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क़लंदर : कुर्रतुलऐन हैदर

क़लंदर : कुर्रतुलऐन हैदर




ग़ाज़ीपूर के गर्वमैंट हाई स्कूल की फ़ुटबाल टीम एक दूसरे स्कूल से मैच खेलने गई थी। वहाँ खेल से पहले लड़कों में किसी छोटी सी बात पर झगड़ा हुआ और मारपीट शुरू’ हो गई। और चूँकि खेल के किसी प्वाईंट पर झगड़ा शुरू’ हुआ था, तमाशाइयों और स्टाफ़ ने भी दिलचस्पी ली। जिन लड़कों ने बीच-बचाव की कोशिश की उन्हें भी चोटें आईं और उनमें मेरे भाई भी शामिल थे जो गर्वमैंट हाई स्कूल की नौवीं जमाअ’त में पढ़ते थे। उनके माथे में चोट लगी और नाक से ख़ून बहने लगा। अब हंगामा सारे मैदान में फैल गया। भगदड़ मच गई और जो लड़के ज़ख़्मी हुए थे इस हड़बोंग में उनकी ख़बर किसी ने न ली। इस पसमांदा ज़िले’ में टेलीफ़ोन अ’न्क़ा थे। सारे शहर में सिर्फ़ छः मोटरें थीं और हॉस्पिटल एम्बूलेन्स का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।

वो इतवार का वीरान सा दिन था। हवा में ज़र्द पत्ते उड़ते फिर रहे थे। मैं लक़-ओ-दक़ सुनसान पिछले बरामदे में फ़र्श पर चुप-चाप बैठी गुड़ियाँ खेल रही थी। इतने में एक यक्का टख़-टख़ करता आके बरामदे की ऊंची सत्ह से लग कर खड़ा हो गया और सतरह अठारह साल के एक अजनबी लड़के ने भाई को सहारा देकर नीचे उतारा। भाई के माथे से ख़ून बहता देखकर मैं दहशत के मारे फ़ौरन एक सुतून के पीछे छुप गई। सारे घर में हंगामा बपा हो गया। अम्माँ बदहवास हो कर बाहर निकलीं। अजनबी लड़के ने बड़े रसान से उनको मुख़ातिब किया... “अरे-अरे देखिए, घबराईए नहीं। घबराईए नहीं। मैं कहता हूँ।”

फिर वो मेरी तरफ़ मुड़ा और कहने लगा..., “मुन्नी ज़रा दौड़ कर एक गिलास पानी तो ले आ भैया के लिए”, इस पर कई मुलाज़िम पानी के जग और गिलास लेकर भाई के चारों तरफ़ आन खड़े हुए और लड़के ने उनसे सवाल किया..., “साहिब किधर हैं?”

“साहिब बाहर गए हुए हैं...”, किसी ने जवाब दिया...

“नहीं... नहीं... दफ़्तर में बैठे हैं”, दूसरे ने कहा।

लड़का मज़ीद तवक़्क़ुफ़ के बग़ैर आगे बढ़ा और गैलरी में से गुज़रता इधर-उधर देखता अब्बा जान के दफ़्तर तक जा पहुँचा। अब्बा जान दरवाज़े बंद किए किसी अहम मुक़द्दमे का फ़ैसला लिखने में मसरूफ़ थे। लड़के ने दस्तक दी और अंदर दाख़िल हो गया। और मेज़ के सामने जाकर बड़ी ख़ुद-ए’तिमादी और मतानत से बोला, “साहिब आपके साहबज़ादे हमारे स्कूल में मैच खेलने आए थे, उनको थोड़ी सी चोट आई है क्योंकि खेल-खेल में दंगा हो गया था। मेरा नाम इक़बाल बख़्त है। मैं मुंशी ख़ुश-बख़्त राय सक्सेना का लड़का हूँ, जो सिटी कोर्ट में मुख़्तार हैं। आपसे मेरी दरख़्वास्त है कि हमारा स्कूल बंद करने का हुक्म न दें और लड़कों पर जुर्माना भी न करें, क्योंकि एक तो हमारे इम्तिहान होने वाले हैं और दूसरे हमारे लड़के बहुत ग़रीब हैं...”

अब्बा जान ने सर उठा कर उसे देखा और उसकी मुदल्लिल और पुर-ए’तिमाद तक़रीर सुनकर बहुत मुतास्सिर और महज़ूज़ हुए। उन्होंने उसे बड़ी शफ़क़त से अपने पास बिठाया।

इसी तरह से इक़बाल मियाँ का हमारे यहाँ आना जाना शुरू’ हुआ। भाई से उनकी काफ़ी दोस्ती हो गई। मगर वो ज़ियादा-तर घर की ख़वातीन के पास बैठते थे। उमूर-ए-ख़ाना-दारी पर सलाह मश्वरे देते थे। बाज़ार के भाव और दुनिया के हालात पर रोशनी डालते या लतीफ़े सुनाते। जब वो दूसरी मर्तबा हमारे हाँ आए थे, तब मैंने भाई को आवाज़ दी थी...

“इक़बाल मियाँ हैं।”

वो फ़ौरन निहायत वक़ार से चलते हुए मेरे नज़दीक आए और डपट कर बोले, “देखो मुन्नी मैं तुमसे बहुत बड़ा हूँ। मुझे इक़बाल भाई कहो... क्या कहोगी?”

“इक़बाल भाई...”, मैंने ज़रा सहम कर जवाब दिया

इक़बाल भाई मुझे हमेशा मुन्नी ही पुकारते रहे। मुझे उनके दिए हुए इस नाम से सख़्त चिढ़ थी। मगर हिम्मत न पड़ती थी कि उनसे कहूँ कि मेरा अस्ल नाम लिया करें। अब वो सारे घर के लिए “इक़बाल मियाँ इक़बाल भाई और “इक़बाल भैया” बन चुके थे।

पहलू के लॉन पर अमलतास का बड़ा दरख़्त हमारे लिए बड़ी अहमियत रखता था कि उसके साये में खाट बिछा कर फ़ुर्सत के औक़ात में महफ़िल जमती थी। उसकी सदारत ड्राईवर साहिब करते थे। नायब सदर इक़बाल भाई ख़ुद-ब-ख़ुद बन गए। इस महफ़िल के दूसरे अराकीन उस्ताद यूसुफ़ ख़ाँ जमुना पांडे महाराज चपरासी अब्दुल बैरा और भाई थे। मैं बिन बुलाए मेहमान की हैसियत से इधर-उधर लगी रहती थी।

उस्ताद यूसुफ़ ख़ाँ के कमरे का तअ’ल्लुक़ अंदर के कमरों से नहीं था और उसका दरवाज़ा उसी लॉन पर खुलता था। उस्ताद पुराने स्कूल के निहायत नस्ता’लीक़ और सिक़ा मूसीक़ार थे। रामपूर दरबार से उनका तअ’ल्लुक़ रह चुका था। शाइ’री भी करते थे और दिन-भर नवलकिशोर प्रैस के छपे हुए किर्म-ख़ुर्दा नावल पढ़ा करते थे। बूढ़े आदमी थे। आँखों में सुर्मा लगाते थे और नोकीली मूँछें रखते थे। दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता और चाय बड़े एहतिमाम से कश्ती में सजा कर उनके कमरे में पहुँचा दी जाती थी। सह-पहर को वो अंदर आकर बड़े तकल्लुफ़ से अम्माँ को गुर भैरवी और गति भीमपलासी सिखलाते थे और अम्माँ बैठी सितार पर टन-टन किया करती थीं। इक़बाल भाई उस्ताद के यार-ए-ग़ार बन गए थे और आराईश-ए-महफ़िल, तिलिस्म-ए-होशरुबा, इसरार-ए-लंदन और शरर के नाविलों का लेन-देन दोनों के दरमियान चलता रहता था। इक़बाल भाई इस साल ऐंटरैंस का इम्तिहान देने थे।

