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‘हंस’ की दृष्टि और हिंदी का नारीवाद: संजीव कुमार


‘हंस’ की दृष्टि और हिंदी का नारीवाद 

संजीव कुमार 

सन् 1983-84 में ब्रम्हा के स्त्री संबंधी मामले को लेकर राजस्थान के हाई कोर्ट में एक मुक़दमा लड़ा गया. यह मुकदमा एक इश्वर के तलाक़ संबंधी मान्यताओं के आधार पर था. पुष्कर में ब्रम्हा और सावित्री मंदिर की परंपरा के अनुसार सावित्री मंदिर को प्राप्त चढ़ावे में से एक हिस्सा ब्रह्मा मंदिर को दिया जाता था. सावित्री मंदिर के पुजारी महंत बेनी गोपाल मिश्र ने ब्रह्मा मंदिर के महंत लहरपुरी को चढ़ावा देना बंद कर दिया. प्रतिक्रिया स्वरुप ब्रह्मा मंदिर के लहरपुरी ने कोर्ट में मुकदमा दायर किया. 1984 में राजस्थान हाई कोर्ट ने परंपरा के आधार पर सावित्री मंदिर के पुजारी को आदेश किया कि वे 1500 रुपया सालाना दे. इसके तुरंत बाद सावित्री मंदिर के पुजारी ने अजमेर कोर्ट में एक नया मुकदमा दायर कर दिया. इस मुक़दमे में यह दावा किया गया कि --- “चूँकि ब्रह्मा ने अपनी ब्याहता पत्नी को छोड़ दिया था इसलिए यह पूरा मामला तलाक़ का बनता है. अतः अब पत्नी को तलाक देने के कारण भारतीय संविधान के अंतर्गत यह ब्रह्मा का कर्तव्य है कि सावित्री तथा उनकी बेटी सरस्वती के भरण-पोषण के लिए हर्जाना दें.”—1 

तलाक़ के लिए जो पृष्ठभूमि बनी थी उसका विवरण पदम्-पुराण में वर्णित गाथा के अनुसार है. और इसी आधार पर पुष्कर में ब्रह्मा और सावित्री के मंदिर हैं. इस मुक़दमे में महंत ने यह भी दावा पेश किया था कि चूँकि सावित्री का मंदिर ब्रह्मा के मंदिर से एक हज़ार फ़ीट की अधिक ऊँचाई पर है इसलिए लोग वहां कम जाते हैं जिससे आमदनी भी कम होती है. इसके साथ ही यह भी कहा गया कि—“यज्ञ के समय ब्रह्मा को ऐसी क्या जल्दी थी जो सावित्री के रहते हुए दूसरी शादी कर ली? अतः सावित्री को हर्जाना अवश्य मिलना चाहिए.”—2 .

इन रोचक तर्कों के विरुद्ध जो तर्क ब्रह्मा मंदिर के महंत ने दिया वह और भी दिलचस्प है. उसने कहा कि ब्रह्मा जी ने तलाक़ नहीं दिया था बल्कि सावित्री ख़ुद भाग गयी थी. इसलिए वह वापस आकर पति की सेवा कर सकती है. महंत ने अंतिम तर्क देते हुए कहा कि—यदि सावित्री हर्जाना लेने पर ही उतारू है तो ब्रह्मा जी अवश्य देंगे लेकिन उसके पहले सावित्री यह बताएं कि जब वे ब्रह्मा को छोड़कर जाते समय 100 करोड़ रुपए का सोना अपने साथ ले गई, उसे उसने कहाँ छिपा रखा है? 

अब यहाँ सवाल यह उठता है कि वास्तविक रूप में हम किस दौर में जी रहे हैं? यह मुकदमा हमारी वास्तविक मानसिकता और जमीनी हकीकत दोनों को बयान करती है. जहाँ एक ओर करोड़ो मुक़दमों में लाखों मुकदमें स्त्रियों के बलात्कार और अन्य शोषण से संबंधित लंबित हैं वहीं दूसरी ओर हम मिथकों पर आधारित मुक़दमे लड़ रहे हैं. यह मुकदमा भी हमारे ही समाज का यथार्थ है जिसे नकारकर सिर्फ़ सैद्धांतिक हो जाना नारीवाद की सफ़लता नहीं कही जा सकती है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जिसे ‘हिंदी का नारीवाद’ कहा जाता है, उसकी उपेक्षा कर काम नहीं चलाया जा सकता है. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि स्त्रीवाद के अंतर्गत सैद्धांतिक, रचनात्मक और व्यावहारिक सभी पक्षों पर एक साथ समग्रता में विचार किया जाए तभी वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जा सकता है. 

