विश्वहिंदीजन चैनल को सबस्क्राइब करें और यूजीसी केयर जर्नल, शोध, साहित्य इत्यादि जानकारी पाएँ

माओवादी हिंसा: इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान और परिणाम: अम्बिकेश कुमार त्रिपाठी


माओवादी हिंसा: इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान और परिणाम

अम्बिकेश कुमार त्रिपाठी
सहायक प्राध्यापक (राजनीति विज्ञान विभाग)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, द्वारहाट
अल्मोड़ा, उत्तराखंड
9450308057

सारांश
                   प्रस्तुत आलेख माओवादी हिंसा के कारणों के परिप्रेक्ष्य में उसके इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान और उसके परिणामों का परीक्षण करता है। माओवादी हिंसा से उपजी स्थिति में आदिवासी जीवन के हालात पर टिप्पणी करते हुए राज्य की भूमिका का भी आलोचनात्मक परीक्षण करने का प्रयास करता है।
                   प्रमुख शब्द: माओवाद, हिंसा, आदिवासी, राज्य, तुलनात्मक वंचना, क्रांति, सशस्त्र-संघर्ष।
   
            असमानता क्रांति का कारण होती है’, अरस्तू का यह कथन संभवतः क्रांति के बारे में पहला और सर्वमान्य कथन है। क्या यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा- माओवादी आंदोलन[1]- के संबंध में भी सत्य है? क्या भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) [सी.पी.आई. (एमएल)] के नेतृत्व में उभरा यह आंदोलन, जिसको नक्सलवादी आंदोलन के रूप में पहचाना जाता है, अरस्तू के इस कथन की पुष्टि करता है? 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक गाँव नक्सलबाड़ी के आदिवासी किसानों का वहाँ के जमीदारों के शोषण के विरुद्ध बगावत आजतक असमानता और शोषण के खिलाफ विद्रोह का प्रभावशाली प्रतीक है। भारत का आदिवासी जमीदारों, अभिजनों, पूँजीपतियों और राज्य-एजेंसियों द्वारा संगठित शोषण का ऐतिहासिक रूप से शिकार रहा है। 19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में आदिवासी समुदाय के नुमाइंदे के तौर पर बोलते हुए श्री जयपाल सिंह[2] ने कहा था कि, विद्रोह और अव्यवस्था द्वारा प्रतिबाधित मेरे लोगों का समूचा इतिहास गैर-आदिवासियों द्वारा उनके निरंतर शोषण और बेदखली का इतिहास है और अब मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू को उनके कहे शब्दों पर ले जाना चाहूँगा। आप सभी को आपके कहे शब्दों पर ले जाना चाहूँगा कि, हम एक नया अध्याय शुरू करने जा रहे हैं, स्वतंत्र भारत का एक नया अध्याय, जहां अवसरों की समानता है, जहां कोई भी उपेक्षित नहीं होगा[3]

            आज़ादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी आदिवासियों के लिए उस नए अध्याय का शुरू होना अभी तक बाकी है। इतिहासकार रामचन्द्र गुहा लिखते हैं कि, भारत का आदिवासी छः दशकों से जनतांत्रिक विकास का उपेक्षित शिकार है। इस अवधि में अर्थव्यवस्था और राजव्यवस्था से उनका व्यापक शोषण और बेदखली निरंतर जारी हैं[4]। जनतंत्र और शासन के विमर्श को प्रभावित करने में आदिवासियों की उपस्थिति की तुलना दलितों और मुसलमान जैसे वंचित तबकों से करते हुए गुहा लिखते हैं कि, जबकि बाद के दोनों कुछ हद तक जनतंत्र को प्रभावित करते हैं, आदिवासी अभी भी समूचे परिदृश्य से ओझल है[5]। सबका समावेशन जनतंत्र की उदारता और सदगुण है; यही कारण है कि जनतंत्र सुरक्षित और विद्रोहों के लिए न्यून अवसर वाला होता है[6], लेकिन भारत का जनतंत्र अबतक इसमें असफल रहा है। ‘1947 में अपनी आज़ादी के बाद से ही भारतीय राज्य, आदिवासियों के अनुभवों में, अर्थपूर्ण एवं सहभागी विकास का वाहक होने के बजाए मूलतः हिंसक ही है[7]। जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारे समुदाय न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक हाशिएकरण के शिकार हुए हैं, बल्कि कार्यकारी जनतंत्र की संरचना से भी अदृश्य हैं; और बारबार उठने वाली विद्रोही आवाज़ों तथा सशस्त्र विद्रोहों का यह एक मूलभूत कारण भी है, जिनमें माओवादी हिंसा भी एक है। इस शोध आलेख में माओवादी हिंसा के प्रमुख कारणों के आलोक में इसके इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान और प्रभावों एवं परिणामों पर विचार किया गया है।

