प्रवासी संसार तथा गिरमिट वैचारिकी: सारिका जगताप
प्रवासी संसार तथा गिरमिट वैचारिकी
प्रवासी जीवन अपने भिन्न और विशिष्ट संरचना के कारण विश्व में
प्रसिद्ध रहा है। विश्व के परिदृश्य में भारतीय डायस्पोरा का अपना एक विशिष्ट
स्थान है। भारतवंशी लोग प्राचीन काल से अपने देश से विश्व के विभिन्न देशों में
जाकर बसे हैं। इस प्रवासन के कारण और परिणाम दोनों भिन्न-भिन्न है। कारण के रूप
में यायावर वृत्ति, रोजगार की खोज, जीवन को समुन्नत
करने की जिजीविषा तो शामिल है ही। साथही, राजनैतिक और सांस्कृतिक
कारक भी इसके कारण रहे हैं। परिणाम के रूप में यह वैश्विक प्रवासन हमारे सामने
उपस्थित है। भारतीय लोग कभी दासों के रूप में, तो कभी
अनुबंधित श्रमिकों (गिरमिटिया) कंगनी और मैस्त्री प्रथा के रूप में देश से बाहर
ले जाए गए। भारतीय डायस्पोरा समुदाय अपनी विशिष्ट भाषा,
रहन-सहन एवं संस्कृति के कारण विश्व में अपना अलग स्थान रखता है। इसकी अनेक
खासियतें अन्य डायस्पोरा समुदायों से इसे भिन्न करती है। प्रवासी जीवन अपनी
पूरी संरचना में एक वैचारिकी के रूप में भी हमारे सामने आता है। जिसे ‘गिरमिट वैचारिकी’ के रूप में देखा जा सकता है। यहाँ
हम प्रवासी जीवन और गिरमिट आइडियोलोजी पर विचार करने जा रहे हैं।
‘गिरमिट’
शब्द सामान्यत: ओल्ड या पुराने डायस्पोरा के जीवन संसार को बताने के लिए
प्रयुक्त किया गया शब्द है। ‘द लिटरेचर ऑफ द इंडियन डायस्पोरा
थिओरिजिंग द डायस्पोरा इमेजनरी’ में विजय मिश्रा
लिखते हैं कि ‘गिरमिट’ शब्द विशेषत:
इंडो-फ़ीजीयन (फीजी में रहनेवाले भारतीय) ने अनुबंधित व्यवस्था के समय में अपने
अनुभव को व्यक्त करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया था। ‘गिरमिट’ शब्द ‘एग्रीमेंट’ का अपभ्रंश रूप हैं।[1]
वास्तव में आज़ादी के पहले 19वीं और 20वीं शताब्दी में भारतीय लोग बंधुआ मजदूरों
के रूप में भारत से बाहर मारीशस , फ़ीजी, सूरीनाम, गयाना आदि देशों में गए। इन बंधुआ मजदूरों
में भारी संख्या में उत्तर-भारतीय भी शामिल थे । वे मजदूर अपनी सांस्कृतिक
विशेषताओं के साथ जैसे–भाषा, धर्म आदि से अपने समूहों का
प्रतिनिधित्व करने लगे ।
मारीशस में भारतीय गिरमिटिया समाज में हिंदुओं
के साथ मुस्लिम भी थे। हालांकि, मुस्लिम संख्या में कम थे, फिर भी अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान बनाए हुए थे। अपनी जड़ों से
उखड़कर बाहर बसने के क्रम में दोनों धर्मों में एकरूपता आती चली गई। भाषा, खान-पान, पहनावे तथा एक ही तरह के कार्य करते हुए
दोनों धर्मों के बीच दूरियाँ कम हुई और एकरूपता आयी। दोनों समुदायों के बीच विवाह
संबंध भी दिखाई देते हैं। बाद में एक सरकारी योजना के तहत पूरे देश की जनसंख्या
को हिंदू समुदाय, मुस्लिम समुदाय तथा क्रियोल सामान्य
समुदाय के रूप में बाँटा गया। सामान्यत: गिरमिटिया लोग अपने दैनंदिन जीवन में डटे
रहे और अपने को ‘जो यात्रा उन्होंने शुरू की थी ‘जहाजी भाई’ के रूप में वही यात्रा भाई चारे के रूप
