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ग्रेशम का सिद्धांत ( व्यंग्य कथा ): शक्ति प्रकाश


ग्रेशम का सिद्धांत ( व्यंग्य कथा )


तो मैं संपादक बन चुका हूँ, जो मेरे वरिष्ठ हैं उन्हें आश्चर्य के साथ कुढ़न हुई होगी, लेकिन फेसबुक पर उनके बधाई सन्देश आ रहे हैं, वे मुझे इसके योग्य घोषित कर रहे हैं. नवलेखकों की आंते मरोड़ ले रही होंगी लेकिन उनके संदेशों में बधाई के अलावा और भी कुछ है, उनके अनुसार मेरे समकालीन वरिष्ठ मुझसे तुलना के योग्य नहीं रहे, वे प्रोपेगंडा और चमचई से यहाँ तक पहुंचे हैं और मैं योग्यता से. अब मैं दिवंगत व्यंग्यकारों से तुलना के योग्य हो चुका हूँ. कुछ को तो मेरे संपादक बनने से हिंदी साहित्य में क्रांति की उम्मीदें हैं, बुर्जुआ का पतन होने वाला है और सबको समान अवसर मिलने वाले हैं. खैर अपनी योग्यताओं और सीमाओं के बारे में मुझे कोई खुशफहमी नहीं, मैं जानता हूँ कि व्यंग्य लेखन के लिए तीन गुणों का होना अनिवार्य है- ज्ञान, ऑब्जरवेशन और कल्पना शक्ति. इनकी महत्ता भी इसी क्रम में है, यानी सबसे पहले ज्ञान जो मेरे पास बहुत सीमित मात्रा में है, यहाँ ज्ञान का मतलब सिविल इंजीनियरिंग में कॉलम या बीम डिजाईन करना नहीं है, ज्ञान का मतलब देशी विदेशी साहित्य, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र, दर्शन, धर्म, इतिहास, भूगोल से है, जो मेरे पेशे और व्यस्त नौकरी के कारण मैं पर्याप्त मात्रा में हासिल नहीं कर पाया . अब आप कहेंगे कि जब मेरे पास व्यंग्य की पहली योग्यता पर्याप्त मात्रा में नहीं तो लिखता क्यों हूँ? जवाब ये कि मेरे पास बाकी दो तो हैं, कई के पास एक भी नहीं फिर भी लिख ही रहे हैं और छप भी रहे हैं. हालाँकि मैं इस कमी को अपने लेखन में ज्ञान की बातें न करके छिपा जाता हूँ और बाकी दो से काम चला लेता हूँ फिर भी छिप नहीं पाता और इस बारे में सब जानते हैं, इस मसले पर सब एक राय हैं कि मेरा लेखन कस्बाई है, जिसे पढ़ने में मजा तो आता है लेकिन कोट करने लायक नहीं. लेकिन जो भी हो अब मैं संपादक हूँ, सवाल ये कि मैं संपादक हूँ किसका? और किस प्रकार बना? ये समझाने के लिए मुझे फ़्लैश बैक में जाना होगा.

बात करीब पच्चीस साल पुरानी है, पढ़ाई पूरा करने के बाद मैं नौकरी की प्रतीक्षा कर रहा था यानी बेरोजगार था, बेरोजगारी में मेरी मित्रता नगर के कुछ मान्यता प्राप्त रंगदारों से भी हुई तो मेरे पड़ोसी और आस पास के लोग मुझे भी रंगदार मानने लगे थे, मुझे भी इसमें कभी ऐतराज नहीं रहा क्योंकि रंगदार समझा जाना बेरोजगार समझे जाने से हर सूरत बेहतर था. मोहल्ले में चोरी चकारी या छेड़ छाड़ होने पर सारे बेरोजगारों के चरित्र प्रमाणपत्र उनके पड़ोसियों से सत्यापित कराये जाते मगर मुझसे कोई पूछता तक न था. हालाँकि मेरे कब्ज़े में दो वोट भी नहीं थे पर सभासद के चुनाव में हमेशा, विधान सभा चुनाव में अक्सर, लोक सभा चुनाव में कभी कभार, गालिबन हर दल के प्रत्याशी मुझसे राम राम करने आते, इंग्लिश शराब की क्रेट भी लाते, जो ईमानदारी से मैंने कभी नहीं ली. दूकान वाले मुझे उधार देने में सम्मान महसूस करते थे, रिक्शे वाले मुझे रिक्शे में बैठाने के लिए आपस में झगड़ते थे. इसी माहौल में एक दिन लगभग सोलह साल का ग्यारहवीं में पढ़ने वाला एक लड़का मेरे पास आया था. उसकी बड़ी बहन पिछले दो साल से दसवीं में अंग्रेजी में फेल हो रही थी और इस बार उसका सेण्टर हमारे मोहल्ले के हाई स्कूल में पड़ा था, लड़का दूर की रिश्तेदारी भी लाया था जिसके अनुसार वह हमारी भाभी का दूर का भाई होता था, मुझे वह मुलाकात याद है और इसलिए खास याद है कि तीन दिन बाद मेरा साक्षात्कार उसकी बहन से हुआ था, सुन्दर थी, बल्कि इतनी सुन्दर कि पहली मुलाकात में मुझे उन परीक्षकों पर क्रोध आया था जो उसे दो साल से फेल कर रहे थे. हालांकि नकल की तलबगार होने के बावजूद उसने मुझमें कोई रूचि नहीं दिखाई फिर भी मैंने उसकी मदद की थी, यूँ  उसका निवेदन सिर्फ अंग्रेजी में नकल कराने का था पर मैंने स्कूल के हेड मास्टर के पांव छूकर भाईसाब की साली को पास कराने का आशीष माँगा तो मेरे रंगदार होने के भ्रम के चलते इतने में ही हेडसाब निहाल हो गए और उसे हर विषय में नकल मिली नतीजतन उसकी छे में से पांच विषय में विशेष योग्यता थी, सबसे कम नंबर उसके अंग्रेजी में ही थे, फिर भी इकसठ या बासठ तो थे ही, कुल मिलाकर वह सम्मान सहित उत्तीर्ण हुई थी. बाद में मैंने भाभी से बात चलाने के लिए मक्खन लगाया तो उस तक बात पहुँचने के पहले ही भाभी ने मुझे वह दर्पण दिखा दिया जिसमे मेरी बेरोजगारी, रंगदारी और सूरत साफ साफ दिख रहे थे, तब मुझे लगा कि नकल वाकई बुरी चीज़ है और इसे तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए.  