एक रोज़ मुझे एक दरख़्त की शाख़ से लटकता देखकर उन्होंने अम्माँ से कहा, “मुन्नी पढ़ती लिखती बिल्कुल नहीं। हर वक़्त डंडे बजाया करती है।”

“यहाँ कोई स्कूल तो है नहीं, पढ़े कहाँ?” अम्माँ ने जवाब दिया

पिछले दिनों मेरे एक फूफी-ज़ाद भाई ने मुझे हिसाब सिखाने की हर मुम्किन कोशिश कर देखी थी और नाकाम हो चुके थे। अब इक़बाल भाई... फ़ौरन वालंटियर बन गए।

“इम्तिहान के बा’द मैं इसे पढ़ा दिया करूँगा।”

अगले इतवार को इक़बाल भाई ने मेरा इंटरव्यू लिया, “अंग्रेज़ी तो इइसे थोड़ी सी आ गई है, उर्दू फ़ारसी में बिल्कुल कोरी है”, उन्होंने अम्माँ को रिपोर्ट दी और इसके बा’द उन्होंने रोज़ाना नाज़िल होना शुरू’ कर दिया।

उनकी तनख़्वाह दस रुपये माहवार मुक़र्रर की गई। रोज़ शाम के चार बजे उनका यक्का दूर फाटक में दाख़िल होते देखकर मेरी जान निकल जाती। गर्मियाँ शुरू’ हो चुकी थीं। इक़बाल भाई ने हुक्म दिया, “हम बाग़ में बैठ कर तुझे पढ़ाएँगे, तेरा दिमाग़ जिसमें भूसा भरा हुआ है, ठंडी हवा से ज़रा ताज़ा होगा।”

लिहाज़ा पिछले बाग़ में फ़ालसे के दरख़्त के नीचे मेरी छोटी सी बेद की कुर्सी और इक़बाल भाई की कुर्सी मेज़ रखी जाती। जिस रोज़ मैं नेकी की जून में होती तो माली से बाग़ की बड़ी झाड़ू मांग लाती और फ़ालसे के नीचे इक़बाल भाई की कुर्सी की जगह पर ख़ूब झाड़ू देती और यूँ भी पढ़ाई के मुक़ाबले में मुझे बाग़ में झाड़ू देना कहीं ज़ियादा अच्छा लगता था।

इक़बाल भाई जमा तफ़रीक़ पर सर खपाने के बा’द हुक्म देते, “तख़्ती लाओ।”

तख़्ती पर वो बेहद ख़ुश-ख़ती से लिखते।

क़लम गोयद कि मन शाह-ए-जहानम
क़लम-कश रा बदौलत मी रसानम

अपने टेढ़े-मेढ़े हुरूफ़ में मैं इस शे’र को कई मर्तबा लिखती, यहाँ तक कि मेरी उँगलियाँ दुखने लगतीं और मैं दुआ’ माँगती, “अल्लाह करे इक़बाल भाई मर जाएँ... अल्लाह करे...”

एक मर्तबा में सबक़ सुनाने के बजाए कुर्सी पर खड़ी हो कर एक टांग से नाच रही थी कि इक़बाल भाई को दफ़अ’तन बे-तहाशा ग़ुस्सा आ गया। उन्होंने मेरे कान इस ज़ोर से ऐंठे कि मेरा चेहरा सुर्ख़ हो गया और मैं चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। मगर उसके बा’द से मैंने शरारत कम कर दी। इक़बाल भाई अभी मुझे पाँच छः महीने ही पढ़ा पाए होंगे कि अब्बा जान का तबादला ग़ाज़ीपूर से इटावे का हो गया।

अगले दो तीन साल तक इक़बाल भाई के अम्माँ के पास कभी-कभार ख़त आते रहे, “अब हमने एफ़.ए. करने का इरादा भी छोड़ दिया है। ऐंटरैंस में थर्ड डिवीज़न मिला। इस वज्ह से हमारा दिल टूट गया है। बस अब हम भी मुंसरिम पेशकार क़ानून-गो या क़र्क़-अमीन की हैसियत से ज़िंदगी गुज़ार देंगे, या हद से हद वालिद साहिब क़िबला की मानिंद मुख़तार बन जाएँगे। इसलिए कभी सोचते हैं क़ानून का इम्तिहान दे डालें। और इस कोरदेह में रह कर कर भी क्या सकते हैं?”

फिर उनके ख़त आने बंद हो गए।

मैं आई.टी. कॉलेज लखनऊ के फ़र्स्ट ईयर में पढ़ रही थी। उस दिन हमारे यहाँ कुछ मेहमान चाय पर आए हुए थे। सब लोग नशिस्त के कमरे में बैठे थे कि बरामदे में आकर किसी ने आवाज़ दी, “अरे भाई है?”

“कौन है?”, अम्माँ ने कमरे में से पूछा।

“हम आए हैं... इक़बाल बख़्त...”

अम्माँ ने बे-इंतिहा ख़ुश हो कर उन्हें अंदर बुलाया। कमरे में बहुत जगमगाते क़िस्म के लोगों का मजमा’ था। इक़बाल भाई चारों तरफ़ नज़र डाल कर ज़रा झिजके। मगर दूसरे लम्हे बड़े वक़ार के साथ अम्माँ के क़रीब जाकर बैठ गए। फिर उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और उन्होंने बेहद मसर्रत से चिल्ला कर कहा, “अरी मुन्नी... तू इतनी बड़ी हो गई?”

मैं नई-नई कॉलेज में दाख़िल हुई थी और अपने कॉलेज स्टूडैंट होने का सख़्त एहसास था। इक़बाल भाई ने जब सब लोगों के सामने इस तरह “अरी मुन्नी कह कर मुख़ातिब किया तो बेहद कोफ़्त हुई।

इक़बाल भाई मैला सा पायजामा और घिसी हुई शेरवानी पहने थे और ज़ाहिर था कि उनकी माली हालत बहुत सक़ीम थी। मगर उन्होंने मुख़्तसरन इतना ही बताया कि कानपूर में मुलाज़िम हो गए हैं और प्राईवेट तौर पर एफ़.ए.सी.टी. कर चुके हैं। फिर वो अब्बा जान के कमरे में गए और उनके पास बहुत देर तक बैठे रहे। इसके बा’द इक़बाल भाई फिर ग़ायब हो गए।

दस साल बा’द... मुझे लंदन पहुँचे छः सात रोज़ ही हुए थे, मैं बी.बी.सी. के उर्दू सैक्शन में बैठी हुई थी कि किसी ने आवाज़ दी, “अरे भाई सक्सेना साहिब आ गए कि नहीं?”

“आ गए”, ये कहते हुए इक़बाल बख़्त सक्सेना पर्दा उठाकर कमरे में दाख़िल हुए। घिसी हुई बरसाती ओढ़े। अख़बारों का पुलिंदा और एक मोटा सा पोर्टफोलियो सँभाले मेरे सामने से गुज़रते, एक मेज़ की तरफ़ चले गए। फिर उन्होंने पलट कर मुझे देखा। पहले तो उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। टकटकी बाँधे चंद लम्हों तक देखते रहे, “अरी मुन्नी!”, उनके मुँह से निकला। फिर आवाज़ भर्रा गई।

वो मेरे पास आकर बैठे और अब्बा जान की ख़ैरियत पूछी...

