हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
भाषा वह हवा का झोंका, जिस प्रकार से बहता है, जहां से गुजरता है, वहां की सुगंध अपने साथ लेकर चलता है, जोड़ता चला जाता है: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
जब भाषा होती है, तब हमें अंदाज नहीं होता है कि उसकी ताकत क्या होती है।
लेकिन जब भाषा लुप्त हो जाती है और सदियों के बाद किसी के हाथ वो चीजें चढ़ जाती
हैं, तो हर सबकी चिंता होती है कि आखिर इसमें है क्या? ये लिपि कौन सी है, भाषा कौन सी है, सामग्री क्या है, विषय क्या है? आज कहीं पत्थरों पर कुछ लिखा हुआ मिलता है, तो सालों तक पुरातत्व विभाग उस खोज में लगा रहता है कि
लिखा क्या गया है? और तब जाकर के भाषा लुप्त होने के बाद कितना बड़ा संकट
पैदा होता है उसका हमें अंदाज आता है।
कभी-कभार हम ये तो
चर्चा कर लेते है कि भई दुनिया में डायनासोर नहीं रहा तो बड़ी-बड़ी फिल्में बनती
है कि डायनासोर कैसा था, डायनासोर क्या करता था? जीवशास्त्र वाले देखते हैं कि कैसा था, कुछ आर्टिफिशल डायनासोर बनाकर रखा जाता है कि नई पीढ़ी को
पता चले कि ऐसा डायनासोर हुआ करता था। यानि पहले क्या था, इसको जानने-पहचानने के लिए आज हमें इस प्रकार के मार्गों
का प्रयोग करना पड़ता है।
आज भी हमें सब दूर
सुनने के लिए मिलता है कि हमारी संस्कृत भाषा में ज्ञान के भंडार भरे पड़े हैं, लेकिन संस्कृत भाषा को जानने वाले लोगों की कमी के कारण, उन ज्ञान के भंडारों का लाभ, हम नहीं ले पा रहे हैं, कारण क्या? हमें पता तक नहीं चला कि हम अपनी इस महान विरासत से
धीरे-धीरे कैसे अलग होते गए, हम और चीजों में ऐसे लिप्त हो गए कि हमारा अपना लुप्त हो
गया।..और इसलिए हर पीढ़ी का ये दायित्व बनता है कि उसके पास जो विरासत है, उस विरासत को सुरक्षित रखा जाए, हो सके तो संजोया जाए और आने वाली पीढियों में उसको
संक्रमित किया जाए। हमारे पूर्वजों ने, वेद पाठ में एक परंपरा पैदा की थी कि वेदों के ज्ञान को
पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने के लिए वेद-पाठी हुआ करते थे और लिखने-पढ़ने की जब सुविधा
नहीं थी, कागज की जब खोज नहीं हुई थी तो उस ज्ञान को स्मृति के
द्वारा दूसरी पीढ़ी में संक्रमित किया जाता था और पीढ़ियों तक, ये परंपरा चलती रही थी। और इस इतिहास को देखते हुए, ये हम सबका दायित्व है कि हमारे जितने भी प्रकार के... कि
आज पता चले कि एक पंछी है, उसकी जाति लुप्त होते-होते 100-150 हो गई है तो दुनिया भर
की एजेंसियां उस जाति को बचाने के लिए अरबों-खरबों रुपया खर्च कर देती हैं। कोई एक
पौधा, अगर पता चले कि भई उस इलाके में एक पौधा है और बहुत ही कम specimen रह गए हैं, तो उसको बचाने के लिए दुनिया अरबों-खरबों खर्च कर देती है।
इन बातों से पता चलता है कि इन चीजों का मूल्य कैसा है। जैसे इन चीजों का मूल्य है, वैसा ही भाषा का भी मूल्य है। और इसलिए जब तक हम उसे, उस रूप में नहीं देखेंगे तब तक हम उसके माहात्म्य को नहीं
समझेंगे।
हर पीढ़ी का दायित्व
रहता है, भाषा को समृद्धि देना। मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है, मेरी मातृभाषा गुजराती है लेकिन मैं कभी सोचता हूं कि अगर
