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[लघुकथा] "बोझ": नाम-निधि "श्री"





लघुकथा-

"बोझ"

नर्स ने आकर बड़े ही व्यंगात्मक लहजे में कहा-"ज़बरदस्ती हुआ या तुम्हारी मर्ज़ी थी?"

इलाहाबाद के मोती लाल नेहरू हस्पताल का वार्ड नम्बर तीन.. वो इससे पहले यहाँ कभी नहीं आई थी..

"अरे बोलती क्यों नहीं? साँप सूंघ गया है क्या? बाज़ार में इतना कुछ मिलता है जानती नहीं थी? और अब कहाँ गया तेरा आशिक़? भाग गया?देखने से तो भले घर की लगती है.. वो जो बुढ़िया आई थी तेरे साथ कौन थी?
"जी मेरी नानी हैं"
"घर कहाँ है? यहीं इलाहाबाद में?"
"जी नहीं! लखनऊ के रहने वाले हैं!"
"अच्छा तो मुँह छुपाने के लिए लखनऊ से यहाँ आई है.. चल डॉक्टर आ गयी है"
कहते हुए नर्स बाहर निकल गयी..

बात लगभग चार महीने पहले की थी.. 
"तुम मुझे प्यार नहीं करती हो"
"करती हूँ.. कैसे यक़ीन दिलाऊँ"
"तो एक बार हाँ कह दो ना"
"रवि मुझे डर लगता है"
"अरे डर कैसा! मैं हूँ ना.. अब मान भी जाओ.."
कहते हुए रवि ने उसके हाथों को अपने हाथों में ले लिया..
ऋचा ने शरमाते हुए 'हाँ' में सर हिला दिया..

उस दिन कॉलेज बंक कर ऋचा रवि की बताई हुई जगह पर पहुँच गयी..रवि ने होटल में एक कमरा बुक कर रक्खा था.. 
"रवि.. ये.. ये तुम्हारे दोस्त यहाँ क्यों? ऋचा ने कुछ घबराकर पूछा था.. पर होटल का बन्द कमरा.. वो तीन थे.. ऋचा अकेली.. दोपहर से रात हो गयी थी.. पर ऋचा घर नहीं लौटी..

नर्स ने आकर फिर चीखा- "अरे खड़ी रहेगी की चलेगी भी?"तो जैसे उसे होश आया.. ऑपरेशन थिएटर के अंदर घुसते ही उसने भयातुर नेत्रों से सभी की ओर देखा.. अंदर तीन-चार नर्सें और थी और एक डॉक्टर.. सब ने उसे बड़े ही हास्यास्पद ढंग से घूरा.. 
"अरे बेटा.. डरती क्यों हो?बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी मोटी गलतियाँ होती रहती हैं" एक नर्स ने कहा और बाकी सब हँस पड़ी.. 
डॉक्टर के चेहरे पर कोई भाव नहीं था.. एक नर्स ने उसे लेटने को कहा और फिर बायें हाथ में लगा कोई सुइ चुभो रहा है.. इंजेक्शन लगाया जा रहा था शायद उसने समझ लिया.. एक आखिरी बार उसने अपने पेट को सहलाना चाहा.. पर..इससे पहले की उसका हाथ उठता..
एक घना अंधेरा चारों तरफ छा गया..

उस बात को लगभग आठ साल बीत चुके है.. ऋचा अब एक प्राइमरी स्कूल में टीचर है..

अलमारी की सफाई करते हुए एक पुरानी डायरी उसके पैरों के पास गिरी.. ये वही डायरी थी जो ऋचा के दुर्दिनों में उसकी संगिनी बनी थी.. डायरी को उठाकर उसने एक एक पन्ने को फिर से पलटना शुरू किया और उसके साथ ही उसके ज़िन्दगी के पन्ने भी पलटते हुए उसी जगह पर पहुंच गए.. जहाँ से इस डायरी की शुरुआत हुई थी.. ना चाहते हुए भी वो एक एक शब्द पढ़ती जा रही थी..

उस दिन जब होटल के कमरे में अचानक पुलिस आ गयी थी.. और "धंधा वाली" कहते हुए लेडीज़ कॉन्स्टेबल ने उसे घसीटते हुए पुलिस जीप में बिठाया था.. घर लाकर भइया ने बेल्ट से मारा था.. मोहल्ले वालों के तानों से तंग आकर छोटी बहन ने आत्म हत्या कर ली थी.. उसने भी तो खुद को एक कमरे में कैद कर लिया था...

वो एक एक पन्ना पलटती जा रही थी... हर पन्ने पे हाथ फेरती.. आंसुओं को हर बार रोकने की कोशिश करती.. कभी खुली डायरी को सीने से लगा लेती.. कभी मुट्ठियां कस लेती..
तेरह अगस्त 2008.. 
इस दिन को कैसे भूल सकती है.. पिछले दिन चाय बनाते समय चक्कर आ गया था.. देखने में वैसे भी बहुत कमज़ोर हो गयी थी.. आज खून की जांच ने उसके गर्भवती होने की पुष्टि कर दी थी.. और उसी दिन उसे ट्रेन में बैठाकर लखनऊ भेज दिया गया था.. नानी के पास.. 
ईश्वर का ये आशीर्वाद उसकी ज़िन्दगी में किसी अभिशाप से कम ना था.. पर फिर भी हिम्मत जुटाकर नानी से एक बार कह गयी थी-"नानी अगर आप मुझे किसी तरह पढ़ा पाएं तो मैं अपने बच्चे को खुद पाल लूँगी" जिस पर नानी ने रो रो कर उसे गले से लगा लिया था.. 
इतने दिनों में वो एक बार भी ना रोई थी.. हर बार आंसुओं को आँखों के अंदर ही रोक लिया था.. घरवालों ने खूब खरी खोटी सुनाई.. फिर प्यार से समझाया.. कभी जान से मारने की धमकी दी.. तो कभी परिवार की इज़्ज़त का हवाला दिया.. बच्चे के अंधकारमय भविष्य को भी उसे दिखाया गया.. कुल मिलाकर किसी तरह उसे इलाहाबाद के एक सरकारी हस्पताल पहुंचा दिया गया.. मामा जी की जान पहचान थी वहाँ..

अब चेहरा लाल हो गया था.. उसने डायरी को धम्म से ज़मीन पर पटका.. और आईने के सामने खड़ी हो गयी.. कुछ क्षण खुद को निहारती रही.. फिर लौटकर डायरी के पास आई.. उसे उठाया और बड़े प्यार से सहलाया.. बिल्कुल वैसे जैसे कोई माँ अपने बीमार बच्चे को सहलाती है... उसने डायरी को अपने सीने से लगा लिया.. आठ सालों से जिस तूफान को हृदय में समेटे हुए थी, आज अचानक उसका नियंत्रण खो बैठी.. वो आँखें जो इतने समय से शुष्क पड़ी थीं आज किसी उफनती हुई नदी सी बह पड़ीं.. आज मानों जैसे आँखों में आँसुओं का कोई बाँध टूटा हो.. आज उसने खुद को नहीं रोका.. आज उसके आँसुओं पर ना कोई हँसने वाला था.. और ना ही कोई ताने कसने वाला..

होटल के बन्द कमरे में जो चीखें कभी दब कर रह गयीं थीं.. आज टीचर्स क्वार्टर में उन्होंने हाहाकार मचा रक्खा था..

नाम-निधि "श्री"
छात्रा(महिला महाविद्यालय)
काशी हिन्दू विश्विद्यालय,वाराणसी।
ईमेल-nimi3799@gmail.com

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