माओवादी हिंसा: न्याय की लड़ाई बनाम न्यायी हत्यारे
            हिंसा और संघर्ष के कई कारण हैं, किन्तु, जैसा की तुलनात्मक वंचना (रिलेटिव डेप्रीवेशन)[8] के सिद्धांतकार भी मानते हैं, समान लोगों के बीच असमानता इसके तमाम कारणों में से एक प्रमुख कारण है। टेड गर्र (1970) लिखते हैं कि, किसी सामूहिकता के सदस्यों के बीच तुलनात्मक वंचना की प्रबलता और विस्तार के साथ सामूहिक हिंसा की संभाव्यता बदलती रहती है[9]। माओवादी हिंसा के बहुत से जानकार इस विचार से सहमत हैं कि वे लोग जो अपनी आधारभूत जरूरतों से वंचित हैं, अपने जल, जंगल, जमीन, इज्जत और अधिकार[10] की सुरक्षा के लिए माओवादी संगठन से जुड़ रहे हैं। यह सत्य है कि, जो क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़े और अल्पविकसित हैं, माओवादी हिंसा वहीं सबसे ज्यादा फल-फूल रही है, जबकि ये क्षेत्र खनिज संपदाओं के संदर्भ में भारत के सर्वाधिक सम्पन्न क्षेत्र हैं। माओवाद की उपस्थिति के बाद से इन क्षेत्रों में राज्य की एजेंसियां, मसलन- पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बल महत्वपूर्ण रूप से सक्रिय हैं। किन्तु, अगर आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो राज्य की ये एजेंसियां पूंजीवादी हितों की सुरक्षा कर रही हैं न की वहाँ रह रहे सामान्य आदिवासियों की। राज्य और आदिवासी संबन्धों पर अलग से चर्चा की जा सकती है। यहाँ अभी प्रश्न कुछ दूसरे हैं। बहरहाल, ऐसी स्थिति में माओवादियों को अपनी हिंसा को जायज ठहराने का अवसर भी मिल जाता है और वे आदिवासियों में यह संदेश सफलतापूर्वक प्रसारित कर पाते हैं कि हम बाहरी लोगों (दिकू) और पुलिस द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ आपके अधिकारों कि सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं। जबकि माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस मुखबिर आदि के नाम पर माओवादियों द्वारा आदिवासियों की हत्याएं आम घटना हैं। आदिवासी-माओवादी संबंध की इमारत दरअसल भय और हिंसा के बुनियाद पर ही टिकी है। जिस प्रकार आज़ादी का लंबा समय बीत जाने के बाद भी राज्य के पास आदिवासियों को मुख्यधारा में, उनकी संस्कृति और विविधता के साथ, लाने के लिए कोई ठोस और व्यापक नीति नहीं है, ठीक उसी प्रकार माओवादी भी आदिवासियों के इस विद्रुप स्थिति का उपयोग अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने में कर रहे हैं। दरअसल माओवादी अब स्थानापन्न-राज्य (सरोगेट-स्टेट)[11] की भूमिका में हैं।

       यद्यपि, माओवादियों द्वारा दलितों और आदिवासियों से संबन्धित प्रमुख सामाजिक-आर्थिक मुद्दों, मसलन- भूमि-सुधार, न्यूनतम मजदूरी, बंधुआ मजदूरी, प्राकृतिक-संसाधनों में आदिवासियों की उचित हिस्सेदारी, अगड़ी जतियों द्वारा पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के साथ किए जाने वाला शोषण एवं उनकी मानवीय गरिमा को सुनिश्चित किए जाना आदि, को उठाया गया है; तथापि, इसके साथ ही इन सबको पाने के लिए माओवादियों द्वारा जिस तरह का भूमिगत और हथियार बंद आंदोलन शुरू किया गया है वह समावेशी विकास और मानव-सुरक्षा के लिए अनेकानेक गंभीर चुनौती पेश कर रहा है। अपने हिंसक तौर-तरीकों, जिसमें राज्य की संपत्ति जैसे स्कूल, रेलपथ, सड़क, कारख़ानों आदि को क्षति पहुंचाना शामिल है, से माओवादी मानवीय वंचना की प्रक्रिया को समाप्त करने के बजाए उसे और तीव्र कर रहे हैं। निर्दोष आदिवासियों को जबर्दस्ती माओवादी दस्तों में शामिल करना, उन्हे सशस्त्र संघर्ष का हिस्सा बनाना, उनकी भौतिक और सांस्कृतिक सुरक्षा को खतरे में डालना, बाल-संघम में छोटे बच्चों का उपयोग सूचनाओं को पहुंचाने और उनसे पुलिस एवं अर्द्ध-सैनिक बलों की निगरानी करवाना, स्थानीय लोगों का भौतिक और आर्थिक शोषण करके, तथा अपनी महिला कैडरों का लैंगिक शोषण कर दरअसल माओवादी मानवाधिकार के आधारभूत सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं। जेनेवा कोन्वेंशन के नियमों का खुला उल्लंघन माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में स्पष्ट दिखता है।