इसी आधार पर हिंदी के अंतर्गत नारीवाद की जो अवधारणनाएं हैं उसका भी मूल्यांकन पूर्वाग्रह से मुक्त होकर किया जाना चाहिए. जब हम हिंदी के अंतर्गत नारीवाद को समझने का प्रयास करते हैं तब उस दिशा में सबसे अहम् हो जाता है ‘हंस’ पत्रिका के अंतर्गत लेखक-लेखिकाओं के विचार जो ‘स्त्री, दलित और दलित स्त्री’ के संदर्भ में किया गया, उसका गंभीर अध्ययन. ‘हंस’ की दृष्टि का सबसे अहम और महत्वपूर्ण पक्ष है व्यावहारिकता के आधार पर समस्याओं का मूल्यांकन करना. हालांकि सैद्धांतिक पक्ष पर भी विस्तार से चर्चा की जाती रही है लेकिन अधिकांश बहसों में व्यावहारिक पक्ष को आधार बनाकर ही चर्चाएँ की गयी हैं. ‘हंस’ का यही पक्ष इसकी बहसों की लोकप्रियता का प्रमुख कारण भी रहा है. स्वाभाविक सी बात है कि जब व्यावहारिक धरातल पर समस्याओं पर बहसें होती हैं तब आम पाठक इससे अधिक से अधिक जुड़ पाते हैं. इस दृष्टि से देखें तो सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित बहसों में भाग लेने वाले लेखकों से ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव यह मांग करते हुए नज़र आते हैं कि बहस का आधार संवेदना-आधारित हो न कि ब्यौरों का वर्णन किया जाय. राजेन्द्र यादव की यह मांग स्पष्ट कर देती है कि सामाजिक बहसों पर साहित्यिक धाराएँ किस प्रकार से अन्य अनुशासनों से अलग है. यह अलग होना अलगाववाद न होकर एक अलग दृष्टि से मूल्यांकन की मांग करता है जिससे जांच-परख की शैली और भी स्पष्ट हो जाती है तथा इसके साथ ही अन्य अनुशासनों पर साहित्यकारों को बहस के लिए मार्ग भी मुहैया करवाती है. इस आधार पर देखा जाय तो ‘हंस’ ने राष्ट्रीय-स्तर पर प्रभावित करने वाली घटनाओं पर प्रतिक्रिया के लिए साहित्य से संबंधित लेखक-आलोचकों के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिसकी आवश्यकता हर दृष्टिकोण से जरुरी थी. इन रास्तों का प्रयोग स्वयं राजेन्द्र यादव ने भी विस्तार से किया है. यदि इस परंपरा का मूल्यांकन किया जाय तो हम देखते हैं कि 1930 से 1936 तक के ‘हंस’ में प्रेमचंद ने इसकी शुरुआत सशक्त तरीके से की थी. उन्होंने उस समय की लगभग सभी तरह की समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की है. भारत-यूरोप की राजनीति, अर्थव्यवस्था, जातिवाद, स्त्री-समस्या, आर्थिक-असमानता, तथा राष्ट्रीय नेतृत्व जैसे गंभीर विषयों पर प्रेमचंद ने ‘हंस’ में विस्तार से लिखा है. राजेन्द्र यादव इसी परंपरा को विस्तार देते हुए साहित्यकारों के लिए एक ऐसा मंच मुहैया कराते हैं जहाँ अन्य अनुशासनों पर वे अपने विचार प्रकट कर सकें. ‘हंस’ की बहसों के संकलन संपादक विभास वर्मा इन बहसों के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों पर कहते हैं कि----“इस क्षेत्र में ‘हंस’ का उत्साह ज्यादा नहीं दिखा क्योंकि यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि जटिल सैद्धांतिक बहसों के प्रति ‘हंस’ का उत्साह थोड़ा मंदा ही रहा है. उसकी बहसें अधिकतर व्यावहारिक बहसे रही हैं.”—3. 

जहाँ तक सैद्धांतिक बहसों का मसला है वहाँ ध्यान देने योग्य बातें यह है कि ‘हंस’ में इन विचारों को पचाकर पेश किया गया है और यही कारण है कि यह सरलता पूर्वक पाठकों के लिए ग्राह्य बन सका है. 