“अब्बा जान का तो कई साल हुए इंतिक़ाल हो गया, इक़बाल भाई!”, मैंने कहा।

ये सुन के वो फूट-फूटकर रोने लगे। उर्दू सैक्शन के अराकीन ने उनको रोता देखकर ख़ामोशी से अपने-अपने काग़ज़ात पर सर झुका लिया।

उन्होंने मुझे बताया कि कानपूर की मुलाज़िमत इसी साल छूट गई थी। फिर वो सारे मुल्क में जूतियाँ चटख़ाते फिरे। इसी दौरान में उनके वालिदैन का इंतिक़ाल हो गया। वो इकलौते बेटे थे। छोटी बहन की किसी गाँव में शादी हो चुकी थी। आज़ादी के बा’द जब क़िस्मत आज़माई के लिए इंग्लिस्तान, कैनेडा और अमरीका जाने की हवा चली तो वो भी एक दिन ग़ाज़ीपूर गए। अपना आबाई मकान फ़रोख़्त किया और उसके रुपये से जहाज़ का टिकट ख़रीद कर लंदन आ पहुँचे। पिछले चार साल से वो लंदन में थे और यहाँ भी मुख़्तलिफ़ क़िस्म के पापड़ बेल चुके थे। किसी को उनके मुतअ’ल्लिक़ ठीक से मा’लूम न था कि वो क्या करते हैं। मुझसे भी उन्होंने एक मर्तबा गोल-गोल अल्फ़ाज़ में सिर्फ़ इतना ही कहा, “रीजेन्ट स्ट्रीट पोलीटैक्निक में इक्नोमिक्स पढ़ रहा हूँ।”

जिस इदारे का उन्होंने नाम लिया, मैं उसकी अस्लियत से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ हो चुकी थी। जब लोग इसी मुबहम से लहजे में ये कहते कि वो रीजेन्ट स्ट्रीट पोलीटैक्निक में जर्नलिज़्म पढ़ रहे हैं या इक्नोमिक्स पढ़ रहे हैं या फ़न-ए-संग-तराशी या फोटोग्राफी सीख रहे हैं, तो मज़ीद किसी शक-ओ-शुबह की गुंजाइश न हो सकती थी।

लेकिन बहुत जल्द मुझे ये मा’लूम हो गया कि इक़बाल भाई लंदन के हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी तालिब-ए-इ’ल्मों की कम्यूनिटी के अहम सुतून की हैसियत रखते हैं। कोई हंगामा, जलसा, जलूस, झगड़ा, फ़साद, इलैक्शन, तीज तहवार उनके बग़ैर मुकम्मल न हो सकता था। तस्वीरों की नुमाइश है तो हाल वो सजा रहे हैं। नाच-गाने का प्रोग्राम है तो माईक्रोफ़ोन लगा रहे हैं। ड्रामा है तो ये रीहरसल के लिए लोगों को पकड़ते फिर रहे हैं। दा’वत है तो डाइनिंग हाल में मुस्तइ’द खड़े हैं। कभी-कभी वो मंज़र पर से ग़ायब हो जाते और इत्तिला मिलती कि इतवार के रोज़ पेटीकोट लेन की मंडी में लोगों को क़िस्मत का हाल बताते हुए पाए गए या ग्लास्गो के किसी बाज़ार में हिन्दुस्तानी जड़ी बूटियाँ फ़रोख़्त करते नज़र आए।

एक दफ़ा’ मा’लूम हुआ कि शहर के एक फ़ैशनेबल मुहल्ले के एक आ’लीशान फ़्लैट में फ़रोकश हैं। कभी वो बढ़िया रेस्ट्राँ में नज़र आते। कभी मज़दूरों के चाय ख़ानों में दिखाई पड़ते। इक़बाल भाई शाइ’री भी करते थे। आस्ट्रेलिया और एम.सी.सी. के तारीख़ी मैच के दिनों में उन्होंने एक लिखा,

हर ताज़ा विकेट पर हमा-तन काँप रहा है
बोलर है बड़ा सख़्त हटन काँप रहा है
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है

इक़बाल भाई को फ़न-ए-मौसीक़ी, इ’ल्म-ए-ज्योतिष, पामिस्ट्री, होम्योपैथी, तिब्ब-ए-यूनानी और आयुर्वेदिक से लेकर पोल्ट्री फार्मिंग, काश्तकारी और बाग़बानी तक हर चीज़ में दख़्ल था और हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़ की महफ़िलों में बिला-नाग़ा शिरकत करते थे।

हम दो तीन लोगों ने मिलकर एक फ़िल्म सोसाइटी बनाई, जिसमें हम बंबई से फिल्में मंगवा कर हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पब्लिक को दिखाते थे। उस दिन इक़बाल भाई बरात के दूल्हा बने हुए टिकट बेच रहे हैं। मेहमानों को ला-ला कर बैठाल रहे हैं। फ़िल्म शुरू’ होने से पहले स्टेज पर जाकर मिस महताब या मिस नसीम या मिस निम्मी को गुलदस्ता पेश कर रहे हैं। उस ज़माने में उन्होंने ये भी तय कर लिया कि बंबई जाकर एक अ’हद-आफ़रीं फ़िल्म बनाएँगे, जिसकी कहानी मकालमे और गीत ख़ुद लिखेंगे। डायरेक्ट भी ख़ुद करेंगे और हीरो के बड़े भाई या हीरोइन के बाप का रोल भी ख़ुद अदा करेंगे और मजमूई’ तौर पर सारी फ़िल्म इंडस्ट्री पर रोलर फेर देंगे।

इक़बाल भाई शराब को हाथ नहीं लगाते थे और मंगल के मंगल गोश्त नहीं खाते थे। एक रोज़ वो मुझे एक सड़क पर नज़र आए। इस हालत में कि हाथ में बहुत क़ीमती फूलों का एक गुच्छा है और लपके हुए चले जाते हैं।

मुझे देखकर बोले, “ आओ... आओ... मैं ज़रा एक दोस्त को देखने हस्पताल जा रहा हूँ...”

मैं साथ हो ली। हस्पताल में एक इस्लामी मुल्क के सफ़ीर की बेगम साहिब फ़िराश थीं। इक़बाल भाई ने उनके कमरे में दाख़िल हो कर गुलदस्ता मेज़ पर रखा और निहायत ख़ुलूस से मरीज़ की मिज़ाज-पुर्सी में मसरूफ़ हो गए। इतने में सफ़ीर की बेटी अंदर आई और बेहद तपाक से उनसे मिली। मैंने हैरत से ये सब देखा।

बाहर आकर कहने लगे, “भई ये लोग हमारे दोस्त हैं। बहुत अच्छे लोग हैं बेचारे!”

“साहब-ज़ादी से आपकी मुलाक़ात किस तरह हुई?”

“लंबा क़िस्सा है, फिर कभी बताएँगे।”

वो लड़की बेहद बद-दिमाग़ थी। यूनीवर्सिटी में पढ़ती थी और हद से ज़ियादा ऐन्टी-इंडियन मशहूर थी। उस वक़्त भी उसने हस्पताल के कमरे में कोई ना-गवार सा सियासी तज़किरा छेड़ दिया था।

“भई अगर हिन्दोस्तान को गालियाँ देकर उसका दिल ठंडा होता है”, इक़बाल भाई ने ज़ीना उतरते हुए मुझसे कहा, “तो इसमें मेरा क्या हर्ज है? उसको इसी तरह शांति मिलती है...”