            माओवादियों का यह दावा कि वे अन्याय, शोषण और संगठित हिंसा के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे हैं, ऊपरी तौर पर किसी को भी आकर्षित कर सकता है, लेकिन वस्तुनिष्ठ सच्चाई इसके विपरीत है। अपने शुरुआती दौर में नक्सलवाद एक आदर्श उद्देश्य के साथ वर्ग-संघर्ष में संलिप्त था। परंतु आज यह राज्य बनाम माओवादी गुट के एक वर्ग-युद्ध[12] में परिवर्तित हो गया है। वंचित समाज की जरूरी शिकायतों से अलग, माओवादी विभिन्न स्रोतों से धन उगाही में संलिप्त हैं और किसानों एवं वंचितों के सशक्तिकरण का मुद्दा कहीं पीछे छुट गया है।

            यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज माओवादी सर्वाधिक घातक, हिंसक और लंबे समय से ज़ारी सशस्त्र संघर्ष है। हिंसा के विभिन्न स्वरूपों के साथ चल रहा यह संघर्ष दावा करता है कि वह एक नए जनतंत्र (न्यू डेमॉक्रेसी) की स्थापना के लिए संघर्षरत है। यहाँ अपूर्वानंद (2016) का यह कथन यौक्तिक ही है कि, कोई भी हिंसात्मक संघर्ष अनिवार्यतः अपने स्वभाव में जनतांत्रिक नहीं होगा। क्यूंकि हिंसा का सहारा लेकर जब हम राजकीय या सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं तो अंततः हिंसात्मक संघर्ष को छोटा होने की बाध्यता होती है। गोपनीय कार्रवाइयों में ज्यादा लोग हिस्सा नहीं ले सकते, ये मजबूरी है। हिंसात्मक संघर्ष में एक प्रकार का अभिजातवाद भी है, इलीटिज्म है[13]

माओवादी हिंसा का दर्शन:
            1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सी.पी.आई. (एम)] में विखंडन के बाद चारु मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व बनीं नई पार्टी, भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) [सी.पी.आई. (एमएल)], वामपंथी अतिवादी पार्टी के रूप में उभरी जी माओ के इस कथन में , सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’, विश्वास करती है। यह पार्टी माओ के क्रांति संबंधी विचारों से प्रभावित है। माओ कहते हैं कि, क्रांति एक विद्रोह है, हिंसा की ऐसी क्रिया है जिसमें एक वर्ग दूसरे को उखाड़ फेंकता है। माओ के जबरदस्त अनुयाई, चारु मजूमदार लोकतांत्रिक राजनीति के विरुद्ध थे और मानते थे कि भारत का जनतंत्र बुर्जुआ, अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-औपनिवेशिक है तथा लोकतांत्रिक राजनीति का रास्ता अख़्तियार करने का मतलब होगा क्रांति के विरुद्ध होना जो कि माओ के विचारों के विपरीत भी है[14]। चूंकि सी.पी.आई. (एम) की केंद्रीय कमेटी ने लोकतांत्रिक राजनीति का रास्ता अख़्तियार कर लिया इसलिए अप्रैल 1969 में पार्टी में विघटन हो जाता है और सी.पी.आई. (एमएल) नामक माओवादी पार्टी का गठन चारु मजूमदार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों को आज़ाद कराने तथा राज्य की मशीनरी को नष्ट करने के लिए किसान-आंदोलन का आह्वान करते हुए किया गया। मजूमदार इस विचार को मानते थे कि, जैसा कि माओ ने भी कहा था, क्रांति बिना क्रांतिकारी पार्टी के कभी सफल नहीं हो सकती’; उन्होने एक नई क्रांतिकारी पार्टी की आवश्यकता को महसूस किया।

