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“ममता कालिया: ‘दुक्खम सुक्खम’ में चित्रित यथार्थ”: वंदना शर्मा



                                “ममता कालिया: ‘दुक्खम सुक्खम’ में चित्रित यथार्थ”                 

                                                                    वंदना शर्मा
                                                         शोधार्थी- हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय,हैदराबाद
                        पिनकोड़ न. 500046
                                                                        मेल- vandanahcu@gmail.com
                                                                        मो. 9460906022

       ‘दुक्खम सुक्खम’ ममता कालिया का महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । ममता कालिया के विस्तृत रचना-संसार में से ‘दुक्खम सुक्खम’ ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया । उपन्यास में कृष्ण जन्म की पावन नगरी ‘मथुरा’ के परिवेश को आधार बनाया गया है । साथ ही ब्रजभाषा के मेल के साथ इस उपन्यास की रोचकता में और भी अधिक वृद्धि हुई है । बीसवीं शताब्दी की बदलती हुई मथुरा का चित्रण इसमें किया गया है । गाँधीवादी विचारधारा से पूर्णतया प्रभावित यह उपन्यास मथुरा और उसके आसपास के प्रदेशों के चारों और घूमता है । इसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम, देश विभाजन की त्रासदी और आजादी के बाद की भारत की स्थिति का परिदृश्य उठाया गया है । 1947 के स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ पारिवारिक जीवन में परिव्याप्त सभी अंतर-बाह्य द्वंद्व, तनाव, बिखराव, टूटन, विसंगतियों आदि का यथार्थ उद्घाटन ‘दुक्खम सुक्खम’ में किया गया हैं । अपने रचनात्मक कौशल के बल पर ममता जी ने इस उपन्यास के माध्यम से एक अलग प्रकार की छवि बनायी है । अभी अनेकों विमर्शों का दौर चल रहा है । इन सबसे परे होकर इन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से अनेक ऐसी घटनाओं को हमारे सम्मुख ला खड़ा किया हैं जिनसे हम परिचित होकर भी अनजान बने रहते है ।

             जिन समस्याओं का यथार्थ चित्रण ‘दुक्खम सुक्खम’ में किया गया है वे सभी किसी न किसी रुप में हमारे सम्मुख मुँह फैलाये खड़ी रहती है । समय और परिस्थिति को आधार बनाकर लिखा गया यह उपन्यास अपनी रोचकता से बहुत कुछ कह जाता है और सभी प्रकार की यथार्थ स्थिति का उद्घाटन कर हमें आंकलन करने पर मजबूर करता है । ममता जी ने बेहद संवेदनशीलता के साथ पात्रों में होने वाले आंतरिक एवं बाह्य द्वंद्वों, वयसंधि के अनुभवों और वैचारिकता में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त किया है ।ममता जी के सुदृढ़ जीवनानुभव अपनी सर्वोतम रचनाशीलता के साथ ‘दुक्खम सुक्खम’ में अपना आकार पा सके है । उपन्यास का कथानक मथुरा के अलावा दिल्ली, आगरा और मुंबई तक गया है । उपन्यास की घटनाएँ श्रृंखलाबद्ध रूप से एक दूसरे से जुड़ती चली जाती है ।

            ‘दुक्खम सुक्खम’ के केंद्र में कविमोहन व उसका परिवार है । कवि एक उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा नवयुवक है । जिसकी पत्नी दो बच्चियों की माँ बनकर अपने सास, ससुर और ननद के पास रह रही है । जीवन के जटिल यथार्थ में गुंथा यह उपन्यास गाथा कहता है उस मध्यमवर्गीय परिवार की, जो परंपरागत रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है । जिसमें घुटन, संत्रास, अलगाव, रिश्तों में टकराव, अकेलापन, नीरसता जैसी समस्याएँ विद्यमान हैं । उपन्यास में भीतरी-बाहरी बेड़ियों में जकड़ी स्त्रियों के नवजागरण का गतिशील चित्र और उनकी मुक्ति का मानचित्र भी दिखाया गया है । ममता कालिया ने स्त्री के दोयम दर्जे का स्वरूप भी उपन्यास में प्रकट किया है । जिसमें उसका स्वयं का अस्तित्व तो कहीं होता ही नहीं । वह बेटी किसी ओर की होती है और बहु किसी ओर की । दोनों परिवारों की जरूरते पूरी करने में वह अपनी जरूरतों को तो जैसे भूल ही जाती है । उत्पादन और उसके संसाधनों पर जब तक पुरुषों का पूर्ण रूप से अधिकार रहेगा तब तक औरत की स्थिति में कोई सुधार नहीं आ सकता । इसी सच का यथार्थ उद्घाटन उपन्यास में किया गया है ।