में चलती रही। यही विचारधारा सामान्य जनजीवन की अंग बन गई।
फ़ीजी में इन प्रवासी भारतीयों ने आर्थिक विकास को एक नई
दिशा दी। लगभग 1914 के आस-पास कुछ गुजराती प्रवासी भारतीयों का फ़ीजी आगमन हुआ।
उन्होंने जल्द ही कुछ उद्योगों की स्थापना शहर में कर ली। हालांकि वे यूरोपियन
लोगों की तरह ऊँचे तो नहीं उठ पाए; किंतु भारतीय
व्यापार की सफलता का चेहरा जरूर दिखाई देने लगा। फ़ीजी के शुरूआती अखबारों (1927
और 1936) ‘फ़ीजी समाचार’ और ‘शांतिदूत’ आदि में बहुत जोरो-शोरों से जिस चीज पर
जोर दिया जा रहा था वह थी, नृजातीय एकात्मकता की भावना तथा
मूल स्थान के प्रति लगाव को जगाना। साथही, वे एक ऐसे कल्पनात्मक
भारत की निर्मिति कर रहे थे जो कि फ़ीजी में भी दिखाई दे । इन समाचार पत्रों में
दोनों देशों भारत और फ़ीजी के रूप में दर्शाया जा रहा था-
‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वो
नर नहीं नर पशु
निरा और मृतक समान है।’[2]
गिरमिट वैचारिकी और गिरमिटिया
जीवन को समझने के लिए तोताराम सनाढ्य का लेखन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
तोताराम सनाढ्य का जहाज ‘जुमना’ 21
मई 1893 को फ़ीजी पहुँचा था। तब फ़ीजी में पहले से ही 12,000
अनुबंधित मजदूर पहुँच चुके थे। तोताराम सनाढ्य के इमीग्रेशन पास पर एक मजदूर के
रूप में उनका उल्लेख 2 फरवरी 1893 को हुआ था।
तोताराम सनाढ्य मूलत: आगरा जिले के छोटे से गाँव के रहने वाले थे। उनकी
अवस्था उस समय 16 वर्ष लिखी हुई है और उन्हें ठाकुर या क्षत्रिय जाति का बताया गया है; किंतु
कुछ अभिलेख इससे भिन्न हैं। जिसमें उन्हें उस समय 18 वर्ष का और ब्राम्हण जाति
का बताया गया है। तोताराम सनाढ्य अपनी जिंदगी के अगले 21 वर्षों तक फ़ीजी में रहे
। पहले वे बंधुआ मजदूर थे, बाद में किसान हो गए। वहीं उन्होंने
प्रवासित लोगों की ही पुत्री से विवाह कर लिया और सन् 1914 में पत्नी तथा अपनी
सासूजी के साथ भारत लौट आए। लौटने के
दौरान उन्होंने अपनी पूरी कहानी बनारसीदास चतुर्वेदी को बताई, जो भारतीय राष्ट्रवादी
व्यक्ति थे और प्रकाशन का कार्य भी करते थे। 1915 और 1922 के बीच यह कहानी अनेक
भागों में भारतीय पत्रिकाओं में प्रकाशित
हुई। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों को चतुर्वेदी ने स्वयं के द्वारा केन गिलियन को 1955 के आसपास यह पाण्डुलिपि
सुपूर्द की थी। 1980 में गिलियन और पी-एच.डी. शोधार्थी बृजलाल द्वारा इस पाण्डुलिपि
को संपादित और प्रकाशित किया गया था। वर्तमान इस पाण्डुलिपि पर फ़ीजी भारतीयों का
अधिकार हैं।[3]
फ़ीजी
में अनुबंधित श्रमिकों की त्रासद जीवन गाथा को सनाढ्य ने बड़ी गहराई से बताया है।
वहाँ सभी एक दूसरे का भोजन करते थे और एक दूसरे की भाषा सीखते थे। एक बार भूखे और
बीमार होने के कारण सनाढ्य ने आत्महत्या करने, फाँसी
लगाने का भी प्रयास किया था। कुछ फ़ीजी के किसान भाइयों ने सनाढ्य को बचाया।
