अभिव्यक्ति की आज़ादी का दायित्व और क़ीमत: डॉ. मोहसिन ख़ान
अभिव्यक्ति की आज़ादी का दायित्व और क़ीमत
डॉ. मोहसिन ख़ान
जब कभी मनुष्य ने इस धरती पर अपना अस्तित्त्व पाया होगा, तब से लेकर वर्तमान
तक की जीवन-यात्रा में उसने अपनी अभिव्यक्ति के लिए आदिकाल से नए-नए साधनों, माध्यमों की खोज की, जिनमें सबसे उपयोगी
और कारगर माध्यम ध्वन्यात्मक (वाक्) माध्यम ही नज़र आता
है। इसका कारण यह है कि इसकी अभिव्यक्ति का सीधा संप्रेषण, ग्रहण और प्रभाव अन्य
माधायमों से कहीं सहज, बेहतर और शीघ्रता से युक्त है। मनुष्य के जीवन-संघर्ष के अनंतर उसके अवकाश
के कालों में फिर चित्र, लिपि और अन्य अभिव्यक्ति के साधनों ने अपना स्थान पाते हुए अभिव्यक्ति के
नए द्वार खोले। अभिव्यक्ति मनुष्य के हर समय में जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता रही
है, लेकिन वही आवश्यकता आज
चुनौती बनकर उसी मनुष्य के समक्ष खड़ी है। अभिव्यक्ति ने जहां संसार के आपसी
व्यवहार को सरलता, सुगमता, वैचारिक-भावनिक आधार प्रदान किए, वहीं आज उन आधारों पर दरारें दिखाई दे रही हैं। ऐसी अवस्था में हमारे समय
में पुनः इस बात पर सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि क्या अभिव्यक्ति की
स्वतन्त्रता आज हमारे लिए एक ख़तरा या चुनौती बन गई है? इसके तहत आज फिर से इस बात के पुनर्मूल्यांकन होने की आवशयक्ता बन गई है कि
अभिव्यक्ति किस तरह की हो, अभिव्यक्ति की इतिवृतात्मकता किस सीमा तक हो, अभिव्यक्ति किसके लिए हो, अभिव्यक्ति कब और कहाँ हो, अभिव्यक्ति कितनी सार्थक हो, अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध हो या न हो, अभिव्यक्ति आज स्वतंत्र है या स्वछंद, अभिव्यक्ति की दिशा क्या हो, अभिव्यक्ति का संतुलन क्या हो, अभिव्यक्ति में दायित्व-बोध है या नहीं, अभिव्यक्ति की क़ीमत क्या है, ऐसे बहुत से प्रश्न वर्तमान में अभिव्यक्ति के सही मूल्यांकन की मांग कर
रहे हैं। अभिव्यक्ति हो ये तो बहुत ज़रूरी है, लेकिन उसके साथ दायित्व का बोध हो ये उससे भी अधिक ज़रूरी है। आज बोलने की
आज़ादी ने अधिकार की शक्ल में एक हथियार का रूप धरण कर लिया है, यदि ये हथियार बन गया
है, तो अवश्य कुछ गलत भी
इस्तेमाल किया जा सकता है। गलत इस्तेमाल न हो इसका दायित्व किसका है, सीधी सी बात है, जो अपने अधिकारों का
इस्तेमाल कर रहा है उसी का दायित्व है कि वह क्या अभिव्यक्त कर रहा है और कैसे
अभिव्यक्त कर रहा है। अगर सत्य अभिव्यक्त कर रहा है, तो अवश्य निर्णय और परिणाम भी उसी के हक़ में होंगे और यदि वह अनुचित, अहितकर और विरोध के
लिए विरोध की अभिव्यक्ति दे रहा है, आरोपों-प्रत्यारोपों के तहत झूठी अभिव्यक्ति दे रहा है, तो उसकी क़ीमत भी उसे
ही चुकानी होगी। साथ ही इस बात पर भी गौर करना होगा कि सत्य की अभिव्यक्ति के लिए
कई प्रतिभाओं, वैज्ञानिकों, विचारकों, लेखकों, कलाकारों को अपनी जान तक की क़ीमत लगानी पड़ी। वास्तव में ऐसी क़ीमत बहुत बड़ी
और भारी क्षति से युक्त होती है, जिसकी भरपाई किसी भी राष्ट्र के लिए नामुमकिन है।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ आज बहुत स्पष्ट है कि किसी सूचना, भाव या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी भी कलात्मक, यांत्रिक, माध्यमों से बिना किसी व्यवधान के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अनर्गल जो भी अभिव्यक्त किया जाए वह
सब अभिव्यक्ति ही है। यदि वह समाज-सापेक्ष या समाज-हित से न जुड़ा हो तो फिर वह
