वंदना गुप्ता की कविताएँ-
दुनिया कभी
खाली नहीं होती .........
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सोचती हूँ
सहेज दूँ
ज़िन्दगी की बची अलमारी में
पूरी ज़िन्दगी
का बही खाता
बता दूँ
कहाँ क्या रखा
है
किस खाने में
कौन सा कीमती सामान है
मेरे अन्दर के
पर्स में कुछ रूपये हैं
जो खर्च करने
के लिए नहीं हैं
लिफाफों में
हैं
निकालती हूँ
हमेशा सबके जन्मदिन पर एकमुश्त राशि
करुँगी प्रयोग
किसी जरूरतमंद के लिए
ऐसे ही कुछ
रूपये
तुम सबकी
सैलरी के हैं हरी डिब्बी में
वो भी इसीलिए
निकाले हैं
जो किये जा
सकें प्रयोग
किसी
अनाथाश्रम में या वृद्ध आश्रम में
बाकी तो बता
दूँगी तुम्हे लॉकर का नंबर भी
पता है मुझे
नहीं याद होगा
तुम्हें
निश्चिन्त रहे
हो मुझ पर सब छोड़कर
सुनो
मोह नहीं मुझे
उसका भी
जैसे चाहे
प्रयोग करना
बच्चों को
पसंद आये तो उन्हें देना
न आये तो नए
बनवा देना
जब शरीर ही
नहीं बचेगा
तो ये तो धातु
है , इससे कैसा प्रेम ?
बाकी और कौन
सी चाबी कहाँ रखी है
जानते हो तुम
कभी तुम से या
बच्चों से कुछ छुपाया जो नहीं
इसलिए बताने
को भी ज्यादा कुछ है भी नहीं
तुम सोच रहे
होंगे
तुमसे कुछ
नहीं कहा
एक उम्र के
बाद कहने को कुछ नहीं बचता
दोनों या तो
एक दूसरे को इतना समझने लगते हैं
या फिर .....?
फिर भी मेरी
यादों के तिलिस्म में मत उलझना
वैसे भी सफ़र
कहीं न कहीं ठहरता ही है
उम्र का ढलान
गवाह है
और मैंने ऐसा
कुछ किया ही नहीं
जिसके लिए याद
रखा जाए
विवाह की वेदी
पर
साथ रहने को
मजबूर कर दिए गए अस्तित्वों में
असंख्य छेदों
के सिवा और बचता ही क्या है ?
चलो छोडो ये
सब
विदाई की बेला
में
बस इसे मेरी
इल्तिजा समझना
बच्चों पर
अपनी इच्छाएं मत थोपना
उन्हें उड़ान
भरने देना
कभी जबरदस्ती
मत करना
बस कर सको तो
इतना कर देना
और हाँ बिटिया
अब जिम्मेदारी
तुझ पर होगी
लेकिन
तुम्हीं एक
बात समझनी होगी
खुद की
ज़िन्दगी से न कोई समझौता करना
वर अपने मन का
ही पसंद करना
दबाव और डर से
न ग्रस्त होना
मैं नहीं
होऊँगी तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए
लड़ने को
अपनी लड़ाई
तुम्हें खुद लड़नी होगी
अपनी पहचान
खुद बनानी होगी
यहाँ आसानी से
कुछ नहीं मिलता
जानती हूँ
गिव अप की
तुम्हारी आदत को
तुम्हारे
बदलने से ही दुनिया बदलेगी
न को न और हाँ
को हाँ समझाना
अब तुम्हारा
काम है बच्ची
बेटा
तू भी एक मर्द
है
लेकिन
तू नामर्द न
बनना
इंसानियत की
मिसाल बनना
स्त्री का न
अपमान करना
वो भी इंसान
है तुम सी ही
बस इतनी सी
बात याद रखना
उसके अस्तित्व
पर न प्रश्नचिन्ह रखना
जिस दिन जीवन
में उतार लोगे
अपनी सोच से
दुनिया को बदल दोगे
बाकी
हवा , मिटटी , पानी
का क़र्ज़ तो
साँस देकर भी
न चुका पाऊँगी
चाहे मिटटी
में दबाना या अग्निस्नान कराना
