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गीत चतुर्वेदी की कविताएँ


गीत चतुर्वेदी की कविताएँ

 निविद 
हमने साथ चलना शुरू किया था
हमने साथ रहना शुरू किया था
धीरे-धीरे मैं अलग होता चला गया
एक कमरा मैंने ऐसा बना लिया है
जहां अब किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है
जो भी इसे पढ़े, कृपया इसे आरोप नमाने
यह महज़ एक आत्म-स्वीकृति है
उससे दूर रहो जिसमें हीनभावना होती है
तुम उसकी हीनता को दूर नहीं कर पाओगे
ख़ुद को श्रेष्ठ बताने के चक्कर में वह रोज़ तुम्हारी हत्या करेगा
मैं समंदर के भीतर से जन्मा हूं
लेकिन मुझे सी-फूड वाले शो-केस में मत रखना
बुरादे में बदले दूध की तरह रहूंगा तुम्हारी आलमारी में
जब जी चाहे घोलकर पी जाना
द्रव में बदला हुआ प्रकाश हूं
तुम्हारी नाभि मेरे होने के द्रव से भरी है
मैं सूखकर कस्तूरी बन गया
सांस की धुन पर गाती है मेरी आत्मा
मेरा हृदय घड़ी है स्पंदन तुम्हारे प्रेम की टिक-टॉक
तुम्हारे बालों की सबसे उलझी लट हूं
जितना खिंचूंगा उतना दुखूंगा
इस देश के भीतर वह देश हूं मैं जो हज़ारों साल पहले खो गया
इस देह के भीतर वह देह हूं मैं जो हर अस्थि-कास्थि को खा गया
तुम जागती हो निविद जागता है
तुम दोनों के साथ सारे देव जागते हैं
रात-भर चूमता रहता तुम्हारी पलकों को नींद के होंठों से
रात-भर तुम्हारी हथेली पर रेखता रहा
सिलवटों से भरा है तुम्हारी आंख का पानी
फेंके हुए सारे कंकड़ अब वापस लेता हूं
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कवि हूं मैं, उम्मीद का बेटा हूं
वान गॉग का कटा हुआ कान
मेरे सीने में दिल बनकर धड़कता है
उस कान से सुनता हूं मैं
दुनिया की बारीक से बारीक आवाज़
जो कि उम्मीद की आवाज़ हो
मेरी मां की आवाज़
और दौड़कर उस आवाज़ से लिपट जाता हूं
किसी साज़ के जैसे.
किसी बछड़े की मानिंद.
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कविता का प्रतिबिंब 


हममें इस तरह का जुड़ाव था 
कि आंखें अलग-अलग होने के बाद भी 
हम एक ही दृष्टि से देख सकते थे 
इसीलिए ईश्‍वर ने हमें जुड़ने का मौक़ा दिया 

हम इस क़दर अलग थे 
कि एक ही उंगली पर 
अलग-अलग पोर की तरह रहते थे 
इसीलिए ईश्‍वर ने हमें अलग कर दिया 

हम जुड़े 
इसका दोष न तुम्‍हें है न मुझे 
हम अलग हुए
इसका श्रेय न तुम्‍हें है न मुझे 

ऐसे मामले में 
ईश्‍वर को मान लेने में कोई हर्ज नहीं 
जी हल्‍का रहता है

हम जुड़वा थे 

हममें से एक तालाब किनारे लेटी देह था 
और दूसरा पानी से झांकता प्रतिबिंब 

देह ने पानी में कूदकर जान दे दी. 
प्रतिबिंब उछलकर पानी से बाहर निकला
और मर गया. 

दीग़र है यह 
कि हम कभी तय नहीं कर पाए 
कौन देह थाकौन प्रतिबिंब. 
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बांसुरी


छिपकली में बचा रहता है मगरमच्‍छ
मगरमच्‍छ में बचा रहता है डायनासोर 
जंगली भेडि़यों के अंश घरेलू कुत्‍तों में
1700 साल पुराना एक कवि 17 साला युवा कवि में 

जो अधूरा छूट जाता हैसिर्फ़ वही होता है संपूर्ण
जो बिछड़ गए अधराहवही हमसफ़र होते हैं 
यह लिखकर मैं बोर्हेस को याद करता हूं 
जैसे कोई बिरहन अपने पी को याद करती हो

महसूस करता हूं
संपूर्ण को स्‍वल्‍प में संरक्षित किया जा सकता है 

मैं अपने भीतर के पशु को कभी सुला नहीं पाया 
मुझमें हिंसा भरी हुई थी मैं हिंसा का शमन नहीं कर पाया 
मेरे शब्‍दों की हिंसा से तुम्‍हें चोट लगा करती थी 
मैंने चुप्‍पी की हिंसा अपना ली

विकल्‍प सिर्फ़ इतना होता है जीवन में 
कि एक हिंसा को त्‍याग दूसरी हिंसा चुनी जा सके 

जीवन से जो लोग गएवे सब हवा बन गए
अब मेरी बांसुरी के छिद्रों से कभी-कभी बाहर झांकते हैं.
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ख़ुशियों के गुप्‍तचर


एक पीली खिड़की इस तरह खुलती है 
जैसे खुल रही हों किसी फूल की पंखुडि़यां. 