वे लिखती हैं “मनीषा जानती है दादी की याद में कहीं कोई स्मारक खड़ा नहीं किया जाएगा, न अचल न सचल । उसके हाथ में यह कलम है । वही लिखेगी अपनी दादी की कहानी ।”[1] यशस्वी कथाकार ममता कालिया ने उपन्यास दुक्खम सुक्खममें दादी विद्यावती और पौत्री मनीषा के मध्य व्यतीत हुए समय एवं समाज की अनूठी कथा कही है । इसमें तीन पीढ़ियों का लेखा-जोखा है । पहली पीढ़ी का आरंभ मथुरा में रहने वाले लाला नत्थीमल और उनकी पत्नी विद्यावती से होता है । दूसरी पीढ़ी में लीला, भग्गो, कम्मो, कविमोहन और कवि की पत्नी इन्दु आते हैं । कवि-इन्दु की दो बेटियाँ प्रतिभा और मनीषा तीसरी पीढ़ी का यथार्थ है । दुक्खम सुक्खमजीवन के जटिल यथार्थ में गुँथा एक बहुअर्थी पद है । रेल का खेल खेलते बच्चों की लय में दादी जोड़ती हैं कटी जिन्दगानी कभी दुक्खम कभी सुक्खम’ । यह खेल हो सकता है किन्तु इस खेल की त्रासदी, विडम्बना और विसंगति तो वही जान पाते हैं जो इसमें शामिल हैं । परंपराओं, रूढ़ियों में जकड़े इस मध्यवर्गीय परिवार की दादी का अनुभव है । इसी गृहस्थी में उन्होंने बामशक़्क़त क़ैद, डंडाबेड़ी, तन्हाई जाने कौन कौन सी सज़ा काट ली है । एक तरह से इसमें लेखिका के समस्त जीवनानुभव अभिव्यक्त हुए है जो पारिवारिक विसंगतियों अंतर्द्वंद्वों और तनावो का चित्रण करते हैं । उपन्यास में प्रकट यथार्थ क्रमश: सामाजिक यथार्थ, स्त्री जीवन का यथार्थ, राजनीतिक यथार्थ, आर्थिक यथार्थ की चर्चा की गई है जिससे सामान्य परिवारिक कथानक के माध्यम से विभिन्न गंभीर समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया जा सके । उपन्यास में प्रकट होने वाले सामाजिक यथार्थ के विभिन्न बिंदुओं लैंगिक भेदभाव, मानवीय मूल्यों का हनन, दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, संवेदनाहीन समाज, पुरुष प्रधान समाज, सयुंक्त परिवारों का विघटन,  पारिवारिक रिश्तों के टूटन की पीड़ा, अस्तित्व की छटपटाहट, आक्रोश, अनास्था और संपूर्ण निषेध की मुद्रा, का संक्षिप्त रूप से उल्लेख किया गया है । ‘नारी जीवन के यथार्थ’ में उपन्यास के स्त्री पात्रों की यथार्थ स्थिति के उद्घाटन के साथ-साथ समाज में महिलाओं की स्थिति एवं उनकी समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है जिसमें स्त्री शोषण, उपेक्षित स्त्री, स्त्री के अधिकारों का हनन, आर्थिक दुर्बलता की शिकार, का चित्रण किया गया हैं । राजनीतिक यथार्थ के अंतर्गत मैंने उपन्यास में उल्लेखित स्वार्थलोलुप राजनीति, गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव, स्वाधीनता संग्राम का चित्रण, राजनेताओं के नीजी स्वार्थ, देश विभाजन की त्रासदी, सत्याग्रह आंदोलन का यथार्थ एवं युद्ध की त्रासदी आदि का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है । मध्यमवर्गीय पारिवारिक जीवन की गाथा प्रस्तुत करने वाले इस उपन्यास में आर्थिक विषमता, द्वंदात्मक तनाव, मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति आदि बिंदुओं का विश्लेष्णात्मक चित्रण किया गया हैं । एक साधारण पारिवारिक कथानक के माध्यम से लेखिका ने उपन्यास में तत्कालीन समय में देश में होने वाली राजनीतिक हल-चल की चर्चा भी प्रस्तुत की है । उस समय की घर-परिवार की सामाजिक, आर्थिक स्थिति के साथ-साथ देश में विद्यमान राजनीति का कटु यथार्थ भी हमारे सम्मुख रखने का प्रयास किया है ।

       मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में रहकर वह उसकी अच्छाई-बुराई से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । कोई भी साहित्यकार अपनी लेखनी के द्वारा अपने मन की शक्ति को अभिव्यक्त करता है । साहित्यकार समाज का अंग होता है । अत: वह समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य समझते हुए समाज में व्याप्त समस्याओं पर लेखनी चलाता है । इसके संबंध में डॉ. ज्ञानचंद शर्मा लिखते है “सामाजिक यथार्थ मानव द्वारा समाज में की गई सत्य घटनाओं का उसी रूप में साहित्यिक अध्ययन है जिसमें अपने लेखन के माध्यम से ही साहित्यकार समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है ।”[2] ममता कालिया के उपन्यास ‘दुक्खम-सुक्खम’ में सामाजिक यथार्थ के विविध रूप उपस्थित हैं । इन्होंने सामाजिक जीवन को अपने साहित्य का अंग बनाया  सामाजिक यथार्थ के भीतर मानव की कमजोरियों, विषमताओं के साथ-साथ मानव मूल्यों को बनाये रखने का प्रयास ममता जी ने अपने इस उपन्यास में सफलतापूर्वक किया है । इन्होंने इसमें सामाजिक समस्याओं का चित्रण करते हुए सामाजिक जीवन, व्यवहार, परिवेश आदि को सकारात्मक दिशा प्रदान की है । सामाजिक यथार्थ के माध्यम से इन्होंने जीवन के कुत्सित रूप की भर्त्सना की है । परंपराओं, रीति-रिवाज, कुप्रथाओं, रूढियों आदि का यथार्थ चित्रण करने का प्रयास किया है ।

            सदियों से हमारे परंपरागत समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है और पुरुष वर्ग को हमेशा वरीयता दी गयी है । परिवार में बेटे और बेटी के प्रति व्यवहार में भेदभाव किया जाता है । खान-पान और शिक्षा इत्यादि की सुविधाएँ बेटे को दी जाती हैं जबकि बेटी को पराया धन कह कर उसे उन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है । उसे अपने जन्मदाता द्वारा ही पालन पोषण में उपेक्षित समझा जाता है । हमारे शिक्षित भारतीय समाज में लड़की के जन्म लेने से पूर्व ही उसका लिंग परीक्षण करवाकर मार दिया जाता है । जिससे समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं में वृद्धि होने लगती है । जिस दिन किसी के घर कन्या का जन्म होता है, परिवार के किसी भी सदस्य को कोई विशेष प्रसन्नता नहीं होती । अपने ससुराल वालों के अमानवीय व्यवहार से इंदु इतनी तंग आ जाती है और अपनी कोख से निकली हुई नन्हीं जान को भी मारने का विचार करती है । वह अपनी बेटी के लिए कह उठती है “हाय यह लड़का होती हो मेरे कितने ही दुःख दूर हो जाते, इंदु के कलेजे में हूक सी उठी और उसने बच्ची की ओर से मुँह फेर लिया, एक क्षण तो उसका मन हुआ कि वह बच्ची का गला घोट दे ।”[3]

कन्या के जन्म के अवसर पर घटित होने वाली स्थिति को लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी कविता ‘कान्यकुब्ज अबला विलाप’ में लिखते हैं-
“पैदा जहाँ हुई हम घर में सन्नाटा छा जाता है,
                        बड़े-बड़े कुलवानों का तो मुँह फीका पड़ जाता है ।
                        कन्या नहीं बला यह कोई यही चित में आता है,
                        किसी-किसी के ऊपर मानों वज्र पात हो जाता है ।।”[4]
वास्तविक रूप से ‘दुक्खम सुक्खम’ में पारिवारिक विघटन और उससे उत्पन्न स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है । सामाजिक यथार्थ के भीतर यह एक भीषण समस्या है, जिस पर वास्तविक रूप से प्रकाश डालने का प्रयास ममता जी ने किया है । पहले एकसूत्र में बंधा परिवार जब विच्छेदन की कगार पर पहुँचता है तो वह दृश्य ह्रदय विदारक बन जाता है । ऐसा ही दृश्य उत्पन्न होता है ‘दुक्खम सुक्खम’ में ।

आज इंसानी स्वार्थ ने इंसानी रिश्तों के मायने ही बदल दिए है । हमारे परिवारिक रिश्ते जो हमारी जान थे, प्राण थे, जो हमें जीने की प्रेरणा देते थे आज उन्हीं रिश्तों में हमारा दम घुटता है । भाई-बहन, पिता-पुत्री, पिता-पुत्र आदि रिश्ते स्वार्थ वृति के घेरे में आ चुके हैं । जिसके कारण परिवार में आक्रोश, असंतोष और संपूर्ण निषेध की मुद्रा दिखायी पड़ती है । ममता कालिया ने ‘दुक्खम सुक्खम’ में पारिवारिक जीवन में व्याप्त इसी यथार्थ का उद्घाटन किया गया है । उपन्यास का प्रमुख वाक्य ‘कटी जिंदगानी कभी सुक्खम कभी दुक्खम’ एक मध्यमवर्गीय परिवार के सदस्यों के बीच विद्यमान आक्रोश और असंतोष की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करता है । लाला नत्थीमल अपने स्वार्थों के बीच अपने बेटे कविमोहन की इच्छाओं और आकांक्षाओं को भुला बैठते है । उन्हें उनके सुख-दुःख से कोई मतलब नहीं रहता है । जिसके परिणामस्वरूप कवि का मन आक्रोश से भर जाता है । इस बात का उल्लेख स्वयं लेखिका करती है “दसवीं में जब कविमोहन का अव्वल दर्जा आया, माँ ने ही उसके आगे पढने का समर्थन किया । पिता उसे कॉलेज भेजने के हक़ में कतई नहीं थे ।”[5]

