आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संदर्भ में नामवर सिंह और रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का मूल्यांकन- अनामिका दास
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संदर्भ में नामवर सिंह और रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का मूल्यांकन
अनामिका दास
बी. ए. हिंदी (विशेष), तृतीय वर्ष
इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
हिंदी के साहित्य और साहित्यकार की चर्चा करना और एक मूल और तटस्थ निष्कर्ष तक पहुँचना, कई मामलों में ठीक उसी प्रकार है जैसे एक समुद्र से मोती ढूंढ कर निकालना| कई पड़ावों पर आकर हमें ऐसा लगने लगता है मानो अब हम लक्ष्य के बहुत करीब हैं मगर खंगालने पर मालूम होता है कि अभी भी कई ऐसे पहलू हैं जिन्हें पढ़ना और जिन-पर शोध करना अत्यंत ही आवश्यक है| हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ते हुए मैंने मुख्य रूप से दो आचार्यों का अध्ययन किया और उन्हें जानने अथवा समझने का प्रयास किया| वे दो आचार्य हैं - आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी दोनों ही साहित्यकार हिंदी साहित्य के प्रमुख बिंदु या यूँ कहें आधार बिंदु हैं| कई विद्वानों द्वारा इन्हें हिंदी साहित्य का स्तम्भ भी कहा गया और किसी ने इन्हें दो विपरीत विचारधाराओं की संज्ञा से अभिहित किया|
आज के संदर्भ में अगर बात करें तो साहित्य में इन दो मूर्धन्य साहित्यकारों के तर्ज़ पर एक नयी परंपरा की तलाश की जा रही है – जिसे नामवर सिंह ‘दूसरी परंपरा की खोज’ से मुखरित करते हैं| इसी प्रकार रामस्वरूप चतुर्वेदी भी इन दो आचार्यों को नयी परंपरा में ढालते हुए कुछ नए संदर्भों में इनकी चर्चा करते हैं|
आज मेरे शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य भी इन्हीं की नई परंपरा को उद्धृत करना और किसी नवीन और तटस्थ निष्कर्ष तक पहुँचना है|
मेरे शोध के प्रमुख मुद्दे हैं –
१. आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी की प्रमुख मान्यताएँ
२. दोनों आचार्यों की मान्यताओं में अंतर व समानताएँ
३. नामवर सिंह और रामस्वरूप चतुर्वेदी की नई स्थापनाएँ
· आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी की प्रमुख मान्यताएँ
शुक्ल जी की मान्यताओं को जान लेने से पहले आवश्यक है कि हम उनकी साहित्य की परिभाषा को जान लें जो यह है कि “साहित्य प्रत्येक देश की शिक्षित जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिंब होता है|”(1)
आलोचना - भाषा के सामान्य विधान में आचार्य शुक्ल का शब्द चयन समर्थ कवियों की काव्यभाषा को दर्शाती है| एक अच्छा उदाहरण है, जहाँ उन्होनें ‘जनता’ और ‘लोक’ शब्दों के बीच विवेक किया है| ‘जनता’ शब्द के अंतर्गत समाज के ऊँचे-नीचे विविध वर्ग सिमट आते हैं, ‘लोक’ के भीतर समाज के पिछड़े वर्ग का बोध अधिक होता है| साहित्य की रचना प्रक्रिया का इतिहास में मंथन करते हुए ‘जनता’ का योगदान रेखांकित करते हैं परन्तु उसके प्रयोजन स्वरुप को सामने रखते हैं|
शुक्ल जी अपने आलोचनात्मक निबंध में लिखते हैं, “आध्यात्म शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कोई ज़रूरत नहीं है|”(2) वहीँ दूसरी ओर वे उपयोगितावादी की कसौटी भी अस्वीकार करते हुए अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में स्पष्ट करते हैं कि, “सुन्दर और कुरूप-काव्य में बस ये दो पक्ष हैं - भला-बुरा, शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, मंगल-अमंगल, उपयोगी-अनुपयोगी ये सब शब्द काव्य क्षेत्र के बाहर हैं|”(2) वे आधुनिक साहित्य चिंतन के क्रम में रचना को केंद्र में रखते हैं और शुक्ल जी सुनिश्चित करते हैं कि ‘महत्व रचना का हो, रचना के पाठ का नहीं|’ इस पर रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखतें हैं कि “आचार्य शुक्ल के काव्य विवेचन में वह रचना को आलोचना के केंद्र में रखना चाहते हैं| स्वायत्त सत्ता है न आध्यात्म से बाधिक है और न ही उपयोगिता वाद से|”(3)