            चारु मजूमदार के शब्द, एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की दिशा में पहला काम क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार-प्रसार है, जो कि माओ त्से-तुंग के विचार का प्रचार-प्रसार है। जनतान्त्रिक क्रांति का एकमात्र रास्ता सर्वहारा के नेतृत्व में कृषक क्रांति के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांतिकारी ठिकानों का निर्माण होगा और तत्पश्चात इन क्रांतिकारी ठिकानों का विस्तार शहरी केंद्रों को घेरने के लिए होगा; किसानों के गुरिल्ला बलों के बीच से पीपुल्स लिबरेशन बलों को संगठित करके क्रांति के माध्यम से शहरों पर कब्जा करना होगा, इस प्रकार चेयरमैन माओ के जन-युद्ध की रणनीति को व्यवहार में लाना है। भारत की मुक्ति के लिए यही एकमात्र सही मार्क्सवादी-लेनिनवादी रास्ता है[15]

            नक्सलबाड़ी पर बोलते हुए मजूमदार कहते हैं कि, नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष का हमारे लिए अगर कोई सबक है, तो यही है कि, हमें न सिर्फ भूमि, फसलों आदि के लिए, बल्कि राज्य सत्ता पर कब्जा करने के लिए सशस्त्र-संघर्ष करना होगा। यही नक्सलबाड़ी-संघर्ष को शुद्ध रूप में उसकी विशिष्टता अदा करना है[16]। इस प्रकार आंदोलन के मुख्य सिद्धांतकारों[17] को सशस्त्र हिंसा में दृढ़ विश्वास था। मजूमदार का मानना था कि, ऐसा व्यक्ति जो वर्ग शत्रु के खून से अपने हाथ लाल नहीं किया, कम्यूनिस्ट कहलाने के लायक नहीं है। उन्ही के शब्दों में, आओ, कामरेड, सब मेहनतकश लोग एकजुट होकर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में, कृषक क्रांति के कार्यक्रम के आधार पर, इस सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ। दूसरी ओर, हम किसान विद्रोहों के माध्यम से मुक्त किसान क्षेत्रों का निर्माण कर नए जनतांत्रिक भारत की नींव रखें[18]

            16 जुलाई 1972 को मजूमदार गिरफ्तार कर लिए जाते हैं और दस दिनों की एकांत में यंत्रणा के साथ उनकी मृत्यु 28 जुलाई 1972 को हो जाती है। उनकी मृत्यु के पश्चात सी.पी.आई. (एमएल) कई ग्रुप में विघटित हो जाती है, फिर मजूमदार की विरासत, वर्ग शत्रु के समूल विनाश का सिद्धान्त’, केंद्र में रहा। हालांकि कुछ विघटित ग्रुप मजूमदार के इस विचार को खारिज कर देते हैं। मजूमदार के समय में ही माओईस्ट कम्यूनिस्ट सेंटर (एम.सी.सी.) के संस्थापक कन्हाई चटर्जी ने वर्ग शत्रु के समूल विनाश के फिलोसोफी को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि सशस्त्र संघर्ष और किसान-आंदोलन दोनों पृथक चीजें हैं। चूंकि आज भी माओवादी अपनी सशस्त्र संघर्ष में विश्वास के लिए राज्य पर आरोप लगते हैं और मानते हैं कि न्याय और समानता के लिए हिंसा की राजनीति महत्वपूर्ण हैं और इसी आधार पर वे अपनी हिंसा को जायज़ ठहराते हैं। 1967 में अपनी शुरुआत से आजतक माओवादी अपने सशस्त्र संघर्ष के लिए गरीबों और भूमिहीन किसानों पर निर्भर हैं। आज सी.पी.आई. (माओवादी) मजूमदार और कन्हाई चटर्जी, दोनों के क्रांतिकारी विचारों का अनुगमन करती है।

माओवादी हिंसा का मनोविज्ञान:
            किसी भी प्रकार की हिंसा क्यूँ न हो, उसका प्रभावित लोगों के मन पर कुछ-न-कुछ असर जरूर पड़ता है और उस असर का परिणाम हमेशा नकारात्मक होता है। सशस्त्र हिंसा का पहला और व्यावहारिक परिणाम दरअसल मनोवैज्ञानिक ही होता है। माओवादी हिंसा के पीछे क्या मनोविज्ञान काम करता है? वे अपनी हिंसक गतिविधियों से क्या और क्यूँ पाना चाहते हैं? आलेख के इस हिस्से में हम इन प्रश्नों का जवाब ढूँढने की कोशिश करेंगे। जिस प्रकार किसी भी हिंसा का एक मनोवैज्ञानिक पहलू होता है, माओवादी हिंसा का भी है। वास्तव में हिंसा भय का एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जिसमें लोग अपने मानवाधिकार से वंचित हो जाते हैं, जीवन हानि का भय सदैव बना रहता है और स्वतन्त्रता की चेतना समाप्त हो जाती है। परिवार और संपत्ति के क्षति और अलग-थलग पड़ जाने का स्थायी भय बना रहता है। कानून-विहीनता की ऐसी दशा बन जाती है कि शक्तिशाली सदा सही का विचार जड़ जमा लेता है।