ममता कालिया का अधिकांशत: लेखन विशेष रूप से भारतीय स्त्री के परिवेश के चारों ओर घूमता है । ममता जी स्वयं स्त्री होकर स्त्री की समस्याओं को वास्तविक धरातल पर बड़े साहस के साथ प्रस्तुत करती है । अपने लेखन में उन्होंने स्त्री की सोचनीय स्थिति, औरत पर पुरुष की वर्चस्ववादी सत्ता, स्त्री का शोषण, आर्थिक निर्भरता और पुरुष के समक्ष अधिकारों की मांग आदि पर प्रकाश डाला है । ममता कालिया ने अपने साहित्य में उभरती हुई स्त्री की नवीन छवि की और भी दृष्टिपात किया है और नारी जीवन के सर्वांगीण यथार्थ को हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है । परिवार में स्त्री जीवन में होने वाली घुटन, शोषण, अन्याय और अत्याचार की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का सफल प्रयास किया है ।

यदि समाज मनुष्य का एक चरण है तो राजनीति उसका मस्तिष्क । जो व्यवस्था राज्य के विकास में सहायक होती है, वह राजनीति है । साहित्य का समाज की युग स्थिति से अनिवार्य संबंध है । इसी से साहित्य और राजनीति का पारस्परिक संबंध भी स्थापित हो जाता है । साहित्य में राजनीतिक यथार्थ के भीतर सभी राजनीतिक घटनाओं-परिघटनाओं का यथार्थ चित्रण किया जाता है । ‘दुक्खम सुक्खम’ में राजनीतिक यथार्थ का ब्यौरा दिया गया है । चूँकि यह उपन्यास बीसवीं शताब्दी को आधार बनाकर लिखा गया है । यह समय भारत में राजनीतिक उठा-पटक का समय था । राजनीति में परिवर्तन की लहर जोरों पर थी । यथा- “बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में हर मनुष्य के अंदर जड़ता और जागरूकता का घमासान मचा रहता था ।”[6] इस तरह से यह युग पूर्ण रूप से परिवर्तन की तरफ मुड़ा हुआ था, राजनीतिक हालात एकदम उफान ले रहे थे । एक तरफ गाँधीजी का सत्याग्रह था तो दूसरी तरफ देश के दो टुकड़े होने की त्रासदी । इन सबका चित्रण ‘दुक्खम-सुक्खम’ में किया गया है ।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि दुक्खम सुक्खम में सामाजिक यथार्थ , राजनीतिक यथार्थ , नारी जीवन का यथार्थ आदि का उल्लेख किया गया हैं । आज साहित्य मात्र मनोरंजन का विषय न होकर समाज की विभिन्न समस्याओं, संस्कारों एवं सभ्यताओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम है । साहित्य और समाज का परस्पर अटूट संबंध है । प्रत्येक समाज में सामाजिक मूल्य पाये जाते हैं । यही मूल्य मनुष्य के लिए उचित-अनुचित की दिशा निर्धारित करते है, वही सामाजिक यथार्थ है । साहित्य में सामाजिक यथार्थ का सीधा संबंध जीवन दर्शन से है और जीवन दर्शन पुर्णतः जीवन मूल्यों पर आधारित है । इसी बात का प्रमाण ममता जी अपने उपन्यास के माध्यम से देती है


संदर्भ ग्रन्थ सूची
1.ममता कालिया,  ‘दुक्खम सुक्खम’, भारतीय ज्ञानपीठ, 2009, फ्लेप पेज से
2डॉ.ज्ञानचंद शर्मा, ‘आधुनिक हिंदी कहानी में वर्णित सामाजिक यथार्थ’, राधा पब्लिकेशन, दिल्ली (1974), पृ.सं.-1,2
3. ममता कालिया,  ‘दुक्खम सुक्खम’, भारतीय ज्ञानपीठ, 2009 पृ. 28
4.सं. ओमलता, ‘स्त्रियों का सामाजिक जीवन एवं अन्य निबंध’, पृ.सं-12
5.ममता कालिया, ‘दुक्खम सुक्खम’, पृ.सं.-22
6.ममता कालिया, ‘दुक्खम सुक्खम’, पृ.सं.-63



 [जनकृति पत्रिका के मई-जून 2017 अंक में प्रकाशित शोध आलेख]





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