अनुबंधित श्रमिकों के समुदाय द्वारा सामाजिक–सांस्कृतिक माहौल बना। उनके पास अपनी
कुछ मूल पुस्तकें, मान्यताएं, कथाएं
थीं, जिनको आधार बनाकर वे अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सामने ला रहे थे। वे तुलसीदास
की रामायण, सत्यनारायण कथा, सुखसागर, इंद्र जाल, आल्हाकमद तथा इंदरसभा आदि पुस्तकों को
अपनी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में साझा कर रहे थे। फ़ीजी में ‘इंदरसभा’ बहुत प्रचलित हुआ। जिसमें फ़ीजी हिंदी, उर्दू, ब्रज, अवधी, भोजपुरी और खड़ी बोली का सम्मिश्रण दिखाई देता है। भारतीय सिनेमा का अपना
महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब भारतीय सिनेमा फ़ीजी पहुँचा,
तो इंदरसभा पर आधारित फिल्म ‘इंदरसभा 1932’ बहुत प्रसिद्ध हुई। जलपरी (1952), हुस्न का चोर
(1953), रूपकुमारी (1956), शांतिदूत
(1936), शीरी फरहाद (1931) आदि ऐसी फिल्में थी, जो फ़ीजी के सिनेमाघरों में हाउसफुल जा रही थी।[4]
सनाढ्य
ने वहां प्रचलित मौखिक गीतों जैसे - बरसात के गीत (चौमासा) जो परंपरागत रूप से चले
आ रहे हैं। बिदेशिया में इन गीतों का अच्छा खासा प्रयोग किया गया है। जिनमें
प्राय: दो तरह के अर्थ और अर्थस्तर पाए जाते हैं। जिसमें एक ओर प्रवास और प्रवास
के पहले का जिक्र है, दूसरी ओर प्रेम और विरह आदि
शामिल हैं। जैसे ‘बिदेसिया’ के कुछ पद –
‘घिर घिर
बदर, सावनवा कि है रामा
कौनि
नगरिया में काही रे बिदेसिया
गैया
बेहाल मोरे कोठवा ये भूखे रोए
अंखियों
से अँसुवा बहईये रे बिदेसिया
अमुआ
के डलिया में कुहुके कोयलिया
मनवा
में अगिया लगाईये रे बिदेसिया
हरि
हरि पतिया पे लिखे हरि हरि
कवनी
नगरिया में छाही रे बिदेसिया’[5]
सनाढ्य
पढ़े–लिखे थे। उन्हें लोक और धर्म के बारे में जानकारी थी। अत: वो मजदूर से किसान
और पुरोहित बन गए थे। वहां वे एक साथ
किसानी और पुरोहिती का काम करते थे। वहां एक रामायण मंडली थी, जिसका नेतृत्व भी सनाढ्य ही करते थे। सनाढ्य जब भारत लौट आए थे। तो भारत में वे ज्यादा समय अनुबंधित श्रमिकों
और उनके प्रवासी जीवन के बारे में ही
बताते रहते थे। उनकी आत्मकथा ‘फ़ीजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’
के भाग 1917 और 1922 में छपे। इस आत्मकथा में तत्कालीन फ़ीजी के
अनुबंधित श्रमिकों के जीवन व्यापार, उनके सुख-दुख, संघर्षों की झाँकी मिलती है। हालांकि, जब वे वहां
से लौट रहे थे, तब फ़ीजी के लोगों का जीवन और संघर्षमय होता
जा रहा था। स्त्रियों पर अत्याचार बढ़ रहे थे। स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति की ओर
झोंकी जा रही थी। भूख और गरीबी बढ़ती जा रही थी।
सनाढ्य
के भारत लौटने के बाद उन्होंने यहाँ कई भाषण दिए। (1914 से 1919 के बीच में) उन्होंने भारत से ले जा रहे भारतीयों की त्रासद दशा
बताते हुए कहा था कि ‘यहाँ से श्रमिकों को ले जाने के
लिए एक जहाज में पशुओं की तरह भरा जाता था। अधिकारियों के द्वारा खाने को कुत्तों