आधुनिक दृष्टि से रचना जीवन के अर्थ का विस्तार करती है, तो आलोचना फिर रचना के अर्थ का| आचार्य शुक्ल की आलोचना भाषा को जाँचते हुए मालूम होता है कि शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य दोनों परम्पराओं से विचार तथा भाषा दोनों सामग्री ली है, पर भ्रमित वह किसी से भी नहीं हुए| इसमें ‘समन्वय साधना’ के अतिरिक्त उनकी आलोचना-प्रक्रिया उन्हीं के शब्दों में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’, ‘लोकमंगल’ के अधिक निकट नज़र आती है|
1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
2. चिंतामणि – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
3. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास- रामस्वरुप चतुर्वेदी
इतिहास लेखन की ओर चलें तो आचार्य शुक्ल ने तटस्थ होकर आदिकाल के विभिन्न आयामों के केंद्र में वीरगाथा काव्य को स्थापित किया| परवर्ती कई साहित्यकारों ने जैनों, सिद्धों और नाथों के साहित्य को अधिक महत्व देना चाहा, पर आचार्य शुक्ल की दृष्टि में वह सिद्ध - नाथ काव्य, धार्मिक और सांप्रदायिक काव्य है, और यह, वह दृष्टि है जो साहित्य की केंद्रीय प्रकृति को प्रकट नहीं करता| भक्तिकाल की ओर बढ़ते हुए शुक्ल जी का समन्वय सगुण राम उपासक ‘तुलसी’ और ‘सूफी कवि जायसी’ के बीच स्थापित होता है| वह तुलसी को उच्च स्थान देते हैं|
इसका कारण तुलसी का सगुण मार्गीय होना नहीं है बल्कि इसलिए कि तुलसी का जीवन चित्रण उनके अनुसार जायसी से व्यापक है| ‘जायसी ग्रंथावली’ की विस्तृत भूमिका के अंत में वे लिखते हैं कि “प्रबन्ध क्षेत्र में तुलसीदास का जो सर्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर तुलसी ने संपूर्ण जीवन को लिया है| जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा में परिमित है, पर प्रेम वंदना उनकी अत्यंत गूढ़ है|”
जब छायावाद के बारे में बात की जाती है तो कुछ भंगिमाओं से उनके बारे में यह पूर्वाग्रह बन गया है कि वह छायावाद के विरोधी थे या कविता के प्रति उनकी सहानुभूति न थी| यह कथ्य कई स्तरों पर सही है कि रहस्य भावना की स्वीकृति उन्हें नहीं थी मगर इस बात का भी पूर्ण परिमाण हमारे पास नहीं है| रहस्य को वे साधना की उपयुक्त अनुभूति मानते थे कविता नहीं| छायावाद को उन्होनें दो रूपों में देखा व जाना और विवेचन करते हुए लिखा कि , एक रहस्यवाद के संदर्भ में ‘छायावाद’ और दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में| रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि, “रहस्यवाद मानव संस्कार की एक व्यापक प्रवृत्ति है जो अनेक देशों और कालों में विविध मानवीय अभिव्यक्तियों जैसे धर्म, दर्शन, कर्मकांड, कला, कविता आदि में अपने को विवृत करती है|”(1) मूल रूप से विश्लेषण करने पर कोई ख़ास पूर्वाग्रह समझ नहीं आता परंतु थोड़ा व्यापक स्तर पर जानने पर यदि कुछ पूर्वग्रह है तो वह रहस्यवाद को लेकर है, और वह भी कविता के क्षेत्र में प्रयोग होने पर|
1. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास – रामस्वरूप चतुर्वेदी
अब सवाल यह उठता है कि शुक्ल जी की इन मान्यताओं से तो सिद्ध हो गया कि उनका स्थान हिंदी साहित्य के स्तम्भ के समान है परन्तु क्या आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी इसी श्रेणी में ठहरते हैं?