खैर वो लड़का होशियार था, जब तक बहन परीक्षा देती वो हमारे घर पर बैठकर पढ़ता था, बाद में वह लड़का आई.ए.एस. बना तो भाभी के पास भी कहने के लिए ‘अपना राहुल’ आ गया था, भले ही वो मुझे हमेशा भैया कहता रहा था लेकिन लोगों को बताने के लिए मेरा एक साला आई.ए.एस था. आज कल वह संस्कृति मंत्रालय में सेक्रेटरी था, पिछले दिनों पुस्तक मेले में अपनी किताब का हश्र देखने के लिए मैं दिल्ली गया था, जो देखने गया वह संतोष जनक नहीं था तो ख्याल आया कि अपना राहुल भी यहीं है उससे ही मिल लिया जाय. तब मैं उसके मंत्रालय गया, उसके आई.ए.एस. बनने के बाद हमारी यह पहली मुलाकात थी, किन्तु वह मुझे भूला नहीं था.
‘ आइये भैया, नमस्कार’ वह खड़ा हुआ
‘ नमस्ते राहुल, कमाल है पच्चीस साल बाद भी पहचान लिया’
‘ सही बताऊँ तो जब आपने गेट पास लिया तब फोन आ गया था. आप खासे तंदुरुस्त हो गए हैं, बिना सूचना के मिलते तो शायद.... लेकिन भूलने लायक तो आप हैं नहीं, उस वक्त आपने काफी मदद की थी हमारी’
‘ छोडो यार, नकल कराना भी कोई मदद है ?’ मैं हंसा, जैसे कल की बात रही हो  
‘ अरे नहीं भैया, दीदी को दसवीं कराना जरूरी था, दो साल से इंग्लिश में लुढ़क रही थी जो दसवीं में कम्पलसरी थी, उसके बाद इंग्लिश छोड़ दी, फिर बी.ए. एम.ए. पी.एच.डी., मॉरिशस में प्रोफेसर हैं जीजाजी, दीदी भी वहीँ लग गईं, बहुत सुखी हैं, आपको अक्सर याद करती हैं, हाथरस वाले भैया की नेचर, कोऑपरेशन की तारीफ आज भी करती हैं’
‘ बड़प्पन है उनका’ मैंने बेहद सभ्यता से कहा, हालाँकि मुझे पच्चीस साल पहले की गई गलती का बेहद मलाल था, यदि वह दो साल और फेल होती तो भाभी की हिम्मत मुझे दर्पण दिखाने की न होती, खुद भाभी भाई साब को मनाती और वह मॉरिशस युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मेरे लिए करवा चौथ का व्रत रख रही होती खैर... तभी राहुल के असिस्टेंट ने अन्दर प्रवेश किया –
‘ सर अमुक जी का पत्र आया है’
‘ क्या लिखा है?’
‘ वो सर ऑनरेरियम बढ़ाने का लिखा है, नहीं तो वे असमर्थ हैं’
‘ ठीक है जाओ, चाय भिजवा देना’
‘ ये अमुक जी तो बड़े साहित्यकार हैं?’ उसके जाते ही मैंने पूछा
‘ काहे के बड़े? हिंदी की दो कौडिये हैं, नहीं मिलता तो पेट पीटते हैं, पेट भर दो तो आपके दरवाजे के सामने ही हगते हैं’ वह हिकारत से बोला
‘ अरे नहीं सम्मान के योग्य हैं’
‘ छोडिये भैया, आप कैसे आये दिल्ली?’
‘ यूँ ही’ मैंने उसकी निगाहों में हिंदी लेखकों का सम्मान देखते हुए कहा
‘ यूँ ही को किसके पास इतना वक्त है, बताइए शायद मैं आपका अहसान उतार सकूं’ वह हंसा
‘ तब रहने ही दो’ मैं हंसा
हालाँकि वह अहसान को बीच में न घुसेड़ता तो शायद मैं उसके मंत्रालय की लाइब्रेरी के लिए दस बीस किताबें खरीदने की बात कह सकता था, क्योंकि मेरा अहसान ज्यादा बड़ा था, मेरी वजह से आज उसकी बहन विदेश में थी और यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी, उस अहसान को इतनी आसानी से नहीं उतारा जा सकता. खैर उसे गलती का ख्याल आया –
‘ मेरा मतलब था रिश्तेदार होते किस लिए हैं, आप कभी भी मदद मांगेंगे मैं हाज़िर हूँ’
‘ कुछ नहीं आज कल मैं भी हिंदी लेखक हो गया हूँ’ मैं हंसा
‘ अरे ? और नौकरी?’ उसे मेरी मूर्खता पर यकीन नहीं हुआ
‘ वो भी है, एक किताब छपी थी उसे ही देखने आया था पुस्तक मेले में’ मैं हंसा
‘ तब ठीक है, ये तो अच्छी बात है, नाम और प्रकाशक लिखकर दे दीजिये दस बीस कॉपी मंगवा लूँगा, उधर दीदी भी मंगवा लेंगी और हाँ मेरा मसला भी हल हो गया’ उसने सहानुभूति में चैन की साँस ली
‘ कौन मसला?’