मुझे हिंदी भाषा बोलना न आता, समझना न आता, तो मेरा क्या हुआ होता, मैं लोगों तक कैसे पहुंचता, मैं लोगों की बात कैसे समझता और मुझे तो व्यक्तिगत रूप में
भी इस भाषा की ताकत क्या होती है, उसका भलीभांति मुझे अंदाज है और एक बात देखिए, हमारे देश में, मैं हिंदी साहित्य की चर्चा नहीं कर रहा हूं, मैं हिंदी भाषा की चर्चा कर रहा हूं। हमारे देश में हिंदी
भाषा का आंदोलन किन लोगों ने चलाया, ज्यादातर हिंदी भाषा का आंदोलन उन लोगों ने चलाया है, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। सुभाषाचंद्र बोस हो, लोकमान्य तिलक हो, महात्मा गांधी हो, काका साहेब कालेलकर हो, राजगोपालाचार्य हो, सबने, यानि जिनका मातृभाषा हिंदी नहीं थी, उनको हिंदी भाषा के लिए, उसके संरक्षण और संवर्धन के लिए जो दीर्घ दृष्टि से
उन्होंने काम किया था, ये हमें प्ररेणा देता है। और आचार्य विनोबा भावे, दादा धर्माधिकारी जी, गाँधीवादी दर्शन से निकले हुए लोग, उन्होंने यहां तक, उन्होंने भाषा को और लिपि को दोनों की अलग-अलग ताकत को
पहचाना था। और इसलिए एक ऐसा रास्ता विनोबा जी के द्वारा प्रेरित विचारों से लोगों
ने से डाला था कि हमें धीरे-धीरे आदत डालनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जितनी भाषाएं
हैं, वो भाषाएं अपनी लिपि को तो बरकरार रखें, उसको तो समृद्ध बनाएं लेकिन नागरी लिपि में भी अपनी भाषा
लिखने की आदत डालें। शायाद विनोबा जी के ये विचार, दादा धर्माधिकारी जी का ये विचार, गांधीवादी मूल्यों से जुड़ा हुआ ये विचार, ये अगर प्रभावित हुआ होता तो लिपि भी, भारत की विविध भाषाओं को समझने के लिए और भारत की
राष्ट्रीय एकता के लिए, एक बहुत बड़ी ताकत के रूप में उभर आई होती।
उसी प्रकार से भाषा, हर पीढ़ी ने, देखिए भाषा... वो जड़ नहीं हो सकती, जैसे जीवन में चेतना होती है, वैसे ही भाषा में भी चेतना होती है। हो सकता है उस चेतना
की अनुभूति स्टेथोस्कोप से नहीं जानी जाती होगी, उस चेतना की अनुभूति थर्मामीटर से नहीं नापी जाती होगी, लेकिन उसका विकास, उसकी समृद्धि, उस चेतना की अनुभूति कराती है। वो पत्थर की तरह जड़ नहीं
हो सकती है, भाषा वो मचलता हुआ हवा का झोंका, जिस प्रकार से बहता है, जहां से गुजरता है, वहां की सुगंध की अपने साथ लेकर के चलता है, जोड़ता चला जाता है। अगर हवा का झोंका, बगीचे से गुजरे तो सुगंध लेकर के आता है और कहीं गटर के
पास से गुजरे तो दुर्गंध लेकर के आता है, वो अपने आप में समेटता रहता है, भाषा में भी वो ताकत होती है, जिस पीढ़ी से गुजरे, जिस इलाके से गुजरे, जिस हालात से गुजरे, वो अपने आप में समाहित करती है, वो अपने आप को पुरुस्कृत करती रहती है, पुलकित रहती है, ये ताकत भाषा की होती है और इसलिए भाषा चैतन्य होती है और
उस चेतना की अनुभूति आवश्यक होती है।
पिछले दिनों जब
प्रवासी भारतीय सम्मेलन हुआ था तो हमारे विदेश मंत्रालय ने एक बड़ा अनूठा
कार्यक्रम रखा था कि दुनिया के अन्य देशों में, भारतीय लेखकों द्वारा लिखी गई किताबों का प्रदर्शन किया
जाए और मैं हैरान भी था और मैं खुश था कि अकेले मॉरिशस से 1500 लेखकों द्वारा लिखी
गई किताबें और वो भी हिंदी में लिखी गई किताबों का वहां पर प्रदर्शन हो रहा था।
