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वर्तमान जीवन-परिप्रेक्ष्य का सन्दर्भ और काशीनाथ सिंह का उपन्यास: संतोष कुमार गुप्ता


वर्तमान जीवन-परिप्रेक्ष्य का सन्दर्भ और काशीनाथ सिंह का उपन्यास 


संतोष कुमार गुप्ता 
शोध-छात्र, हिन्दी-विभाग 
उत्तरबंग विश्वविद्यालय 
मोबाईल: +91 9851140555 

यूँ तो हर रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से अपने समाज के विभिन्न पहलुओं को अपनी रचना में उकेरने की कोशिश करता है और अपने सामाजिक सरोकारों को साबित करता है, जिसे हम समकालीन शब्द से अभिहित करते हैं। वैसे ‘समकालीन’ शब्द को परिभाषित करना इतना सरल भी नही है। इसे लेकर विभिन्न तर्क बरकरार है। एक तरफ यह समय विशेष की ओर इंगित करता है तो दुसरी ओर अपने समय के सरोकार को। ‘समकालीन’ शब्द अंग्रेजी के ‘contemporary’ का समानार्थी है, जिसका अर्थ है- ‘अपने समय का’ अर्थात समसामयिक डा.एन. मोहनन के शब्दों में- “समय के सच को तटस्थता के साथ परखने की क्षमता किसी को समकालीन बनाती है” 1 कहा जाता है कि रचनाकार दुरदर्शी होता है और भविष्य में उतपन्न होनेवाली असंगतियों को पहले ही भाँप लेता है और समय के साथ जंग छेड़ते हुए वर्तमान समय की जटिलताओं को सुक्ष्मता के साथ व्याख्यायित करता है और एक जागरुक चेतना के निर्माण का कारक बनता है जिसमें मानव कल्याण की भावना होती है। इस संदर्भ में हिन्दी उपन्यासों का खासा महत्व रहा है और समकालीन हिन्दी उपन्यासों ने तो अपनी समय की सच्चाई को पूरी निष्ठा के साथ व्यक्त करने में काफ़ी सफ़ल रहे हैं। 

इस सन्दर्भ में कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यासों की बात न की जाए तो बात पूरी नही होती और इसकी शुरुआत ‘काशी का अस्सी’ से न की जाए तो भी बहुत कुछ अधूरा रह जाएगा। समकालीन उपन्यास सही मायने में अपने समय और समाज के यथार्थ की सही समझ है और ये समझ काशीनाथ सिंह के उपन्यासकार में खूब देखने को मिलती है। 

‘काशी का अस्सी’ की कथा सन 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर अयोध्या-कांड से टकराती हुइ भुमंडलीकरण की हर सीमा को छुती है। बनारस केवल भारतीय संस्कृति की ही नही, बल्कि साहित्य की भी राजधानी रही है। उपरोक्त उपन्यास पाँच अलग-अलग कहानियों को अपने में समेटे हुए है, जो एक दूसरे के पूरक हैं। काशीनाथ सिंह के ही शब्दों में- “तो सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तर-सा बायोडाटा- कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ यह युनिफ़र्म है काशी का। ” 2 और “हर-हर महादेव के साथ भोसरी के का नारा सार्वजनिक अभिवादन है।” 3 परन्तु इस भूमंडलीकरण के दौर में संस्कृति, सभ्यता और संबंध अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बनारस को धार्मिक और साहित्यिक केन्द्र की जगह ‘डिजीटल सिटी’ बनाने का लालच दिया जा रहा है, जो कि वहाँ की जनता को कतई बर्दाश्त नही। उनकी संस्कृति और सभ्यता पर किसी की बूरी नजर पड़े ये तो बर्दाश्त के बाहर की चीज है। 

डा.एन. मोहनन के ही शब्दों में- “काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ बनारस का शोक-गीत है।” 4 काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास के माध्यम से भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, उपनिवेशवाद और विस्थापन के प्रभाव को को अस्सी की संस्कृति पर पड़ते हुए दिखाया है। यूँ कहें कि यह प्रभाव पूरे देश पर पड़ रहा है तो अतिश्योक्ति न होगी। काशी का अस्सी समय का साक्ष्य है। काशी इतनी तेजी से बदलाव की तरफ़ अग्रसर होगा वहाँ की जनता के लिए अकल्पनिय है। इनके खिलाफ़ षड्यंत्र रचा गया है भूमंडलीकरण का, बजारवाद का। और ऐसे बजारवाद के चक्कर में पं. धर्मनाथ शास्त्री जैसे लोग भी फँस जाते है, और ‘पेइंग गेस्ट’ रखने का मन बनाते हैं। इसलिए ‘शिवालय’ को तोड़ वहाँ आधुनिक शौचालय का निर्माण करवाते हैं। जिससे मादलिन जो कि पं. धर्मनाथ शास्त्री के यहाँ पेइंग गेस्ट के तौर पर रहनेवाली है, उसे कोई असुविधा न हो और उन्हे मोटी कमाई हो सके। ध्यान देने की बात है कि जहाँ कभी शिवलिंग रहा होगा आज वहाँ ‘कमोड’ अर्थात मल-विसर्जन पात्र शोभायमान है और यह बदलाव है हमारे समाज का, हमारी संस्कृति का, काशी का ही नही पूरे देश का। 