‘ अरे वही अमुक जी वाला, स्साले के दिमाग ख़राब हो गए हैं, हमारी त्रैमासिक पत्रिका है, उसमे आधा मैटर तो मंत्रालय का होता है, बाकी कविता, कहानी, व्यंग्य वगैरा के लिए एक ऑनरेरी संपादक होता है जिसे मैटर कलेक्ट करना होता है, संपादन करना होता है एक इशू के दस हज़ार देते हैं हम, करना कुछ नहीं, अब आपके अमुकजी को रकम कम लग रही है, यूँ मैं दीदी को संपादक बना दूं पर ब्लड रिलेशन है, आपको बना देते हैं’
‘ मैं?’ मैंने आश्चर्य से कहा
‘ रकम कम है?’
‘ अरे नहीं यार मैं इस योग्य नहीं’ ये मैंने शिष्टाचार में वास्तविकता बयान की  
‘ किताब लिखी है ना? बड़े प्रकाशक ने छापी है ना? बहुत है’
‘ नहीं भाई, संपादन काफी बड़ी जिम्मेदारी है’
‘ अजी घंटा, लाओ मैं करूँ संपादन’
‘ संपादन का मतलब प्रूफ चेक हो तो कर लोगे मगर रचना का मूल्यांकन?’
‘ वो किसे करना है? अमुक जी भी चेले चंटी को ही छापते थे’
‘ मगर मेरे पास तो चेले चंटी कुछ नहीं’
‘ मैं आपको लैटर देता हूँ, उसे स्कैन करके फेसबुक और ट्विटर पर डाल देना, मिनट में तेरह की दर से चेले बनेंगे’
‘ मगर योग्यता?’
‘ कैसी योग्यता? किसी चायवाले की जानकारी होती है पी.एम. बनने लायक? अवसर का लाभ लो भैया, अच्छा यदि आपने दीदी को नकल न कराई होती तो वह पी.एच.डी. कर पाती? उसकी शादी मॉरिशस के प्रोफेसर से होती? वह प्रोफेसर होती? लेकिन वो है, अब किसके पैंदे में गूदा है कि उसकी योग्यता पर सवाल उठाये? सवाल योग्यता का नहीं अचीवमेंट का है, अब आप कहें कि आपने उसे नकल कराई थी तो आपका ही मजाक बनेगा, अब अपने बायो डेटा में आप ठोंक कर संपादक संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार लिख सकते हैं, हमारी वेब साईट पर आपका फोटो होगा और आप जैसे नवलेखक के लिए यह उपलब्धि ही होगी, ये लीजिये’

उसके बाद उसने मेरे उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और पत्र में से अमुक जी का नाम हटाकर मेरा नाम लिख एक प्रति मुझे पकड़ा दी जिसकी स्कैन कॉपी मैं फेसबुक और ट्विटर पर डाल चुका हूँ. हालांकि फेसबुक पर मैं बिलकुल भी मशहूर नहीं दोस्तों की संख्या भी करीब दो सौ है, जिनमे करीब पचास मेरे सहकर्मी हैं, पचास रिश्तेदार और परिचित, पचहत्तर मित्रो के मित्र, शेष पच्चीस नवलेखक और वरिष्ठ. हालाँकि मेरे स्तर के कई मित्रों के पांच पांच हज़ार मित्र भी हैं, पर मेरे पास न इतना समय है और न धैर्य कि चालीस हज़ार को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजूं और तब चार हज़ार मित्र बनाऊं, मुझे तो राम राम का जवाब न मिले, कोई फोन न उठाये तो पच्चीस साल पहले का अपना रंग याद आ जाता है, जी करता है इग्नोर करने वाले के गाल पर चार छे सूंत दूं, पर वक्त और हैसियत के मद्दे नज़र सब्र करना होता है. हालाँकि किताब छपने के बाद कुछ मित्रों की राय पर मैंने सौ डेढ़ सौ फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी और सात आठ का जवाब भी आया था, बाद में पता चला कि वे सब भी मेरे जैसे ही थे. तब से मैं न फालतू फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता हूँ न अपरिचितों को स्वीकार करता हूँ और अब तो फ्रेंड रिक्वेस्ट आती भी नहीं. परसों जब से मैंने संस्कृति मंत्रालय के पत्र की प्रति चिपकाई है मेरे पास साढ़े सात सौ फ्रेंड रिक्वेस्ट आ चुकी हैं, मेरे व्यंग्य जो फेसबुक पर मैंने डाले हैं और जिन्हें अधिकतम  बारह लाइक मिलने का पिछला रिकॉर्ड था, उन पर लाइक तीन से चार गुने हो गए हैं, हालांकि तीन चार बड़े लोगों ने मुझे अनफ्रेंड भी कर दिया है, पर साढ़े सात सौ की तुलना में ये नगण्य है.