इसके कुछ अ’र्से बा’द ही एक शाम वो अंडर-ग्राऊड में मिल गए। साथ ही वो लड़की और उसकी एक कज़िन भी थी।

लड़की ने मुझसे कहा, “हम लोग एक मजलिस में जा रहे हैं। आप भी चलिए।”

“मैं तो न जा सकूँगी। मैंने थेटर के टिकट ख़रीद लिए हैं...”, मैंने मा’ज़रत चाही।

इक़बाल भाई ने बड़े सदमे से मुझे देखा, “मुहर्रम की सातवीं तारीख़ को थेटर जा रही हो?”

मैं बेहद शर्मिंदा हुई।

“मुझे याद न रहा था”, मैंने जवाब दिया।

“आप शीया हैं या सुन्नी?”, दूसरी लड़की ने सवाल किया।

“मैं क़ादियानी हूँ”, मैंने जवाब दिया

“क़ादियानी?”, वो ख़ामोश हो गई। चंद मिनट बा’द सफ़ीर की लड़की ने इज़हार-ए-ख़याल किया, “इक़बाल साहिब तो बड़े मोमिन आदमी हैं। आजकल के शीयों में अपने मज़हब का इतना दर्द कहाँ है?”

इतने में स्टेशन आ गया और वो तीनों ट्रेन से उतर गए।

अगले रोज़ बी-बी सी में इक़बाल भाई से मुलाक़ात हुई तो मैंने कहा, “इक़बाल भाई अब आप ये फ़्राड भी करने लगे। इन लड़कियों के सामने आपने ख़ुद को मुसलमान ज़ाहिर किया है? न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि शीया...”

जवाब मिला... “देख मुन्नी... दुनिया में इस क़दर तफ़र्रुक़ा है कि सब लोग एक दूसरे की जान को आए हुए हैं। मेरी जब इस लड़की से मुलाक़ात हुई तो वो मेरे नाम की वज्ह से। मुझे मुसलमान समझी और मेरे सामने हिंदुओं की और हिन्दोस्तान की ख़ूब-ख़ूब बुराईयाँ कीं। इसके बा’द अगर मैं उसे बता देता कि मैं हिंदू हूँ तो उसे किस क़दर ख़जालत होती, और फिर इस में मेरा क्या हर्ज है। मेरे ख़ानदान में सैकड़ों बरस से फ़ारसी नाम रखे जाते हैं। इससे हिंदू धर्म पर कोई आँच नहीं आई। अब अगर मैंने ख़ुद को मुसलमान ज़ाहिर कर दिया तो दुनिया पर कौन सी क़यामत आ जाएगी? बताओ? अरे वाह मुन्नी! इतनी बड़ी अफ़लातून बनती हो, मगर अ’क़्ल में वही भूसा भरा है।”

एक शाम में अपनी एक दोस्त ज़ाहिदा के हाँ गई। वो बेहद तनदही से पैकिंग में जुटी हुई थी और अपने सारे ख़ानदान समेत अगले रोज़ सुब्ह-सवेरे रुख़्सत पर कराची वापिस जा रही थी। ज़ाहिदा के घर पर मुझे याद आया कि इक़बाल भाई ने ऑस्ट्रेलियन तलबा की एक तक़रीब में मदऊ’ किया है, “ज़रूर आना, ऑस्ट्रेलियन बेचारे ये महसूस करते हैं कि उन्हें बहुत ही ग़ैर-दिलचस्प और बेरंग क़ौम समझा जाता है। उनका दिल नहीं टूटना चाहिए।”

चंद रोज़ क़ब्ल मैं एक नया हैंड बैग ख़रीद कर ज़ाहिदा के हाँ छोड़ गई थी। चलते वक़्त ख़याल आया कि उसे लेती चलूँ, बैग ज़ाहिदा की सिंघार मेज़ पर रखा था। वो दूसरे कमरे में अस्बाब बांध रही थी। मैंने जाते हुए उसे आवाज़ दी कि मैं बैग लिए जा रही हूँ।

“अच्छा”, उसने जवाब दिया।

मैं नीचे आ गई ।

ऑस्ट्रेलियन तलबा के हाँ इक़बाल भाई हाल के वस्त में खड़े आस्ट्रेलिया और हिन्दोस्तान के दोस्ताना तअ’ल्लुक़ात पर धुआँ-धार तक़रीर कर रहे थे। मैं बराबर के कमरे में गई, जहाँ बहुत से लड़कों, लड़कियों का मजमा’ था। और चार पाँच वेटर चाय बना-बना कर सबको दे रहे थे। मैंने नया हैंड बैग वहीं एक खिड़की में रख दिया और चाय पीने के बा’द हाल में लौट आई। चलते वक़्त मुझे हैंड बैग का ख़याल आया। मैं उसे अंदर से उठा लाई और इक़बाल भाई के हाथ में दे दिया। शायद उसका खटका खुल गया था।

ज़ीने से उतरते हुए उन्होंने खटका बंद किया और बोले, “इतने ढेर नोट?”

मैंने बे-ध्यानी में उनकी बात पूरी तरह नहीं सुनी और इधर-उधर की बातों में लगी रही। स्टेशन पर इक़बाल भाई ने बैग मुझे थमा दिया। घर पहुँच कर मैंने देखा कि ज़ाहिदा की कार बाहर खड़ी है और दोनों मियाँ बीवी इंतिहाई सरासीमगी की हालत में लैंडलेडी मिसिज़ विंगफ़ील्ड से कुछ पूछ रहे हैं। ज़ाहिदा मुझे देखकर हकलाने लगी..., “वो... वो बैग... वो बैग...”

“हाँ हाँ मेरे पास है तो... क्यों?”

“उसमें मैंने पूरे पाँच सौ पाऊंड के नोट ठूँस दिए थे। तुम्हारे जाने के बा’द याद आया और तुम्हारी भुलक्कड़ आदत का ख़याल कर के जान निकल गई कि अगर तुमने बटुवा रास्ते में कहीं इधर-उधर छोड़ दिया तो क्या होगा...? या अल्लाह तेरा शुक्र... अल्लाह तेरा शुक्र... या अल्लाह...”

दूसरे रोज़ बी.बी.सी. में मैंने इक़बाल भाई को ये सनसनी-खेज़ वाक़िआ’ सुनाया। इत्मीनान से बोले, “वो तो मैंने बैग में पहले ही देख लिया था कि नोट ठुँसे हुए हैं।”

“आपने मुझे उसी वक़्त क्यों ना बताया?”

“मैंने कहा तो था तुमने सुना ही नहीं।”

“आपको ये ख़याल भी ना आया कि मेरे पास इतना रुपया कहाँ से आ गया, जिसे मैं इत्मीनान से अधखुले बैग में लिए घूम रही हूँ।”

“मैंने सोचा, कहीं से आ ही गया होगा। पूछने की क्या ज़रूरत थी?”

“और दो घंटे वो बैग इसी तरह खिड़की में रखा रहा। अगर उस वक़्त चोरी हो जाता तो मैं ज़ाहिदा को क्या मुँह दिखाती? या अल्लाह... या अल्लाह...!”

“देख मुन्नी होनी को कोई अनहोनी नहीं कर सकता। तेरी गोईयाँ की क़िस्मत में था कि उसका रुपया उसे सही सलामत वापिस मिल जाए। अब तू क्यों फ़िक्र कर रही है? ये बता तूने अच्छम्मा के लिए बात की?”