के खाने के बिस्किट दिए जाते थे। वहाँ पहुँचने के बाद सभी को मनमाने ढ़ंग से किसी
को कहीं, किसी
को कहीं
भेज दिया जाता था। जहाज में बनी
मित्रता का भी ध्यान नहीं दिया जाता था। कुछ लोग ऐसी स्थितियों में आत्महत्या भी कर
लेते थे।’[6]
प्रवासी
भारतीयों में से अनेक साहित्यकार हुए। फ़ीजी के साहित्यकारों में से सत्येंद्र
नंदन, मोहित प्रसाद, रेमंड पिल्लई और सुदेश मिश्रा आदि
प्रमुख हैं, जिन्होंने बहुत गहराई से गिरमिटिया संवेदना को
अपनी कविताओं, कथा साहित्य में व्यक्त किया है।
सुरेश
मिश्रा अपनी एक कविता में लिखते हैं-
‘गिरमिटिया, माई मेकर
योर
जर्नी
हैज
ब्रोकेन माई हार्ट ’ (1992 : 13)[7]
वहीं
मोहित प्रसाद अपनी कविता में इस यात्रा को कुछ इस तरह देखते हैं-
‘आई
कॅरेस एन एमटी थॉट
एज आई
क्लीन आउट ए ब्रास प्लेट
ऑफ
थिन ढाल एंड ब्रोकन राइस बीट्स
आई
अॅम कैरिंग अ मैंगो सीड
टू प्लैंट
एट द एंड ऑफ दीज वोवेज’ (2001: 47)[8]
फ़ीजी
में भारतीयों और फ़ीजी लोगों के बीच के द्वंद्व को पिल्लई ने कुछ इस तरह बयां
किया हैं-
‘काई
बिती काई इंडियान नाई सको इक रास्ता पकरो’
(
फ़ीजीयन और भारतीय एक साथ एक रास्ते पर नहीं चल सकते । ) (2001 : 211/271)
सन्
1873 में लाला रूख 279 पुरुष, 70
महिलाओं, 32 लड़के, 18 लड़कियों के साथ जहाज से सूरीनाम पहुँचे । वहाँ पहुँचकर लोगों ने डच
भाषा को स्वीकार तो किया; किंतु भोजपुरी का भी प्रयोग करते
रहे। भोजपुरी भाषा उनके दुख-दर्द, उनके
अनुभव और अपने घावों को व्यक्त करने की भाषा बनी। सूरीनाम के कवि चाँदनी भोजपुरी
में लिखते हैं-
‘माई लोस्ट यूथ आई रिकाल
अ लाइफ स्पेंट इन पेन
एंड नाऊ
डेज आर अस्थमैटिक
रिमेंबरिंग
ए फार्मर्स लाइफ
अवेरिंग
द आवर्स एंड
इटिंग
विद क्लोज्ड आइज़ ।’[9] (1990:8)
जीत
नारायण आदि लेखकों ने भी भोजपुरी भाषा में कविताएँ लिखी। जिनमें सूरीनाम के बंधुवा
मजदूरों की जिदंगी झाँकती है। सूरीनाम का डायस्पोरा एक साथ तीन आधारों पर दिखता है वह है- क्रियोल, इंडियन और जवानीज। वहीं त्रिनिदाद का डायस्पोरा दो धुव्रों पर अवस्थित
है – क्रियोल और इंडियन। राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से भारतीय डायस्पोरा अपनी भूमिका अदा कर रहा है। सन् 1999 में फ़ीजी
के पहले भारतीय प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी हुए । महेंद्र चौधरी के दादा 1912 में
भारत से फ़ीजी गए थे। वहाँ गन्ने के खेत में उन्होंने मज़दूरी की। फ़ीजी में वह
भारतीय मूल के पहले प्रधानमंत्री थे। मूलत: भारत के उत्तरी राज्य हरियाणा के
निवासी रहे महेंद्र चौधरी आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं। बहुजमालपार गाँव में रह
रही अपनी बहन से मिलने वह 1997 में गए थे। एक ऑडिटर के तौर
पर काम करने वाले चौधरी ने फ़ीजी में व्याप्त भ्रष्टाचार को हटाने के लिए काम करना
शुरू किया। फ़ीजी में सत्ता पलट जैसी घटनाओं के बाद महेंद्र चौधरी फ़ीजी के भारतीय