अभिव्यक्ति नहीं बल्कि वह एक प्रमाद है। उसका दायरा कुछ और है, उसकी दिशा कुछ और है। इसलिए भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
साथ उसकी सीमा अथवा दायरा भी तय करता है। भारतीय दण्ड संहिता की
धारा 499 और 500 में मान हानि को
दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। वैसे सबसे पहले मानवीय सामज के समक्ष प्रश्न आता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी
सबको समान रूप से मिलना चाहिए और इसकी उपलब्धता भारतीय संविधान कराता है। भारत के
संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। राजनीतिक दृष्टि से
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अब व्यक्ति का अधिकार है, लेकिन समय और परिस्थितियों के अनुरूप इसपर भी प्रतिबंधों का प्रावधान
संविधान में वर्णित है। इसीलिए कई बार अभिव्यक्ति पर लगाम भी कसी गई और अधिकारों का
हनन भी किया गया; उसके पीछे देश की वर्तमान दशा का, विशेष परिस्थितियों, संकट का होना लाज़मी था। अभिव्यक्ति पर
प्रतिबन्ध से अभिव्यक्ति और तीव्र, सूक्षम, संवेदनशील और धारदार
हो जाती है। विश्व में जब भी अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाए गए तब अभिव्यक्ति का
स्वर और भी दमदार एवं संप्रेषणीय रहा। अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध के मायने मानवीय
समाज को एक बूचड़खाने में घेर देने जैसा है, जिसमें बेतहाशा भीड़
हो और चारों ओर अनसुलझी, असपष्ट, पीढ़ित आवाज़ें हों और
उसे सुननेवाला वहाँ कोई भी न हो।
अभिव्यक्ति की आज़ादी ने वर्तमान में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
का वास्तविक अर्थ और अभिव्यक्ति का दायित्व का बोध धीरे-धीरे खो दिया है। अभिव्यक्ति
के लिए वास्तव में व्यक्ति को बहुत जिम्मेदार और गंभीर होना होगा, कुछ भी अभिव्यक्त कर देना में अभिव्यक्ति नहीं
बल्कि भड़ास है। भड़ास कभी भी सही दिशा को तय नहीं करती और न ही उसके परिणाम सुखद
होते हैं,
इसलिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ती है, कि जो भी अभिव्यक्त किया जा रहा है, वह किस तरह की मांग, समस्या और आधार को दर्शाता है। क्या उसकी बात समाज-हित
की है, क्या उसकी अभिव्यक्ति समाज सापेक्ष है। यदि समाज
सापेक्ष है और करगार है,
तो अवश्य वह अभिव्यक्ति की आज़ादी का सदुपयोग कर रहा है और ठीक इसके विपरीत है, तो वह दुरुपयोग द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी को एक
धारदार हथियार के रूप में प्रयोग में ला रहा है। आखिर व्यक्ति समाज में रहा रहा है, तो उसका दायित्व स्व से अधिक समाज सापेक्ष होना
ज़रूरी हो जाता है। यदि वह अभिव्यक्ति के नाम पर अनुचितता, हिंसा,
वैमनस्यता,
असहिष्णुता,
असमानता,
झूठे अतार्किक बयान,
झूठे तथ्य को सामने ला रहा है;
तो ये कोई भी कदापि स्वीकार न कर पाएगा कि उसकी अभिव्यक्ति
सार्थक और सही है और उसे अधिक बोलने दिया जाए। अक्सर समाज में देखा भी गया है कि
समाज ने अभिव्यक्ति की सनक में अच्छे लेखकों, चित्रकारों, कलाकारों, वक्ताओं को भी आलोचना के घेरे में लिया है और यहाँ
तक कि उन्हें देश निकाला भी दिया है। कभी-कभी कलाकारों में अभिव्यक्ति की सनक भी
पैदा होती है और वह समाज की सामाजिक,
धार्मिक-सांप्रदायिक आस्थाओं के विरुद्ध अपनी अभिव्यक्ति देते हैं, नतीजा यह होता है कि उनपर दोहरे दबाव से समाज और
राष्ट्र का कड़ा नियंत्रण उपस्थित हो जाता है। इसके दायरे में चित्रकार मक़बूल फ़िदा
हुसैन, लेखिका तसलीमा नसरीन और लेखक सलमान रुशदी आ चुके