एक चिडि़या पिंजरे की सलाखों को ऐसे कुतरती है 
जैसे चुग रही हो अपने ही खेत में धान की बालियां.

मेरे कुछ सपने अब सूख गए हैं 
इन दिनों उनसे अलाव जलाता हूं 

और जो सपने हरे हैं 
उन्‍हें बटोरकर एक बकरी की भूख मिटाता हूं 

मेरी भाषा का सबसे बूढ़ा कवि लाइब्रेरी से लाया है मोटी किताबें 
चौराहे पर बैठ सोने की अशर्फि़यों की तरह बांटता है शब्‍द

मेरे पड़ोस की बुढि़या ने ईजाद किया है एक यंत्र जिसमें आंसू डालोतो 
पीने लायक़ पानी अलग हो जाता हैखाने लायक़ नमक अलग.

एक मां इतने ममत्‍व से देखती है अपनी संतान को 
कि उसके दूध की धार से बहने लगती हैं कई नदियां 

जो धरती पर बिखरे रक्‍त के गहरे लाल रंग को 
प्रेम के हल्‍के गुलाबी रंग में बदल देती हैं. 
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गैंग
अलग-अलग जगहों से आए कुछ लोगों का एक गैंग है
इसमें पान टपरी पर खड़े शोहदे हैं,
मंदिरों-मस्जिदों पर पेट पालते कुछ धर्मगुरु हैं,
कुछ लेखक हैं, थोड़े अजीब-से लगने वाले रंगों का
प्रयोग करने वाले कुछ चित्रकार और
हर ख़बर पर दाँत चियार देने वाले कुछ पत्रकार
नाक पर चश्मा चढ़ाए बैठे मैनेजर हैं जो
हर बात में ढूंढ ही लेते हैं बाज़ार
कुछ बहुत रचनात्मक क़िस्म के लोग हैं
जो बताते हैं ठंडे की बोतल का एक घूँट सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है
कुछ बड़े ही दीन-हीन क़िस्म के हैं
चौबीस घंटे जिनकी चिंता का मरकज़ अरोड़ा साहब की सेलरी है
कुछ लोग सातों दिन बड़े प्रसन्न रहते हैं
और समझ में नहीं आता कि दुनिया में दुख क्यों है
और कुछ की ख़ुशी केवल वीकेंड में आती है
चिकने गालों और मजबूत भुजाओं वाले कुछ नट हैं
एक ख़ास ढब वाली स्त्रियाँ हैं जिनके घरों में रोते हुए शिशु नहीं होते
जो टारगेट पर दागी गई मिसाइल की तरह सीधे आ गिरते हैं
कइयों के पास दुनिया को व्यवस्थित करने के हज़ारों फंडे हैं
कुछ लोगों के होठों पर शिवानंद स्वामी के काव्य बराबर रहते हैं
और कुछ लोगों के गले में कुमार शानू के गीत

यह गैंग अपने समय की बड़ी प्रतिभाओं का प्लेटफॉर्म नंबर वन है
यह गैंग किसी भी हँसते-खेलते देश के सीने पर सवार हो जाता है
और किसी भी अंगड़ाती नदी पर डंडा मार उसे छितरा सकता है
यह गैंग मुझे जितनी बार बुलाता है
मेरा दिल धक् से रह जाता है
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पोस्टमैन
[निर्वासन के दिनों में एक छोटे द्वीप पर नेरूदा के साथी के लिए]

अपने कमरे में लेटा पोस्टमैन है
जो नेरूदा को पहुँचाता था डाक
हालाँकि उन्हें गए अरसा बीत गया
जैसे आवाज़ करती है सुने जाने का इंतज़ार
और भटकती है हवा में अनंतकाल तक
जैसे दृश्य से जुड़ा होता है दृष्टि का इंतज़ार
घर से निकली बेटी का माँ करती है जैसे
वैसी ही बेचैनी
जिसे वह सर्द रात में ओढ़ लेता है
और तपते दिन में झल लेता है

क्या सोचा होगा महाकवि ने
जब पोस्टमैन ने की होगी जि़द
कि लिख दें वह उसकी प्रेमिका के लिए एक कविता
जिसे वह कहेगा अपनी
कि आपके पास इतनी महिलाओं की चिट्ठी आती है
कि मेरा भी मन करता है कवि बन जाऊँ

नेरूदा के भीतर जागा होगा पिता
साँसों से दुलारा होगा उसे
और उंगली थमा ले गए होंगे समंदर तक
उसे बताया होगा कि सपनों को सपनों की तरह ख़ारिज मत करो
जंगल से मिलो तो हरी पत्ती बनकर
पानी से बन चीनी का दाना
लकड़ी से काग़ज़ और मनुष्य से संगीत बनकर