एक और उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ जो समकालीन जीवन का महाकाव्यात्मक आख्यान है। संबंधो में ठंडापन तो भारत-चीन युध्द के बाद ही पड़ने लगता है। परिवार टूटने-बिखड़ने लगते है। लोगों क पलायन गाँव से नगरों की तरफ़ होने लगता है। रही सही कसर सन 1965 और सन 1971 का भारत-पाक युद्ध, 1975 का आपातकाल, 1984 का भोपाल गैस-त्रासदी और 90 के दौर में नरसिंह राव के शासन-काल में अमेरिकी नीति के तहत उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत पूरी कर देती है। भारत जैसा विकासोन्मुख राष्ट्र के बाजार विकसित राष्ट्रों के लिए खुला मंच बन जाते हैं और साथ ही नवउपनिवेशी शक्तियाँ अपनी जड़ें मजबूत करने लगती हैं और ये बाजारवाद और उपनिवेशी शक्तियाँ हमारे संबंधो को खोखला करने में अपनी भूमिका बखूबी निभाने लगते हैं। ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास में प्रो. रघुनाथ सपत्नी अपने दो बेटों और एक बेटी सहित कुल पाँच लोगों के परिवार के साथ रहते हैं और ये कह देना कि सुखी रहते हैं ये उनके साथ इंसाफ़ न होगा। बाकि सदस्य भले ही सुखी हो लेकिन प्रो. रघुनाथ के संदर्भ में ये बात लागू नही होती। छोटा बेटा धनंजय नई अर्थव्यवस्था के चकाचौंध में जीनेवाला व्यक्ति है। वहीं दूसरा और बड़ा बेटा संजय विदेश में करियर के लोभ में प्रोफ़ेसर सक्सेना की बेटी सोनल से शादी कर लेता है और बेटी भी एक नीच वर्ग के व्यक्ति से प्रेम करती है जो कि एक सरकारी आधिकारी है। और इस तरह रघुनाथ के सारे सपने बिखर जाते है। रेहन पर रग्घू व्यक्ति की ही नही, समकालीन समाज के बदलते हुए स्वरूप को चित्रित करती है। नामवर सिंह के शब्दों में – “बताने की जरूरत नही कि इस कथा में, बदलते यथार्थ की इस प्रस्तुति में, इसका प्रतिरोध भी छुपा हुआ है और इस तरह, इस व्यवस्था को चुनौती भी दी गई है।” 5 यह कथा विस्थापन एवं मरती हुई संवेदना की करूण कथा कहती है और साथ ही समाज के हर एक वृद्ध की भी जो अपनों के ही रेहन पर पलने के लिए मजबूर हैं। 

उपन्यासों की अगली कड़ी में नाम लिया जा सकता है- ‘अपना मोर्चा’ का जिसमें व्यवस्था से संघर्ष करके समाजिक बदलाव लाने का शंखनाद है। समूची व्यवस्था सड़-गल चुकी है और सब-कुछ भगवान भरोसे चल रहा है जिसको मानने के लिए आज की पीढी कतई तैयार नही है। आज की पीढी उस पंगु हो चुकी व्यवस्था से निजात पाना चाहती है। इसके लिए वो कमर भी कस चुकी है इसके लिए व्यवस्था के भीतर जाकर उसे पूरी तरह से परखना चाहती है। उपन्यासकार के ही शब्दों में- “मुझे बार-बार लगा है कि अगर हम कुछ कर सकते हैं तो बाहर से नही, बल्कि भीतर से; उसमें धँसकर, बीच में अपने को फँसाकर, दूसरों को तोड़ने या शर्मिन्दा होने का मौका निकालकर।” 6 

‘महुआ-चरित’ काशीनाथ सिंह के उपन्यासों में अगला सोपान है। यह एक लघु उपन्यास है और इस उपन्यास में समकालीन समाज के परिवेश को खास करके अस्मिता-बोध को पूरे निष्ठा से दर्शाया गया है। उपर्युक्त उपन्यास में ‘महुआ’ के माध्यम से ये देखा जा सकता है कि आज के समाज में एक इंसान अपनी अस्मिता की खोज में किस तरह बेचैन है। अपनी कल्पना में उड़ान भरने के लिए किस तरह से तत्पर है और अपने अस्तित्व की खोज में किस तरह वह भटकता रहता है। वह उन्मुक्त और स्वतंत्र जीवन जीना चाहता है। उसे अपने जीवन में किसी की दखलअंदाजी पसंद नही। भौतिक सुख के साथ-साथ शारीरिक सुख जीवन का अनिवार्य तत्व है, ये महुआ के माध्यम से आसानी से देखा जा सकता है। निम्न पंक्तियों के माध्यम से उपर्युक्त बातें आसानी से समझी जा सकती है- “मैं जब भी बाथरूम में नहाने जाती, कपड़े अलग करती और अपने बदन को बड़े गौर से देखती। हो सकता है गलत हो यह लेकिन जाने क्यों मुझे लगता कि यह शरीर गमले में पड़े गुलाब के उस पौधे की तरह हो गया है जिसे अगर तुरन्त पानी न मिला तो सुखते देर न लगेगी! इसे पानी चाहिए, कोई पानी दो। लेकिन कौन देगा पानी?” 7 