अच्छम्मा कोसूकुट्टी एक परेशान हाल-ए-दिल-गिरफ़्ता सी लड़की थी जो बहुत दिनों से मुलाज़िमत और एक सस्ते से कमरे की तलाश में थी। हाल ही में मिसिज़ विंगफ़ील्ड के तहखाने में एक कमरा ख़ाली हुआ था, जिसका किराया सिर्फ़ ढाई पौंड फ़ी-हफ़्ता था। मिसिज़ विंगफ़ील्ड का इसरार था कि वो अपने मकान में हर चलते-फिरते, ऐरे-ग़ैरे को किराएदार नहीं रखतीं और सिर्फ़ बेहतरीन ख़ानदानों और आ’ला तबक़े के अफ़राद को अपने यहाँ रहने का शरफ़ बख़्शती हैं। उनके मरहूम शौहर कोलोनल सर्विस में थे, ओरम्सिज़ विंगफ़ील्ड बरसों कोलंबो में बड़ी मेमसाहब की हैसियत से ज़िंदगी गुज़ार चुकी थीं। उनके सुसर नाइट थे वग़ैरह-वग़ैरह, लेकिन मियाँ के मरने और सल्तनत-ए-बर्तानिया के ज़वाल के बा’द वतन वापिस आकर उन्हें लैंड लेडी बनना पड़ा था। अक्सर ज़ीने पर चढ़ते या उतरते हुए वो मेरा रास्ता रोक कर अपनी अ’ज़्मत-ए-रफ़्ता के क़िस्से सुनाने लगतीं।

एक दिन उन्होंने बड़े राज़दाराना लहजे में बेहद उदासी से मुझसे कहा था, “एक बात सुनो इतने अच्छे-अच्छे जैंटलमैन तुम्हारे दोस्त हैं उनमें से किसी एक से मेरी शादी करा दो।”

रात को जब मैंने तहखाने के कमरे के मुतअ’ल्लिक़ उनसे कहा तो न जाने वो किस अच्छी मूड में थीं कि उन्होंने अच्छम्मा कोसूकुट्टी के मुतअ’ल्लिक़ ये तक नहीं पूछा कि वो क्या करती है और हर हफ़्ते किराया अदा कर सकेगी या नहीं। चुनाँचे दो तीन रोज़ में अच्छम्मा कोसूकुट्टी वहाँ मुंतक़िल हो गई।

मेरा फ़्लैट चौथी मंज़िल पर था। दूसरी मंज़िल पर और लोगों के इ’लावा एक टेलीविज़न ऐक्ट्रस ऐडवीना कार्लाइल रहती थी, जिसके मुतअ’ल्लिक़ मिसिज़ विंगफ़ील्ड मुझसे कह चुकी थीं कि मैं तो उसे कभी अपने यहाँ जगह न देती माई डीयर, मगर वो बड़ी ख़ानदानी लड़की है, बस ज़रा उसकी ज़िंदगी पटरी से उतर गई है। मेरी उससे शनासाई सिर्फ़ इस हद तक थी कि ज़ीने पर मुड़भेड़ हो जाती तो वो मुस्कुरा कर हलो कह दिया करती थी। मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने इत्तिला दी थी कि अक्सर वो दिन दिन-भर कमरे में अकेली बैठी शराब पिया करती है। वो अपने शौहर पर बुरी तरह आ’शिक़ थी। मगर उसने इस बे-चारी को तलाक़ दे दी थी। जब ही से इसका ये हाल हो गया था।

एक रात दो बजे के क़रीब मद्धम से शोर से मेरी आँख खुल गई। इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने पुलिस कांस्टेबल खड़ा था और उसके पीछे मिसिज़ विंगफ़ील्ड मारे बद-हवासी के आँय-बाँय-शाँय कर रही थीं...

“ग़ज़ब हो गया... ग़ज़ब हो गया”, उन्होंने कहा, “ऐडवीना ने तुम्हारे ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की से कूद कर ख़ुदकुशी कर ली...!”

“मेरे ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की से?”

“हाँ, सबसे ऊंची खिड़की, बे-चारी ऐडवीना को यही दस्तयाब हुई।”

कांस्टेबल ग़ुस्ल-ख़ाने के अंदर गया। खिड़की के दोनों पट खुले हुए थे। खिड़की के नीचे टब में ऐडवीना का एक स्लीपर पड़ा था। ग़ुस्ल-ख़ाने का दरवाज़ा लैंडिंग पर खुलता था और मिस ऐडवीना कार्लाइल बड़े इत्मीनान से उसमें दाख़िल हो कर नीचे कूद गई थीं। मेरे ज़हन में सुब्ह के तहलका-पसंद अख़बारों की सुर्ख़ियाँ कौंद गईं... अब रिपोर्टर मेरा इंटरव्यू करेंगे। उस खिड़की और टब की तस्वीरें खींचेंगी। अल्लाह जाने क्या-क्या होगा... नीचे से आवाज़ों की भनभनाहट बुलंद हुई...

“ज़िंदा है... ज़िंदा है...!”

मैंने झांक कर नीचे देखा। ऐडवीना को एम्बूलैंस में लिटाया जा चुका था।

“ज़िंदा है...?”, मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने ज़रा मायूसी से पूछा और कांस्टेबल के साथ तेज़ी से नीचे उतर गईं।

सुब्ह को ये वाक़िआ’ मैंने बी.बी.सी. कैंटीन में जुमला ख़वातीन-ओ-हज़रात को सुनाया। इतने में इक़बाल भाई आ गए। पूरा क़िस्सा सुनकर बोले, “किस हस्पताल में है?”

मैंने बताया।

इसके बा’द दूसरी बातें शुरू’ हो गईं।

इस बात को चंद हफ़्ते ही गुज़रे थे कि रात के बारह साढ़े बारह बजे शोर से फिर मेरी आँख खुल गई। खिड़की में से मैंने झांक कर देखा कि ग्रांऊड फ़्लोर की सीढ़ियों पर इक़बाल भाई दम-ब-ख़ुद खड़े हैं और मिसिज़ विंगफ़ील्ड उन पर बुरी तरह बरस रही हैं। मैं घबरा कर नीचे उतरी। मिसिज़ विंगफ़ील्ड तक़रीबन हिस्ट्रियाई अंदाज़ में चीख़ थीं।

“मिसिज़ विंगफ़ील्ड क्या बात है?”, मैंने ज़रा दुरुश्ती से पूछा।

वो कमर पर हाथ रखकर मेरी तरफ़ मुड़ीं, “तुम ख़ुद फ़ैसला कर लो... जो गुंडा होगा उसे गुंडा ही कहा जाएगा।”

जब उन्होंने इक़बाल भाई को गुंडा कहा तो मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे मुँह पर थप्पड़ लगा दिया हो। इक़बाल भाई सर झुकाए खड़े थे।

मिसिज़ विंगफ़ील्ड गरजती रहीं...

“तुमको अच्छी तरह मा’लूम है कि मेरे यहाँ जैंटलमैन लड़कियों के कमरे में रात को नहीं ठहर सकते... ये मेरा क़ानून है... अभी मेरे यहाँ एक ख़ुदकुशी की वारदात हो चुकी है। मुझे अपने मकान की नेक-नामी का ख़याल भी करना है। मैं सिर्फ़ आ’ला ख़ानदान...”

