त्रिलोचन शास्त्री के साहित्य में मानवीयता की तलाश: - डॉ.सुभाष चन्द्र पाण्डेय
त्रिलोचन शास्त्री के साहित्य में मानवीयता की तलाश
- डॉ.सुभाष चन्द्र पाण्डेय
त्रिलोचन
शास्त्री का समूचा साहित्य ही मानवीय संवेदना से आद्यन्त आपूरित है। उनकी संवेदना
के दायरे में मानव मात्र ही नहीं अपितु इस सृष्टि की समस्त जड़चेतन सत्ता समाई है।
इस सृष्टि के जीवजन्तु वनस्पतियाँ आदि सभी कवि के सहभागी हैं। स्वयं कवि के शब्दों
में-“इस पृथिवी की रक्षा मानव का अपना कर्तव्य है/इसकी वनस्पतियां चिड़िया और जीव
जन्तु /उसके सहभागी हैं।”1
वस्तुतः कविता सामाजिक समस्याओं का अविकल अनुवाद नहीं हुआ
करती, न ही हो
सकती है। कविता में कवि की कल्पना का अपना अलग महत्व हुआ करता है। कवि की यह
कल्पना भी यथार्थ से सर्वथा असम्पृक्त हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता,
क्योंकि वह यथार्थ की ही विधायिका होती है। कविता जीवन के
कटुसत्यों के प्रति स्वीकृति और उसके समाधान के नए मार्गों का अन्वेषण भी किया
करती है। कवि त्रिलोचन की कविता यथार्थ का जितना सचित्र चित्रांकन करती है उतना ही
सामाजिक समस्याओं को समाधान भी प्रस्तुत करती है। मनुष्य की अस्मिता को,
उसके स्वत्व को अक्षत रखते हुए उसे रचनात्मक कार्यों के
प्रति प्रेरित करती है। प्रेरणा ऐसी की व्यक्ति संवेदना एवं ज्ञान का विशिष्ट एवं
मंजुल समन्वय बनाए रख सके, क्योंकि व्यक्ति संवेदना विहीन होकर यन्त्र बन जायेगा और
ज्ञान विहीन होकर निर्धारित जीवन लक्ष्यों से वंचित रह जायेगा। इन्हीं अर्थो में
त्रिलोचन की कविता ज्ञानात्मक संवेदना एवं संवेदनात्मक ज्ञान का अद्भुत साक्ष्य
प्रस्तुत करती है।प्रगतिशील हिन्दी कविता के मध्य त्रिलोचन की स्थिति अन्य कवियों
से थोड़ा हट कर है जहाँ लोग समाज के दीन-हीन व्यक्ति से अपना केवल रचनात्मक सम्बंध
बनाए रखना पसंद करते हैं वहीं त्रिलोचन समाज के अन्तिम उपेक्षित सदस्य के साथ भी
अपना आत्मीय संम्बध रखते हैं और यही त्रिलोचन की कविता है-‘‘मैं तुम से, तुम्हीं से बात किया करता हूँ /और यह बात मेरी कविता है।’’2
वस्तुतः कोई भी व्यक्ति हो या फिर लेखक समाज को सर्वदा
उपेक्षित करके श्रेष्ठ साहित्य सृजित ही नहीं कर सकता। इसी संन्दर्भ में त्रिलोचन
की मान्यता है- ‘‘आदमी
को सामान्यतः सामाजिक कहा गया है। लेखक आदमी है। आदमी सामाजिक है। अतः लेखक भी
अनिवार्यतया सामाजिक है। समाज को घेरने वाली समस्याएं अथवा स्थितियाँ उसको भी
पकड़ती हैं। कोई भी लेखक इन परिस्थितियों को छोड़कर लेखक नहीं है।’’3
कवि त्रिलोचन समाज के सदस्यों की बोली भाषा को चाहे वह गृही,
असभ्य सभ्य व शहराती हो उसे बड़ी यथार्थता के साथ अभिव्यक्ति
प्रदान करते हैं-“सबकी बोली/बोली लाग-लपेट, टेक भाषा मुहावरा/भाव आचरण इंगित विशेषता फिर भोली/भूली
इच्छाएं......गृही असभ्य सभ्य शहराती या देहाती/सबके लिए निमंत्रण है अपना जन
