शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की रचनाएं
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ-
एक सवाल
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तुम मुझे कहानी सुनाते हो
राजा-रानी की
क्या मतलब है तुम्हारा
कहानी सुनाने का
सोचता हूँ
और तुम घबराते हो
मेरे सोचने को लेकर
...फिर भी मैं पूछ ही लेता हूँ
अपने सैकड़ों सवालों में से एक
क्यों छला तुम्हारे 'राजा' ने
मेरी 'रानी'
को
और तुम एक ठहरे हुए हठात मौन के बाद
कहते हो
'इस तरह सोचना पाप है'
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ऐसी भी क्या जल्दी थी...
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मन रुकता है तो
ठिठुर सा जाता है
ठंड से नहीं
भय से नहीं
भूख से नहीं
सोचता हूँ ऐसी भी क्या जल्दी थी...
सुंदर तुम थीं या तुम्हारे सपने
अधखुली पलकों में घनेरी रात का काजर
सुबह की उजली भोर
कौन जानता था इन दोनों के बीच
एकदम से संधि की कोमलता को
जला देगा निर्मोही...
चलो सूरज से ही पूछ लेता हूँ
क्या महसूस किया है तुमने कभी वेदनाओं का ताप
धुधुआकर सुलगना तुम्हारी नियति नहीं
मेरे अंदर बिना धुएँ के आग नहीं है
इसी लिए सोचता हूँ
ऐसी भी क्या जल्दी थी
यूँ ही चले जाने की
अभी-अभी
जैसे तुमने किया था ब्याह
अभी कल ही तो तुमने ओढ़ी थी चूनर
वो फूलों की महक
अभी बासी नहीं हुई है भाई की छाती पर
जो तुमने फूलमाला पहनाई थी
अभी तो तुम्हारी महक पूरे घर में
गमकती है
तुम अभी कल ही तो माँ बनी थीं
प्रेमचंद की 'संपूर्ण
स्त्री'
फिर...
मन के अज्ञात पन्ने पर
तुम्हारे हिलते-काँपते ओष्ठ और अधर
जैसे कभी न मिलने की बात कहकर
ठिठुर कर खामोश हो गए
सोचता हूँ ऐसी भी क्या जल्दी थी...
यूँ ही चले जाने की।
( प्रियंका भाभी के नाम...)
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कौवा और आचार्य
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नीम के एक पुराने दरख्त
की डाल पर
बैठा है एक कौवे का जोड़ा
कर रहा है हास परिहास और लास्य भी
हालाँकि इनकी जींस में हैं तांडव के गुण
गाँव की बूढ़ी आँखों से देखूँ
तो कह सकता हूँ कि ये नर-मादा हैं
यानी दुलहिन-दुलहा
विश्वविद्यालय के धुरंधर आचार्य
इन्हें देख कर खड़ा करते हैं यक्ष प्रश्न
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का
और सेमिनार में करते हैं डिबेट
स्वानुभूति और सहानुभूति के बारे में
बहरहाल मैं तो
गँवार हूँ !
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खरखइंचा
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सागर की लहरों की तरह
ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर
उड़ने वाले पंछी
तुम्हें खरखइंचा मामा कहते थे ना
मेरे गाँव के भोले-भाले बच्चे
पूछते थे कि नदी कितनी गहरी है
तुम तरंगित होकर उड़ते थे ना
'इत्ती ऽऽ ... इत्ती ss '
'स्वेत-श्याम' रंग
वाले पंछी
तुम कितने चंचल होते थे
फुदक-फुदक कर चलते थे ना
कविता करने वाले ये कवि
तुम्हारी आकार वृत्ति पर
रीझते-रीझते रीझ गए
उन्हें क्या पता था कि
'खंजन नयन' को कविता
में देखकर
कल के लोग
इसे काव्य-रूढ़ि कहेंगे
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टुनई काका
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टुनई काका गाय-भैंस की चरवाही में
रखते थे मशगूल अपने आप को
खरिया-खुरपा,
बंदर-छाप तमाखू के साथ चूने की गोली
और बीड़ी-माचिस लुंगी की गुलेट मे रख कर
हार-पात घूमा करते थे टुनई काका
लोग कहते थे बड़ा औगुनी है
टुनइया !
जाड़े-पाले की ठंड में रात-रात जाग कर अपने
गेंहूँ-मटर के खेतों की सिचौनी करते थे टुनई
काका
आधी रात में भी ट्यूवेल-बोर के 15 फीट
गहरे गड्ढे में पट्टा चढ़ाने पैठ जाते थे टुनई
काका
लोग कहते थे बड़ा हिम्मती है
टुनइया !
'बेला का गौना', 'ऊदल
का ब्याह', 'माड़ौ की लड़ाई'
कजरी, चइता,
सरिया, सोहर और न जाने क्या-क्या गाते थे टुनई
काका
मेला-मिसरिख में सलीमा और नौटंकी
रात-रात भर देखा करते थे टुनई काका
लेकिन भोर भए घर भाग आते थे टुनई काका
दादा कहते थे बड़ा मिजाजी है टुनइया !
इस साल पहले सूखा फिर बाढ़ ने सब चौपट कर दिया
गाँव-घर में त्राहि-त्राहि मची है बड़े दुखी
हैं टुनई काका
अब दिल्ली जा रहें हैं बनिज कमाने टुनई काका
आँसू भरी आँखों से गाँव की ओर मुड़-मुड़ कर
देखते हैं टुनई काका
लोग कहते हैं बेईमान नहीं है
टुनइया !
