३० में
‘अखिल भारतीय कंग्रस कमेटी’ ने अपने ग्वालियार सम्मलेन में श्रमिकों के
मुद्दे को उठाया और लाहौर में हुए सम्मलेन में श्रमिकों संबंधी कई प्रस्ताव पारित
किए । इसमें प्रसूती गृह, नर्सरी स्कूल तथा प्रसूती और बच्चों की देखभाल के लिए
महिला डाक्टर आदि जरूरतों को बताया गया था।
१९३० में हुए ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ महिलाओं की भागीदारी का एक नया चरण माना जाता
है। यह आंदोलन अंग्रेजों के ‘नमक क़ानून’ व
इनके नमक बनाने के अधिकार को तोड़ना था।
‘नमक सत्यागृह आंदोलन्’ में महिलाओं ने नमक बनाने और बेचने तक का काम किए
हैं। इसप्रकार १९३०का दशक एक बृहद नारीवाद का आकार ले सका ।‘कमला
देवी चटोपाध्याय’ जैसे नेताओं ने आत्म
त्यागी महिलाओं की छवि को सामने लाने की कोशिश की । इस समय अनेक महिला संघठन बनें ।मुबंई में महिलाओं
ने ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ का गठन किया, यह पहला महिला संगठन था जो पुरुष के बिना
चलाया जाता था। ‘देश सेविक संघ’,’नारी सत्याग्रह समिति’,’महिला राष्ट्रीय
संघ’,’स्त्री स्वराज संघ’ आदि बनें ।इन सबने धरने आदि आयोजन करने, खादी का
प्रचार-प्रसार, चरखा चलाने का प्रशिक्षण आदि के
काम किए। इससे नारी आत्म निर्भर होने भी लगे।१९२० के दशक के आंदोलन में
महिलाओं की बराबरी पर चर्चा शुरू हो गयी थी ।इस तरह राष्टीय आंदोलन के तर्कों को
स्त्री-पुरुष अधिकार मांगने के लिए भी इस्तेमाल किया है।
३)स्वातंत्रोत्तर
स्त्री आंदोलन:-
स्वतंत्रता
प्राप्त होने के पश्चात राजनीतिक तौर पर सबसे पहले संविधान में स्त्रियों को सामान
अधिकार दिलाने की घोषणा की गई। महिलाओं के प्रगति के लिए अनेक प्रयास हुए हैं।
स्त्रियों के सामान अधिकार दिलाने हेतु पारित होनेवाला हिंदू कोड बिल का बड़े
पैमाने पर विरोध हुआ था।
डॉ.बी आर.अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पारित कराने का बहुत अधिक प्रयास
किया। इस बिल के अंतर्गत विवाह की आयु सीमा बढ़ाना,स्त्रियों को तलाक का अधिकार
देना,दहेज को स्त्रीधन मानकर उसे गैर कानूनी मानना आदि की बात कही गयी। पर विरोध
के चलते इसे चार अधिनियमों में बांटकर
पारित किया गया है, इससे असहमत होकर ‘अंबेडकर’ ने
मंत्री मंडल से त्यागपत्र दे दिया था।
स्वतंत्रता
प्राप्ति के उपरांत के स्त्री आंदोलन की इस तीसरी लहर अपना एक अलग रूप धारण कर रहा था जो कि इसे अपने
समय के परिवर्तनकारी आंदोलन माना जा सकता
है। इसका उग्र रूप सत्तर –अस्सी के दशक में देखा जा सकता है। तत्कालीन समय में
आंदोलन का स्वरूप अलग-अलग जगह अलग-अलग रूप में देखने को मिला है। ‘तेलंगाना
आंदोलन’ में अनेक कृषक स्त्रियां सक्रीय थीं। आंदोलन के नेताओं, गरीबी किसानों के
जन्मीदारों आदि पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ लड़े
थे। साथ-साथ पत्नियों की पिटाई, लैंगिक
असमानता, घरेलू हिंसा, बाल-विवाह, बहु विवाह आदि के खिलाफ भीतरी संघर्ष भी