“मिसिज़ विंगफ़ील्ड अस्ल बात बताईए क्या है? आप मिस्टर सक्सेना से क्या कह रही हैं?”, मैंने आग-बबूला हो कर पूछा

“उनसे पूछ रही हूँ कि ये रात के साढ़े बारह बजे मिस कोसूकुट्टी के कमरे में क्या कर रहे थे?”

इक़बाल भाई जैसे मुहज़्ज़ब और वज़्अ-दार आदमी को मेरी मौजूदगी में ऐसी लीचड़ बातें सुनना पड़ रही थीं। उनका चेहरा ग़म-ओ-ग़ुस्से से सुर्ख़ हो गया था मगर वो ख़ामोश रहे।

मिसिज़ विंगफ़ील्ड ग़ुस्से से बे-क़ाबू हो कर चंद मिनट तक उसी तरह चिल्लाती रहीं। गैलरी के दरवाज़े खुले और बंद हुए ऊपर की मंज़िलों के दरीचों में से सर बाहर निकाल कर लोगों ने झाँका। इक़बाल भाई चुप खड़े रहे। फिर वो दफ़अ’तन ख़ामोश हो गईं और अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया।

नीचे तहखाने में अच्छम्मा कोसूकुट्टी तेज़ बुख़ार में नीम-बेहोश पड़ी थी। इक़बाल भाई रात के ग्यारह बजे दवा लेकर उसके पास पहुँचे थे और घंटे भर से उसके पास बैठे हुए थे। उसी वक़्त मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने ज़ीने के दरवाज़े में जाकर चिल्लाना शुरू’ कर दिया था।

“मुझे मा’लूम न था कि अच्छम्मा बीमार है”, मैंने नादिम हो कर कहा।

“मैं भी दस बजे के बा’द वापिस आई हूँ।”

“मुझे ख़ुद मा’लूम न था”, इक़बाल भाई ने कहा...

“दस बजे उसका फ़ोन आया कि उसकी तबीअ’त बहुत सख़्त ख़राब है।”

फिर उन्होंने आहिस्ता से बरसाती की जेब में हाथ डाला और एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर मुझे दिया... “उसे रुपये की ज़रूरत होगी। सुब्ह को उसे दे देना”

इतना कह कर वो सर झुकाए हुए सीढ़ियाँ उतर कर फाटक से बाहर चले गए। मैंने लिफ़ाफ़ा खोला। उसमें दस पाऊंड के नोट थे। ये दस पाऊंड इक़बाल भाई ने जाने कौन-कौन से जतन कर के कमाए होंगे। मैं उन्हें सर झुकाए, घिसी हुई बरसाती ओढ़े तेज़ तेज़-क़दम रखते सुनसान सड़क पर एक तरफ़ को जाता देखती रही।

दूसरे दिन में चंद हफ़्ते के लिए शहर से बाहर जा रही थी। वापिस आकर मैं एक और जगह मुंतक़िल हो गई। मुझे मिसिज़ विंगफ़ील्ड से कोफ़्त होने लगी थी। लैंड-लेडियाँ ज़ियादा-तर आ’मियाना होती हैं। मगर मिसिज़ विंगफ़ील्ड जिस इंतिहाई घटिया अंदाज़ में इक़बाल भाई पर चीख़ी थीं, उस मंज़र की याद मेरे लिए बहुत तकलीफ़-दह थी।

अच्छम्मा कोसूकुट्टी तंदुरुस्त हो चुकी थी। उसे कहीं नौकरी भी मिल गई थी, मगर अपने लिए सारी दौड़ धूप करवाने और अपने काम निकलवाने के बा’द उसने इक़बाल भाई की तरफ़ से यकायक सर्द-मेहरी इख़्तियार कर ली। लेकिन वो वज़्अ-दारी से उससे शनासाई निभाते रहे। एक रोज़ फ़ोन की घंटी बजी और एक ख़ातून की आवाज़ आई, “हलो... हलो... मैं मिसिज़ आलोवीहारे बोल रही हूँ!”

“मिसिज़ आलोवीहारे?”, मैंने दुहराया।

“हाँ तुम मुझे पहचानती नहीं...? मैं तुम्हारी पुरानी लैंड लेडी हूँ, साबिक़ मिसिज़ विंगफ़ील्ड... मेरी शादी हो गई है। आज शाम को मेरे साथ आकर चाय पियो!”

शाम को मिसिज़ आलोवीहारे अपने कमरा-ए-नशिस्त के दरवाज़े पर शादाँ-फ़रहाँ मुझसे मिलीं। कमरे के आतिश-दान पर एक तस्वीर रखी थी, जिसमें मिसिज़ आलोवीहारे अपने उ’म्र से कोई दस साल छोटे एक सिन्घाली आदमी के साथ फूलों का गुच्छा हाथ में लिए खड़ी मुस्कुरा रही थीं। दूल्हे के बराबर में इक़बाल बख़्त सक्सेना कोट के कालर में कारनेशन सजाए मुतबस्सिम थे।

“मिस्टर सक्सेना मेरे शौहर के बैस्टमैन थे”, मिसिज़ आलोवीहारे ने इत्तिला दी।

इक़बाल भाई... दूसरे रोज़ मैंने मौसूफ़ से इस्तिफ़सार किया ।

“देख मुन्नी बात ये हुई कि उस रात जो वो बी-बी पंजे झाड़कर इस बुरी तरह मेरे पीछे पड़ गईं तो मैं फ़ौरन समझ गया कि वो हद से ज़ियादा फ़्रस्ट्रेशन और तन्हाई की शिकार हैं। उनकी मदद करना चाहिए। तूने बताया था कि वो काले आदमी तक से शादी करने को तैयार हैं। मैं कोलंबो के इस आलोवीहारे को जानता था, जो किसी दौलतमंद बेवा की तलाश में था। बड़ा शरीफ़ और ग़रीब लड़का है। मैंने मिसिज़ विंगफ़ील्ड का पता उसे बता दिया। दोनों की ज़िंदगी बन गई। इसमें कोई हर्ज हुआ मेरा?”

इक़बाल भाई समेत तलबा का बहुत बड़ा जत्था सालाना यूथ फ़ैस्टीवल के लिए प्राग जा रहा था। इस साल पाकिस्तानी तलबा को कम्यूनिस्ट ममालिक जाने की मुमानअ’त कर दी गई थी और उनमें से चंद लोग इस वज्ह से बहुत दिल-ए-गिरफ़्ता थे।

वफ़द के पराग रवाना होने से एक रोज़ क़ब्ल एक तक़रीब में मशरिक़ी पाकिस्तान के एक तालिब-इ’ल्म ने अफ़सोस से कहा, “हम लोग इस साल नहीं जा सकते... उधर वर्ल्ड का सारा कन्ट्री होगा। ख़ाली पाकिस्तान नहीं होगा...”