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ द्विवेदी जी को जानने, समझने और मुख्यतः उनकी मान्यताओं को मुखरित करने के लिए अत्यधिक आवश्यक है| आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी एक पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं, “मैं इसी रास्ते सोचने का प्रस्ताव करता हूँ| मतों, आचार्यों, सम्प्रदायों, और दार्शनिक चिंताओं के मानदंड से लोकचिंता की उपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ|”(1) आचार्य द्विवेदी ने अपभ्रंश के विकास में कई मत प्रस्तुत किये हैं और कई जगहों पर वह भरत से असंतुष्ट भी नज़र आते हैं और कहीं उन्हीं के सहारे अपभ्रंश भाषा की विकास की बात करते हैं| वह कहते हैं कि, “यह समझना ठीक नहीं है कि अपभ्रंश केवल आभीरों या आहिरों की ही भाषा थी| भरत मुनि ने शुरू-शुरू में इस नवागत जाति के लोगों के मुँह से जिस प्रकार की भाषा को उच्चरित होते सुना उससे उसे नवागत जाति के अपभ्रंश जैसा कोई नाम देकर जाति विशेष ही बताया
था|”(1)
द्विवेदी जी के कथन में ‘कालिदास’ का महत्वपूर्ण स्थान है और वह ‘कालिदास’ को अपने प्रत्येक कथन में उद्धरित करते अवश्य नज़र आते हैं| वह लिखते हैं कि “जिस प्रकार कालिदास की कविताओं में याबनी या ग्रीक प्रभाव देखकर यह नहीं कहा जाता कि वह दुर्बल जातियों के प्रतिक्रियात्मक मनोवृत्ति का निर्देशक है, उसी प्रकार हिंदी साहित्य में, ‘अपभ्रंश’ को भी एक तटस्थ ‘प्रभाव’ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए|”(1) द्विवेदी जी सहित्येतिहास की चर्चा करते हुए भक्तिकाल की तुलना में रीतिकाल को कई स्तरों से खारिज करते हुए कहते हैं कि, “हिंदी की रीतिकालीन कविता में वह उज्ज्वल पक्ष बहुत कुछ म्लान हो चला था और कविता में रसों का और व्यक्तिवादी विचारों का संचार हो गया था|”(1) द्विवेदी जी की मान्यताएँ मात्र भक्ति या रीतिकाल में ही नहीं बल्कि उन्होनें आधुनिक काल और उसके कवियों को महत्वपूर्ण माना है और यहाँ तक कि वह इस आधुनिक काल को संकीर्ण दुनिया का काल न मानकर एक तर्कयुक्त काल मानते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि, “केवल इसी दृष्टि से देखा जाए तो हमारे आधुनिक काल और कवियों का स्थान महत्वपूर्ण है|” द्विवेदी जी इस काल को तीन मोटे विभागों में बांटते हैं और उनमें मुख्य तीन व्यक्तित्व को शामिल करते हैं – ‘रामचंद्र शुक्ल’, ‘प्रसाद’ और ‘निराला’|
1.हिंदी साहित्य की भूमिका – आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
परन्तु वह शुक्लजी से परहेज़ ही करते नज़र आते हैं और स्पष्ट रूप में कहते हैं कि “रामचंद्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना संभव नहीं| वे इतने गंभीर और कठोर थे कि उनके वक्तव्यों की सरसता उनकी बुद्धि की आंच से सूख जाती थी और उनके मतों का लचीलापन जाता रहता था| आपको या तो ‘हाँ’ कहना पड़ेगा या ‘ना’ बीच में खड़े होने का कोई उपाय नहीं है| उनका मत सोलह आना अपना है और वे तनकर भी कहते हैं - “मैं ऐसा मानता हूँ, तुम्हारे मानने ना मानने से मुझे परवाह नहीं|” (1)
दोनों की मान्यताओं को जानने के पश्चात् अब रुककर सोचने की आवश्यकता है कि क्या वास्तव में हिंदी साहित्य के यह दो मूर्धन्य साहित्यकार सचमुच इतने भिन्न हैं या मात्र प्रत्यक्ष रूप से भिन्नता है अप्रत्यक्ष रूप से बिलकुल एक समान|