यानि दूर-सुदूर इतने देशों में भी हिंदी भाषा का प्यार, हम अनुभव करते हैं। हर कोई अपने आप से जुड़ने के क्या
रास्ते होते हैं, कोई अगर इस भू-भाग में नहीं आ सकता है, आने के हालात नहीं होते, तो कम से कम हिंदी के दो-चार वाक्य बोलकर के भी, वो अपनी प्रतिबद्धता को व्यक्त कर देता है।
हमारा ये निरंतर
प्रयास रहना चाहिए कि हमारी हिंदी भाषा समृद्ध कैसे बने। मेरे मन में एक विचार आता
है कि भाषाशास्त्री उस पर चर्चा करें। क्या कभी हम हिंदी और तमिल भाषा का वर्कशॉप करें
और तमिल भाषा में जो अद्धभुत शब्द हो, उसको हम हिंदी भाषा का हिस्सा बना सकते हैं क्या? हम कभी बांग्ला भाषा और हिंदी भाषा के बीच वर्कशॉप करें और
बांग्ला के पास, जो अद्भभुत शब्द-रचना हो, अद्भभुत शब्द हो, जो हिंदी के पास न हो क्या हम उनसे ले सकते हैं कि भई ये
हमें दीजिए, हमारी हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए इन शब्दों की हमें
जरूरत है। चाहे जम्मू कश्मीर में गए, डोगरी भाषा में दो-चार ऐसे शब्द मिल जाए, दो-चार ऐसी कहावत मिल जाए, दो-चार ऐसे वाक्य मिल जाएं वो मेरी हिंदी में अगर फिट होते
हैं। हमें प्रयत्नपूर्वक हिंदुस्तान की सभी बोलियां, हिंदुस्तान की सभी भाषाएं, जिसमें जो उत्तम चीजें हैं, उसको हमें समय-समय पर हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए, उसका हिस्सा बनाने का प्रयास करना चाहिए। और ये अविरत
प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए।
भाषा का गर्व कितना
होता है। मैं तो सार्वजनिक जीवन मैं काम करता हूं। कभी तमिलनाडु चला जाऊं और
वाणक्कम बोल दूं, वाणक्कम और मैं देखता हूं कि पूरे तमिलनाडु में इलेक्ट्रिफायिंग
इफेक्ट हो जाता है। भाषा की ये ताकत होती है। बंगाल को कोई व्यक्ति मिले और भालो
आसी पूछ लिया, उसको प्रशंसा हो जाती है, कोई महाराष्ट्र का व्यक्ति मिले, कसाकाय, काय चलता है, एकदम प्रसन्न हो जाता है, भाषा की अपनी एक ताकत होती है। और इसलिए हमारे देश के पास
इतनी समृद्धि है, इतनी विशेषता है, मातृभाषा के रूप में हर राज्य के पास ऐसा अनमोल खजाना है, उसको हम कैसे जोड़ें और जोड़ने में हिंदी भाषा एक सूत्रधार
का काम कैसे करे, उस पर अगर हम बल देंगे, हमारी भाषा और ताकतवर बनती जाएगी और उस दिशा में हम प्रयास
कर सकते हैं।
मैं जब राजनीतिक जीवन
में आया, तो पहली बार गुजरात के बाहर काम करने का अवसर मिला। हम
जानते हैं कि हमारे गुजराती लोग कैसी हिंदी बोलते हैं। तो लोग मजाक भी उड़ाते हैं
लेकिन मैं जब बोलता था तो लोगों मानते थे और मुझे पूछते थे कि मोदी जी आप हिंदी
भाषा सीखे कहां से, आप हिंदी इतनी अच्छी बोलते कैसे हैं? अब हम तो वही पढ़े हैं, जो सामान्य रूप से पढ़ने को मिलता है, थोड़ा स्कूल में पढ़ाया जाता है, उससे ज्यादा नहीं। लेकिन मुझे चाय बेचते-बेचते सीखने का
अवसर मिल गया। क्योंकि मेरे गांव में उत्तर प्रदेश के व्यापारी, जो मुंबई में दूध का व्यापार करते थे, उनके एजेंट और ज्यादतर उत्तर प्रदेश के लोग हुआ करते थे।
वो हमें गांव के किसानों से भैंस लेने के लिए आया करते थे और दूध देने वाली भैंसों
को वो ट्रेन के डिब्बे में मुंबई ले जाते थे और दूध मुंबई में बेचते थे और जब भैंस