हैं। वास्तव में समाज के एक बहुत बड़े समुदाय ने इन्हें नकार दिया है भले ही ये
प्रगतिशील होने का दावा अपनी वैचारिक,
मानसिक और भावनिक अवस्था पर करते रहें। मक़बूल फ़िदा हुसैन ने अपनी अभिव्यक्ति की
क़ीमत अपनी सरज़मीं से दूर रहकर चुकाई उन्होंने अपनी अंतिम श्वांस विदेश में ही ली।
अभिव्यक्ति की
स्वतन्त्रता सबकी बराबर है, लेकिन प्रतिबन्ध कई
दशाओं में अपरिहार्य हो जाते हैं। बोलना आज़ादी का प्रतीक बन चुका है चुप रहना
गुलामी, अत्याचार सहन करने का
प्रतीक बन चुका है, लेकिन कब और कितना
बोला जाए ये बहुत महत्व की बात है। आज़ादी हो लेकिन बहुत आज़ादी भी खतरे का रूप धरण
कर लेती है, क्योंकि कई मुद्दों
पर संवेदनात्मक अभिव्यक्ति समाज में कई खतरे भी उत्पन्न कर देती है। ऐसी स्थिति
में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण होना भी ज़रूरी प्रतीत होता है। वह इसलिए कि
राष्ट्र प्रमुख है, उसकी शांति, अखंडता, एकता, समन्वय, संप्रभुता को जहां
खतरा होगा; तो नियंत्रण की मांग
वास्तव में प्रबल होनी चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते सबको इस बात का
बहुत ध्यान रखना चाहिए कि हमरी अभिव्यक्ति किसी खतरे को तो जन्म नहीं दे रही है, कोई हमारी अभिव्यक्ति
से आहत तो नहीं हो रहा है, किसी की अस्थाओं को
चोट तो नहीं पहुँच रही है। जब इस अवस्था का बोध भीतर जागेगा तब ही व्यक्ति को
अभिव्यक्ति की आज़ादी के सही अर्थों का पता चल सकेगा। लोकतन्त्र की सफलता इस बात पर
निर्भर है कि वह नागरिकों को किस प्रकार से उन्नति, विकास का अवसर देते
हुए अपनी बात प्रस्तुत करने का भी अवसर देती है। इस दृष्टि से अभिव्यक्ति के साथ
नैसर्गिक अभिव्यक्ति को जोड़कर देखना आवश्यक हो जाता है। या नैसर्गिक अभिव्यक्ति
राजनीतिक, सामाजिक दायित्व के
बोध के साथ उभरती है। सही विचार जब सही दिशा में अभिव्यक्त किए जाएंगे तो उसपर
सबका ध्यान जाएगा, इसलिए ज़रूरी है कि
उसकी दिशा भी तय हो। नैसर्गिक अभिव्यक्ति इसी के संदर्भ में देखी जा सकती है, वह वास्तव में संतुलन
से युक्त और कारगर सिद्ध होगी। अभिव्यक्ति पर भी कुछ नियमों का अंकुश होना ज़रूरी
है, यदि नियम और क़ानून न
होंगे तो वह अनैतिक होते हुए मानवीय समाज का भविष्य ख़तरे में ला सकती है। वर्तमान
में अभी कुछ माह पूर्व जे.एन.यु के प्रकरण में कन्हैया पर अभिव्यक्ति के दायरे
तोड़ने के आरोप लगे, अभिव्यक्ति के विषय
में सरकार संवेदनशीलल नज़र आई, न्यायपालिका ने भी
अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमारेखा क्या है; उसकी चेतावनी दी। इस
बात से स्पष्ट होता है कि अभिव्यक्ति के नाम पर कहीं-न-कहीं राष्ट्र को संवेदनशील
होकर बोलने की आज़ादी को अपने नियंत्रण में रखना होगा, लेकिन इतने नियंत्रण
में भी न रखा जाए कि बोलने की आज़ादी ही समाप्त कर दी जाए। इसलिए बहुत ज़रूरी हो
जाता है कि बोलनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए संतुलन हो। ये संतुलन न तो सरकार
तय कर पाएगी, न कोई एजेंसी, न कोई संस्था। यह
संतुलन तो खुद नागरिकों को पैदा करना होगा, वह भी एक दायित्व बोध
के साथ। देश का नेतृत्व कर रहे शासकों में भी अक्सर ऐसे संतुलन बिगाड़ उत्पन्न कर
रही है, उनकी अभिव्यक्ति मे
विकारों की दशाओं होना साफ नज़र आता है। कभी संप्रदाय, धर्म और संस्कृति
पुनरुत्थान के नाम पर अनर्गल बयान दिये जाते हैं, आरोपों-प्रत्यारोपों
की बारिश की जाती है, जिससे राष्ट्र की
धार्मिक-सांप्रदायिक अखंडता के दायरे टूटते हैं और परिणाम स्वरूप हिंसा अपना सिर