इक़बाल भाई फ़ौरन उसके पास गए और रसान से बोले..., “नूरुल-फ़ुर्क़ान भाई दिल छोटा मत करो। पाकिस्तान की नुमाइंदगी मैं कर दूँगा।”

प्राग में दुनिया-भर से आए हुए नौजवान एक अ’ज़ीमुश्शान कॉन्सर्ट में अपने-अपने मुल्कों के अ’वामी गीत गा रहे थे। इतने में स्टेज पर ख़ामोशी छाई। एक लड़की ने अनाउंस क्या, “अब हमारे अ’ज़ीज़ मुल्क पाकिस्तान के नुमाइंदे अपने देस के मज़दूरों का गीत सुनाएँगे।”

पाकिस्तान के नाम पर बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं और सफ़ेद खड़खड़ाती हुई शलवार, सियाह शेरवानी और भूरे रंग की क़राक़ली से मुज़य्यन बेहद रो’ब-दाब और वक़ार से चलते हुए कामरेड इक़बाल बख़्त माईक्रोफ़ोन के सामने आए। पाकिस्तान में अ’वामी और तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की नाकामी के अस्बाब पर रोशनी डाली। और कहा, “साथियो अब मैं आपको अपने वतन-ए-अ’ज़ीज़ के मेहनत-कश तब्क़े का एक महबूब और रूह-परवर गीत सुनाता हूँ।”

और बेहद पाटदार आवाज़ में उन्होंने शुरू’ किया।

बोझ उठा लो हैया-हैया
बोझ उठाया हैया-हैया
महल बनेगा राजा जी का
पेट पलेगा हमारा-तुम्हारा
ऊंचा कर लो हैया-हैया
बोझ उठा लो, शेर बहादुर, हैया-हैया

मजमे’ पर इस गीत का बे-इंतिहा असर हुआ, और हस्ब-ए-मा’मूल सामई’न ने साथ-साथ आवाज़ मिलानी शुरू’ कर दी। मगर आगे चल कर सय्यद मतलबी फ़रीदाबादी के इस मशहूर गीत के बाक़ी बोल इक़बाल भाई के ज़हन से बिल्कुल उतर गए। दर-अस्ल उनको याद ही सिर्फ़ तीन बोल थे। लेकिन उन्होंने बड़े इत्मीनान से गाना रखा,

प्याली कैसे भैया
ऐसे भाई हैया-हैया
चमचा-चमचा उठाया
हाँ हाँ भाई हैया-हैया

हज़ारों के मजमे’ ने एक साथ दोहरा दिया।

चमचा-चमचा उठाया
हाँ हाँ भाई हैया-हैया

इस तरह जो-जो अल्फ़ाज़ इक़बाल भाई के दिमाग़ में आते गए वो हैया-हैया के साथ जोड़ते गए और तालियों के तूफ़ान में उनका गीत इंतिहाई कामयाबी के साथ ख़त्म हुआ।

चैकोस्लोवाकिया से वापसी के कुछ दिन बा’द इक़बाल भाई ने इत्तिला दी, “मैंने साँपों का कारोबार शुरू’ कर दिया है।”

“साँपों का कारोबार?”, मैंने दुहराया।

मगर मुझे मुतलक़ तअ’ज्जुब ना हुआ। क्योंकि इक़बाल भाई कुछ भी कर सकते थे।

“कई सौ बंदर भी हैं...”, उन्होंने ज़रा इन्किसार से इज़ाफ़ा किया।

“दर-अस्ल...”, उन्होंने खंकार कर कहना शुरू’ किया...

“बात ये है मुन्नी कि ये अपने ख़ालिद साहिब जो हैं ना, उनके सुसर मिस्टर चिराग़दीन अमरीका के चिड़ियाघरों और तजरबा-गाहों को साँप और बंदर स्पलाई करते हैं। मुझे उन्होंने अपनी फ़र्म में नौकर रख लिया है और अब मैं वहाँ का काम सँभालने अमरीका जा रहा हूँ।”

चुनाँचे इक़बाल भाई साँपों का कारोबार करने अमरीका चले गए। एक रोज़ डाक के ज़रीए’ मुझे ऐडवीना कारलायल का मुख़्तसर-सा ख़त मिला, जो आयरलैंड से आया था। ऐडवीना कारलायल ने लिखा था,

“सारी दुनिया ने मुझे छोड़ दिया था। मुझे अपने वजूद से नफ़रत हो चुकी थी। मैंने मौत का सहारा ढ़ूँडा। मगर मरने में भी अपनी ज़िंदगी ही की तरह नाकाम रही। साल भर तक मैं प्लास्टर आफ़ पैरिस में जकडी हस्पताल में पड़ी रही और मिस्टर सक्सेना हर हफ़्ता हर मौसम में, हर हालत में घंटा भर के लिए मेरे पास आकर बैठते थे और समझाते थे कि ज़िंदा रहने के लिए हिम्मत न हारना किस क़दर ज़रूरी है। मुझे मा’लूम नहीं आजकल वो कहाँ हैं? ये ख़त मैं आपको इसलिए लिख रही हूँ कि उनको मेरा सलाम पहुँचा दीजिए...”

मगर मुझे भी मा’लूम नहीं था कि मिस्टर सक्सेना आजकल कहाँ हैं, उन्होंने अमरीका पहुँच कर किसी को एक कार्ड तक न भेजा था।

मैं वतन वापिस आ गई। इक़बाल भाई के बारे में किसी को मा’लूम न हुआ कि वो कौन सी वादी और कौन सी मंज़िल में हैं। लेकिन कोई चार साल हुए मेरी एक चचाज़ाद बहन ता’लीम ख़त्म कर के सान फ्रांसिस्को से लूटी तो उसने इत्तिला दी, “मैंने इक़बाल भाई को अपनी आँखों से देखा।”

“कहाँ...?”

“हॉलीवुड में... ख़ास-अल-ख़ास बेवर्ली हिल्ज़ पर...”

“बेवर्ली हिल्ज़ पर क्या करते हैं?”

“रहते हैं, एक बहुत आ’लीशान महल में, जिसमें दो स्विमिंग पल हैं। कैडिलैक कारों की एक फ़्लैट है वग़ैरह-वग़ैरह... मुझे उन्होंने खाने पर भी बुलाया अपने हाँ... नीग्रो बटलर... और... और...”

रावी ने मज़ीद ये बताया कि साँपों के कारोबार के लिए अमरीका पहुँचने के तीसरे दिन ही मिस्टर चिराग़ दीन और मिस्टर इक़बाल बख़्त सक्सेना के दरमियान कुछ इख़्तिलाफ़-ए-राय हो गया, जिसके नतीजे के तौर पर मिस्टर सक्सेना को अपनी मुलाज़िमत से मुस्तफ़ी होना पड़ा। इसके बा’द सुनहरी मवाक़े’ के उस देस में मौसूफ़ अन्वा’-ओ-अक़्साम की मुलाज़िमतें और मज़दूरियाँ करते कैलीफ़ौरनिया पहुँचे। वहाँ सिख और पंजाबी मुसलमान ज़मीन-दारों के खेतों पर काम करते रहे। वहाँ से हॉलीवुड तशरीफ़ ले गए और मशरिक़ के मुतअ’ल्लिक़ बनाई जाने वाली तस्वीरों में चीनी रिक्शा वाले, हिन्दुस्तानी फ़क़ीर, क़ुली और सपेरे और अ’रब बदो के एक-एक दो-दो मिनट वाले रोल ब-ख़ैर ख़ूबी अदा करते रहे। और एक रेस्टोराँ में वेटर बन गए। एक मशहूर प्रोड्यूसर की करोड़ पत्ती बेवा उस जगह कभी-कभी खाना खाने आया करती थी, वो ला-वल्द और बेहद बूढ़ी औ’रत थी जिसे आँखों से भी कम सुझाई देता था और वो बेवर्ली हिल्ज़ पर अपने शानदार महल के अंदर शदीद तन्हाई में ज़िंदा थी...