दूध देना बंद करती थी और फिर वो गांव में आकर के छोड़ जाते थे, उसके contract के पैसे मिलते थे। तो ज्यादातर रेलवे स्टेशन पर ये मालगाड़ी
में भैंसों को लाना-ले जाने का कारोबार हमेशा चलता रहता था, उस कारोबार को ज्यादातर करने वाले लोग उत्तर प्रदेश के हुआ
करते थे और मैं उनको चाय बेचने जाता था। उनको गुजराती नहीं आती थी, मुझे हिंदी जाने बिना चारा नहीं था, तो चाय ने मुझे हिंदी सिखा दी थी।
भाषा सहजता से सीखी
जा सकती है। थोड़ा सा प्रयास करें, कमियां रहती हैं, जीवन के आखिर तक कमियां रहती हैं, लेकिन आत्मविश्वास खोना नहीं चाहिए। आत्मविश्वास रहना
चाहिए, कमियां होंगी, थोड़े दिन लोग हसेंगे लेकिन फिर उसमें सुधार आ जाएगा। और
हमारे यहां गुजरात का तो स्वभाव था कि दो लोगों को अगर झगड़ा हो जाए, गांव के भी लोग हो, वो गुजराती में झगड़ा कर ही नहीं सकते हैं, उनको लगता है गुजराती में, झगड़े में, प्रभाव पैदा नहीं होता है, मजा नहीं आता है। जैसे ही झगड़े की शुरुआत होती है, तो वो हिंदी में अपना शुरू कर देते हैं। दोनों गुजराती हैं, दोनों गुजराती भाषा जानते हैं, लेकिन अगर ऑटोरिक्शा वालों से भी झगड़ा हो गया, पैसों का, तो तू-तू मैं-मैं हिंदी में शुरू हो जाती है। उसको लगता है
कि हां हिंदी बोलूंगा, तो उसको लगेगा हां ये कोई दम वाला आदमी है।
मैं इन दिनों विदेश
में जहां मेरा जाना हुआ, मैंने देखा है कि दुनिया में विदेश का कैसा प्रभाव हो रहा
है और कैसे लोग विदेश में हमारी बातों को समझ रहे हैं, स्वीकार कर रहे हैं। मैं गया था, मॉरीशस। वहां पर विश्व हिंदी साहित्य का सचिवालय अब शुरू
हुआ है। उसके मकान का शिलान्यास किया है और विश्व हिंदी साहित्य का एक केंद्र वहां
पर, हम शुरू कर रहे हैं। उसी प्रकार से मैं उज्बेकिस्तान गया
था, मध्य एशिया में, उजबेकिस्तान में एक कोष को लोकापर्ण करने का मुझे अवसर
मिला और वो डिक्शनरी थी, उज्बेक टू हिंदी, हिंदी टू उज्बेक अब देखिए दुनिया के
लोगों का कितना इसका आकर्षण हो रहा है। मैं फुडन विश्वविद्यालय में गया चीन में, वहां पर हिंदी भाषा के जानने वाले लोगों का एक अलग मीटिंग हुआ
और वो इतना बढ़िया से हिंदी भाषा में लोग, मेरे से बात कर रहे थे यानि उनको भी लगता था कि इसका
माहात्म्य कितना है। मंगोलिया में गया, अब कहां मंगोलिया है, लेकिन मंगोलिया में भी हिंदी भाषा का आकर्षण, हिंदी बोलने वाले लोग, ये वहां हमें नजर आए और मेरा जो एक भाषण हुआ, वो हिंदी में हुआ, उसका भाषांतर हो रहा था लेकिन मैं देख रहा था कि मैं हिंदी
में बोलता था, जहां तालियां बजानी थी, वो बजा लेते थे, जहां हंसना था, वो हंस लेते थे। यानि इतनी बड़ी मात्रा में दुनिया के
अलग-अलग देशों में हमारी भाषा पहुंची हुई है और लोगों को उसका एक गर्व होता है।
मैं रशिया गया था, रशिया में इतना काम हो रहा है हिंदी भाषा पर, आपको रशिया भाषा में, आप जाएंगो तो सरकार की तरफ से इतना अटेंडेंट रखते हैं, हिंदी भाषी रशियाn नागरिक को रखते हैं।
यानि इतनी बड़ी
मात्रा में वहां हिंदी भाषा और हमारी सिने जगत ने, फ़िल्म जगत ने
करीब-करीब इन देशो में फिल्मों के द्वारा हिंदी को पहुंचाने का काम किया है। मध्य एशिया
