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प्रज्ञा जी की पांच कविताएँ-




1  चंदा कैसे बिसराउँ?


बित्ते भर की छोरी
आग लगे तेरी जबान मे
न हैसियत देखती है न सच
बस तुझे चाहिए चंदा
कोई खिलौना है क्या?
ताड़ सी लम्बी हो गयी
पर जिद्द तो देखो तुझसे भी दो हाथ आगे
एक ही जिद चंदा की  रट
खिड़की से देख ले न जी भर
बाज़ार में दाम चडा है तेरे चंदा का।
रो न बिटिया चली जा 
अपने घर
भूल जा चंदा  को
मै भी भूल गयी थी देहरी लांघकर
जानती है न
रात के चंदा को सुबह का सूरज निगल जाता है।

अम्मा
मन में बसा आँख में चमकता
जुबान से फिसलता हथेली पे रचा
सपनो में हुलसता
चंदा कैसे बिसराउँ ?
मेरी आखिरी सांस की आस है 
चंदा
है किसी देबता में हिम्मत 
जो निगल जाए इसे मेरे संग पूरा।
(प्रज्ञा)

2  दो बहनें

एक छोटी -सी चारपाई पर
लकीरों वाली चादर बिछाकर 
हम खींचते थे सरहदें
तेरी और मेरी आज़ादी की..
नींद की आगोश में जाने से पहले 
थे हमारे अनगिनत झगड़े
आज़ादी के। 
चारपाई मन में कितना हंसती होगी
मुझ पर ,तुझ पर
अपने बान को कसने वाले हर इंसान पर
वो मज़बूत हाथों से बंधा बान था
जो नहीं छोड़ता था कोई झोल
दीखता था एकदम कसा
 पर था तो बान ही  ...कोई इस्पाती चादर नहीं
सीमेंट की स्लैब भी नहीं
नींद की आगोश में जाते -जाते 
अचानक झूला बन जाता था
हवा हो जाती थी सारी लड़ाई
खो जाती थीं तमाम सरहदें
और तेरी -मेरी आज़ादी
 हमारी आज़ादी बन जाती..
 सोते हुए हम साथ भरते थे
ऊँची ..बहुत ऊँची पींगें
जो जाती सात आसमां पार
और हमारी आज़ादी की चीख 
उससे भी सात आसमां पार।
हर सुबह माँ को मिलतीं
पालना बनी चारपाई में
गलबहियां डाले
मीठे सपनों में डूबी 
दो बहनें।