हंस’ के अंतर्गत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लगभग सभी मसलों पर बहसें की गयी हैं लेकिन जिन दो बहसों के लिए ‘हंस’ को सबसे अधिक ख्याति प्राप्त हुइ वे हैं— ‘दलित-विमर्श’ और स्त्री-विमर्श’. इन दोनों विमर्शों की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि इन दो समस्याओं पर हिंदी में खुलकर और अधिक ‘बोल्ड’ तरीके से लिखा जाने लगा. साथ ही इसकी सार्थकता इस अर्थ में भी है कि हिंदी की यह ऐसी पहली पत्रिका बनी जो ‘स्त्री, दलित और दलित स्त्री’ जैसे गंभीर मुद्दे पर भी बहस को सुचारू ढ़ंग से चला सकी. 

‘स्त्री, दलित और दलित स्त्री’ विषय पर ‘हंस’ में जो बहसें चली उसमें स्त्रीवादी संघर्ष के प्रायः सभी कोण स्पष्ट रूप से व्याख्यायित होने लगे. यहाँ भी व्यावहारिक पक्ष का खासा प्रयोग देखने को मिलता है. यह बहस जहाँ एक ओर स्त्री-अस्मिता से जुड़े प्रश्नों को रेखांकित करती है वहीं दूसरी ओर उस रूपक पर भी बात करती है जहाँ हाशिये पर धकेले गए वर्ग की राजनैतिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है. यह स्पष्टीकरण अपने अन्दर सकारात्मक संदेशों के साथ-साथ नकारात्मक भावों को भी धारण किये हुए है. राजेन्द्र यादव जब दलित और स्त्री का रूपक तैयार करते हुए उसके एकीकरण की बात करते हैं तब इसपर जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है. यह प्रतिक्रिया स्त्री विमर्शकारों की राजनैतिक समझदारी को भी स्पष्ट करती है. राजेंद्र यादव इस क्रम में लिखते हैं कि ----“सही है कि शूद्रों की तरह औरत (अछूत) नहीं है, वह हमारे बीच और हममें से एक है और कुछ निर्णायक क्षणों या कक्षों और बेहद पवित्र पूजा अनुष्ठानों के सिवा उसे सब कही होने की छूट है. मगर जो चीज उसे शूद्र के साथ रखती है वह है उसकी देह---जो मूलतः अपवित्र है.”—4. 

इस सम्पादकीय आलेख में राजेंद्र यादव उमा भारती के बाबरी-विध्वंस मामले पर उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर राजनैतिक परिदृश्य के उदाहरण के साथ विस्तार-पूर्वक बात करते हैं. मृदुला गर्ग द्वारा ‘हंस’ की संगोष्ठी में स्त्री को दलितों के साथ जोड़े जाने का सख्त विरोध करने के उपरान्त यह संपादकीय लिखा गया था जिसमें राजेंद्र यादव मृदुला गर्ग के विचारों का खंडन करते हुए दलित और स्त्री को एक रूप में देखने का आग्रह करते हैं. समाज द्वारा ‘देह’ और ‘स्वतंत्रता’ के आधार पर एक ही श्रेणी में दलित और स्त्री को रखने का राजनैतिक विश्लेषण करते हुए राजेन्द्र यादव इसके एक कोटि का प्रयोग आन्दोलन के पक्ष में देखते हैं. लेकिन मृदुला गर्ग इस व्याख्या को ख़ारिज करती हैं और उनके सन्दर्भ में ‘मिसप्लेस्ड-एंगर’ अर्थात ‘बंदर बला तबेले के सिर’ के मुहावरे का इस्तेमाल करती हैं.

‘हर स्त्री दलित नहीं है’ शीर्षक से लिखे आलेख में मृदुला गर्ग ने स्त्रियों को दलितों से जोड़कर देखे जाने का विरोध करते हुए लिखा कि ---“ अगर सारी स्त्रियों को दलित बतलाने से चाहे वो जिस वर्ग से हों, आपका मरदाना अहम् तुष्ट होता है तो जरुर शौक फरमाइए. पर उनसे यह अपेक्षा मत कीजिए कि वह आपके इस मालिकाना निष्कर्ष का आभ्यांतीकरण करके, ‘हाय अबला जीवन तेरी यही कहानी’ की तर्ज पर आंसू बहाती, निष्क्रिय पड़ी रहेंगी.”—5.

यहाँ मृदुला गर्ग की प्रतिक्रिया राजेन्द्र यादव के विचारों से कम और उनके पुरुष होने से अधिक संबंधित दिखाई पड़ता है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि वैचारिक स्तर पर जो संरचनात्मक समस्याएं हैं उनपर विचार नहीं किया गया. यही कारण है कि इस विषय पर मृदुला गर्ग एक प्रतिक्रियावादी की भूमिका में अपनी असहमति दर्ज करा रही हैं. यहाँ पर प्रतिक्रियावादी टिप्पणी कहना इसलिए भी तर्क-संगत जान पड़ता है क्योंकि इस प्रतिक्रिया से एक वर्ष पूर्व पत्रकार-लेखक राजकिशोर की पुस्तक—‘स्त्री-पुरुष कुछ पुनर्विचार’ पर ‘हंस’ में लिखते हुए मृदुला गर्ग ने लिखा कि--- “ राजकिशोर की पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष कुछ पुनर्विचार’ का शीर्षक पढ़ा तो अचंभित-रोमांचित रह गयी. क्या सच, एक भारतीय पुरुष इतना साहस कर रहा है कि स्त्री-पुरुष के मूलभूत, शाश्वत, अंतरंग, पूरक संबंध पर प्रश्न-चिन्ह लगाये?”—6.