बहुल निवासियों की आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए। फ़ीजी की 44 प्रतिशत
जनता चौधरी में एक ऐसे राजनेता को देखती है जो प्रजातंत्र और क़ानून व्यवस्था के
प्रति समर्पित है। शायद यही वो कारण है जिसे महेंद्र चौधरी अपनी प्रेरणा मानते थे।
त्रिनिदाद में बासदेव पांडेय के राजनीतिक संघर्ष
का अपना महत्व है। इनका जन्म 23 मई, 1933 को प्रिंसेस टाउन में हुआ था। यह त्रिनिदाद एवं टुबैगो के 5 वें
प्रधानमंत्री बने थे। इनका कार्यकाल 1955 से 2001 तक रहा। इन्होंने अपने राजनैतिक
जीवन में बड़े उतार-चढ़ाव देखें। वे एक कुशल राजनितिज्ञ के साथ-साथ वकील भी थे। वे
यूनाइटेड नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष और नेता भी रहे हैं। इनका यह कार्यकाल (1976–1977, 1978–1986,
1989–1995, 2001–2006 और 2007–2010 तक) रहा।
यह भारतीय मूलवंशी है। इन्होंने अपनी कार्यक्षमता के बल पर फ़ीजी में अपने
अस्तित्व को स्थापित किया था।
गिरमिट
वैचारिकी को दो सांस्कृतिक रूपों मे समझा जा सकता है। पहला चीनी और गन्ने के
बागानों से जुड़े हुए लोगों के अनुभवों के द्वारा तथा दूसरे ऐसे मजदूरों के
अनुभवों के द्वारा जो नियत ईकाई के कार्य और मजदूरी में लगे रहे । जिन्हें ‘आब्सट्रैक्ट लेबर’ की संज्ञा दी गई। यह मजदूर तेरह-चौदह घंटे काम के बदले एक निश्चित मजदूरी कैसे कर सके? लेकिन किया। इस पूरी त्रासद कथा को मारीशस के कथाकार अभिमन्यु
अनत के ‘लाल पसीना’ उपन्यास में
चित्रित किया गया है। यह उपन्यास समाज, संस्कृति, इतिहास सबको तार्किक रूप से देखता है, समीक्षा करता
है। जड़ों से उखड़े लोगों की ‘बागानों का जीवन’ का विशद चित्र प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास गिरमिट वैचारिकी को समझने
के लिए आधार सामग्री उपलब्ध कराता है।
इस
उपन्यास में किशन सिंह और बेचू आदि किरदारों के माध्यम से पूरे प्रवासी संसार की
जटिलताओं को दुखों और कष्टों को दिखाया है। भारतीय डायस्पोरा में ‘गिरमिट वैचारिकी’ में गिरमिट शब्द अपने आपमें अनेक
सांस्कृतिक और सामाजिक पूँजी या धरोहर के अर्थ को धारण करता है। गिरमिट वैचारिकी
में गिरमिटिया लोगों के विशद अनुभव ही हैं,जो उसे एक
विचारधारा या सिद्धांत के रूप में सामने लाते हैं। भारतीय डायस्पोरा अपने स्वरूप
में, अपने दुखों, अपने अनुभवों पर
आधारित ‘गिरमिट वैचारिकी’ का निर्माण
करते हैं। हैमलेट के शब्दों में “For
the people of the old plantation – Indian diaspora the girmit ideology is the
ghost that reminds the son of the endless unhappiness of diaspora. Till the foul crimes done in my days of nature/Are burnt and prug’d
away” (Hamlet I. v, 12-13)
सारिका जगताप
एम.फिल.
प्रवासन और डायस्पोरा अध्ययन विभाग
अनुवाद
विद्यापीठ, म.गां.अं.हिं.वि.वर्धा (महाराष्ट्र)
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