सरला माहेश्वरी की कविताएँ
1.
नो ! मतलब नहीं !*
ये 'नहीं' बस एक शब्द नहीं !
नहीं ! नो !
इस एक
एक शब्द से
पितृ सत्ता ने
आधी दुनिया के लिये रच दी थी
नहीं की पूरी लकीर ।
ये नहीं ! वो नहीं ! ऐसे नहीं ! वैसे नहीं !
यहाँ नहीं ! वहाँ नहीं !
नहीं के कारावास में कैद !
एक, दो नहीं, हज़ारों वर्षों कैद !
पीढ़ी-दर पीढ़ी कैद !
नहीं ! नहीं ! नहीं ! की अनगिनत बेड़ियाँ !
अंधेरों की बेड़ियाँ, उजालों की बेड़ियाँ !
कारी कारी, भारी भारी बेड़ियाँ !
घिस रही बेड़ियाँ ! टूट रही बेड़ियाँ !
कैद से निकल रही बेड़ियाँ...
पलट कर बोल रही बेड़ियाँ...
तुम्हारा सर फोड़ रही बेड़ियाँ...
तुम्हारी मनमानी को
नहीं ! नहीं ! नहीं !!
कहना सीख रही बेड़ियाँ !!
देखो !
इस नये पिंक को ! इस नई औरत को !
पिंक ! नहीं है !
सिर्फ एक रंग !
सिर्फ एक फूल !
सिर्फ एक जड़ परिभाषा !
पिंक एक ज़िंदा हक़ीक़त है !
सुनो !
बदल रहा है पिंक...
बदल रही है औरत ...
गुस्से से लाल हो रहा पिंक...
इस पिंक की परिभाषा...
इस औरत की आज़ादी की दूरी
नहीं है तुम्हारे हाथ से बंधी डोरी तक...
नो ! नहीं !
नहीं रहेगा इसपर तुम्हारा एकाधिकार !
हमारा भी है इससे बहुत गहरा सरोकार !
कोई सफ़ाई नहीं ! कोई स्पष्टीकरण नहीं !
'नहीं' बस एक शब्द 'नहीं'
यही मेरा वजूद है !
*'पिंक' फ़िल्म देख कर
2.
कायरता का शोकगीत
आजकल इतना
कायर क्यों
लगता है इंसान
खुद से,परिवार से,समाज से
और सबसे ज़्यादा
हुकूमत से क्यों डरता
या
डराया जाता है इंसान !
ओफ्फ !
कितनी तरह की हुकूमतें !
आदमखोर की तरह घूरती रहती हैं उसे !
सर्वशक्तिमान ईश्वर !
और उसकी महान रचना
यह कोरा, निहत्था !
विचारहीन इंसान !
ओह मंटो !
सच कहा था तुमने
हर महान और श्रेष्ठ चीज़
एक सूखी रोटी की मोहताज है
वह ख़ुदाबंद ताला ...वह निरपेक्ष नहीं है
उसको इबादत चाहिये...
इस
धरती पर उस खुदा के बंदे
उसी सर्वशक्तिमान के भक्त !
दल-बल बनाये हुए
रात दिन इसीलिये करते हैं चौकीदारी !
कि फिरकी की तरह नचा सकें
इस फ़क़त इंसान को !
न जाने कितने दंड-विधान हैं इनके पास !
खुदा भी देखे तो काँप जाएगा !
"भस्मासुरों की जैसे पूरी फ़ौज !
भूल से भी कभी धरती पर झाँकेगा नहीं !
या शायद
देखकर ही डर गया हो और
किसी दूसरे नक्षत्र की किसी नयी दुनिया में...
अपनी जिंदगी की ख़ैर मना रहा हो !
पर
क्या करे ये कायर इंसान !
कुछ नहीं कर सकता एक कायर इंसान !
सच कहते हो पेरुमल मुरगन
एक कायर किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता !
क्या कर लिया हम कायरों ने ?
भक्तों ने कितना डराया, धमकाया तुमको...