उठती है। जब राष्ट्र, धर्म-संप्रदाय के
नेतृत्व कर रहे लोगों को अपनी अभिव्यक्ति का सही बोध न होगा; तो फिर ऐसी दशा में देश
के किन व्यक्तियों/नागरिकों इस संदर्भ में आशा रखी जा सकेगी। अभिव्यक्ति की
सावतंत्रता का यह अर्थ कभी नहीं लिया जाना चाहिए कि हम अपनी अभिव्यक्ति से विखंडन
पैदा करके अपने जातिगत, धार्मिक, संगठन के हितों को
साध लें। सदा इस बात का भीतर बोध होना चाहिए कि राष्ट्र की अखंडता, संप्रभुता और उसके
कानून सर्वोपरि हैं। भारत में तो अक्सर देखने में आता है कि नेतृत्वशील
व्यक्तित्त्व जो भी तरह-तरह ज़हर सार्वजनिक मंचों से उगल रहा है, उसके समर्थन में
लाखों अंध-भक्त जमा होकर दिशाहीन आंदोलनों और मांगों का जमावड़ा लिए सड़कों पर उतरकर
हिंसा कर रहे हैं। इसका परिणाम देश की आमजनता को भुगतना पड़ रहा है। गैरजिम्मेदार अभिव्यक्ति ने सदैव समाज, राष्ट्र के लिए खतरों को उत्पन्न किया है, यदि इस प्रकार की बोलने की आज़ादी पर नियंत्रण न हुआ, तो अवश्य भविष्य में एक बड़ा ख़तरा देश और समाज में उपस्थित हो जाएगा। देश और समाज में एक
तरफ वे व्यक्तित्त्व भी हैं, जो अंधविश्वासों, असत्यता, अन्याय से संघर्ष
करते हुए समता, न्याय और सत्यता की
अभिव्यक्ति तथा स्थापना में खतरे उठाकर अपनी जान की बाज़ी तक लगा देते हैं। ऐसे
व्यक्तित्त्व नरेंद्र दाभोलकर को यहाँ याद किया जा सकता है, जो अपनी अभिव्यक्ति
पर अपनी जान 20 अगस्त 2013 को गवां बैठे।
उन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाए। धार्मिक, सामाजिक अंधविश्वासों
को तोड़ने के संकल्प और बोलने की आज़ादी का प्रारम्भ से वैश्विक मानवीय समाज में
टकराव और प्रतिबंधनों का कड़े रूप में होना देखा जा सकता है, इस अभिव्यक्ति के
ख़तरों ने विश्व के कई विचारकों, वैज्ञानिकों, दर्शनिकों, रचनाकारों के प्राण
लिए हैं। ऐसी अवस्था में ख़तरों को अभिव्यक्ति के उठाने और उसके नियंत्रण को तोड़ना
प्रशंसनीय और सार्थक है, क्योंकि वहाँ बोलने
की आज़ादी के साथ दायित्व का बोध, समाज, राष्ट्रोत्थान भी है
साथ ही सत्य की अभिव्यक्ति भी मौजूद है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सबसे बड़ा हमला
फ्रांस में व्यंग्य और हास्य की अग्रणी पत्रिका 'शार्ली एब्डो' पर हुआ। 'शार्ली एब्डो' के पत्रकारों की हत्या
की भारत में हर तरफ़ निंदा की गई। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जब भी कहीं
कुठाराघात होता है, उसके पीछे सदैव
बौद्धिक वर्ग पिसता हुआ दिखाई देता है। इसी कारण राष्ट्र बेहतर विचारकों को खो
देता है और अभिव्यक्ति को संरक्षित नहीं कर पाता है।
बोलने की आज़ादी और
दायित्व के संबंध में वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा सोशल मीडिया की भी इस
संदर्भ में पड़ताल होनी चाहिए कि क्या अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम पर कोई नियंत्रण
है क्या? क्या इस नव माध्यम को
भी दायित्व से अलग कर ख़तरों को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा? इसी ख़तरे को देखते
हुए साइबर लॉ देश के कानून में जोड़ा गाय। इसके तहत सन 2000 के सूचना प्रौद्योगिकी
अधिनियम में धारा 66-ए को जोड़ा गया है। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप, ऑडियो, वीडियो के संचार
माध्यमों इत्यादि पर आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति दे रहा है, लेकिन इस अभिव्यक्ति
के साथ दायित्व का बोध होना बेहद ज़रूरी प्रतीत हो जाता है। वर्तमान में वीडियो के