· इसी पर आधारित है मेरे पत्र का दूसरा बिंदु – आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के मान्यताओं में अंतर -
आदिकालीन कवि मनुष्य को इश्वर-रूप में चित्रित करना चाहता है, इसकी चर्चा हम अनेक पुस्तकों में देखते हैं| हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “ऐसा लगता है रासोकार ने पृथ्वीराज को भगवत्स्वरूप बताकर कहानी में थोड़ा धार्मिकता का रंग देना चाहा था| कीर्तिलता के कवि ने भी पाठक को कुछ पुण्यलाभ का प्रलोभन दिया था|”(2)
‘पौरुष कहानी हौं कहौं जसु पत्थावै पुन्नू|’
‘पदावली’ में तो ऐसा जान पड़ता है कि विद्यापति प्रेमी-प्रेमिकाओं मात्र को कृष्ण-राधा के रूप में परिकल्पित करते हैं, और कई बार विद्यापति की भक्ति को एक पाखंड के रूप में भी देखा गया है| रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास के आदिकाल विषयक प्रकरण में तीखे व्यंग्य के साथ लिखा है, “आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं| उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी|”(3)
अब बात आती है कि हिंदी साहित्य में भक्ति-धारा का विकास, इसका उदय मूल रूप से कब हुआ| इसके विकास की चर्चा इतिहासकारों को कुछ अटपटी-सी लगती है और वे कहते हैं कि वीरगाथा काल (आदिकाल) के तुरंत बाद भक्ति काल का उदय कैसे हुआ| इस पर शुक्ल जी इसे बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया तो हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे महज़ भारतीय परंपरा का अपना स्वत्तः स्फूर्त विकास मानते हैं|
1.हिंदी साहित्य की भूमिका – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
2.हिंदी साहित्य का आदिकाल - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
3.हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचंद्र शुक्ल
आचार्य शुक्ल बाह्य इस्लामी तत्वों से क्रिया-प्रतिक्रिया को अपनी इतिहास संबंधी दृष्टि में बराबर महत्व देते हैं मगर आचार्य द्विवेदी की निगाह परंपरा के अपने विकास पर अधिक केन्द्रित है|
भक्तिकाल के उदय की व्याख्या के सन्दर्भ में शुक्लजी और द्विवेदी जी का इतिहास दृष्टि में अंतर बखूबी देखा जा सकता है| हिंदी साहित्य का इतिहास का आरंभिक अंश है, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ कहलाता है|”(1) वहीँ दूसरी ओर ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रस्तावना इस प्रकार है- “मैं इसी रास्ते सोचने का प्रस्ताव करता हूँ| मतों, आचार्यों, सम्प्रदायों और दार्शनिक चिंताओं के मानदंड से लोकचिंता को नहीं मापना चाहता बल्कि लोकचिंता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ|”(2)
दोनों आचार्यों की परिभाषाओं का अध्ययन करते हुए हमें ज्ञात होता है कि शुक्ल जी का केंद्रीय प्रयोग ‘जनता की चित्तवृत्ति’ है तथा आचार्य द्विवेदी जी की प्रस्तावना में ऐसा प्रयोग ‘लोक-चिंता’ का है| ऐसा नहीं है कि शुक्ल जी ‘लोक’ शब्द का प्रयोग नहीं करते, बल्कि साहित्य के उद्देश्य में वे बराबर ‘लोकमंगल’ की बात कहते हैं पर यहाँ उन्होनें ‘जनता’ शब्द को चुना है जो समाज के सभी वर्गों और समूचे जनजीवन को समेटता है और हजारीप्रसाद द्विवेदी का शब्द ‘लोक’ जनता के