संजय सेफर्ड की कविताएँ-
वक़्त की रेत
पर पड़े थे
जो तुम्हारे
पांव
वक़्त के साथ
ही मिट गए
सारे निशान
याद होगा
तुम्हें
वक़्त की इसी
रेत पर
बनाया था
तुमने
एक घरौंदा
तिनके-तिनके
को जोड़
उतनी ही शिददत
से
जितनी शिददत
से
चिड़िया बनती
है घोसला
पूरी उमर लगा
दी थी तुमने
उस एक घर को
बनाने में
अपनी हर ख़ुशी
लुटा दी थी तुमने
अपने जीवन को
सजाने में
जिस अच्छे वक़्त
की
बाट जोहते रहे
वह न कभी मेरा
हुआ
न कभी
तुम्हारा
वक़्त की आंधी
ने
किसी को नहीं
बख्शा
कहाँ गए तुम ?
कहाँ के रहे
हम ?
याद है तो बस
वह तुम्हारा
घर
और उस घर में
रखे
तुम्हारे दो
जोड़ी मासूम जूते
जिसे बदल-2 कर
तुम
उमर भर पहनते
रहे
शायद उन्हें
आज भी इंतजार है
तुम्हारे लौट
आने का ...
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वह अब बच्ची नहीं रही
बड़ी हो रही है
और उसे खुद भी विश्वास है
एक दिन बड़ी हो जायेगी पूरी तरह
उसके हाथों में उग आएंगे
कुछ पैने नाखून
वह उन शिकारियों का शिकार करेगी
जो दूसरों का शिकार करते हैं
बड़े प्यार से उन्हें सिखाएगी
प्रेम के कुछ बेहद ही गूढ़ रहस्य
वह उन्हें बताएगी
एक स्त्री में गहरे तक होता है
मां, बहन,
बेटी होने का अंश
तुम्हें अगर प्रेम चाहिए
गहरे अर्थ में प्रेम
या फिर सार्थकता आलौकिक जीवन की
तुम्हें भी प्रेम करना चाहिए
दुनिया की सारी प्रेमिकाओं
दुनिया की सारी लड़कियों से
बिल्कुल निच्छल
बिल्कुल स्वच्छ
उन बच्चियों की तरह
जो मां की कोख में बड़ी होना सीख रही हैं
उसी एक मां, बहन
बेटी के
सूक्ष्म से अंश को
खुद में महसूसते हुए
खुद में रोपते हुए
खुदको बीज से वृक्ष के रूप में
पैदा, विकसित होते
देखते हुए
सच मानों गर ऐसा हुआ
एक दिन तुम भी बाप बनोगे
और वह लड़कियां भी इतनी छोटी कहां रहीं ?
जिसके साथ कभी तुम कभी
आंख-मिचौली खेला करते थे !
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एक लड़की जो खुद को उलट-पुलट
कभी काजल लगा
कभी होंठलाली के रंग को थोड़ा गाढ़ा कर
कभी बालों में खोता बनाती
कभी बालों को खुला रखकर
वक्षों के उभार को छुपाती हुई
हर रोज बदलती रहती है
धूप के आईने में अपनी तस्वीर
वह खुदको कितना बदल पाती है ?
सारी रात सजती है, संवरती है
घर की दहलीज से
एक कदम बाहर निकालती है
चटाक की आवाज़ के साथ
आईने टूटकर सारी राह बिखर जाते हैं
बंद खिड़कियां खुलती
अपनी बालों में खुजली करती
दूर तक उसका पीछा करती हैं
वह लहुलुहान पैरों के साथ लौट आती है
उसके घर में आते ही
टूटे हुए आईने जमीन से उठकर
फिर से जुड़ने लगते हैं
वह फिर से अपने आपको सजाती-संवारती
खुदको सहारा देती
भावनाओं को सहलाती
खुदको जोड़ने की कोशिश करती
अपने जख्मी पैरों के बल पर
आईने के सामने खड़ी हो जाती है
धीरे-धीरे कविताओं और
कहानियों में खोने की कोशिश करती
कभी सिन्ड्रेला
कभी स्नो ह्वाइट बनती
वास्तविक दुनिया से दूर होने के क्रम में
दिवार पर टंगी
एक खूबसूरत पेंटिंग बन जाती है
अच्छी लड़कियां पेंटिंग होती हैं
एक लड़की के 'सुसाईड
नोट' में लिखा था।
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वह वहां भी
जगह तलाश लेती है
जहां तनिक भी जमीन
बची ही नहीं
टूटी हुई देह की
अंगड़ाईयों के लिए
सपने देख लेती है
वह वहां भी
जहां दूर-दूर तक
अथाह बिखराव के बीच
उम्मीद ; नींद के
नामोनिशान तक नहीं
वह वहां भी ढूंढ लेती है
कुछ आवाजें
जख्मी ही सही
खामोशियों को तोड़ने के लिए
हर एक चीख-चिघ्घाड़
दबा लेती है
अपनी छातियो के नीचे
वह धरती नहीं है
ना ही समुंद्र है
और ना ही आकाश
फिर भी जगह पैदा कर लेती है
खुदमें इतनी
जितने में तीनों को समा सके
बिना किसी अवरोध के ही
समझ में नहीं आता
कुछ स्त्रियां
इतनी खाली जगह
क्यों रखती हैं ?
जिसे एक पुरुष चाहकर भी
एक जनम में नहीं भर सकता
खुदको पूरी तरह से
खाली करने के बाद भी
कुछ स्त्रियां
पूरी होने के बाद भी
थोड़ी सी रिक्तता
खुदमें शेष रखती हैं
ताकि पुरूष
एक मां की कोख से
दूसरे मां की कोख में
पैदा होते रहें
और रिक्तता सदैव
एक जरुरी वस्तु बनी रहे।
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