हालीवुड हुस्न और जवानी का परस्तार है। एक पछत्तर साला बूढ़ी और अंधी औ’रत से दो मिनट बात करने का भी वहाँ किसी के पास वक़्त न था। जब वो रेस्टोराँ में आकर कोने में अपनी मख़सूस मेज़ पर बैठ जाती तो इक़बाल भाई बड़ी मुहब्बत से इसकी मिज़ाज-पुर्सी करते। उनको ये भी मा’लूम न था कि वो कौन है? बूढ़ी उनकी बेहद मम्नून हो गई और उसने उनको अपने घर मदऊ’ किया। फिर वो अक्सर उसके हाँ जाते और उसे अख़बार और रिसाले पढ़ कर सुनाते। उस बूढ़ी की कंपैनियन अपनी दोसराथ के मुआ’वज़े में भारी तनख़्वाह लेती थीं। इक़बाल भाई महज़ जज़्ब-ए-इंसानियत की बिना पर उसके पास बैठे रहते। आख़िर उसने इसरार किया कि वो उसके हाँ मुंतक़िल हो जाएँ। चुनाँचे इक़बाल भाई अब बेवर्ली हिल्ज़ के उस महल में रहते हैं और बढ़िया शायद क़ानूनी तौर पर उनको अपना बेटा बनाने वाली है।

“इक़बाल बख़्त सक्सेना की दास्तान...”, ये सारी कथा सुनकर किसी ने कहा, “कामयाबी की क्लासिक दास्तान है।”

लेकिन छः महीने के बा’द एक और साहिब अमरीका से वापिस आए। उन्होंने इक़बाल भाई को इसी रेस्टोराँ में वेटर के यूनीफार्म में देखा। तब ये मा’लूम हुआ कि उस करोड़-पति बुढ़िया का इंतिक़ाल हो गया। वो काफ़ी ख़ब्ती और सनकी ज़ई’फ़ा थी और अपनी सारी दौलत उसने पैरिस के किसी सब्ज़ी-फ़रोश के नाम छोड़ी है। इक़बाल भाई अपने काम पर वापिस हैं।

आज तीसरे पहर को मैं शारदा महत के घर के सामने से गुज़र रही थी कि उसने मुझे आवाज़ दी। वो उसी वक़्त कार में सवार हो रही थी...

“कहाँ जा रही हो?”, उसने पूछा।

मैंने बताया, “मैं भी इसी तरफ़ जा रही हूँ...”

“आओ, तुमको रास्ते में उतार दूँगी... सत्संग का समय तीन बजे का था। मुझे देर हो गई।”

शारदा महत एक सीधी-सादी, नॉर्मल, मज़हबी क़िस्म की हाऊस-वाइफ़ है और जब से उसकी इकलौती बेटी पोलियो में मुब्तिला हुई है, पूजा-पाट, मंदिरों, यात्राओं, साधू संतों, पीरों-फ़क़ीरों, दरगाहों और मिन्नतों मुरादों का सिलसिला उसके यहाँ बहुत ज़ियादा हो गया है। यूँ भी वो उन लोगों में से है, जिनकी ख़ुश-अ’क़ीदगी, भरोसे, यक़ीन और रिजाइयत की बिना पर दुनिया क़ायम है।

मुज़ाफ़ात में पहुँच कर एक जगह एक गुजराती सेठ की शानदार विला में शारदा की कार दाख़िल हुई। सत्संग ख़त्म हो चुका था और मोटरें वापिस जा रही थीं।

“अरे। तुम्हारा सत्संग तो ख़त्म हो गया”, मैंने कहा।

“कोई बात नहीं। मैं गुरू जी के दर्शन तो कर लूँगी। वो कल सवेरे अमरनाथ जा रहे हैं। मुझे पाँच मिनट लगेंगे। तुम भी उतर आओ”, उसने जवाब दिया।

सामने बरामदे में एक ग़ैर-मुल्की ख़ातून सफ़ेद साड़ी में मलबूस चंदन का बड़ा सा टीका पेशानी पर लगाए फ़र्श पर आलती-पालती मारे बैठी चंद ख़वातीन को गीता का सबक़ दे रही थीं। उनकी उ’म्र चालीस पैंतालीस बरस की रही होगी और लब-ओ-लहजे से अमरीकन मा’लूम होती थीं... शारदा ने नज़दीक जाकर उनको प्रणाम किया।

“ये माता जी हैं”, उसने चुपके से मुझसे कहा और मुझे अपने पीछे आने का इशारा करती हुई कमरे में दाख़िल हुई।

दहलीज़ पर चप्पल उतार कर और आँचल से सर ढाँप कर में भी अंदर गई। कमरे में सफ़ेद चाँदनी बिछी थी जिस पर जा-ब-जा गेंदे के फूल और गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थीं। अ’क़ीदत-मंद अभी-अभी उठकर गए थे, इसलिए चाँदनी पर सिलवटें पड़ीं थीं। एक तरफ़ हारमोनियम, खड़तालें और तानपूरे रखे थे। चौकी पर सफ़ेद बुराक़ कपड़े पहने खिचड़ी बालों की लटें कंधे पर छिटकाए गुरु जी पद्मासन में बैठे थे। गीता का दर्स उन्होंने अभी ख़त्म किया था। किताब चौकी पर रखी थी और वो ख़ामोशी से दरीचे के बाहर देख रहे थे। मुझे ये देखकर क़तअ’न तअ’ज्जुब न हुआ कि वो इक़बाल बख़्त थे।

उन्होंने शायद एक-बार फिर मुझे नहीं पहचाना। अगर पहचाना तो ज़ाहिर नहीं किया। चंद लम्हों तक टकटकी बाँधे वो मुझे देखते रहे। फिर उसी तरह उन्होंने ख़ला पर नज़रें जमा दीं। शारदा ने झुक कर इंतिहाई अ’क़ीदत से उनके पाँव छुए और पीछे हटी और उसने आँखों से मुझे इशारा किया कि मैं उसके साथ बाहर चलूँ, क्योंकि वो दर्शन कर चुकी थी। लेकिन शारदा को ये देखकर तअ’ज्जुब हुआ कि मैं आहिस्ता से आगे बढ़ी और मैंने झुक कर गुरू जी के पाँव छुए।

बचपन में इक़बाल भाई ने मेरे कान ऐंठे थे। डाँट-डाँट कर इंतिहाई सख़्त-गीरी और मेहनत से पढ़ना लिखना-सिखाया था। और उस्ताद का रुत्बा माँ बाप के बराबर होता है। वो दुनिया के लिए जाने किस चक्कर में और किस तरीक़े से “गुरु जी” बन गए थे। लेकिन उनको गुरु जी समझने का हक़ सिर्फ़ मुझे पहुँचता था।

उन्होंने हाथ उठा कर ख़ामोशी से मुझे आशीर्वाद दी और उसी तरह सामने की तरफ़ देखते रहे। मैंने दबे-पाँव दहलीज़ तक पहुँच कर चप्पल पहनी और शारदा के साथ बाहर आ गई। अब मर्दों और औ’रतों की एक क़तार दर्शन के लिए अंदर जा थी।

और बरामदे से उतरते हुए मैंने सोचा कि अगर मैं उनसे सवाल करती”, इक़बाल भाई आपने अब की बार इतना लंबा चौड़ा फ़्राड क्यों किया...?”

तो वो जवाब देते, “देख मुन्नी दुनिया शांति की तलाश में दीवानी हो गई है... अब अगर मैं इस भेस में चंद दुखी आत्माओं को थोड़ी सी शांति दे सकता हूँ तो इस में मेरा क्या हर्ज है?”

और क्या मा’लूम इक़बाल भाई ख़ुद भी मुक्ति के रास्ते पर पहुँच गए हों। अपने दिल का भेद वो ख़ुद जानें... दूसरे जानने वाले कौन...

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