या पानी में
बहाना
देखना मिलूंगी
मिटटी में ही मिटटी बनकर
फिर खिलूंगी
इक फूल बनकर
और बिखर
जाऊँगी फिजाओं में खुशबू बनकर
बस हो जाउंगी
कर्जमुक्त
बाकी
जो यहाँ से
पाया यही छोड़ कर जाना है
अटल सत्य है
ये
इसलिए
मेरे सामान
में अब मेरी किताबें हैं
जो शायद तुम
में से किसी के काम की नहीं
मेरा लेखन है
जिससे तुम सभी
उदासीन रहे
तो मत करना
परवाह मेरी अनुभूतियों की
कोई मांगे दे
देना
खाली हाथ आये
खाली जाना है
तो फिर किसलिए
दरबार लगाना है
रहना कुछ नहीं
फिर किसलिए
इतनी लाग लपेट
मुक्त हो जाना
चाहती हूँ हर बंधन से
और ये भी एक
बंधन ही तो है
ये मेरी न
वसीयत है न अंतिम इच्छा
जानती हूँ
जाने के बाद
कोई वापस नहीं आता
जानती हूँ
कुछ समय रोने
के बाद कोई याद नहीं रखता
आगे बढ़ना
प्रकृति का नियम है
फिर भी
अंतिम फ़र्ज़
निभाने जरूरी होते हैं
कल याद कभी
आऊँ तो
गिले शिकवे से
न आऊँ
यही सोच
कह दी मन की
बात
वर्ना
मुझसे तो रोज
जन्मते और मरते हैं
दुनिया कभी
खाली नहीं होती .........
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वो मेरा ईश्वर
नहीं हो सकता
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मोर वचन चाहे
पड़ जाए फीको
संत वचन पत्थर
कर लीको
तुमने ही कहा
था न
तो आज तुम ही
उस कसौटी के लिए
हो जाओ तैयार
बाँध लो
कमरबंध
कर लो सुरक्षा
के सभी अचूक उपाय
इस बार
तुम्हें देनी है परीक्षा
तो सुनो
मेरा समर्पण
वो नहीं
जैसा तुम
चाहते हो
यानि
भक्त का सब हर
लूं
तब उसे अपने
चरणों की छाँव दूँ
यानी मान
अपमान , रिश्ते नाते, धन, सब
लेकिन
तुम्हारी इस प्रवृत्ति की
मैं नहीं
पुजारी
और सुनो
मेरा प्रेम हो
या व्यवहार
सब आदान
प्रदान पर ही निर्भर करता है
मुझे चाहिए हो
तो पूरे
साक्षात्
सामने
जो बतिया सके
मेरे प्रश्नों
के उत्तर दे सके
साथ ही
खुद को पाने
की कोई शर्त न रखे
कि
सब कुछ छोडो
तो मिलोगे
सुनो
मैं नहीं
छोडूंगी कुछ भी
और तुम्हारे
संतों का ही कथन है
तुम कहते हो
जो मेरी तरफ
एक कदम बढाता है
मैं उसकी
तरफसाठ
तो यही है
मेरा कदम प्रश्न रूप में
अब बोलो
क्या उतर
सकोगे इस कसौटी पर खरा
कर सकोगे उनके
वचनों को प्रमाणित
क्योंकि
मज़ा तो तब है
जब गृहस्थ
धर्म निभाते हुए बुद्ध हुआ जाए
तुमसे
साक्षात्कार किया जाए
प्रेम का
दोतरफा व्यवहार किया जाए
क्योंकि
गृहस्थ धर्म
का निर्वाह ही मनुष्य धर्म है
जो तुमने ही
बनाया है
और जो गृहस्थ
धर्म से विमुख करे
वो मेरा ईश्वर
नहीं हो सकता
जो सिर्फ खुद
को चाहने के स्वार्थ से बंधा रहे
वो मेरा ईश्वर
नहीं हो सकता
मेरा ईश्वर तो
निस्वार्थी है
मेरा ईश्वर तो
परमार्थी है
मेरा ईश्वर तो
अनेकार्थी है
मेरे लिए तुम
हो तो हो
नही हो तो
नहीं
ये शर्तों में
बंधा अस्तित्व स्वीकार्य नहीं मुझे तुम्हारा ... ओ मोहना !!!