मैं संपादक हो चुका हूँ, पिछले दो दिन में मेरे पास अढ़ाई सौ सन्देश और बहत्तर रचनाएँ आ चुकी हैं अभी डेड लाइन खत्म होने में तेरह दिन बाकी हैं, ये संख्या कहाँ पहुंचेगी मुझे अंदाज़ा नहीं, लेकिन दिक्कत ये है कि चौदह रचनाएँ मेरे सहकर्मी, मित्र और रिश्तेदारों की हैं, अधिकतर कवितायेँ हैं, इनमे से किसी की हैसियत –‘खत लिखता हूँ खतावार हूँ, बीवी बच्चे मर गए खुद बीमार हूँ’ से अधिक नहीं, एकाध कहानी भी है जिसका प्लाट टी.वी. सीरियल ‘हमारी बहू ललिता’ के बहत्तरवें एपिसोड से अठानवे फीसद मेल खाता है, आप शक न करें कि मुझे सीरियल पसंद हैं, कुछ सीरियल खाने के वक्त आते हैं, आपके पास भागने का भी विकल्प नहीं होता. एकाध व्यंग्य भी है जो कई जगह से कट पेस्ट किया गया है और कुल मिलाकर यह हरिशरद शुक्ल जैसे किसी व्यंग्यकार का बन गया है और किसी मतलब का नहीं रहा, बेहतर था कि वह किसी एक का लिखा ही भेज देता और मेरे न पढ़ा होने की सूरत में मैं एक रिश्तेदार को तो ओब्लाईज़ कर सकता था. मैं जानता हूँ कि यही रचनाएँ मुझे अधिक दुःख देने वाली हैं, ये वे लोग हैं जिनकी रचना न छापने की सूरत में रचनाकार का सामना मुझे बार बार लगातार करना है और ये सामना कभी भी व्यक्तिगत शत्रुता के स्तर पर पहुँच सकता है. हालाँकि मुझमे मना करने का नैतिक साहस होना चाहिए, लेकिन हो नहीं सकता क्योंकि मैं भी व्यक्तिगत संबंधों से बना संपादक हूँ.

जो नवलेखकों या कवियों की रचनाएँ है, वे मैंने अभी देखी नहीं, उनके साथ लगे पत्र सभी पढ़ लिए हैं, इनमे से आधे लोगों ने मेरा सद्य: प्रकाशित उपन्यास पूरा पढ़ा है जबकि प्रकाशक के अनुसार अभी तक चालीस प्रतियाँ ही बिकी हैं जिनमे मैं जानता हूँ कि तीस मेरे विभाग ने ही खरीदी हैं, चार मेरे मित्रों ने. खैर उन्होंने वाक्य कोट किये हैं तो मानना पड़ेगा, लेकिन उन्होंने जो वाक्य कोट किये हैं वे मेरे उपन्यास के सबसे साधारण  वाक्यों में से हैं, अब आप कहेंगे जिन्हें मैं साधारण खुद स्वीकार कर रहा हूँ वे वाक्य मैंने लिखे ही क्यों थे, भाई साब चार सौ पेज के उपन्यास का हर वाक्य कालिदास की सूक्ति तो नहीं हो सकता, खुद कालिदास का हर वाक्य सूक्ति नहीं, उपन्यास में बहुत अच्छे वाक्य भी थे उनमे से एक भी कोट नहीं किया गया था. मुझे याद आ रहा है मेरे उपन्यास की एक समीक्षा तथाकथित जी ने लिखी थी जो एक मैगजीन में छपी भी थी, चूंकि यह समीक्षा मेरे बहुत पीछे पड़ने पर लिखी गई थी, तथाकथित जी लिखना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने जान बूझकर बहुत साधारण वाक्य उठाये थे और एकाध वाक्य में सम्पादन की कलाकारी किताब छपने के बावजूद दो शब्द अपनी मर्जी से जोड़कर कर दी थी, जिससे वह वाक्य घटिया और अश्लील लग रहा था. शर्तिया इन सभी लोगों ने वह समीक्षा पढ़ ली है. नव लेखिकाओं ने फोटो भी भेजे हैं, इनमे कुछ फोटो बेहद मोहक हैं, ऐसा लग रहा है मानो मैंने किसी मोडलिंग कंपनी की पत्रिका के लिए आवेदन मांगे हों. कुछ के पत्र प्रेम पत्र होने के काफी नजदीक हैं, यदि ये मेरी पत्नी के पल्ले पड़ जाएँ तो भले मेरे डर से कुछ न कहे पर मेरी गैर मौजूदगी में मेरी दराज अवश्य खोलना चाहेगी. इस सब से मेरी समझ नहीं आ रहा कि हिंदी लेखन जिसमे न पैसा है, न प्रसिद्धि और न ग्लैमर उसके लिए ऐसे फोटो, ऐसे निवेदन दिल पर पत्थर रख कर ही भेजे होंगे, जब दिल पर पत्थर ही रखना है तो मुंबई जाकर सीरियल अभिनेत्री का संघर्ष झेलने में क्या बुराई  है?  पुरुष लेखकों ने मेरी तारीफ के जो कृत्रिम पुल बांधे हैं, उनसे मैं सहमत तो नहीं प्रफुल्लित अवश्य हूँ लेकिन उन्हें ये मुगालता क्यों है कि एक सरकारी पत्रिका में छपने से वे मोहन राकेश या नागार्जुन बन जायेंगे. खैर ये उनकी सरदर्दी है मेरी तो तारीफ ही है.