छीन ली तुम्हारी क़लम, तुम्हारी ज़ुबान !
उनका प्रकोप ! श्राप !
दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी की लाशें !
सत्य, विचार, न्याय की
लाशें !
चुपचाप देखता रहा संविधान !
बजती रही मंदिरों की घंटियाँ !
पीट-पीट कर मार दिया गया अख़लाक़ !
याद होगा तुम्हें
वो क़ुतुबुद्दीन !
भय से काँपता, गिड़गिड़ाता,
हाथ जोड़कर जिंदगी की भीख माँगता !
ओह !
तुम्हें तो सब याद होगा !
तुम एक लेखक, साहित्यकार हो !
समाज का दर्पण !
पर उन्हें नहीं सुहाती अपनी यह ख़ूँख़ार असली सूरत !
वे तोड़ देंगे हर उस आईने को
या
प्रतिबंध लगा देंगे ऐसे आईनों पर !
जैसे लगा दिया था तुम पर !
और खुद तुमसे ही करवा दी थी घोषणा कि
लेखक पेरुमल मुरगन मर चुका है !
कि वो अब दुबारा ज़िंदा नहीं हो सकता !
पर देखो !
किसी भगवान ने नहीं
कविता की संजीवनी ने ज़िंदा कर दिया तुम्हें
मार्क्स कहते थे
"कविता मनुष्यता की मातृभाषा है"
और तुम फिर अपनी भाषा के क़िले में
लौट आए हो ।
अपने विचार की मशाल के साथ।
पेरुमल मुरगन !
तुमने लिखा था 'एक कायर का गीत'
आओ !
अब हम कायरता का शोक-गीत लिखें !
आओ हम
मनुष्यता का जय-गान लिखें !!
देखो !
आत्मा की अदालत, सच की अदालत भी
कह रही है तुमसे
लिखो पेरुमल मुरगन लिखो ! लिखो !!
आओ ! हम हुकूमत को डराएँ
"कि एक दिन कमजोर और निहत्थे लोग उससे डरना छोड़ देंगे।"
देखो ! एक ही मंच पर
मुस्कुरा रहें हैं क़ुतुबुद्दीन और अशोक मोची !
गुजरात दंगों का ख़ौफ़नाक चेहरा !
आज उस मोची के हाथ में वो ख़ूनी लोहे की रॉड नहीं
गुलाब का फूल है !
बोल रहा है सॉरी !!
डर रही है हुकूमत !!
आओ ! हम हुकूमत को डराएँ !!!
3.
कोई हमें सताए क्यों !
ओ शर्मिला !
ये क्या ! तुम्हारी आँखों में आँसू
पर आँसू तो ज़िंदा लोगों के निकलते हैं !
मतलब तुम ज़िंदा हो ?
तुम्हें तो बहुत पहले ही मार दिया गया था !
जब तुम शर्मिला से प्रतिवाद और प्रतिरोध की देवी !
आयरन लेडी बना दी गयी थी !
जैसे मंदिरों में देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है प्रसाद !
तुम्हें भी चढ़ाया जाता था प्रसाद !
किया जाता था रख-रखाव !
रखा जाता था पहरा कि
कोई चुरा न ले देवी को या फिर
देवी कहीं भाग न जाए !
मंदिरों में बंद देवी !
कितनी एकाकी, अँधेरे घर में
न किसी से बोलना न हँसना न रोना
बस हमेशा आशीर्वाद की मुद्रा में
एक मूर्ती की तरह !
तुमने तो नहीं चाहा था ऐसा !
और इस तरह सोलह साल !
सोच कर ही रूह काँप जाती है ?
पर देवी या डायन बना कर
मारने वालों की रूह नहीं काँपती ?
उनकी रूह तो तब काँपती है जब कोई
शर्मिला कहती है मैं देवी नहीं इंसान हूँ !
मैं आत्मा नहीं शरीर हूँ !
एक धड़कते दिल की चाहत हूँ !
बहुत हो गया इस तरह, अब और नहीं !