कहने की आवश्यकता नहीं कि मृदुला गर्ग स्वाभाविक रूप से यह मानती हैं कि पुरुष होते हुए स्त्री समस्याओं पर विचार नहीं किया जा सकता है. ऐसा मानना हर दृष्टिकोण से सफल या सार्थक नहीं कहा जा सकता. यदि ऐसा है भी तो वैचारिक पहलुओं को उसकी खामियों को दर्शाते हुए लेखन करना ही सार्थक लेखन कहा जा सकता है, जिसका यहाँ अभाव दिखता है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यदि किसी विचार को जानने से पूर्व ही यदि लिंग के आधार पर हम पहले से ही अपनी मानसिकता तय कर लें तो स्वाभाविक रूप से इसका असर विचारों के सर्वेक्षण पर किसी न किसी रूप में पड़ेगा ही. 

इसी तरह नीलम कुलश्रेष्ठ ने भी ‘हंस’ द्वारा चलाये जा रहे इस वैचारिक बहस में स्त्री को दलित के साथ जोड़े जाने का विरोध किया है. मृदुला गर्ग के विचारों का समर्थन करते हुए उन्होंने ‘मैं भी स्त्री को दलितों से जोड़े जाने का विरोध करती हूँ’ शीर्षक से लिखे अपने आलेख में कहा कि---- “मैं भी स्त्री को दलितों से जोड़े जाने का विरोध करती हूँ. जिस तरह दलितों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण एक बड़ी साजिश है उसी तरह स्त्री की शक्ति को नकारकर उसे दलितों से जोड़ना या अपने से कमतर चीज बना देना पुरुष अहं की भारी साजिश है.”—7 .

नीलम कुलश्रेष्ठ अपनी असहमति दर्ज कराते हुए यह भी स्पष्ट करती हैं कि स्त्री को दलित के साथ जोड़कर देखना स्त्रियों को निचले स्तर पर देखना है. राजनैतिक दृष्टि से मूल्यांकन करने पर नीलम कुलश्रेष्ठ के विचार भी यहाँ आंदोलनकारी सांगठनिक एकता के ठीक विपरीत एक अलगाववादी स्थिति को पैदा करती है. 

इसी संदर्भ में प्रभा खेतान राजेन्द्र यादव द्वारा स्त्रियों को किसी भी कोटि में रखने का विरोध करती हैं और वे मानती हैं कि स्त्री अपने आप में एक कोटि है. वे स्त्री को किसी भी वर्ग में विभाजित करने के पक्ष में नहीं हैं. प्रभा खेतान मानती हैं कि मृदुला गर्ग की स्त्री-चेतना अन्य स्त्रियों की तुलना में अपने दायित्व के प्रति सचेत हैं लेकिन इसके साथ ही वे यह भी मानती हैं कि इसके बावजूद वह सम्पूर्ण मुक्त होने का दावा नहीं कर सकती हैं. दावा मात्र भर करने से ही कोई संपूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो जाता है. प्रभा खेतान स्त्रियों को दलित मानती भी हैं और नहीं भी. वे लिखती हैं कि—“ इसमें कोई शक नहीं कि स्त्री-चेतना दलित है और सदियों से रही है किन्तु मेरी समझ में स्त्री-चेतना शब्द का बाद में प्रयोग किया जाना चाहिए. इससे पहले हमें स्त्री के अस्तित्व की सत्ता, उसके अस्तित्व को स्वीकारना होगा. चेतना तो बाद में उभरती है. पहले तो संकट उसके अस्तित्व का है और स्त्री के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई में लगा हुआ व्यक्ति (स्त्री हो या पुरुष) नारीवादी है.”—8 .