तेरह दिन बाद मुझे रचनाओं का चयन करना है, जहाँ तक व्यंग्य का प्रश्न है, परसाई जी के अलावा मुझे अपने लिखे व्यंग्य ही सर्वाधिक अच्छे लगते हैं, फिर भी अच्छे बुरे व्यंग्य की पहचान तो मुझे है, इतना तो है कि चार में से एक निकाल सकूं, कहानी भी देख ली जाएँगी पर कविता मेरे पल्ले नहीं पडतीं उसमे भी नई कविता? मेरे हिसाब से नई कविता आलसियों का उपक्रम है, न पिंगल, न तुक, न छंद, न रस, न अलंकार. पहले एक बढ़िया सा निबंध लिखो, छप जाये तो ठीक, न छपे तो उसके पैराग्राफ उठाकर बेतरतीब हिज्जे बना दो जैसे -  
हम लांच करेंगे एक योजना
बहकने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए
समाज आबादी बलात्कार योजना
होगा जिसका नाम
हर गाँव में चिन्हित किये जायेंगे कुछ खेत, खलिहान, बुर्जी, बिटोरे
ये होंगे उन लोगों के
जिन्होंने हमें नहीं दिया था वोट पिछले चुनाव में
उन पर किया जायेगा कब्ज़ा
पुआल आदि बिछाकर इस योग्य बनाएगी हमारी ब्रिगेड उस जमीन को
कि किसी प्रकार का कष्ट न हो बलात्कारी को
पूरा ध्यान रखा जायेगा इस बात का
कि जो हमें देंगे वोट
उनकी लड़कियों पर नहीं बहकेगा कोई
यदि हमे वोट देता हो पूरा गाँव
तो मदद की जाएगी लड़कियां उठवाने में
पड़ोसी गाँव, तहसील, जिला, प्रदेश और  देश से भी

दरअसल ये नई कविता नहीं मेरे व्यंग्य का एक पैराग्राफ है, जो तोड़ मरोड़कर लिखा गया है, उस व्यंग्य में ऐसे बीस पैराग्राफ थे, यदि मैं चाहता तो दो घंटे में ऐसी बीस कवितायेँ लिख सकता था और एक पूरे दिन में काव्य संग्रह. मुझे ये नई कविता निबंध ही नज़र आती है पर दिक्कत ये कि अब कोई पुरानी कविता लिखता नहीं. पिंगल या बहर की बात करते ही आस्तीने चढ़ाने लगते हैं भाई लोग. ये सब मैंने आपको तो बता दिया है किन्तु सार्वजनिक स्वीकारोक्ति में मुझे दिक्कत हो सकती है, खैर इसके लिए मुझे किसी की मदद लेना होगी, मैं जानता हूँ कि मदद एक से मांगूंगा तेरह फोन आ जायेंगे क्योंकि जिसे मैं फोन करूंगा वह छब्बीस को बता चुका होगा. तो ठीक है मैं अपने परिवार की ही मदद लूँगा, मेरा बेटा आठवीं में पढ़ता है, सब्जी भाजी ले आता है, साइकिल से स्कूल भी चला जाता है, कुशाग्र भी है, टी.वी.सीरियल्स से चिढ़ता है, सिर्फ कार्टून और डिस्कवरी देखता है. आप कहेंगे कि संपादन के लिए ये सारी बातें योग्यता किसतर हैं? दरअसल मैंने डिग्री कॉलेज की एक महिला लेक्चरर को अपनी आठवीं में पढ़ने वाली बेटी से बी.ए. फायनल की कॉपी चेक कराते हुए देखा था, मेरी आपत्ति पर उन्होंने ऐसी ही कुछ योग्यताएं अपनी बेटी में बताई थीं. मेरा बेटा तब चौथी में पढ़ता था, तभी से मेरे मन में भी इच्छा थी कि मैं भी अपने बेटे की योग्यताएं साबित करूँ, मेरे पास यूनिवर्सिटी की कॉपी तो आने वाली नहीं, यही सही. वैसे भी कुछ स्थापित लोगों की कविता आ ही जाएँगी उनमे क्या चेक करना, एक दो नव लेखक या लेखिका को छापना है, हो जायेगा, फिकर नॉट, मैं अपनी पीठ ठोंकता हूँ.

अचानक राजेश जी का फोन आता है, राजेशजी मेरे पहले परिचित साहित्यकार हैं और मेरे प्रशंसक भी. अब तक तेरह साहित्यकार मेरी मुफ्त कॉपी जीम चुके हैं, समीक्षा छोडिये फेस बुक तक पर जिक्र नहीं किया, इस भले आदमी ने मेरी किताब खरीदी थी और उसकी समीक्षा रीजनल पेपर और फेस बुक पर छापी भी थी. लोग उन्हें दक्षिणपंथी मानते हैं पर मुझे इससे कोई भी फर्क नहीं, मेरे लिए वे अच्छे व्यक्ति पहले हैं उनका पंथ बाद की बात, वे कुछ भी देंगे मैं छापूंगा.
‘ कैसे हैं सत्यकाम जी’ वे पूछते हैं
‘ एकदम बढ़िया, आप सुनाएँ’
‘ फेस बुक पर तो बधाई दे दी मैंने सोचा फोन पर भी...’