अपेक्षाकृत पिछड़े वर्ग की ओर संकेत करता है| तब यह भी स्वाभाविक है कि आचार्य शुक्ल के मानक कवि जनता में प्रिय कवि कबीर हैं| इस पर रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि, “रामचंद्र शुक्ल साहित्य के व्यापक उद्देश्य के प्रसंग में लोक मंगल की बात कहते हैं, पर साहित्य की विकास-प्रक्रिया के संदर्भ में जनता को महत्व देते हैं, जिसके अंतर्गत समाज के ऊँचे-नीचे सभी वर्ग आ जाते हैं|”(3) माना यह गया है कि विदेशी प्रभावों की आक्रामकता से बचने के लिए देशी संस्कृति प्रायः लोक का आश्रय लेती है| हजारीप्रसाद द्विवेदी विकास-प्रक्रिया में लोक को केंद्र में रखते हैं, इसलिए विदेशी प्रभावों की सत्ता और सक्रियता उनकी दृष्टि सामने से ओझल हो जाती है| समूची जनता की दृष्टि सामने रखते हुए रामचंद्र शुक्ल इस्लामी प्रभाव की क्रिया-प्रतिक्रिया का महत्व समझते हैं, जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी लोक-चिंता की अपेक्षा में सब कुछ को मापते हुए लोक और उसकी जातीय परंपरा के विकास को ही केंद्र में रखते हैं| ‘जनता’ और ‘लोक’ के ये प्रयोग इन इतिहासकारों की दृष्टि का अंतर भलीभांति परिभाषित करते हैं|
1.हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
2.हिंदी साहित्य की भूमिका – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
3.हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास – रामस्वरुप चतुर्वेदी
आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “हिन्दुओं के स्वातंत्रय के साथ वीर गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी है| अंतः पर गहरी उदासी छा गयी थी ...... हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे न बढे| भगवान के यह व्यक्त स्वरुप यद्यपि एकदेशीये थे - केवल प्रेम था - पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुची सी उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में वह उपयोगी हुआ|”(1)
द्विवेदी जी को आचार्य शुक्ल का उक्त विश्लेषण मान्य नहीं| ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में वे दर्शाते हैं कि मध्यकाल की भक्ति रचनाएँ, विशेषतः संत काव्य, भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास है| वे लिखते हैं कि, “बौद्ध तत्वाद जो निश्चय ही बौद्ध आचार्यों की चिंता की देन था, मध्ययुग में हिंदी साहित्य के उस अंग पर अपना पद-चिन्ह छोड़ गया है जिसे ‘संत साहित्य’ नाम दिया गया है….. | मैं जो कहना चाहता था, वह यह है कि बौद्ध धर्म क्रमशः लोकधर्म का रूप ग्रहण कर रहा था और उसका निश्चित चिन्ह हम हिंदी साहित्य में पाते हैं|”(2)
वह इस्लाम के विशिष्ट प्रभाव को नकारते हुए एक तटस्थ वाक्य भी कहते हैं, “लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है|”(2)