में तो शायद आज भी बच्चे हिंदी फिल्मों के गीत गाते हैं। कहने का तात्पर्य ये है
कि भाषा के रूप में आने वाले दिनों में हिंदी भाषा का माहात्म्य बढ़ने वाला है। जो
भाषा शास्त्री है, उनका मत है कि दुनिया में करीब-करीब 6000 भाषाएं हैं और
जिस प्रकार से दुनिया तेजी से बदल रही है, उन लोगों का अनुमान है कि 21वीं सदी का अंत आते-आते इन
6000 भाषाओं में से 90 प्रतिशत भाषाओं का लुप्त होने की संभावनाएं दिखाई दे रही
हैं, ये भाषा शास्त्रियों ने चिंता व्यक्ति की है कि छोटे-छोटे
तबके के लोगों की जो भाषाएं हैं और भाषाओं का प्रभाव और आवश्यकता बदलती जाती है, तकनीकि का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। विश्व की 6000 भाषाएं
हैं, उसमें से 21वीं सदी आते-आते 90 प्रतिशत भाषाओं के लुप्त
होने की संभावना हैं। अगर ये चेतावनी को हम न समझें और हम हमारी भाषा का संवर्धन
और संरक्षण न करें तो फिर हमें भी रोते रहना पड़ेगा। हां भाई डायनासोर ऐसा हुआ
करता था, फलांनी चीज ऐसी हुआ करती थी, वेद के पाठ ऐसे हुआ करते थे, हमारे लिए वो पुरातात्विक का विषय बन जाएगा, हमारी वो ताकत खो देगा और इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि
हम हमारी भाषा को कैसे समृद्ध बनाएं और चीजों को जोड़ें, भाषा के दरवाजे बंद नहीं किए जा सकते हैं और जब-जब उसको एक
दीवारों के अंदर समेट दिया गया तो भाषा भी बची नहीं और भारत भाषा-समृद्ध भी नहीं
बनेगा। भाषा में वो ताकत होनी चाहिए जो हर चीजों को अपने आप में समेट ले और समेटना
का उसका प्रयास होता रहना चाहिए और उस दिशा में होता है।
विश्व में इन चीजों
का असर कैसा होता है। कुछ समय पहले इजराइल का जैसे हमारे यहां नवरात्रि का महोत्सव
होता है या दीपावली का उत्सव होता है। वैसे उनका एक बड़ा महत्वपूर्ण उत्सव होता
है, Hanukkah। तो मैंने इजराइल के प्रधानमंत्री को सोशल मिडिया के
द्वारा ट्विटर पर हिब्रू भाषा में Hanukkah की बधाई दी। तीन-चार घंटे के भीतर-भीतर इजराइल के
प्रधानमंत्री ने इसको acknowledge
किया और जवाब दिया और मेरे लिए खुशी की
बात थी कि मैंने हिब्रू भाषा में लिखा था, उन्होंने हिंदी भाषा में धन्यवाद का जवाब दिया।
इन दिनों दुनिया के
जिन भी देशों से मुझे मिलने का होता है, वो एक बात अवश्य बोलते हैं सबका साथ, सबका विकास। उनकी टूटी-फूटी भाषा उनके उच्चार करने का
तरीका कुछ भी हो, लेकिन सबका साथ, सबका विकास। ओबामा मिलेंगे तो वो भी बोलेंगे, पुतिन मिलेंगे तो वो भी बोलेंगे। कोशिश करते हैं हम अगर
हमारी बातों को लेकर के जाते हैं, तो दुनिया इसको स्वीकार करने के लिए तैयार होती है।
और इसलिए हमारी कोशिश
होनी चाहिए कि हमारी भाषा को समृद्धि मिले, हमारी भाषा को ताकत मिले और भाषा के साथ ज्ञान का और अनुभव
का भंडार भी होता है। अगर हम हिन्दी भी भूल जाते और रामचरितमानस को भी भूल जाते
हैं तो हम, जैसे बिना जड़ के एक पेड़ की तरह खड़े होते। हमारी हालत क्या
हो गई होती। हमारे जो साहित्य के महापुरुष हैं, अगर आप बिहार के फणीश्वरनाथ रेणु, उनको न पढ़े तो पता नहीं चलता कि उन्होंने बिहार में
गरीबी को किस रूप में देखा था और उस गरीबी के संबंध में उनकी क्या सोच थी। हम