‘ कैसी बात करते हैं राजेश जी, आप क्यों औपचारिक होते हैं’
‘ नहीं सर अब तो संपादक हैं आप’
‘ तो संपादक क्या भगवान का बेटा होता है?’ मैं सगर्व कहता हूँ
‘ बेटा? बाप समझते हैं भाई लोग, मगर आपकी बात अलग है आप तो शुरू से डाउन टू अर्थ हैं’
‘ और सुनाइए?’ भले उनका अहसान हो पर मैं चाहता हूँ कि एक बार वे भी निवेदन करें
‘ अरे सर तहलका मचा है साहित्य जगत में, क्या पटखनी दी है आपने अमुकजी को’
‘ अरे नहीं भैया, उन्हें ऑनरेरियम कम लग रहा था, चिट्ठी लिखी थी, अब सरकारी संस्था में बारगेनिंग थोड़े होती है, उन्होंने हमे बना दिया’
‘ मगर सर आपने बताया नहीं इतनी पहुँच है आपकी?’
‘ अरे सा....साल भर पहले एक व्यंग्य भेजा था, इन्होने छापा नहीं, सेक्रेटरी के पल्ले पड़ गया उसने प्रभावित होकर बुला भेजा बस’ मैं संभलता हूँ क्योंकि गर्वित होने में सच निकलते निकलते बचा है
‘ अरे? ऐसा लाख में एक बार होता है, फिर तो वाकई साहित्यप्रेमी आदमी है’ साफ है वे उत्तर से संतुष्ट नहीं
‘ हाँ भला ही लगा’
‘ सुना है अलीगढ का है’ वे कुरेदते हैं
‘ अलीगढ का तो उप राष्ट्रपति भी है’ मैंने व्यंग्य में कहा, वे मेरे पक्ष के हैं उन्हें ये अन्वेषण नहीं करना चाहिए
‘ खैर, बहुत कुढ़े हुए हैं भाई लोग, कुछ ने तो आपको अनफ्रेंड भी कर दिया’ वे हँसते हैं
‘ अरे आपको भी पता चल गया’
‘ पता? हमें तो ये भी पता चल गया कि आपके खिलाफ मुहिम भी छिड़ी है कि आपकी मैगजीन में सीनियर्स रचनाएँ न भेजें’
‘ क्यों?’
‘ क्योंकि आपने गलत तरीके से अमुकजी से पत्रिका छीनी है’
‘ क्या गलत था भाई? इन्होने असमर्थता जताई, मुझे अवसर मिला मैंने लपक लिया’
‘ वे कहते हैं आपको अमुकजी से अनुमति लेनी चाहिए थी’
‘ अमुकजी मुझे जानते तक नहीं, तब अनुमति का क्या मतलब?’
‘ यही तो जलन है सर जिसे लोग ठीक से  जानते तक नहीं वह सम्पादन करेगा?’
‘ जानने से क्या? सवाल ये है कि सामने वाला योग्य है या नहीं’ ये कहते हुए मेरी जुबान हलके से कांपती है 
‘ अरे सर आपकी योग्यता का मैं कायल हूँ, पर स्थापित लोग माहौल बना रहे हैं आपके खिलाफ’
‘ रचनाएँ नहीं देना है, न दें, अपना ही नुक्सान करेंगे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और बच्चन की छापने से रोक लेंगे? मान देय बचेगा और इनसे अच्छा तो नए लोग लिख रहे हैं’
‘ वो तो है, मैंने एक कहानी भेजी है सर’
‘ आप कुछ भी भेजिए राजेश जी, स्पष्ट गाली गलौज न हो, सब छपेगा’
‘ ठीक सर शुभकामनायें’
मैं लैप टॉप खोलता हूँ तैतीस रचनाएँ, दो सौ बारह फ्रेंड रिक्वेस्ट, बाईस बधाईयाँ और मिलती हैं, मैं  स्वीकार करता हूँ, अब मुझे अपना काम शुरू कर देना चाहिए, मैं रचनाएँ देखता हूँ तो दो वरिष्ठ उनमे हैं, मैं बिना देखे राजेश जी के साथ उन्हें भी सलेक्ट कर लेता हूँ. अब मैं रिजेक्शन करने वाला हूँ, पहले बिना पढ़े रिजेक्शन वाला साहित्य खोजता हूँ. ये..ये पुस्तक मेले में मिला था मगर उम्र में छोटा होने के बावजूद इसने नमस्ते नहीं की, इससे मैंने समीक्षा लिखने के लिए तीन बार कहा पर इसने नहीं लिखी, इसकी बुआ मेरे पुश्तैनी गाँव में शत्रु पक्ष में ब्याही है, इस लडकी की सूरत अच्छी नहीं, ये अमुक जी के स्टेटस पर हमेशा कमेंट करती है, ऐसे बयालीस कारण मैं खोज लेता हूँ और बयालीस लोगों को बिना देखे राईट टू रिजेक्ट के अधिकार का प्रयोग कर रिजेक्ट कर देता हूँ. फिर हर रचना की दो लाइन या एक पैरा पढ़कर पैंतालिस नव लेखकों को और रिजेक्ट कर देता हूँ. आज के लिए इतना काफी है.
मैं सुबह सोकर उठता हूँ, राहुल  का फोन आ जाता है
‘ कैसे हैं भैया?’