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ये कैसा
हाहाकार है
कुत्ते सियार
डोल रहे हैं
गिद्ध माँस
नोंच रहे हैं
काली भयावह
अंधियारी में
मचती चीख
पुकार है
ये कैसा हाहाकार
है
चील कौवों की
मौज हुई है
तोता मैना सहम
गए हैं
बेरहमी का
छाया गर्दो गुबार है
ये कैसा
हाहाकार है
काल क्षत
विक्षत हुआ है
धरती माँ भी
सहम गयी है
उसके लालों पर
आया संकट अपार है
ये कैसा
हाहाकार है
अत्याचार का
सूर्य उगा है
देख , दिनकर का भी शीश झुका है
दहशतगर्दों ने
किया अत्याचार है
ये कैसा
हाहाकार है
शेर चीते सो
रहे हैं
गीदड़ भभकी से
क्यों डर रहे हैं
कैसी चली
उल्टी बयार है
ये कैसा
हाहाकार है
धरती माँ के
उर में उरी का दंश उगा है
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क्या कहूँ
तुम्हें
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चाशनी से
चिपका कर होठों को
परिचित और
अपरिचित के मध्य
खींची रेखा से
लगे तुम
अजनबियत का
यूँ तारी होना
खिसका गया एक
ईंट और
हिल गयी नींव
विश्वास की
अपनत्व की
ये कैसी
दुरुहता मध्य पसरी थी
जहाँ न दोस्ती
थी न दुश्मनी
न जमीन थी न
आस्मां
बस इक हवा बीच
में पसरी कर रही थी ध्वस्त दोनों ध्रुवों को
मानो खुश्क
समुन्दर पर बाँध बनाना चाहता हो कोई
ज़ुबाँ की
तल्खी से बेहतर था मौन का संवाद ....... है न
क्या कहूँ
तुम्हें ……… दोस्त , हमदम
या अजनबी ?
कुछ रिश्तों
का कोई गणित नहीं होता
और हर गणित का
कोई रिश्ता हो ही ....... जरूरी तो नहीं
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मैं पथिक
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मैं पथिक किस
राह की
ढूँढूँ पता
गली गली
मैं विकल
मुक्तामणि सी
फिरूँ यहाँ
वहाँ मचली मचली
ये घनघोर मेघ
गर्जन सुन कर
ह्रदय हुआ
कम्पित कम्पित
ये कैसी अटूट
प्रीत प्रीतम की
आह भी निकले
सिसकी सिसकी
ओ श्यामल सौरभ
श्याम बदन
तुम बिन फिरूँ
भटकी भटकी
गह लो बांह
मेरी अब मोहन
कि साँस भी
आयेअटकी अटकी
तुम श्याम
सुमन मैं मधुर गुंजन
तुम सुमन
सुगंध मैं तेरा अनुगुंजन
ये सुमन सुगंध
का नाता अविरल
कहो फिर क्यों
है ये भेद बंधन
तुम बिन मन
मयूर हुआ बावरा
कातर रूह फिरे
छिटकी छिटकी
अब रूप राशि
देखे बिन
चैन न पाए
मेरी मन मटकी मटकी
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