प्रेमचंद को न पढ़े, तो पता तक नहीं चलता कि हम यू सोंचे कि हमारे ग्रामीण जीवन
के aspirations क्या थी और values के लिए अपनी आशा-आकांक्षाओं को बलि चढ़ाने का कैसा सार्वजनिक
जीवन का स्वभाव था। जयशंकर प्रसाद हो, मैथिलीशरण गुप्त हो, इसी धरती के संतान, क्या कुछ नहीं देकर गए हैं। लेकिन उन महापुरुषों ने तो
हमारे लिए बहुत कुछ किया। साहित्य सृजनों ने जीवन में एक कोने में बैठकर के
मिट्टी का दीया, तेल का दीया जला-जला करके, अपनी आंखों को भी खो दिया और हमारे लिए कुछ न कुछ छोड़कर
गए। लेकिन अगर वो भाषा ही नहीं बची तो इतना बड़ा साहित्य कहां बचेगा, इतना बड़ा अनुभव का भंडार कहां बचेगा? और इसलिए भाषा के प्रति लगाव भाषा को समृद्ध बनाने के लिए
होना चाहिए। भाषा को बंद दायरे में सिमटकर रह जाए, इसलिए नहीं होना चाहिए।
आने वाले दिनों में तकनीकि
दुनियाँ हम सबके जीवन में एक सबसे बड़ा रोल पैदा कर रहा है और करने वाला है।
बाप-बेटा भी आजकल, पति-पत्नी भी व्हट्सअप पर मेसेज कन्वे करते हैं। Twitter पर लिखते हैं कि शाम को क्या खाना खाना है। इतने हद तक
उसने अपना प्रवेश कर लिया है। जो तकनीकि का जानकार है, उनका कहना है कि आने वाले दिनों में तकनीकि जगतमें तीन
भाषाओं का दबदबा रहने वाला है – अंग्रेजी, चाइनीज़, हिन्दी। और जो भी technology से जुड़े हुए हैं उन सबका दायित्व बनता है कि हम भारतीय
भाषाओं को भी और हिन्दी भाषा को भी technology के लिए किस प्रकार से परिवर्तित करे। जितना तेजी से इस
क्षेत्र में काम करने वाले एक्सपर्ट हमारी स्थानीय भाषाओं से लेकर के हिन्दी
भाषा तक नए software तैयार करके, नए Apps तैयार करके जितनी बड़ी मात्रा में लाएंगे। आप देखिए, ये अपने आप में भाषा एक बहुत बड़ा market बनने वाली है। किसी ने सोचा नहीं होगा कि भाषा एक बहुत
बड़ा बाजार भी बन सकती है। आज बदली हुई technology की दुनिया में भाषा अपने आप में एक बहुत बड़ा बाजार बनने
वाली है। हिन्दी भाषा का उसमें एक माहात्म्य रहने वाला है और जब मुझे हमारे अशोक
चक्रधर मिले अभी किताब लेकर के उनकी, तो उन्होंने मुझे खास आग्रह से कहा कि मैंने most modern technology Unicode में इसको तैयार किया है। मुझे खुशी हुई कि हम जितना हमारी
इस रचनाओं को और हमारे Digital
World को, इंटरनेट को हमारी इन भाषाओं से परिचित करवाएंगे और भाषा के
रूप में लाएंगे, हमारा प्रसार भी बहुत तेजी से होगा, हमारी ताकत भी बहुत तेजी से बढ़ेगी और इसलिए भाषा का उस
रूप में उपयोग होना चाहिए।
भाषा अभिव्यक्ति का
साधन होती है। हम क्या संदेश देना चाहते हैं, हम क्या बात पहुंचाना चाहते हैं, भाषा एक अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। हमारी भावनाओं
को जब शब्द-देह मिलता है, तो हमारी भावनाएं चिरंजीव बन जाती है। और इसलिए भाषा उस
शब्द-देह का आधार होता है। उन शब्द-विश्व की जितनी हम आराधना करे, उतनी कम है।
(भारत के
प्रधानमंत्री द्वारा 10वें विश्व हिंदी सम्मलेन, भोपाल में दिए गए भाषण से..)
(http://www.narendramodi.in/hi/text-of-the-pm-s-address-at-the-10th-world-hindi-conference-bhopal-291478)
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