हुए। इसप्रकार ‘तेलंगाना आंदोलन’ के
नेताओं का महिलाओं के प्रति अधिक उदार था। बाद में यह आंदोलन भूमि के प्रति हो गया।
१९५० के दशक में गांधीवाद के तहत ‘भूदान आंदोलन’ में महिलाओं की सक्रीय भागीदारी
थीं। इस का उद्देश्य संपन्न ज्म्मीन्दारों से जमीन लेकर भूमिरहित किसानों में
बांटना था। ‘सरला बहना’ के नेतृत्व में घर-घर जाकर इसका प्रचार किया था।
गुजरात,महाराष्ट्र,उत्तरप्रदेश आदि जगहों में यह आंदोलन चला।१९५० के दशक में
महिलाओं के लिए अनेक समाज कल्याण कार्यक्रम बनें जिसका प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण
गरीबी कम करना और ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना था। ‘चिपको
आंदोलन’ ने राष्ट्रीय,अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान ग्रहण किया। यह खेलकूद के
ठेकेदार द्वारा पेड़ों की कटाई के विरुद्ध गाँव की महिलाओं की लड़ाई थीं। ‘दशोली
ग्राम स्वराज्य संघ’,’पर्वतीय नवजीवन मंडल’जैसे गांधीवादी समूह ने इसे आंदोलन का रूप देने में सहायता प्रदान
किया। इसप्रकार ‘बांध विरोधी आंदोलन’ ,’शराबखोरी व महँगाई के विरोध संघर्ष’ भी बड़े
पैमाने पर महिलाओं द्वार हुआ है । शाराबी के कारण आर्थिक संकट और घरेलू हिंसा बढ़ती
जा रही थी। इसका विरोध शराब के मटके फोड़ना, बनानेवालों पर जुर्माना आदि तरीके से
किया है। वे सड़कों पर बेलन, थालियाँ और तेल का डिब्बे का प्रदर्शन किये थे।
यह विरोध भारत के अनेक राज्यों में चला था। एक तरफ यह आंदोलन ‘शराब विरोधी आंदोलन’ के नाम से है तो दूसरी जगह
यह ‘नवनिर्माण आंदोलन’ के नाम से चला था। ‘शहदा आंदोलन’ आंशिक रूप से पुरुष के हिंसा पर सीधा
हमला था,जिस वजह सत्तर के दशक के अंतिम वर्ष के नारीवादियों इस आंदोलन को स्वीकार
किया और शामिल भी हुए। बंबई के ‘मूल्यवृद्धि विरोधी आंदोलन’
में सूखे एवं भूखमरी के कारण, अनेक
महिलाएं शायद इसलिए सक्रीय रहीं कि घरलू खर्च में हुई वुद्दी, पुरुष के बजाय महिला
को ज्यादा प्रभावित किया हो।
‘मूल्य वृद्दि आंदोलन’
और ‘नवनिर्माण आन्दोल’ को भले ही पितृसत्ता के विरोध नहीं कहा जाए तो भी दोनों
आन्दोलनों ने पितृसत्ता विरोधी विचारों को परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।क्योंकि
सत्तर के दशक में ही स्त्रियों की इन गतिविधियां नारीवादी गतिविधियों के रूप में
सामने आई। इसके बाद ‘प्रगतिशील महिला संगठन’ का हैदराबाद में स्थापन हुआ, यह पहला
संगठन था इसमें माओवादी स्त्रियां शामिल
हो गयी थीं, जिन्होंने एक तरफ लैंगिक आधार पर स्त्रियों के शोषण के एक सूत्री
कार्यक्रम के रूप में वहीं प्रगतिशील महिला संगठन ने स्त्रियों के सम्पूर्ण समस्यायों
के विश्लेषण करने की कोशिश की है जिससे नारीवाद के उदय का आभास कराया। ‘प्रगतिशील
महिला संगठन’ ने स्त्री-पुरुष समानता ,स्त्री के
सार्वजनीक जीवन में सक्रिय सहभागिकता, समान कार्य के लिए समान वेतन,
स्त्रियों के प्रति छेडछाड और बलात्कार,कला और साहित्य में स्त्री की ओर अश्लीलता