            दरअसल माओवादी अपनी हिंसक गतिविधियों से न सिर्फ राज्य को बल्कि स्थानीय लोगों के ऊपर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश करते हैं। घात लगाकर पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की हत्या और राज्य की अन्य एजेंसियों को लोगों से दूर रखकर माओवादी राज्य को मनोवैज्ञानिक रूप से भी चुनौती देते हैं। इसके साथ ही उनकी दंड व्यवस्था स्थानीय लोगों के मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। बिना किसी खास न्यायिक-जांच की प्रक्रिया के किसी भी आरोपी को गोली मारना या गर्दन रेंत देने की सज़ा सामान्य रूप से उनकी तथाकथित जनताना-अदालतों द्वारा दिया जाता है और इस प्रकार यह लोगों के मन में भय को बढ़ाता है।

            इसके अलावा माओवादी यह जानते हैं कि हिंसा उन लोगों को विशेष रूप में आकर्षित करती है जो किसी-न-किसी रूप में हिंसा के शिकार हों या रह चुके हों। अतः माओवादी गरीब, अशिक्षित और कम लाभ प्राप्त मुख्यधारा से कटे, दूसरे शब्दों में संरचनात्मक हिंसा के शिकार, आदिवासियों के बीच हिंसा का रूमानिकरण करते हैं। ऐसा करने से उनको गरीब और शोषित आदिवासियों के बीच मान्यता और लड़ाके दोनों ही मिल जाते है। दरअसल माओवादी हिंसा के पीछे जो मनोविज्ञान है उसका प्रयोगिक परिणाम राज्य को नागरिकों से दूर रखने में स्पष्ट होता है। हिंसा के प्रयोग से माओवादी राज्य और नागरिक के बीच दूरी बनाने में सफल होते हैं और इस प्रकार अपना बेस भी मजबूत करते हैं। चूंकि लोक-कल्याणकारी राज्य की नीतियाँ लोगों के कुशल-क्षेम का ध्यान रखती हैं इसलिए राज्य को नागरिकों की पहुँच से दूर रखना माओवादियों की पहली प्राथमिकता होती है। चूंकि गरीबी और वंचना माओवाद के ईधन हैं, अतः जबतक ये बनी रहेंगी माओवादी हिंसा के लिए स्पेस बना रहेगा। अपने हिंसात्मक गतिविधियों से माओवादी निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक लाभ प्राप्त करते हैं: 1) राज्य को नागरिकों से दूर रखने में सफल होते हैं और राज्य अपने नागरिकों के कुशल-क्षेम का ध्यान नहीं रख पता तथा माओवादी इस स्थिति का लाभ उठाकर इस बात का प्रचार करते हैं कि राज्य आपके हितों का ध्यान नहीं रखता, 2) हिंसा गरीबी और वंचना बढ़ाती है और ऐसी स्थिति लोगों को माओवादियों के पक्ष में लामबंद करती है, 3) हिंसा के रूमानिकरण से माओवादियों को गरीब और पिछड़े तबकों से आसानी से लड़ाके मिल जाते हैं, 4) डरा हुआ समाज माओवादियों के रहन-सहन के लिए ऐशगाह होता है।

माओवादी हिंसा के परिणाम:
            27 फरवरी 2013 को राज्य मामलों के केंद्रीय मंत्री राज्य-सभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए बताया कि 2001 से अब तक कुल 5801 नागरिकों और 2081 सुरक्षा कर्मियों की हत्या माओवादियों द्वारा की जा चुकी है। कुल बारह वर्षों में सात हज़ार से भी अधिक लोगों की हत्या ये बताने के लिए पर्याप्त है कि माओवादी हिंसा कितनी घातक और राज्य व्यवस्था को चुनौती देने वाली है। माओवादी संघर्ष मध्य-पूर्व भारत में दशकों से हिंसा का एक बड़ा कारण है। माओवादी इन क्षेत्रों में अपने हिंसक गतिविधियों को यह कहकर जायज ठहराते हैं कि वे भूमिहीन गरीब किसानों और आदिवासियों का शोषण कर रहे अर्द्ध-सामंती राज्य व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं, लेकिन यह एक मिथक है। कई स्रोतों से यह सिद्ध हो चुका है कि माओवादियों का गरीब और वंचित आदिवासियों के सशक्तिकरण से कोई सरोकार नहीं है बल्कि वे उन्हे और कमजोर और असुरक्षित बनाए रखना चाहते हैं ताकि उनको राज्य के खिलाफ अपने सशस्त्र संघर्ष के लिए लड़ाके आसानी से उपलब्ध हो सकें। अभी हाल में ही पत्रकार हृदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर[19] इस बात की प्रामाणिक पुष्टि करता है। इतिहासकार और माओवाद से संबन्धित उपन्यास रेव्यल्यूशन हाइवे[20] के लेखक दिलीप सिमियन लाल लकीर पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि, मध्य भारत में माओवादियों और पुलिस की बंदूक से बरसती गोलियां, नक्सलियों के जन अदालत, सरकार के बनाए सशस्त्र आरक्षक और विकास का बुलडोज़र- सब कुछ गरीबों को पीसता दिखता है