वाइरल होने और उनके सच भी सामने आए हैं। यदि सोशल मीडिया में इस प्रकार की
अराजकताएँ आ जाएंगी तो समाज और राष्ट्र को खतरा होना ही है, इसलिए कानून बने इससे
पहले हर नागरिक का दायित्व बनता है कि न तो इस प्रकार की अभिव्यक्ति को वह महत्व
दें और न ही उससे जुड़े रहें, क्योंकि विवेकपूर्ण
अभिव्यक्ति ही वास्तविक अभिव्यक्ति के अंतर्गत देखी जा सकती है। सोशल मीडिया पर
प्रतिबंध के लिए पुलिस को ये अधिकार 2015 में दिये जाने तय किए गए थे, कि यदि उसे किसी पर
शक होता है तो वह सीधे कार्यवाही करके उसे गिरफ्तार कर पूछताछ करते हुए दंडात्मक
कार्यवाही कर सकती है, लेकिन एक याचिका के
तहत सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी व्यवस्था को खारिज कर दिया। यह ठीक भी हुआ यदि
अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ इस प्रकार का अंकुश लग जाता तो अवश्य ही अभिव्यक्ति को
बहुत बड़ा संकट का सामना करना पड़ता और इस कानून के दुरुपयोग की आशंकाएँ भी वृहत हो
जातीं। सर्वोच्च न्यायालय का अभिमत है कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन
कायम करना सरकार का कर्तव्य है। सरकारें स्वयं इसकी व्यवस्था करें कि यह काम कैसे
किया जाए, लेकिन कानून का भय
दिखाकर बोलने की आजादी पर प्रतिबंध लगाना संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त वैचारिक
अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है। लेकिन यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि सारी
ज़िम्मेदारी सरकार ही वह करेगी, देश के नागरिक क्यों
न ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करेंगे। बोलने की आज़ादी की जितनी चुनौती सरकार के लिए
है उतनी चुनौती नागरिकों के लिए भी है। सोशल मीडिया को सरकार किस हद तक काबू में
लाये यह निश्चित करना बहुत ही कठिन है, इसलिये साइबर एक
चुनौती बनकर आज सामने खड़ा है। साइबर की स्वछंदता ने इस क्षेत्र में बहुत कुछ
असंतुलन उत्पन्न कर दिया है, सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं
का स्वयं का दायित्व बनता है, कि वह अपने कर्तव्य
को समझे, औचित्य के बोध को बनाए रखें, अपनी बात विवेक सम्मत
रखें। अपनी अभिव्यक्ति को नैसर्गिक रखते हुए मर्यादा, और बंधनों का पालन भी
करें। आखिर स्वतन्त्रता है, तो बंधनों का होना भी
बहुत ज़रूरी है, यदि अभिव्यक्ति पर
थोड़ा भी अंकुश न होगा तो उसकी सार्थकता समाप्त हो जाएगी। इसलिए क़ानूनों के पालन की
बात बहुत वाजिब और ज़रूरी दिखाई देती है। बोलने की आज़ादी का यह मज़ा तभी सार्थक कहा
जा सकता है जबकि सोशल मीडिया या साइबर जगत, सार्वजनिक स्थल, मंच इत्यादि माध्यमों
में व्यक्ति अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए संवेदनशीलता को समझें और अभिव्यक्ति
प्रदान करें। बोलने की आज़ादी कभी भी विध्वंसवादी न होकर समन्वयवादी हो तो बेहतर है, राष्ट्र के नागरिकों
के भीतर बोध रहे कि वह क्या अभिव्यक्त कर रहे हैं, किस प्रकार अभिव्यक्त
कर रहे हैं। यदि अभिव्यक्ति का दायरा सही है, नैसर्गिक है, संतुलित है, सार्थक है तो अवश्य
ही बोलने की आज़ादी का सही इस्तेमाल हो रहा है।
डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम.महाविद्यालय,
अलीबाग-402 201
ज़िला-रायगड़-महाराष्ट्र
मोबाइल-09860657970
[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के मई-जून 2017 अंक में प्रकाशित]
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