प्रभा खेतान स्त्री के अस्तित्व पर अधिक जोर देती हैं साथ ही वह यह भी मानती हैं कि स्त्री अपनी मांग अलग से रखे या दलितों के साथ मिलकर यह विचारणीय है. इसके साथ ही वे स्त्री-भूमिका पर अधिक जोर देते हुए कहती हैं कि स्त्री-संघर्ष आधी दुनिया का संघर्ष है. इसी आधार पर वे मार्क्सवाद के सिद्धांतों का जिक्र करते हुए उसे अपर्याप्त भी मानती हैं. वे कहती हैं कि--- “ मार्क्सवाद का हिस्सा नारीवाद नहीं हो सकता. मार्क्सवाद के इतिहास में विराम के ऐसे क्षण हैं जब स्त्री के बारे में अलग से सोचने की मार्क्सवादियों को कोई जरुरत महसूस नहीं हुई थी. उन्होंने स्त्री को सर्वहारा के साथ एक रखा. स्त्री-चेतना केवल वर्गीय चेतना नहीं हो सकती. क्या आप ये कहना चाहेंगे कि उच्च वर्ग की स्त्री दलित नहीं? क्या उसका शोषण नहीं होता?”—9 .

इसी के साथ प्रभा खेतान यह भी मांग करती हैं कि चूँकि यह एक अलग घटना है इसलिए इसकी परिचर्चा उत्पादन के साधन, संगठन और नियंत्रण से हटकर की जानी चाहिए. इस तरह हम देखते हैं कि प्रभा खेतान स्त्री को वर्ग-चेतना और इस संघर्ष से अलग रूप में इसके विश्लेषण की मांग करती हैं लेकिन यहाँ उनके विचार और रचनाओं में विरोधाभास को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है. उनकी लम्बी कहानी ‘तालाबंदी’ में उन्होंने वर्ग-संघर्ष की पृष्ठभूमि को रेखांकित किया है. इस रेखांकन में स्त्री-पक्ष भी स्पष्ट है जहाँ स्त्रियाँ प्रभुत्वशाली वर्ग की शिकार होती हैं. ‘तालाबंदी’ में भी मार्क्स के सिद्धांत ‘एतिहासिक भौतिकवाद’ के आधार स्वरुप को देखा जा सकता है. इस आधार पर यदि गहनता से विचार किया जाय तो इस भटकाव को महसूस किया जा सकता है. मार्क्स ने जिस रूप में स्पष्ट किया था कि--- “शोषित और उत्पीड़ित वर्ग-------सर्वहारा, शोषक और उत्पीड़क वर्ग----बुर्ज्वाजी(पूंजीपति) से अपने को तब तक मुक्त नहीं कर सकते, जब तक कि साथ ही सारे समाज को सदा के लिए शोषण और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर देता.”—10 .

इस आधार पर प्रभा खेतान की मान्यताओं का यदि अध्ययन किया जाय तो हम पाते हैं कि प्रतिरोध संबंधी वैचारिक साझेदारी का अभाव ही मिलता है जो अंततः हाशिए की लड़ाई को कमजोर भी करता है. यह सच है कि मार्क्सवादी सिद्धांतों में स्त्री-समस्या का वह विस्तार नहीं दिखता जो स्त्रीवाद में है लेकिन यहाँ पर दो प्रश्न फिर भी अहम हो जाते हैं. पहला तो यह कि मार्क्सवादी सिद्धांतों में यह स्पष्ट है कि शोषण के सभी संस्थानों से मुक्ति की बात कही गयी है और दूसरा यह कि बदलते सामाजिक-संरचना के आधार पर इन सिद्धांतों का लगातार विकसित स्वरुप भी देखने को मिलता है. उदाहरण के तौर पर मार्ता हार्नेकर के विचारों को लिया जा सकता है. वे लिखती हैं कि ---- “How does the introduction of new technologies into the labour process and into the whole economic process affect the technical and social relations of production and those of distribution and consumption? What changes have both the working class and the bourgeoisie undergone an era where knowledge has come to represent a key element in the productive forces? How can Marxism be used to think about environmental and gender problems? Where is globalization headed and what will the consequences be?—11.