            लगातार बढ़ रही माओवादी हिंसा प्रशासन और विकास के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के लाखों लोग माओवादी हिंसा के साये में जीवन जीने को अभिशप्त हैं। अकेले वर्ष 2006 में विभिन्न राज्यों में 749 लोगों ने अपनी जान माओवादी हिंसा में गंवाईं[21]। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स (एसीएचआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 में 285 आम नागरिक तथा 135 सुरक्षा बल के जवानों की हत्या माओवादियों द्वारा की गई; 285 आम नागरिकों में 200 लोग अकेले छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा मारे गए[22]। 2005 से अबतक तीन हज़ार से ज्यादा आम नागरिक और दो हज़ार से ज्यादा सुरक्षा बल के जवानों ने माओवादी हिंसा में अपनी जान गंवाई है[23]। इन भौतिक दुखद परिणामों के अलावा माओवादी हिंसा के संरचनात्मक-हिंसा के परिणाम भी हैं। माओवादी हिंसा के परिणाम स्वरूप राज्य अपनी कल्याणकारी सेवाएँ नहीं दे पा रहा है। राज्य की ओर से मिलने वाली सेवाएँ, मसलन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली और पानी आदि, यहाँ के निवासियों तक नहीं पहुँच पा रहीं हैं। मानव-सुरक्षा के दोनों आयामों, भय से स्वतन्त्रता और भूख से स्वतन्त्रता के लिए माओवादी खतरा पैदा कर रहे हैं। अपनी विचारधारा को न मानने तथा उनके जन अदलतों में अपने तर्क रखने वालों को पुलिस मुखबिर बताकर मृत्यु कि सज़ा देकर लोगों में भय पैदा करने के साथ-साथ माओवादी लोगों की वंचना को और भी बढ़ा रहे हैं।      
सारणी संख्या-1
माओवादी संघर्ष के परिणाम, 2009-2016

2009
2010
2011
2012
2013
2014
2015
2016*
नागरिक मारे गए
391
626
275
146
159
128
93
65
सुरक्षा-बल मारे गए
312
277
128
104
111
87
57
35
माओवादी मारे गए
294
277
199
117
151
99
101
101
            *12 जून 2016 तक के आंकड़े
            2004 में माओईस्ट कम्यूनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और पीपुलस वार ग्रुप (पीडबल्यूजी) के आपस में मिल जाने के बाद माओवादी हिंसा में काफी तेज़ी आई। गृह मंत्रालय के आकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 में सबसे ज्यादा माओवादी हिंसा हुई थी (देखें सारणी संख्या-2)। आम नागरिकों के अलावा माओवादी जनसेवा सम्पत्तियों को भी व्यापक पैमाने पर नुकसान पहुँचते हैं, जिसमें स्कूल, अस्पताल, सड़क और रेलपथ शामिल है। माओवादियों रेल की पटरियों को नष्ट करते हैं; रेलवे कोच और स्टेशनों तथा सार्वजनिक परिवहन की बसों को आग के हवाले करते हैं; और सरकारी और निजी टेलीफोन नेटवर्क के दूरसंचार टावरों को नष्ट करते हैं[24]।  
सारणी संख्या-2
माओवादी हिंसा के परिणाम