मैं जीना चाहती हूँ,
प्रेम करना चाहती हूँ
शादी करना चाहती हूँ
सीएम बनना चाहती हूँ
लड़ना चाहती हूँ !
इस तरह अकेले देवी बनकर कर नहीं
ज़िंदा रहकर, सबको साथ लेकर लड़ना चाहती हूँ !
और देखो !
कैसा हड़कंप मच गया है !
और तो और वो भक्त भी, तुम्हारे अपने भी
सबने मुँह मोड़ लिया है तुमसे !
सोलह साल में उन्हें कभी नहीं लगा कि
तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है
आज कहते हैं, तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है
खाप पंचायतों की तरह फ़तवे दे रहे हैं !
एक विदेशी से शादी नहीं कर सकती !
तुम्हें कोई घर नहीं मिलेगा, जाओ फिर उसी कैद में !
आओ शर्मिला !
आओ बस कुछ देर के लिये रो लें !
जी भर कर रो लें ! ग़ालिब को याद करके रो लें
"दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों"।
4.
दशरथ माँझी से दीना माँझी तक
दशरथ माँझी से
दीना माँझी तक
जिंदगी का एक ही सच !
पहाड़ ही पहाड़ !
समस्याओं के पहाड़ !
भूख और ग़रीबी के पहाड़
दुखों के पहाड़ !
अचल ! अटल ! शास्वत !
मजबूरी के पहाड़ !
शान से खड़े हैं
सत्ता की मनमानी के पहाड़
शाइनिंग इंडिया के पहाड़
डिजिटल इंडिया, मूविंग इंडिया के पहाड़
सफरिंग इंडिया के पहाड़
ग़ुलामी से आज़ादी तक !
बेशर्मी से टिके हुए हैं पहाड़ !
गण के तंत्र पर बैठे हुए
तुमको
ठेंगा दिखाते हुए
गर्व से हँसते हुए,
जमे हुए हैं राजसी पहाड़ !
मजे में सोये हुए हैं पहाड़ !
दशरथ माँझी ! दीना माँझी !
जिंदगी से मौत तक !
तुम्हारे लिये खड़े हैं
दुखों के अनगिन पहाड़ !
अकेले ही काटना पड़ता है पहाड़
काट लिया तो जयजयकार
मर गये तो दुर्भाग्य !
यहाँ मुर्दों के राज में
जिंदगी को क्या
मौत को भी मिलता नहीं
चार कंधों का साथ !
चार पहियों का साथ !
एक कंधे पर उठाकर
ले जाओ अपनी लाश !
सरकारी अस्पताल में टीबी से मरी
अपनी पत्नी की लाश !
वे देखेंगे तुम्हारी मैराथन दौड़ !
कैमरों से देखेंगे ! बारह किलोमीटर की
ये रोमांचक,
कभी न देखी-सुनी गई दौड़ !
लाश के साथ दौड़ !
एक ख़बर की तरह
दौड़ोगे तुम !
एक ख़बर की तरह मर जाओगे तुम !
जाओ दीना माँझी !
कर दो अंतिम संस्कार !
राम नाम सत है
रोटी नाम सत है
दीना माँझी सत है!
5.
सिर्फ सुनना !
सुनना ! सिर्फ सुनना !
सचमुच कला है !
एक चुनौती है !
मनुष्य बनने की चुनौती !
खुद से सवाल करने की चुनौती !
अपने स्व के अतल से निकलने की चुनौती !
अक्सर !
सामने आ खड़ी होती है ये चुनौती !
खुद में डूबी हुई मैं !
अचानक सुनती हूँ, पतली सी आवाज - भाभी !
झिझकती हुई कह रही है तसलीमा की माँ, पीड़ा में डूबी हुई -
रिक्शा चलाने वाले उसके बेटे को पकड़ कर ले गयी है पुलिस ।
वो सुनाती है पूरी कथा । आँसुओं से लिखी गई कथा !