और जीवन में प्रवेश कर गए होंगे
उसके जीवन में एक सूना डाकख़ाना छोड़

वह कर रहा है इंतज़ार जीवन के पार
हरियाली मिठास शब्द और सुर की अर्घ्य देता

वह क्या है जो इस कमरे में नहीं है
जिसके लिए ख़ाली है जगह
इस किताब में नहीं जो छोड़ दिया एक पन्ना सादा
इस कैसेट में जिसके एक ही तरफ़ आवाज़ है
इस शरीर में जिसके मध्य खाई-सी बन गई है
इस शख़्स में जो थकान के बाद भी भटकता है बिस्तर पर
भीतर कहीं टपकता है जल या आँख का नल

जिसके पास रोज़ गट्ठरों में पहुँचती हो चिट्ठी
वह क्यों नहीं देता उसकी चिट्ठी का जवाब
वह जागेगा तब तक सो चुकी होगी दुनिया
फिर वह अपनी अनिद्रा में कसमसाएगा

चाय हमेशा तभी क्यों उबलती है
जब आप किचन में नहीं होते
पंक्तियाँ तभी क्यों आती हैं
जब आपके पास क़लम नहीं होता
लोग तभी क्यों लौटकर आते हैं
जब आपका बदन नहीं होता

पोस्टमैन
तुम्हें नसीब हुआ निर्वासन के सबसे गुप्त द्वीप पर 
दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत उंगलियों का साथ
तुमने सहेजकर रखी उस चिडि़या की आवाज़
रिकॉर्डर में डाला लहरों का कलरव
उस धुन को जो कँपाती थी नेरूदा के होंठ
और सबसे अंत में जो तुम्हारी आवाज़ थी
उसमें तुम्हारी उम्मीद को सुना जाना चाहिए

महाकवि जब मरे
तो उनके दिल में एक खाई बन गई थी
लोगों ने कहा
यह उनके देश में लोकतंत्र की मृत्यु के कारण बनी
उनकी सबसे प्यारी चिडि़या के पंख नुँच जाने के कारण
दरअसल
एक अन्याय से हुआ था वहाँ विस्फोट
और उतना टुकड़ा प्रायश्चित कर रहा है
पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए
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सभ्यता के खड़ंजे पर
[बॉब डिलन के गीतों के लिए]

और उस आदमी को तो मैं बिल्कुल नहीं जानता
जो सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ हाथों में कड़ों की पूरी बटालियन
आठ उंगलियों में सोलह अंगूठी
गले में लोहे की बीस मालाएँ
और हथेली में फँसाए एक हथौड़ी
कभी भी कहीं भी नज़र आ जाता था

जिसे देख भय से भौंकते थे कुत्ते
लोगों के पास सुई नहीं होती थी
सिलने के लिए अपनी फटी हुई आँख
जो पागलपन के तमाम लक्षणों के बाद भी पागल नहीं था
जो मुस्करा कर बच्चों के बीच बाँटता था बिस्कुट
बूढ़ी महिलाओं के हाथ से ले लेता था सामान
और घर तक पहुँचा देता था
और इस भलमनसाहत के बावजूद उनमें एक डर छोड़ आता था

वह कितना भला था
इसके ज़्यादा किस्से नहीं मिलते
वह कितना बुरा था
इसका कोई किस्सा नहीं मिलता
जबकि वह हर सड़क पर मिल जाता था 

वह कौन-सा ग्रह था 
जो उसकी ओर पीठ किए लटका था अनंत में 
जिसे मनाने के लिए किया उसने इतना सिंगार
वह कौन-सी दीवार में गाड़ना चाहता था कील
पृथ्वी के किस हिस्से की करनी थी मरम्मत
किन दरवाज़ों को तोड़ डालना था
जो हर वक़्त हाथ में हथौड़ी थामे चलता था

जिसके घर का किसी को नहीं था पता
परिवार नाते-रिश्तेदार का
जिसकी लाश आठ घंटे तक पड़ी रही चौक पर 
रात उसी हथौड़ी से फोड़ा गया उसका सिर
जो हर वक़्त रहती थी उसके हाथ में

जो अपनी ही ख़ामोशी से उठता है हर बार
कपड़े झाड़कर फिर चल देता है

उसके तलवों में चुभता है इतिहास का काँटा
उसके ख़ून में दिखती है खो चुकी एक नदी
उसकी आंखों में आया है
अपनी मर्जी से आने वाली बारिश का पानी
उसके कंधे पर लदा है कभी न दिखने वाला बोझ
उसके लोहे में पिटे होने का आकार
उसके पग्गड़ के नीचे है सोचने वाला दिमाग़
सोच-सोचकर दुखी होने वाला

वह कब से चल रहा है
चलता ही जा रहा है
सभ्‍यता के इस खड़ंजे पर 
उसे करना होगा कितना लंबा सफ़र 
यह जताने के लिए कि वह मनुष्य ही है
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