2009
2010
2011
2012
2013
2014
2015
घटनाएँ
2258
2213
1760
1415
1136
1091
1088
नागरिक मारे गए
591
720
469
301
282
222
168
सुरक्षा-बल मारे गए
317
285
142
114
115
88
58
माओवादी मारे गए
220
172
99
74
100
63
89
                        स्रोत: गृह मंत्रालय, भारत सरकार
            निःसन्देह माओवादी जिन क्षेत्रों मे अपनी हिंसक कार्यवाही चला रहे हैं वे मुख्यधारा से कटे हुए अति पिछड़े और अल्पविकसित क्षेत्र हैं किन्तु उन क्षेत्रों में अपार खनिज और वन संपदा भी है। यहाँ भारत के सर्वाधिक गरीब लोग निवास करते हैं। यह बड़ा ही विरोधाभास है कि दुनिया के सबसे समृद्ध जमीन पर दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब लोग निवास करते हैं। (प्रचुरता और गरीबी दृष्टिकोण माओवादी हिंसा को समझने का एक नया दृष्टिकोण हो सकता है, जिसे किसी अन्य शोध-आलेख में विकसित किया जाएगा।) इन क्षेत्रों में आज़ादी के लगभग पाँच दशकों तक सरकार की पहुँच नहीं रही। यहाँ के निवासियों के लिए सरकार का मतलब पुलिस या वनाधिकारी होता था। नित्यप्रति राज्य का जो भी चेहरा इन आदिवासियों ने देखा वह क्रूर और शोषक ही रहा। सैकड़ों वर्षों से वनों पर आश्रित इन मूलनिवासियों का अब जंगल के उत्पादों पर कोई हक़ नहीं रहा। स्थानीय जमींदारों ने भी बंधुआ मजदूर के रूप में इनका खूब शोषण किया। इस राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता को माओवादियों ने भरा। आदिवासियों को उनके शोषण से मुक्ति दिलाने का वादा करने वाले माओवादी जल्दी ही उन्हें डरा-धमका कर राज्य के खिलाफ अपने नियोजित हथियार बंद युद्ध में धकेल दिये। आज राज्य और माओवादियों की बंदूकों से निकलने वाली गोली का पहला शिकार निर्दोष आदिवासी हो रहा है। सिविल-वार जैसी स्थिति में जीवन जीने को अभिशप्त इन आदिवासियों ने सलवा-जुड़ुम का खौफनाक दौर भी देखा। इस छ्द्म युद्ध में अगर कोई पिस रहा है तो वह है आदिवासी। माओवादी हिंसा के कारण बड़ी संख्या में आदिवासी उचित शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम हैं। उनकी जीवन प्रत्याशा राष्ट्रीय जीवन प्रत्याशा से बेहद नीचे है। बेरोजगारी और भुखमरी के शिकार इन आदिवासियों को इस स्थिति में ला खड़ा करने के लिए जिम्मेदार कौन है? यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर कहा जाएगा कि इनके सशक्तिकरण का दायित्व राज्य पर था और है। राज्य की उदासीनता को माओवादियों ने भरा जरूर लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के लिए। आदिवासियों के लिए न्याय और अधिकार को सुनिश्चित करने की लड़ाई लड़ने वाले अब न्यायी हत्यारों की भूमिका में हैं।    
संदर्भ सूची:



[1]आज का माओवादी आंदोलन उस वामपंथी अतिवादी आंदोलन से संबन्धित है जो कि मई 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गाँव में जमीदारों के शोषण के विरुद्ध किसानों के बगावत से उभरा था। चारु मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल इस आंदोलन के प्रथम पीढ़ी के प्रमुख विचारक और नेतृत्वकर्ता रहे। 1969 में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में हुए एक फूट के बाद इन तीनों नेताओं ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) [सी.पी.आई. (एमएल)] की स्थापना की जोकि मुख्य रूप से माओ के विचार, वर्ग शत्रु का समूल विनाश’, पर आधारित है। जुलाई 1972 में चारु की मृत्यु के बाद पार्टी में कई बार फूट पड़ी और अब बड़ी संख्या में वामपंथी अतिवादी पार्टियां अस्तित्व में हैं और सभी स्वयं को नक्सलबाड़ी का उत्तराधिकारी बताती हैं। किन्तु, भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) [सी.पी.आई. (माओवादी)] अखिल भारतीय पहुँच के साथ सबसे बड़ी वामपंथी अतिवादी पार्टी है और यह दावा करती है कि वह मई 1967 के नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की सच्ची उत्तराधिकारी है तथा जल, जंगल, ज़मीन, इज्ज़त और अधिकार के लिए उसकी लड़ाई भारत के अर्द्ध-औपनिवेशिक और अर्द्ध-सामंती राज्य-व्यवस्था से जारी है।  
[2] मुंडा आदिवासी जयपाल सिंह एक हॉकी खिलाड़ी भी थे। संविधान सभा के सदस्य के रूप में उन्होने आदिवासी समुदाय के मुद्दों को जोरदार ढंग से उठाया था।  
[3] जयपाल सिंह (19 दिसंबर 1946), कोन्स्टिटूएंट असेंबली डिबेट्स, अंक 1, पृष्ठ संख्या 143-4
[4] रामचन्द्र गुहा (11 अगस्त 2007), आदिवासी, नक्सलाइट्स एंड इंडियन डेमोक्रेसी, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, अंक 42, संख्या 32, पृष्ठ संख्या 3305-12
[5] वहीं
[6] अरस्तू, पॉलिटिक्स, किताब 5, अध्याय 1, गुटेनबर्ग ई-बूक कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित (05 जून 2009), अनुवादक विलियम एलिस, जे. एम. डेंट एंड संस, लंदन www.gutenberg.org
[7] सागर (29 जुलाई 2006), द स्प्रिंग एंड इट्स थंडर, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, अंक 41, संख्या 29, पृष्ठ संख्या 3176-78 
[8] तुलनात्मक वंचना सिद्धांत सामाजिक आंदोलन की व्याख्या का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके अनुसार लोग विद्रोह वह सबकुछ पाने के लिए करते हैं जो उस जैसे औरों के पास होता है और वे चाहते हैं कि वह सबकुछ उनके पास भी हो। इस क्रम में सामाजिक विद्रोह जन्म लेता है।
[9] टेड गर्र (1970) , वाइ मेन रेबेल, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन, पृष्ठ संख्या 24
[10] पहले माओवादी यह दावा करते थे कि वे जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन 21 से 27 सितंबर 2013 में पार्टी स्थापना दिवस समारोह में जारी पम्फलेट में इज़्ज़त और अधिकार दो और शब्द जोड़ दिए गए।
[11] सुमंता बनेर्जी (24 मई 2008), ऑन द नक्सलाइट मूवमेंट: ए रिपोर्ट विथ ए डिफ़्रेंस, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, अंक 43, संख्या 21, पृष्ठ संख्या 10-12  
[12] अजय गुड़ावर्थी (16 फरवरी 2013), डेमॉक्रेसी अगेन्स्ट माओइस्म, माओइस्म अगेन्स्ट इट्सेल्फ, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, अंक 48, संख्या 07, पृष्ठ संख्या 69-76
[13] अपूर्वानंद (2016), गांधी का आख़िरी ठिकाना, रोहित आज़ाद, जानकी नायर, मोहिंदर सिंह और मल्लारिका सिन्हा रॉय (संपादित), वॉट द नेशन रिएलि नीड्स टु नो: द जेएनयू नेशनलिस्म लैक्चर्स, जेएनयू टीचरस असोशिएशन, हार्पर कॉलिन्स पुब्लिशेर्स इंडिया, न्यू डेलही, पृष्ठ संख्या 150-161
[14] चारु मजूमदार (1967), इट इज़ टाइम टु बिल्ड अप ए रेवोलुशनरी पार्टी, लिबरेशन, सेलेक्टेड वर्क ऑफ चारु मजूमदार, मर्क्सिस्ट्स अर्काइव https://www.marxists.org/reference/archive/mazumdar/1967/11/x01.html (10-06-2016 को)
[15] वही
[17]  कानू सन्याल भी सशस्त्र संघर्ष को केवल भूमि तक सीमित नहीं बल्कि राज्य-सत्ता पर कब्जा करने के लिए मानते थे। कानू सन्याल (नवम्बर 1968), एन आर्मड स्ट्रगल- नॉट फॉर लैंड, बट फॉर स्टेट पावर, रिपोर्ट ऑन द पीजेंट मूवमेंट इन द तराई रीज़न, लिबरेशन, पृष्ठ संख्या 39  
[19] हृदयेश जोशी (2016), लाल लकीर, हार्पर कॉलिन्स पुब्लिशेर्स इंडिया, नई दिल्ली
[20] दिलीप सिमियन (2010), रेव्यल्यूशन हाइवे, पैंगविन बुक्स, न्यू डेलही 
[21] नक्सल कोन्फ़्लिक्ट इन 2006, ए रिपोर्ट ऑन नक्सलिस्म, बाइ एसीएचआर, 2007
[22] वही
[24] पी.वी. रमना (2011), इंडियास माओईस्ट इंसर्जेंसी: एवल्यूशन, करेंट ट्रेंड्स एंड रेस्पोंसेस, माइकल कुगेल्मेन (संपादित), इंडियाकोंटेम्पोरारी सेक्युर्टी चैलेंजेस, वूडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कोलर्स, वॉशिंग्टन, डीसी, एशिया प्रोग्राम, पृष्ठ संख्या 37 www.wilsoncenter.org  

[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के अंक 23 में आलेख प्रकाशित]

कोई टिप्पणी नहीं:

सामग्री के संदर्भ में अपने विचार लिखें-