पुलिस के ज़ुल्म और घूसख़ोरी की कथा ।
मेरा सुनना !
उसके काग़ज़ों पर सरसरी नज़र डालना, पुलिस को गरियाना !
इतना भर उसकी पीड़ा को कम करता है !
मैं कुछ कर पाँऊ या नहीं, कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता !
सुनना सचमुच कला है !
पिता ख़ूब जानते थे ये कला !
"शूलों से बतियाता कोई आए मुझ तक पाँव तो मैं दो का भेद बिसार दूँ, बाँहों को विस्तार दूँ"
माँ और मंजरी दी !
दोनों सुनते हैं घंटों एक-दूसरे को !
बांग्ला और राजस्थानी में ख़ूब बतियाते हैं !
बिना समझे भी दोनों सुनते हैं !
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि क्या और किसे सुनते हैं,
महत्वपूर्ण यह है कि कैसे सुनते हैं !
सुनना-सुनाना दोनों की ज़रूरत !
जीवन की ज़रूरत !
इस सुनने का कितना महत्व है !
जब माँ नहीं होती,
मंजरी दी चाहती है मैं सुनूँ उसे ! उससे बात करूँ !
उसके घर की बात, गाँव की बात !
वह छोटी से छोटी बात को लंबी कथा की तरह सुनाती है !
विभूति बाबू के विस्तृत ब्यौरे वाले
एक बड़े कथाकार के सारे गुण है उसमें !
कभी-कभी बहुत भारी लगता है
पर सुनना पड़ता है ! मुस्कुराना पड़ता है !
अपनी ऊब को दबाना पड़ता है ।
सच ही तो कहते हो तुम चैतन्य नागर !
भूलते जा रहें हैं हम ये कला !
भूलते जा रहें हैं यह तक पूछना कि - कैसे हो यार !
जीने की ये कला ! बहुत ज़रूरी कला !
आज सीखनी पड़ रही है, साधनी पड़ रही है !
6.
छोटी सी हँसी
रोते हुए बच्चे को
झुनझुना देकर
कुछ देर तो बहला सकते हो
पर
जब पेट में कुलबुलाती हो
भूख
मारती हो डंक बार बार
वह क़ाबू में नहीं रहता,
ग़ुस्से में हो लाल-पीला
हाथ पटक कर
फेंक देता है तुम्हारा झुनझुना
तुम्हारा जुमला !
तुम
लाख बहलाओ
बदलते रहो एक के बाद दूसरा झुनझुना
चमकाओ जितने भी खिलौने
वो देखता भी नहीं
चीख़-चीख़ कर
कर देता है मुहाल जीना
अपना और तुम्हारा भी
तुम ग़ुस्से में बड़बड़ाते हो
उसकी भूख को कोसते हो
जोर-जोर से थपेड़े मारते हो
कि, किसी तरह थक कर सो जाए
कुछ देर को वो चुप भी हो जाता है
पर भूख को कहाँ नींद आती है
फिर वही रोना, जोर जोर से रोना
और फिर जब कोई
प्यार से लेता है उसे गोद में
सीने से लगा
पिलाता है उसे दूध
बच्चा मुस्कुराता है, खिलखिलाता है
जैसे कोई पहाड़ी नदी
पहाड़ से निकलता झरना !
छोटी सी हँसी, तृप्ती की ख़ुशी
जैसे हो कोई जन्नत
चमकते चेहरे की जन्नत ।
7.
सेक्यूलर जवाब
फ़राज़ भागा नहीं
दोस्तों के साथ रहा
यह था धर्म को उसका सेक्यूलर जवाब
फ़राज़ डिगा नहीं
पढी नहीं आयतें
यह था मज़हबी दरिंदों को उसका सेक्यूलर जवाब
फ़राज़ डरा नहीं
क़ुरान की शरण से इंकार किया
यह था आस्थावादी आतंक को उसका सेक्यूलर जवाब
फ़राज़ हारा नहीं
नहीं गया किसी इबादत की शरण
यह था पैग़म्बर के
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