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बाबा का समय
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बाबा के न रहने के बाद
लाठी का कद सिर्फ
डंडे भर रह गया है
लेकिन लाठी को डंडा कहने में उन्हें संकोच
होता है
बाबा के हाथ में लाठी देखी थी जिसने
बाबा के न रहने के बाद
दो-दो भादों पड़े एक साथ
उन कलमुँही रातों को मैंने रोते हुए देखा है
निबिया की छाँहीं कुछ सिमट सी गई है
कि गुमसुम खड़ा है दरख्त
पागलों की तरह मुँह लटकाए
अपने पतझार होने के इंतजार में
बाबा के न रहने के बाद
तरवाहे तरे
खूँटी में टँगा है बाबा का लाल कुर्ता
आले में रखी है बाबा के जूतों की जोड़ी
सुरमदनी पड़ी है लुढ़कती हुई
बूढ़ी आँखों का स्पर्श पाने के लिए
तिदवारी के सामने पसरा पड़ा है
फूटी खपरैल से गिरा हुआ धूप का एक छोटा टुकड़ा
जैसे पूछ रहा हो घर के लोगों से
क्या बुढ़ऊ नहीं रहे !
बाबा के न रहने के पहले ही
नहीं रहे थे बाबा के तेलियाए सींगों वाले बैल
अब वह लढ़ी भी नहीं थी
जिसकी चंदोई में बांधा करते थे बाबा
लाल-हरी रस्सियाँ
उन दिनों की एक फटी हुई पखारी पड़ी है
भुसौरी के कोने में
कि पड़ी है एक जाजिम
और गलीचा
धूल-माटी को समेटे उन दिनों की
बाबा के न रहने के बाद
पड़ा है बाबा के जमाने का समय
बैलों के खाली पड़े मुसिक्के चढ़ाए हुए
खारे में अपने जिस्म को कसे हुए
सफरे पर सिमटा पड़ा है बाबा के जमाने का समय
बाबा के न रहने के बाद।
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माफीनामा
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एकलव्य-पथ* पर चढ़ते हुए
मैंने कई बार सोचा
गिन लूँ सीढ़ियाँ
अचानक माँ याद आई
वह कहती थी
पौधों की लंबाई नापने से उनकी बाढ़ रुक जाती है
दोस्त !
मैंने कभी नहीं गिनीं
एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ !!
कभी नहीं !!!
मै माफी माँगता हूँ
उस स्त्री से
जो मेरी दादी, माँ,
बहन और मेरी बेटी है
तुम हँसोगे मुझ पर, 'भिखमंगा' जानते हुए
कसोगे फब्ती
'सरवा बांभन भीख ही माँगेगा न'
मैं आप सबसे माफी माँगता हूँ
इस जाति में पैदा होने पर
मैं नहीं जानता मेरा दोष क्या है
मैं फिर माफी माँगता हूँ
बरसों पहले माता-पिता ने
मुझे पुरुष बच्चे के रूप में जना
मैं अपराधी हूँ...
हो सके मुझे माफ कर देना...
मैं उस लड़की से भी माफी माँगता हूँ
जिसने मुझे बिना कारण बताए
अभी कल ही सारे-बाजार फटकारा
जैसे मैंने की हो कोई अश्लील हरकत !
मै धरती की गोद में पाला हुआ एक बच्चा
आकाश पिता को साक्षी मानकर
कहता हूँ
'मैंने कुछ नहीं कहा'
'मैंने नहीं की कोई हरकत'
फिर भी मै माफी माँगता हूँ
उस लड़की से
जो मेरी माँ, बहन
या बेटी है
जिसे हजारों बरस तक
डाटा जाता रहा
पीटा जाता रहा
जान से मारा जाता रहा
बिना गलती बताए !
मैं माफी माँगता हूँ
मैं
शर्म से गड़ा जा रहा हूँ
मुझ पर थूको
मुझे गोली मार दो
मेरी लाश चौराहे पर टाँग दो
मै माफी माँगता हूँ
मैंने कोई गलती नहीं की
मैं एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ नहीं गिनूँगा
मैं कहता हूँ तुम मुझे फाँसी दे दो
मेरे बाप-दादों के किए पर...
मै
माफी माँगता हूँ
मेरे बच्चों को यह सजा मत देना
मै एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ नहीं गिनूँगा।
* एकलव्य-पथ हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में
बेतरतीब सीढ़ियों वाला मार्ग जो पठार की ऊँचाई पर ले जाता है।
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रहमत मास्टर
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पिता के लिए
तंजेब की जेबदार बनियानी
सिलते थे रहमत मास्टर
दादा के लिए
मारकीन की झँगिया ताखी
और कुर्ता सिलते थे रहमत मास्टर
मेरे लिए
सिर्फ पटरा की नेकर
सिलते थे रहमत मास्टर
और परधान जी के लिए
सिलते थे रहमत मास्टर
कुर्ता-पाजामा
सदरी
मिर्जई
और न जाने क्या क्या
बचनू काका ने भी जिंदगी मे सिर्फ एक बार
सिलवाई थी एक फतुही
रहमत मास्टर से
... ...
सुना है कि इधर भूख से मर रहे हैं
रहमत मास्टर
क्योंकि अब कोई भी नहीं जाता
उनके पास
कुछ भी सिलवाने
[बया, वागर्थ, संवेद, जनपथ और परिचय आदि पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित, मेल- shailendrashuklahcu@gmail.com]
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