आदि मुद्दों के लेकर बहस किया है। ‘प्रगतिशील महिला संगठन’ ने स्त्री शोषण के दो
बुनीयादी मुद्दों की ओर इशारा किया है कि ‘लैंगिक आधार पर श्रम का विभाजन’ और
दूसरा, ‘रूढ़ीगत संस्कृति’। श्रम-विभाजन ने स्त्री को हमेशा के लिए पुरुष के अधीन
रखा। संस्कृति युक्त सामाजिक बनावट ने स्त्री को पुरुष से ही प्रमाणित किया है कि वह पुरुष से कमजोर है।कुल
मिलाकर ‘प्रगतिशील महिला संगठन’ ने स्त्रियों के प्रति अन्याय को समाप्त करने की
युक्तियों को बल दिया।
भारत में ८ मार्च 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में पहली बार मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र
संघ की यह कोशिश विश्व में महिलाओं के प्रति असमानता और उसके कारणों की ओर ध्यान
आकृष्टित कराने की थी। यहीं नहीं कुल मिलाकर १९७५ तक आते ही महीलाएं अपने लिए और
अपने अधिकार की माँग करने लगीं, इसतरह यह वर्ष उसका ‘माइल स्टोन’ कहा गया। 1975के बाद के महिला आंदोलन की धारा ने उसकी स्थिति का बोध कराया और स्त्रियाँ
सामाजिक ढाँचे के साथ-साथ हर व्यवस्था बदलने की मांग करने लगी हैं। १९७१ में पहली
बार दहेज हत्या के खिलाफ दिल्ली के सडकों में महिलाओं ने धरना दिया था और १९८० में
महिल संगठन के बलात्कार विरुद्द आंदोलन के कारण ‘मथुरा बलात्कार कांड’को फिर से
खोला गया,यह इस साल के एक महत्वपूर्ण घटना थी। १९७१ से दहेज और वेश्यावृत्ति को
लेकर संघर्ष चल रहा था। ‘सरला मुदगल’ के अनुसार इस समय (७५-७८) महिला आंदोलन की
चेतना का दौर है। दोषियों को गिरफ्तार करना,कानून में संशोधन की माँग की गयी है।
बलात्कार, दहेज हत्या, पुलिस अत्याचार आदि के खिलाफ और दहेज क़ानून, अपराध
क़ानून,विवाह क़ानून, पारिवारिक अदालतों की स्थापना, थाने में महिला पुलिस, महिलाओं
केलिए अलग थानें आदि मुद्दे उठाये गए। इसके साथ
सामाजिक-व्यवस्था के कई विरोधी बिंदुओं को वे पहचानते हुए, मनुस्मृति को
नकारा और महिला विरोधी रूप जाति –व्यवस्था को भी ललकारा। इन सबके दबाव के तहत
क़ानून में बदलाव आया कि ‘दहेज विरोधी अधिनियम’, ‘महिला अत्याचार विरोधी प्रभाग’ की
स्थापना, ‘पारिवारिक अदालतों’ की स्थापना,’अपराध कानून में दो बार संशोधन’ आदि। इसके
साथ ‘सेवा’,’अन्नपूर्ण’,’वर्किंग वूमेन फोरम’ आदि ने महिला आन्दोलनों को अधिक
संपन्न किया। उस समय वे यह महसूस करने लगीं कि आर्थिक स्वालंबन और शिक्षा के बिना
वह किसी भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती।
महिला विरोधी अनेक आन्दोलनों के
बावजूद महिलाएं यह भी महसूस करने लगीं कि राजनीतिक स्तर पर उसे पहूँचना चाहिए
क्योंकि राजनीतिक निर्णय-प्रक्रिया में भागीदार हुए बिना वे व्यवस्था में परिवर्तन
ला नहीं सकती हैं। फिर भी वे सामाजिक,आर्थिक,राजनीतीक ,धार्मिक हर स्तर पर चुनौती
दे चुकी हैं। इसतरह ८५-९० का दौर आक्रामक रहा। तत्कालीन समाज में ‘राजीव गाँधी’ के
नेतृत्व में अलग ‘महिला या बाल कल्याण विभाग’,तथा महिलाओं को लोक सभा में
