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शिखा वार्ष्णेय जी की रचनाएं-


हर पल ख्वाईशों में पर बांधा किये
छू लेने को सितारों को उचका किये
बांधे हाथों में चक्के
पैरों में पहिये
गिरे, पड़े, घुटने छिले
जब तनिक झुका आस्मां तो
फालिज कन्धों पर पड़ चुकी थी.
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रहे बैठे यूँ
चुप चुप
पलकों को
इस कदर भींचे
कि थोडा सा भी
गर खोला
ख्वाब गिरकर
खो न जाएँ.
थे कुछ
बचे -खुचे सपने
नज़ाकत से
उठा मैने
सहेज लिया था जिन्हें
इन पलकों में.
नफासत से.
जो खोला
पलकों को एक दिन
कि अब
निहार लूं मैं
जरा उनको
तो पाया मैंने ये
कि सील गए थे वे
आँखों के खारे पानी से.
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चल आ गीली मिट्टी का बिछोना कर लें
उस पर तान लें बारिशों की चादर
हथेलियों पे ले बूंदों का झुनझुना
 खेलें पकड़म पकड़ाई अँगुलियों से
आ इस रात को सहेली कर लें
 और चाँद को बना चोर, भागें
आ चल जी लें ज़रा.
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देवनागरी लिपि है मेरी,
संस्कृत के गर्भ से आई हूँ.
प्राकृत, अपभ्रंश हो कर मैं,
देववाणी कहलाई हूँ.
शब्दों का सागर है मुझमें,
झरने का सा प्रभाव है.
है माधुर्य गीतों सा भी,
अखंडता का भी रुआब है.
ऋषियों ने अपनाया मुझको,
शास्त्रों ने मुझे संवारा है.
कविता ने फिर सराहा मुझको,
गीतों ने पनपाया है.
हूँ गौरव आर्यों का मैं तो,
मुझसे भारत की पहचान।
भारत माँ के माथे की बिंदी,
है हिन्दी मेरा नाम.
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हाँ यह वही तो कदम थे,
उठते उठते रुक जाते थे
किसी अनजानी आशंका से
मस्तिष्क ठेलता था आगे
और मन फिर रोक लेता था
दिल दिमाग की इस हाथापाई में
ठहर जाते थे निरीह से,
पर अब जैसे पहिये लग गए हों
बस दौड़े जाते हैं जो राह दिखे
नहीं सुनते वे किसी की
सच....
बहुत जिद्दी हो गये हैं अब वे.
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कुछ लोगों के पैरों में
लगे होते हैं पहिये
अदृश्य, सांप जैसे,
सुर्र से रेंगने के लिए
यहाँ से वहां पल में.
गतिमान मस्तिष्क
कंप्यूटर की तरह
दुनिया भर की बातों से युक्त
एक क्लिक से पूर्ण होते काम.
आगे पीछे, ऊपर नीचे, दायें बाए,
फैलाते अपने हाथ
समेटते अपना काज.
कुछ लोग रहे होंगे ऑक्टोपस
पिछले जनम में.
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