3  रॉस आइलैंड को देखकर

तुम घर बसाने नहीं आये थे 
घर सपना होते हैं।
अपना घर छोड़ हुकूमत को तुमने पैर पसारे
हमारी खूबसूरत ज़मीनों को आँखों में भरा
धरती की गंध को अपने नथुनों में
लहरों के परों पर सवार 
झट इसे हथिया लिया।
ईंट, गारा, पत्थर उठाने ,
इमारत बनाने को मज़दूर मुफ्त मिले
जेलयाफ़्ता कैदी तुम्हारे हुकुम बजाते
तुम्हारी बगिया सींचते
तुम्हारे हर ज़ुल्म के बदले फूल खिलाते।
उनके दिमाग में चल रही क्रान्ति की उधेड़बुन से
तुम्हारा क्या वास्ता?
तुम्हें मतलब उनके हाथ और पाँव से 
उनके खून और पसीने से 
तुम उनके दिमाग के दुश्मन थे
दिमाग , जो मुक्ति की राह बुनते।
उधेड़ने -बुनने वाली सलाइयां तुमने मिटा डालीं
या भौंक दीं सपने देखने वाली आँखों में।
ज़िन्दगी का बहुत छोटा -सा सच तुम नहीं जान पाए
आँखें खत्म होने पर भी सपने कहाँ मरते हैं?
तुम बनाते गये इमारत दर इमारत।
द्वीपों की कायनात में अपनी बस्तियां बसा लीं
धरती की सुकून भरी सुंदर गोद में
तुम महफिलें सजाते
तुम जीत का जश्न मनाते
ताल, लय और मुद्राओं से भरकर 
तुम बनाते हर हफ्ते की रंगारंग सूचियां
 उनके मुताबिक खान- पान
ऐशो आराम।
बिजली, पानी के संयंत्र से सुसज्जित
 बन गया ये द्वीप
एशिया का पेरिस।
तुम्हारी गिरफ्त में हमारी धरती की देन
उसका अमर कोष
और अभूतपूर्व सौंदर्य के बीच तुम राजा 
हम चाकर 
हम दास।
हर ज़ुल्म के बाद भी बने रहे तुम धार्मिक
बड़े आस्थावान
गिरजे में प्रार्थना के पाबन्द। 
आज इतने सालों बाद यहाँ कोई नहीं 
मीलों उजाड़ पसरा  है।
समय  मिटा देता है ऐशो आराम के सब निशाँ
क्रूरताओं की मिसालें।
तुम नहीं, कोई महफ़िल नहीं
तुम्हारा कोई नाम भी नहीं
सिवाय उन कब्रों के
 जिनमें तुम्हारे नन्हें बच्चे , नौजवानऔर औरतें
जाने कबसे सो रहे हैं
हमने कभी नहीं जगाया उन्हें।
पृथ्वी के नियम इंसान तय नहीं करता
तुम्हारी हर इमारत हमारी प्रकृति की गिरफ्त में है 
नंगी इमारतों में छत के बिना 
आसमान घुसा चला आया है
दरों -दीवार पेड़ों ने कब्जा लिये हैं
मिट रहीं इमारतों में दिखती हैं पेड़ों की जड़ें
जड़ों में और -और फूट आईं जड़ें
अनगिनित, अंतहीन 
धरती जैसे अन्यायी को सजा देने निकली।
धरती का सब क्रोध,  पीड़ा के उफान को लिए
जड़ें चढ़ती चली आ रही हैं
फ़ैल गईं हैं रास्तों में
खा गई तुम्हारी महफिलों के हर नक्श 
जमीन फोड़कर चिल्लाती बढ़ी चली आ रही हैं
जाने कबसे।
शायद ये प्रतिशोध है
तुम्हारी बर्बर क्रूरताओं से भी सघन
तुम्हारे अट्टहास के मुकाबिले शांत
पर भीतर की घुटन और गुबार को पटकता
बरसों जो दफन रहा धरती के दिल में
तमाम क्रंदन फ़ैल गया चहुँ ओर।
हाय! तुम अपनी सम्पूर्ण यशगाथाओं के संग
अमर नहीं हुए...
धरती , फोड़ दी गयी आँखों का सपना लेकर
दोबारा जन्मी है।
मुझे लगता है
धरती भी जैसे समय है
वो हर ताकत को
जो दम्भ मेंफूली इतराती है
उसकी माकूल जगह दिखाती है।


4   कालापानी

तीन दीवारों पर आज तलक
चिपकी हैं पीड़ा की अनन्त गाथाएं
काई सनी दीवारों की पतली ईंटों के बारीक सुराखों
के बीच से 
सर उठाते हैं अनगिनत चेहरे
चेहरे बोलते नहीं
बोलती हैं चुप्पियां।
पानी में रात भर डुबोई बेंत से
पीठ पर बही आई लहू की नदियां
रात को बेतरह चीखती हैं ।
लोहे की मज़बूत सलाखों के सामने भी
सिर्फ दीवारें ही दीवारें
जख्म सहलाना तो दूर, उनकी आवाज़ भी नहीं 
पहुंचती कहीं।
सुबह से कोल्हू में तेल पिराती उँगलियों 
की समुद्र तल से उठती कराह
आदमी के दुस्साहस की मिसाल ही तो है ।
आदमी जिसे खत्म करने को आदमी आमादा है
वो ज़िंदा मौत का परवाना रोज़ निकालता है
अट्टहास करता है इंसानों के टूट जाने पर
आदमी के अपमान की 
सैकडों कहानियां यहाँ दर्ज हैं।
इस इतिहास पर गर्व करता है जालिम।
इंसान बेशर्मी से 
जिंदा रहकर करता है
नाफ़रमानी।। 

5 दो रंग

तुम्हारे मन का हरा रंग 
मेरे मन पर पड़े बेजान पीले पत्ते बुहार देता है
तुम्हारी उभरी नसों की नीलाई
कौंध कर मेरे दिमाग में बन जाती है विचार
तुम्हारी रक्ताभ हथेलियाँ 
जब थाम लेती हैं मेरी बाहें
खिल जाता है विराट इंद्रधनुष।
रंगों की इस दुनिया में
एक रंग तेरा
एक रंग मेरा
मिलकर खिला देते हैं हज़ारों रंग।
ये रंग मिलकर न जाने कहाँ से ले आते हैं
ढेर सा उजाला
हंसी की खनक।
कैसे आँखों में उतर आती है
चिरकाल से बहती कोई अजस्र धार।
 तब हमारे सपनों की दुनिया के रंग
अचानक
कुछ और चटख हो जाते हैं।।  


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