स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है कि जेंडर और अन्य समस्याओं पर मार्क्सवाद के तहत गहनता से विचार किया जाता रहा है. खासकर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वैश्वीकरण के दौर में उत्पादन, साधन और नियंत्रण जैसी संरचना से बचकर किसी भी शोषण के खिलाफ कैसे लड़ाई लड़ी जा सकती है? स्वयं प्रभा खेतान की कहानी ‘तालाबंदी’ में वैश्वीकरण के इस प्रभाव को देखा जा सकता है. वैश्वीकरण, तकनीक, उत्पादन, आर्थिक-राजनैतिक-ढ़ांचा जैसे गंभीर मुद्दों को दरकिनार कर शोषण-रहित वर्ग अथवा जाति की कल्पना नहीं की जा सकती है. यही कारण है कि डॉ. मीनाक्षी सखी जब इस बहस के आलोक में अपने विचार व्यक्त करती हैं तो सतर्कता के साथ इन मसलों पर भी गंभीरता के साथ विश्लेषण की मांग करती हैं. वे लिखती हैं कि--- “ वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में उत्पादन तकनीकी और संचार क्रांति के कारण हमारे आर्थिक-राजनैतिक ढांचें में उथल-पुथल हो रही है. परंपरागत सांस्कृतिक ढांचें ध्वस्त हो रहे हैं. देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट चूकी है. आर्थिक और सामाजिक रूप से असुरक्षा से ग्रस्त लोग, फिर से जाति-धर्म के परंपरागत दायरे में सुरक्षा तलाश रहे हैं, बाजार के माध्यम से वे स्त्री और दलित सशक्तिकरण करने का दावा कर रहे हैं.”—12. 

इसलिए यह कहना तर्क-संगत ही होगा कि प्रभा खेतान ने भी अन्य लेखक-लेखिकाओं की ही भांति बगैर गंभीर अध्ययन के मार्क्सवाद पर इस तरह के प्रश्न उठाए हैं. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि हाशिए की लड़ाई शोषित-संघर्ष के वर्गीकरण के आधार पर लड़ी तो जा सकती है लेकिन राज्य की संरचना को तोड़ नहीं सकती. इस आधार से मूल्यांकन करने पर भी इस तरह के विचार अप्रासंगिक ही नजर आते हैं. प्रभा खेतान इस तरह की धारणाओं के बावजूद इस बात के लिए अवसर जरुर मुहैया करवाती हैं कि स्त्री अपनी मांग दलित के साथ रखे या अलग से यह विचारणीय है. यहाँ वे मृदुला गर्ग और मनीषा कुलश्रेष्ठ से वैचारिक स्तर पर अधिक संतुलित अवश्य दिखती हैं. 

कुल मिलाकर हम देखते हैं कि इस बहस में राजेन्द्र यादव, मृदुला गर्ग, नीलम कुलश्रेष्ठ, कमल कुमार, बी.एल. नय्यर, प्रभा खेतान, परमानन्द अग्निपंथी, जानकी प्रसाद शर्मा, मोहनदास नैमिराश्य, डॉ. मीनाक्षी सखी, मैत्रेयी पुष्पा और मनीषा ने विस्तार-पूर्वक अपने तर्क प्रस्तुत किये हैं. लेकिन इस बहस में अधिकांशतः एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की धारणा ही अधिक प्रबल होते हुए दिखाई देती है. हिंदी में स्त्रीवाद का स्वरुप कैसा है? उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता किस रूप में है? स्त्रीवादी संघर्ष का स्वरुप कैसा है? इस तरह की सभी स्थितियों का आंकलन ‘हंस’ में की गई इन गए बहसों से पता चल जाता है. इन स्थितियों का वास्तविक स्वरूप इन लेखिकाओं की मान्यताओं तथा इनकी रचनाओं के आधार पर भी किया जा सकता है. इस सन्दर्भ में अभय कुमार दुबे यह मानते भी हैं कि----

“हिंदी का नारीवाद सिद्धान्तिक डिस्कोर्स के जरिए कम उभरा है, बल्कि इसकी शक्ल-सूरत साहित्यिक रचनाशीलता के गर्भ में ज्यादा बनी है. इसका ज्यादातर हिस्सा विचारधारात्मक नहीं है. वैसे भी विचारधाराएँ केवल घोषित प्रतिबद्धताओं के दम पर स्वयं को सार्वभौम साबित नहीं कर पातीं. वे मनुष्य की चेतना में तभी जगह बना पाती हैं जब उनका विरोध करने की कोशिश करने वाले मानस भी अंततः उन्हीं के नक़्शे-कदम पर चलते दिखाई दें.” –13 .

‘द ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ इंटिमेसी’ में एंथनी गिडेंस ने जिस ‘रोमानी’ और ‘संगमी’ प्रेम का जिक्र किया है उस आधार पर यदि हिंदी में घोषित और अघोषित नारीवाद का अध्ययन किया जाय तो स्थितियाँ और भी स्पष्ट हो जाती हैं. नारीवाद के जिन दो चरणों की बात की जाती है ख़ासकर कैरल गिलिगन के ‘डिफरेंस-फेमिनिज्म’ के संदर्भ में, वहां यह स्पष्ट है कि पहले में नारी का लक्ष्य पुरुष की बराबरी करना है और दूसरे में वह पुरुष से अलग अपनी भिन्न शख्सियत बनाना चाहती है. जैसा कि स्पष्ट है हमारे यहाँ सशक्तीकरण स्त्री के लिए विवाह, परिवार, प्रजनन और पुरुष निर्भरता से मुक्ति की तरफ जाने वाला मार्ग प्रशस्त नहीं करता है. इसलिए हिंदी की नारीवादी इयत्ता भिन्न है. यही कारण है कि अभय कुमार दूबे यहाँ सैद्धांतिक आधार के बदले रचनाशीलता के आधार पर मूल्यांकन पर जोर देते हैं. 