इतिहासकार रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी के मत-भेद को लेकर कुछ चर्चा, इतिहास विशेषज्ञ नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में की है| वह मुख्य रूप से द्विवेदी जी के पक्षधरता हैं| वह तर्क देते हुए कहते हैं कि, “यह सही है कि स्त्रोत के इन श्लोकों में एक जगह देश के ‘म्लेच्छाक्रांत’ होने का उल्लेख है और यदि ‘म्लेच्छ’ को मुसलमान का वाचक भी मान लिया जाय तो भी उससे यहाँ कहाँ सिद्ध होता है कि गंगादि तीर्थों के भ्रष्ट होने, वेदों के अर्थ के तिरोहित होने, व्रतादिक सभी कर्मों के नष्ट होने, पाखंड, पाप, अज्ञान आदि के बढ़ने के लिए ये म्लेच्छ ही ज़िम्मेदार हैं और इन्हीं के आक्रमण के कारण कृष्ण का आश्रय ढूँढा जा रहा है?”(3) स्वयं निष्कर्ष देते हुए नामवर सिंह कहते हैं, “इस प्रकार मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि मुसलमान और हिन्दू धर्म का संघर्ष|”(3)
1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचंद्र शुक्ल
2. हिंदी साहित्य की भूमिका – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
3. दूसरी परम्परा की खोज – नामवर सिंह
इतने अंतरों को जानने पर और उन पर पुनर्विचार करने पर मैं जिस निष्कर्ष तक पहुंची हूँ, इससे पहले यह जान लेना आवशयक है कि आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी की मान्यताओं पर मुख्य आलोचक नामवर सिंह और रामस्वरूप चतुर्वेदी के क्या विचार हैं –
· मेरे पत्र का तीसरा बिंदु – नामवर सिंह और रामस्वरुप चतुर्वेदी की नई स्थापनाएँ –
दूसरी परंपरा की खोज करते हुए नामवर सिंह अपनी किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में निराला और द्विवेदी जी के बीच अद्भुत समानता मानते हैं| वह कहते हैं कि, “निराला अपने जनपद के लोक-जीवन से बहुत गहराई तक सम्बद्ध थे और उनके जीवन और साहित्य के बहुत से क्रांतिकारी स्त्रोत इस लोक-जीवन से ही फूटे थे| इस प्रकार द्विवेदी जी का जीवन और साहित्य का क्रांतिकारी स्त्रोत स्वयं उनके अपने जनपद बलिया का लोक जीवन है|”(1) इसी प्रकार नामवर सिंह द्विवेदी जी को उन लेखकों में से मानते हैं जो विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि को महत्व दिया करते थे| नयी परंपरा में द्विवेदी जी का मानवतावाद नवीन मानवतावाद से उद्दीप्त हुआ है जो कि मनुष्य के मूल्यों, और मर्यादाओं का बोध एक नए सन्दर्भ में कराती है| उस नए सन्दर्भ को परखते हुए नामवर सिंह उसे “वर्तमान के साथ अतीत की मुठभेड़”(2) कहते हैं| उनका यह कथन स्वतः ही इस नवीनता को स्पष्ट कर रहा है और यहाँ तक कि वह यह भी मानते हैं कि उस मानववाद से द्विवेदीजी के मानववाद का भी कुछ संबंध अवश्य है जो चौथे-पांचवे दशक का होते हुए भी एक नई दृष्टि का निर्वाह कर रहा है| ‘रहस्यवाद’ ऐसा समय था जब बड़े-बड़े साहित्यकारों के मत भी मतभेदों में बदल रहे थे परंतु रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ में शुक्ल जी और हजारीप्रसाद जी के मतों में जो अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया है वह हमें ‘रहस्यवाद’ को देखने की नई दिशा देती है| जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि, पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवादी का विकास भक्ति के रूप में हुआ| जिन-जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की आवश्यकता हुई|”(3) चतुर्वेदी जी इसी व्याख्या को शुक्ल जी से जोड़ते हुए कहते हैं, “जिसे शुक्ल जी ने वीरगाथा काल कहा, वहाँ आत्म-विशवास का भाव निश्चित रूप से मिलता है| फिर क्रमशः एक के बाद एक राजनैतिक-सैनिक पराजय के क्रम में जातीय आत्मविश्वास भाव स्वलिखित हो जाता है भक्ति-भावना मुखर हो जाती है| इस प्रकार दोनों की व्याख्याएँ ऐतिहासिक और दार्शनिक दोनों ही संदर्भों में एक दूसरे की पूरक हैं|”(3)