‘ अच्छा हूँ, काफी मेटर आ गया है’
‘ वो ठीक है, आज आप फ्री हैं? दिल्ली आ पाएंगे?’
‘ तुम कहोगे तो आ जाऊँगा’
‘ तो आ जाइये’
मैं तीन घंटे में दिल्ली पहुँचता हूँ, राहुल मेरा ही इंतजार कर रहा है
‘ आइये भैया’ वह घंटी बजाकर चाय का आदेश देता है
‘ कुछ इमरजेंसी थी?’
‘ कुछ खास नहीं’ कहकर वह कुछ अखबार मेरी ओर बढ़ाता है
उन अखबारों में कुछ ख़बरें हैं, जिनमे  संस्कृति मंत्रालय में चल रहे भ्रष्टाचार खास तौर पर पत्रिका के संपादक को लेकर राहुल पर कीचड उछाला गया है. हैडिंग कुछ इस प्रकार हैं  –‘ संस्कृति मंत्रालय में संपादक की खरीद फरोख्त’, ‘ जो लिखना नहीं जानते वे बनेंगे संपादक’, ‘ रिश्तेदारी निभा रहे सचिव महोदय’
‘ अरे? मगर रिश्तेदारी का कैसे पता चला इन्हें?’
‘ आप आये थे, तब ऑफिस वालों के सामने भैया कहा था आपको, इनमे से किसी ने बका होगा’
‘ अब?’
‘ अब क्या? अमुक जी को सहलाना होगा’
‘ मतलब ?’ मैं आशंका से भयभीत होता हूँ
‘ मतलब, उसे भी इन्वोल्व करना होगा’
‘ अब तुम बेइज्जती कराओगे यार?’ मैं असहाय होता हूँ
‘ नहीं भैया नेगोशिएशन करेंगे’
‘ मैं तो एक ही नेगोशिएशन जानता हूँ यार, जो हम ठेकेदारों से करते हैं’
‘ ये भी तो ठेकेदार हैं’ वह हँसता है
‘ कमाल है? तुम इतने बड़े अधिकारी और दो रूपये के अख़बार से डर गए’
‘ मैं नहीं डरा, साला मंत्री पोंक गया, कहता है इलेक्शन है’
‘ तुमने बताया नहीं कि अमुकजी ने चिट्ठी दी थी?’
‘ बताया, वह कहता है कि अमुकजी ने मना किया तो उसकी बराबरी का विमुखजी पकड़ते, तुमने रिश्तेदार ही पकड़ लिया’
‘ रिश्तेदारी साबित करें’
‘ भैया वो पत्रकार हैं, कुछ भी साबित कर देंगे, गधे के सर पर सींग भी, फिर रिश्तेदारी तो है, एक बार हमारे और आपके गाँव जाने की देर है कुछ भी ले आयेंगे, हो सकता है ये भी कि आपने दीदी को नकल कराई थी, उसके बाद जो ये हगेंगे न मैं बर्दाश्त कर पाऊँगा न आप’
‘ यार प्रपोजल तो तुम्हारा ही था, मुझे ही कब खुजली थी संपादक बनने की?’ मैं खीजता हूँ
‘ हाँ, मुझे पता नहीं था कि वो हरामी पत्रकार भी है, इन स्सालों ने हर जगह कब्ज़ा किया हुआ है, अख़बार, टी.वी. साहित्य, राजनीति, खैर आपकी बेइज्जती नहीं होगी, बुलाया है उसे’
चाय आ जाती है, थोड़ी देर मौन रहता है, हम चाय सुड़कते हैं, अचानक अमुकजी अपने दो चेलों के साथ अन्दर घुसते हैं और ‘नमस्कार सर’ कहकर बेफिक्री से कुर्सी पर जम जाते हैं, हालाँकि वे मुझे किसी अन्य परिस्थिति में मिलते तो मैं चरण स्पर्श अवश्य करता पर इस समय हम प्रतिद्वंदी हैं, मैं उनकी ओर देखता भी नहीं.
‘ बताएं सर’ वे राहुल की ओर देखते हैं, बदले में राहुल उनके चेलों को, अमुकजी समझ जाते हैं
‘ तुम लोग बाहर बैठो’ वे आदेश देते हैं, चेले निकल जाते हैं
‘ आप सत्यकाम जी’ राहुल मेरा परिचय कराता है
वे मुझे ऊपर से नीचे तक घूरते हैं
‘ तो तुम हो सत्यकाम? आगरा से हो? नाम सुनने में नहीं आया कभी?’
‘ कमाल है कितना तो सुन लिया’ मैं हँसता हूँ
‘ इस घटना के पहले नहीं सुना’
‘ इनकी किताब माहेश्वरी प्रकाशन ने छापी है’ राहुल कहता है
‘ इन्होने अच्छा लिखा होगा पर ये प्रकाशक तो पैसे लेकर किसी को भी छाप देते हैं’ वे कहते हैं
‘ छापते तो संबंधों और धौंस पर भी हैं’ मैं कहता हूँ
‘ छोडिये, मतलब की बात करें’ राहुल बीच में बोलता है
‘ कीजिये’ अमुक जी कहते हैं
‘ आप क्या चाहते हैं?’