लाना,राष्ट्रीय आयोग का गठन ,राष्ट्रीय महिला परिदृश्य आदि की स्थापना हुई है ।
इसतरह उन्होंने स्त्री की स्थिति में
महिलाओं को निर्णायक प्रक्रिया में भागीदार बनाने और जिसमें से एक व्यवस्था की
गुंजाइश की जाती थी कि वे भविष्य में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामने कमजोर नहीं
होंगी और स्त्री-पुरुष समानता बढ़ेगी। इसतरह यह
दौर महिलों के लिए उपलब्धियों का दौर भी रहा जिसमें उन्हें राजानीतिक तौर
पर पंजायत्ति राज में ३० प्रतिशत आरक्षण प्राप्त
हुआ।
तत्कालीन
युग में भारत में नागरिक स्वतंत्रता ,जनतांत्रिक अधिकारों के लिए अनेक महिलाएँ
सहित कई संगठन और समूह की स्थापना हुई थी ।
क्योंकि वे समझने लगी हैं कि एक मजबूत संगठन द्वारा ही वे अपने शोषण के
मुद्दे को उठा पायेंगे। ‘प्रगतिशील संगठन’, ‘पुरोगामी महिला संगठन’, ‘स्त्री
मुक्ति संगठन’, ‘महिला समता सैनिक दल’,’सेवा’ ,’एडवा’, ‘एन.एफ. आई.डब्ल्यू’ आदि ने
काम काजी दलित आदि महिलाओं के मुद्दे
को उठाया। इस आन्दोलन के चलते १९७५ में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और
१९७५-८५ दशक को महिला दशक घोषित किया।
इसने पूरे विश्व का ध्यान महिलओं की स्थिति की ओर खींचा।
आज
हम २१वीं सदी में पहूँच चुके हैं, जिसे ‘कड़ी चुनौतियों का युग’ भी कहा जा सकता है।
भ्रष्ट राजनीति ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर बना दिया। एक तरह
साम्प्रदायिकता,जातिवाद,उपभोक्तावाद ये सभी महिलाओं को संगठित कराने की मांग करते
हैं, पर दूसरी तरफ उसे सीमित दायरे में धकेल देते हैं। आज मीडिया द्वारा सेक्स या हिंसा का बेचा जाना और
वेश्यावृत्ति का व्यावसायीकरण भी होता जा
रहा है। चिंतनीय बात यह है कि जिस
तरह पहले महिलाएं संगठित होकर एक प्रतिरोध का स्वर सुनायी दे रहा था उसकी
छाया इक्कीसवीं सदी के इन दशकों में कम
दिखाई पड़ी रही है। लेकिन पंजायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण की स्थिति ३०% से
बढ़कर ३३% का हो जाना नारी आंदोलनों के
इतिहास में एक महत्वपूर्ण कड़ी ही है।
यौन
हिंसा और बलात्कार की लगातार होती जा रही
खौफनाक स्थिति ९० के बाद हम देखे जा रहे हैं। इसके विरोधी आंदोलन भी इसी दौर में
ही उभरा। मुंबई में ‘बलात्कार विरोधी मंच’, महिला मंच’ आदि संस्था की स्थापना हुई।
१९७८ में एक गरीबी महिला का पुलीस द्वारा हुए बलात्कार कांट ने ‘बलात्कार विरोधी
आंदोलन’ के लिए मजबूर किया और इसके उपलक्ष्य में महिलाएं १९९७ में
बिहार ,असम,महाराष्ट्र में आन्दोलित हुईं । १९९० के दशक में महिला विकास
कार्यक्रम की कार्यकर्ता ‘भंवरी देवी’ के द्वारा ‘बाल विवाह प्रथा’ रोकने हेतु
रिपोर्ट दर्ज कराई थी जिसके बदले में कुछ
लोगों द्वारा उनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था। इसके अलावा इस बीच भ्रूण हत्या, वेश्यावृत्ति,
मूल्यवृद्दि आदि मुद्दे भी महिलओं द्वारा उठाये गए। १९९५ में भ्रूण हत्या के विरुद्ध ‘बालिका बच्चाओ अभियान’