1.दूसरी परंपरा की खोज – नामवर सिंह
2.साथ – साथ – नामवर सिंह
3.हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास – रामस्वरूप चतुर्वेदी
भारतीय साहित्य की प्राणधारा और लोकधर्म शीर्षक के अपने एक अध्याय का समापन नामवर सिंह ने एक गहरी जिज्ञासा से किया है| वह लिखते हैं, “यह भी एक विरोधाभास ही है कि शास्त्र-संवलित साहित्य जिस मात्रा में सामाजिक दृष्टि से लोक-विमुख तथा लोक-विरोधी विचारों की ओर विचलित होता गया, उसी में समृद्धतर भी होता गया|”(1) दोनों आचार्यों की विचारधारा का परिक्षण जहाँ एक ओर उनकी इतिहास संबंधी दृष्टि पर प्रकाश डालता है तो दूसरी ओर भक्ति-काल के उदय की सामाजिक परिस्थितियों को भी आलोकित करता है| भक्ति-काव्य के विकास के पीछे बौद्ध धर्म का लोक-मूलक रूप है और प्राकृतों के श्रृंगार-काव्य की प्रतिक्रिया है तो वहीँ इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक से बहाव की सजग चेष्टा भी है| शुक्ल जी तुलसीदास को लोक धर्म का प्रतीक मानते हैं और द्विवेदी जी कबीर को| मूल्यांकन करते हुए द्विवेदी जी तुलसी और शुक्ल जी दोनों ही से असहमत हो जाते हैं तो क्या यह विरोध भी परंपरा में शामिल हो सकता है या इसे हम विकास या ह्रास की संज्ञा दे दें? भाषा और कला की दृष्टि से, शुक्लजी की दृष्टि में कबीर की वाणी असाहित्यिक है जबकि द्विवेदी जी के अनुसार कबीर भाषा के डिक्टेटर हैं| अब क्या यह विरोधी मानदंड भी परंपरा में शामिल है, अगर है तो यह विकास का द्योतक है या ह्रास का इसका निर्णय अत्यंत कठिन है|
शुक्ल जी और द्विवेदी जी की मान्यताओं में अंतर अवश्य है मगर साहित्य, समाज और इतिहास को व्यापक नज़रिए से देखने व जानने पर एक सवाल जिसने मुझमें इस विषय पर शोध करने की इच्छा जगाई वह, यह कि ‘क्या आवश्यकता है किसी दूसरी परंपरा की खोज की’ क्यों हम हमेशा नवीन की तलाश में इतने अभिभूत हो जाते हैं कि प्राचीन के सौंदर्य और यथार्थ को ही भूल जाते हैं| शुक्ल जी और द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के वे दो रचनाकार हैं जिन्होंने हमारे इतिहास से साहित्य के सफ़र को दो दृष्टियों से परखा|
आज साहित्य में इन दो पुरोधा रचनाकारों के बीच जो संकीर्ण रेखा खींच दी गई है वह अवांछनीय एवं निषेधात्मक है| विद्यार्थियों से लेकर अध्यापकों तक एक चीज़ का स्वीकार किसी दूसरे के अस्वीकार पर निर्धारित हो गया है| क्या आवश्यक है कि साहित्य जैसे व्यापक विषय को दो दृष्टिकोण में विभाजित किया जाए? क्यों न इस संकीर्ण रेखा को जो मात्र हमारी मानसिकता की उपज है इसे समाप्त कर के सिर्फ एक ऐसा दृष्टिकोण तैयार किया जाए जो न विद्यार्थियों के स्तर पर विभाजित हो और न ही शिक्षा के स्तर पर|
1. दूसरी परम्परा की खोज – नामवर सिंह
संदर्भ सूची -
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल –
· हिंदी साहित्य का इतिहास
· चिंतामणि
2. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
· हिंदी साहित्य का आदिकाल
· हिंदी साहित्य की भूमिका
3. नामवर सिंह
· दूसरी परंपरा की खोज
· साथ-साथ
4. रामस्वरूप चतुर्वेदी
· हिंदी, साहित्य और संवेदना का विकास
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