इस आधार पर प्रभा खेतान घोषित नारीवादी हैं तो मन्नू भंडारी अघोषित नारीवादी. ‘अन्या से अनन्या’ और ‘एक कहानी यह भी’ के अध्धयन से इस तर्क को आसानी से समझा जा सकता है. प्रभा खेतान के यहाँ रोमानी प्रेम है जबकि वे घोषित नारीवादी हैं लेकिन मन्नू भंडारी जो नारीवाद को यौन-स्वच्छंदता का पर्याय, पुरुष विरोध का पर्याय तथा साथ ही यह भी मानती हैं कि स्त्रियों के विकास में नारीवाद का कोई योगदान नहीं है, (संडे पोस्ट में दिए गए इंटरव्यू ) की रचना ‘एक कहानी यह भी’ में संगमी प्रेम का वर्णन देखने को मिलता है. प्रभा खेतान के यहाँ हम राजनैतिक रूप से सचेत स्त्री तथा अधिकारों की दावेदारी करती स्त्री को देखते हैं बावजूद इसके उनके यहाँ रोमानी चेतना से लैस स्त्री का उदय होता है. लेकिन अपने बौद्धिक प्रतिबद्धता न होने के बावजूद मन्नू भंडारी के यहाँ वही सशक्तिकरण देखने को मिलता है जो अपनी सीमाओं के साथ एक अचेत नारीवादी के यहाँ देखा जा सकता है. यही मूल फर्क है घोषित और अघोषित नारीवाद के सैद्धांतिक और रचनात्मक आधार का. 

दोनों रचनाओं में घोषित-अघोषित के अंतर के बावजूद जो चीज दोनों को जोड़ती है वह है ‘गुड गर्ल’ बनाम ‘बैड गर्ल’. दोनों के यहाँ यह समस्या देखी जा सकती है. यही कारण है कि प्रभा खेतान के घोषित नारीवाद के बावजूद उनकी रचना में ‘नेक लड़कीवाद’ देह के स्तर पर उभरकर आता है और मन्नू भंडारी की रचना में विचार के स्तर पर.

प्रतिरोध के आधार पर भी यदि इसका मूल्यांकन किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि शुरूआती दौर में वैश्याओं को आन्दोलन में साथ रखने से परहेज और विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के विरोध के सुरों का मेल दक्षिणपंथी सुरों से भिन्न नहीं था. 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिसे ‘यह हिंदी का नारीवाद है’ कहकर टाल दिया जाता है अथवा यह भाव-बोध बनाने की कोशिश की जाती है जैसे कि इससे इत्तर सब-कुछ ठीक है, ऐसा नहीं है. जिस संघर्ष को आधी-दुनिया का संघर्ष कहा गया हो उसके अंदर होने वाले इस परिवर्तन को समझने की आवश्यकता है. ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्योंकि भारत में हिंदी को लेकर चाहे भाषाई विमर्ष जिस स्तर पर हो लेकिन इसके अंदर या इसकी परिधि के अंतर्गत किए जा रहे प्रतिरोध को किसी भी दृष्टिकोण से उपेक्षित नहीं माना जा सकता है. ऐसा मानना वास्तविकता से मुंह मोड़ने जैसा होगा. हम आज भी ब्रम्हा और सावित्री के तलाक संबंधी मुक़दमे लड़ रहे हैं और इससे इनकार करना नेत्र-विहीन होने का अभिनय करने जैसा ही होगा. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सैद्धांतिक तौर पर हम चाहे जो भी कह लें व्यवहारिकता में हमारे समाज की हकीकत वही है जो हमारे सामने घटित हो रहा है. इसलिए शोषित और वंचितों की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों और अन्य शोषितों से श्रेष्ठ होने की लड़ाई से अधिक महत्वपूर्ण है अपनी जड़ों को मजबूत करना और उसके सही विकास के लिए जमीन तैयार करना. ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि मुक्ति का संबंध जितना सामाजिक संरचना से है उतना ही राज्य-संरचना से भी है. ऐसी स्थिति में सामाजिक-सरोकार से संबंधित संस्थाओं द्वारा एक दूसरे से श्रेष्ठ होने की लड़ाई को समाप्त करने की आवश्यकता है. हमारे यहाँ इस आपसी मतभेद की लड़ाई की परंपरा भी लंबी है. अगर मार्क्सवाद के संदर्भ में कहा जाय तो लोहियावादी संगठन हो या अम्बेडकरवादी संगठन अथवा नारीवादी संगठन सभी ने आरोप-प्रत्यारोप की एक लंबी फ़ेहरिस्त बना रखी है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या मार्क्सवादियों ने भी सांगठनिक श्रेष्ठता की ऐसी ही लड़ाई में अपनी व्यस्तता बनाए रखी है? नहीं और यही कारण है कि इन तमाम आपसी आलोचनाओं के बावजूद मार्क्सवादी संघर्ष के अंतर्गत आदिवासी, दलित, स्त्री, जाति, धर्म, किसान, मजदूर आदि सभी संघर्षों के लिए एक व्यापक ‘स्पेस’ देखने को मिलता है. दामिनी प्रकरण, एसिड अटैक से लेकर रोहित वेमुला प्रकरण से भी इसे समझा जा सकता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि नारीवादी प्रतिरोध भी इन समस्याओं से एक स्तर तक घिरा हुआ है. स्पष्ट है कि भारतीय स्त्रीवाद अभी भी श्रेष्ठ-भाव-बोध की उसी लड़ाई में संलिप्त नज़र आता है जहाँ से ऊपर उठे वगैर राष्ट्रीय स्तर पर सफलता हासिल नहीं की जा सकती है. इसलिए यह कहना तर्क संगत ही होगा कि यदि स्त्रीवादी आंदोलन सही अर्थों में आधी दुनिया के आन्दोलन का सवरूप प्राप्त करना चाहती है तो व्यवहारिक स्तर पर उसे इन समस्याओं से जल्द निजात पाने की आवश्यकता है. 