आज के समय में एक-दूसरे पर विश्वास बनाये रखना टेढी-खीर है। महुआ की देहाशक्ति से विवाह तक की यात्रा के बाद जब उसका पति हर्षुल उससे छल करता है तब उसमें अस्मिता-बोध की भावना जागृत होती है और वह हर्षुल से रिश्ता तोड़ हमेशा के लिए चल पड़ती है। अपने अस्मिता-बोध के सहारे अपने अस्तित्व की तलाश में। महुआ कहती है- “हर्षुल, मैनें तुमसे कभी नही पूछा कि पिछले तीन साल से ही नही, आज भी तुम वर्तिका बनर्जी के साथ क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो जानती हूँ, लेकिन नही पूछूँगी। इतना याद रखना।“ 8 स्त्री विमर्श के अनुगूँज के बावजूद यह प्रश्न आकार लेता है, ‘ऐसा क्या है देह में कि उसका तो कुछ नही बिगड़ता, लेकिन मन का सारा रिश्ता-नाता तहस-नहस हो जाता है। 

‘उपसंहार’ काशीनाथ सिंह का नवीनतम उपन्यास है, जिसमें महाभारत की उत्तरकथा है और 18 दिनों के नरसंहार के बाद धर्मराज युधिष्ठिर को राजगद्दी की प्राप्ति होती है। परन्तु क्या जिस राजसिंहासन के लिये महाभारत जैसा युद्ध हुआ, उस पर बैठकर क्या धर्मराज सुखी है? नही, बिल्कुल नही। धर्मराज अब स्थिल पड़ चुके हैं। पूरे राज्य में महामारी फ़ैली है। जमीनें बंजर पड़ चुकी है। प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है और धर्मराज लाचार पड़े हुए है। चारो ओर भ्रष्टाचार का दानव मुँह फ़ैलाये घुम रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ कृष्ण की करूण कथा का भी वर्णन मिलता है कि किस तरह कृष्ण बूढे हो चुके हैं, दाढी पक चुकी है। उनका शरीर अब पहले की तरह साथ नही देता। उनकी सुननेवाला अब कोई नही है, जो समुद्र कल को कृष्ण का पाँव पखारने उमड़ा हुआ आता था आज उनके सामने सीना ताने दूर खड़ा है। उनके नाती-पोते भी मनमानी करने लगे हैं। पूरी की पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो चुकी है। प्राग्ज्योतिषपुर से जिन सोलह हजार कन्याओं का उद्धार कर कृष्ण ने जो बस्तियाँ बसाई थी, उनका बेटा भद्रकार उनमें से तीन को लेकर भाग चुका है जो कृष्ण और उनकी पत्नी सत्या का पुत्र है। इस तरह के बूरी खबर और विपत्तियों के सुनने का आदि हो चुके थे कृष्ण, परन्तु कुछ कर सकने में असमर्थ थे। एक दिन ऐसे ही उनका पुत्र साम्ब ऋषि मुनियों से पूरे यादव वंश के विनाश का शाप ले आया और उन ऋषि मुनियों, जिनमें महर्षि कश्यप, विश्वामित्र, नारद के अलावा कण्व ऋषि भी थे जिनके शाप के फ़लस्वरूप साम्ब नें मूसल पैदा किया और अन्तत: उसी मूसल के द्वारा कृष्ण के हाथों ही पूरे यादवों का विनाश हो गया। 

उपर्युक्त उपन्यासों के माध्यम से हम यह देख पाते हैं कि काशीनाथ सिंह का उपन्यासकार अपने उपन्यासों का विभिन्न कलेवर रखते हुए भी समाज के तमाम विडंबनाओं को खंगालने की कोशिश करता है। समकालीन समाज में घटित तमाम घटनाओं एवं विडंबनाओं को हम इन उपन्यासों में लक्षित कर सकते हैं। समय तेजी से बदल रहा है और इस बदलाव के चपेट में हमारी तमाम संस्कृतियाँ डाँवाडोल हो रही है और इसके साथ ही हमारी संवेदनाएँ दिन-ब-दिन मरती जा रही है। इस भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद और नवउपनिवेशिक शक्तियों के बीच हम अपना सब कुछ पीछे छोड़ते जा रहे हैं। 


संदर्भ ग्रन्थ-सूची

1. डा. एन. मोहनन, समकालीन हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. संख्या-20.

2. काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2006, पृ. संख्या-11.

3. वही, पृ. संख्या-11.

4. डा. एन. मोहनन, समकालीन हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. संख्या-46.

5. डा. नामवर सिंह, चौपाल, अंक-1, वर्ष-1, 2014, पृ. संख्या- 29.

6. काशीनाथ सिंह, अपना मोर्चा, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण- 2007, पृ. संख्या- 46.

7. काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. संख्या- 12.

8. काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. संख्या- 100.



                                       

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