चलाया। १९९० के दशक में महिलाओं ने प्रजनन, यौन स्वास्थ्य, वेश्याओं के अधिकारों
तथा सुरक्षा के मुद्दे भी उठाया। केरल में, २०१२ में गैस की बढोत्तरी हेतु आंदोलन हुआ था,यह स्त्री मुक्ति का विषय नहीं है तो भी इस आंदोलन
में अनेक महिलाएं संगठित हुई थीं और वे
देशीय -सडकों के किनारे पर चूल्हा जलाकर विरोधी प्रदर्शन किए थे जो पहले के मूल्य
विरोधी आंदोलन के सामान था क्योंकि रसोई गैस की मूल्य वृद्दी, पुरुष के बजाए
स्त्री को ही ज्यादा प्रभावित किया था जिसमें पुरुष भी अधिक मात्र में भागीदार हुए
थे।
आगे
चलकर ‘निर्भया बलात्कार कांड’, उन्नाव बलात्कार कांठ, कठुआ गैगरेप आदि झकझोर
करनेवाले हत्याकांड के चलते यौन हिंसा के
खिलाफ भारत के हर राज्य में स्त्री और पुरुष
संगठित होने पर मजबूर हुए । वे संगठित होकर अपनी- अपनी जगहों में आन्दोलित हुए और पोस्टर या मोमबत्ती
जलाकर विरोधी प्रदर्शन किये। इस दुर्घटना ने पुन: पूरे राजनीतिक नेताओं का ध्यान
महिला-बलात्कार के विरुद्ध सोचने के लिए बाध्य किया । समाज में निरन्तर स्त्री के प्रति हो रही यौन
-हिंसा और उसके खिलाफ प्रतिरोध के चलते कानून में लगातार संशोधन भी होते रहें।
चिंतनीय
है कि कानून में संशोधन के बावजूद प्रशासन में बढ़ती जा रही भ्रष्टाचार,
भाई-भतीजावाद के चलते महिलाओं को इंसाफ नहीं मिल रहा है। क्योंकि ज्यादात्तर केसों
में आरोपी दोष मुक्त होकर आजाद घूमने की स्थिति देखी जा रही है। ऐसे में नारी
आंदोलन को असफलता की दृषि से देखना होगा। इसके लिए लगता
है कि सभी महिला संगठनों को स्त्री उत्थान व सामाजिक व्यवस्था में बदलाव और मुख्य
रूप से स्त्री की सुरक्षा केलिए राजनीतिक स्तर पर उसकी हिस्सेदारी पर ही अधिक
चर्चा करनी होगी। महिला सुरक्षा स्वयं महिलाओं की उत्तरदायित्व है। इसके लिए उसे
पंजायती स्तर पर ही नहीं बल्कि लोकसभा या राज्यसभाओं में उसकी भागीदारी होना जरूरी
है। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में राजनैतिक स्तर पर एक संगठित महिला
भागीदारी ही महिला सुरक्षा के इस मुद्दे को एक मुकाम तक ले पायेगा। यहाँ ‘महिलाओं
के संगठित भागदारी होने’ से तात्पर्य यह है कि हम लोग जानते हैं कि भारतीय राजनीति
में पुरुषों की बहुलता के बीच गिने –चुने
महिला राजनेताओं की ही भागीदारी हैं। इसलिए उनके लिए महिला राजनेताओं की आवाज़ को
दबाना आसान ही है। अत: अधिक मात्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चत होना भारत के
विकास के लिए आवश्यक है। साथ-साथ समाज की आदि आबादी को राजनीति के बाहर भी केवल
बहसों या चर्चाओं और लिपियों में सीमित न होकर, संगठित होकर सामाजिक आन्दोलनों के
रूप में संघर्ष करना होगा। नारी आंदोलन की पूर्ण सफलता स्त्री
सुरक्षा पर ही निर्भर है।
सहायक प्रोफेसर
कण्णूर विश्वविद्यालय ,केरल
9682200888, evsoorya@gmail.com
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