संदर्भ:-

1.डॉ. उपाली, ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के ख़िलाफ तलाक़ का मुक़दमा’,अश्वघोष(मासिक), नागपुर, सितंबर-अक्टूबर, 1997, पृ.सं- 31-32. 

2.डॉ. तुलसी राम, धर्म सम्मत यौन शोषण में नैतिकता, हंस, अगस्त-2005, पृ.सं—26. 

3. विभास वर्मा, हंस के विमर्श, संपादक- राजेन्द यादव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, देखें-भूमिका. 

4 . तुम्हारे गले में किसकी आवाज है, उमा भारती? राजेन्द्र यादव, हंस, संपादकीय, अंक— मार्च,1993, पृ.सं--6.

5. हर स्त्री दलित नहीं है, मृदुला गर्ग, हंस, संपादक राजेन्द्र यादव, अप्रैल-1993, पृ. सं –67. 

6. स्त्री-पुरुष कुछ पुनर्विचार ---कितना मिथक कितना विचार, मृदुला गर्ग, हंस, संपादक-राजेन्द्र यादव, दिसंबर-1992, पृ. सं- 72. 

7.मैं भी स्त्री को दलितों से जोड़े जाने का विरोध करती हूँ, नीलम कुलश्रेष्ठ, हंस के विमर्श-1, श्रृंखला संपादक- राजेन्द्र यादव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. सं. ---168. 

8. नारी और दलित : कुछ और मुद्दे, प्रभा खेतान, हंस, संपादक- राजेन्द्र यादव, अगस्त-1993, पृ. सं – 68. 

9. नारी और दलित : कुछ और मुद्दे, प्रभा खेतान, हंस, संपादक- राजेन्द्र यादव, अगस्त-1993, पृ. सं – 69 . 

10. कार्ल मार्क्स, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, प्रस्तुत संस्करण: 2013, पृ. सं- 80. 

11.Rebuilding the Left, Marta Harnecker, Daanish Books, firist reprint-November 2009, pg.no—40. 

12.दोहरी मार झेलती दलित स्त्री, डॉ. मीनाक्षी सखी, हंस के विमर्श-1, श्रृंखला संपादक- राजेन्द्र यादव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. सं. ---192.

13. हिंदी में हम, अभय कुमार दूबे, सी.एस.डी.एस, वाणी प्रकाशन, प्रथम संकरण, पृ .सं.—276.

.संजीव कुमार 
पी-एच.डी. (सामाजिक आन्दोलन और ‘हंस).
कमरा सं- 02. गोरखपांडे छात्रावास. 
महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय 
वर्धा—442005. 
संपर्क—7588822544. 

 [जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के जनवरी-मार्च 2017 सयुंक्त अंक में प्रकाशित आलेख]








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