‘ हम क्या चाहते हैं आपको पता है’ वे कहते हैं
‘ आपने खुद असमर्थता जताई थी’
‘ ठीक है मगर आपको भी तो बात करना चाहिए थी, कल को पत्नी आत्महत्या की धौंस दे तो उसका गला दबा देंगे आप?’ वे विद्रूपता से हँसते हैं
‘ गला तो नहीं दबायेंगे लेकिन विकल्प मौजूद हो तो मरने से रोकेंगे भी नहीं’
‘ अरे बड़े निष्ठुर हैं आप?’ वे खिलखिलाते हैं
‘ काहे का निष्ठुर? यदि बीवी को दिक्कत है तो संवाद करे, मरने की धौंस देने वाली को तो मर ही जाना चाहिए’
‘ भले उससे बढ़िया विकल्प मौजूद न हो’
‘ मेरा विकल्प मैं तय करूंगा’
‘ तब बुलाया क्यों है सर?’  वे मुस्कराते हैं
‘ क्योंकि आप अख़बारबाजी कर रहे हैं, कपड़े फाड़ रहे हैं, मेरे भी अपने भी और इनके भी, आपको इसकी आदत हो पर मुझे नहीं है, अब आप बराय मेहरबानी काम की बात करें’ वह खीजता है
‘ चलिए, मैं उसी मानदेय में तैयार हूँ, बात इज्ज़त की है’
‘ और ये?’ वह मेरी ओर इशारा करता है
‘ आप समझिये’
‘ आप समझिये मतलब? आपकी इज्ज़त इज्ज़त इनकी केजरीवाल का गाल?’ वह उत्तेजित होता है
‘ आप रास्ता निकालिए’
‘ ये इशू ये ही निकालेंगे, अगला इशू आप देख लीजिये’
‘ इशू ब्रेक होने में भी अच्छा नहीं लगेगा, इन्हें अतिथि संपादक बना दीजिये’
राहुल मेरी ओर देखता है, मैं बोलता हूँ –
‘ जो रचनाएँ मैंने मंगा ली हैं वे?’
‘ इस इशू में रचनाएँ तुम्हारी रहेंगी, कम पड़ें तो मैं दे दूंगा, मानदेय बाँट लेंगे, आपस की बात है’ वे कुशल व्यापारी की तरह कहते हैं, उनकी वैश्यवृत्ति से मुझमें भी प्रेरित कम्पन होते हैं -
‘ इसके अलावा आप मेरी किताब की समीक्षा लिखकर दो चार जगह छपवा देंगे तो मुझे भी अच्छा लगेगा’
‘ अब तो अपने आदमी हो यार, खुद लिख लाना, हमें तो पढ़ने की फुर्सत है नहीं, छपवा देंगे अपने नाम से’
‘ एक और निवेदन था आपके चेले चंटी इसे फेस बुक, ट्विटर पर मुद्दा न बनायें’ मैं हथियार डालता हूँ
‘ जब हमारे साथ नाम छपेगा तब तुम भी हमारे चेले ही हुए, क्यों बनायेंगे? हा..हा..हा...’
वे छठवीं शताब्दी के किसी धार्मिक नेता की तरह गर्दन पर तलवार रख, मुझे घुटनों पर लाकर अपने समुदाय में शामिल करते हैं, मुझसे और राहुल से हाथ मिलाकर निकल जाते हैं, उनके जाने के बाद मैं राहुल से कहता हूँ –
‘ तुमने तो जगदम्बिका पाल बनवा दिया यार’
‘ सॉरी भैया, मैं कम्पनसेट कर दूंगा, बहुत काम है मेरे पास लेखकों और कवियों के लिए’ वह मुस्करा कर मेरा कन्धा दबाता है  
मैं चला आता हूँ, घर आकर मैं लैप टॉप खोलता हूँ, फ्रेंड रिक्वेस्ट अभी भी आ रही हैं, रचनाएँ अभी भी आ रही हैं, पर मेरी रूचि अब उनमें नहीं, मैं अमुक जी को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता हूँ, उनका एक चेला जो फेस बुक पर मेरा मित्र है उसका स्टेटस मेरी वाल पर अचानक चमकता है –
‘ बादशाह जहाँगीर की जान एक बार एक भिश्ती ने बचाई थी, बदले में उसने बादशाह से एक दिन का राज्य माँगा और उस एक दिन में उसने चमड़े के सिक्के चला दिए थे. आप कल्पना कर सकते हैं कि आज भी ऐसा हो सकता है.....’
उस पर तीन सौ लाइक हैं, पैंतीस करीब कमेंट्स भी, जिनमें अमुक जी का भी कमेंट है  –‘हा..हा...हा..’ साफ़ है  कि अमुक जी वादाखिलाफी कर रहे हैं , मुझे रहा नहीं जाता,  मैं भी कमेंट करता हूँ  –
‘ वैसे ये किस्सा शायद हुमांयू का है लेकिन वो भिश्ती अपने समय से बहुत आगे था हुज़ूर, उसने चमड़े के सिक्के सोलहवीं शताब्दी में चलाकर बादशाह को अर्थ शास्त्र समझाया था, बादशाह नासमझ था तो इसमें भिश्ती का दोष नहीं उस भिश्ती की सोच पर ही इक्कीसवीं शताब्दी में कागज़ की मुद्रा चल रही है, जो चमडे से भी सस्ती है’
मैं खीजते हुए, ये लिखकर लैपटॉप बंद कर देता हूँ पर उनका मुंह कभी बंद नहीं कर सकता जो आइन्दा वक्त में ग्रेशम को भी भिश्ती बताएँगे, जिसने कहा था –‘बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’
(कथादेश जुलाई 2016 में प्रकाशित)

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