जाने/और पधारें इसको अपना ही घर मानें।’’4
त्रिलोचन के सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में पुष्पा
अग्रवाल की मान्यता है- “काव्य सृजन की प्रक्रिया में त्रिलोचन की वैयक्तिक
संवदेना निर्वैयक्तिक होकर आम आदमी से जुड़कर सामाजिक धरातल का आधार पाती है और
समाज के शोषित दलित और कमजोर वर्ग के जीवन संघर्ष की पीड़ा यातना का दुख और अंदरूनी
छटपटाहट के साथ साथ गत्यात्मक होकर सामाजिक सत्य की अभिव्यक्ति के लिए सृजनशील हो
उठती है। त्रिलोचन ने केवल जीवन सत्यों का ही चयन नहीं किया है,
बल्कि जीवन की संपूर्णता को ग्रहण किया है। जीवन सत्य का
उजागर उसमें रम कर ही किया जा सकता है। वे इसमें पूर्णरूपेण रमे हुए हैं। जीवन को
नैरंतर्य में नित नएपन का आभास कवि के कर्म रूप में होता रहता है। इसी से कविता
में जीवंतता आती है। यह जीवन्तता त्रिलोचन की कविताओं में सर्वत्र मिलती है।”5
वस्तुतः कवि त्रिलोचन जीवन के विविध पक्षों के समर्थ एवं कुशल
चित्रकार हैं जीवन के तमाम सुख दुख से सजी उनकी कविताएं पाठकों से अपनापन स्वतः
स्थापित कर लेती हैं-मैं जीवन का चित्रकार हूँ/चित्र बनाता घूम रहा हूँ ।6
कवि
त्रिलोचन की सामाजिक संचेतना की परिधि असीम है। वे किसी एक को अपना नहीं मानते
वरन् सब उनके अपने हैं इसी तरह वे किसी व्यक्ति विशेष के न होकर के सभी व्यक्ति के
लिए विशेष हैं। उनकी प्रेम सुधा से सभी तृप्त होते हैं वह चाहे कहीं रहे या फिर वह
कोई भी हो- “मैं इन आवर्तों में बंधा हुआ आज कहाँ अपना हूँ
/अपने लोगों का हूँ /अपनी दुनिया का हूँ
/आज मैं तुम्हारा हूँ / बिलकुल तुम्हारा हूँ, /केवल तुम्हारा हूँ,/ कहीं
रहो कोई हो।’’7
त्रिलोचन माक्र्सवादी चेतना सम्पन्न ऐसे
साहित्यकार हैं जो समाज की विषमता को समता में परिणित करने के लिए सदैव ही प्रयत्नशील
रहे। समाज में उठने वाली हर ध्वनियों को उन्होंने बड़ी ही कुशलता से ग्रहण किया है- ‘’ध्वनिग्राहक हूँ मैं/समाज में उठने वाली/ध्वनियाँ पकड़ लिया
करता हूँ ।’’8
कवि त्रिलोचन अपने सभी काव्य संग्रहों में समाज में प्रेम
एवं सद्भाव को अक्षुण्ण बनाए रखने की बात करते हैं। वस्तुतः प्रेम ही वह तत्व है
जिससे समाज में आपसी सामंजस्य मृदुतापूर्ण रहता है कवि के शब्दों में ही-“प्रेम
व्यक्ति व्यक्ति से/समाज को पकड़ता है/जैसे फूल खिलता है उसका पराग किसी और जगह
पड़ता है। फूलों की दुनिया बन जाती है।”9
समाज के सभी सदस्यों सभी वर्गों से सम्बन्ध बनाये रखने की
अभिलाशा उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश है जिसके अभाव में वे अपने को अकेला महसूस करते हैं
और अकेलेपन के इस अवसाद को वे सहन नहीं कर पाते हैं सुख हो अथवा दुख सभी में वे
समाज के साथ सुख दुख बाँटना पसंद करते हैं और वे यह बात बड़ी सहजता से स्वीकार करते
हैं- “आज मैं अकेला हूँ/अकेले रहा नहीं जाता/...सुख दुख एक भी/अकेले सहा नहीं
जाता।”10
कवि त्रिलोचन शास्त्री की सामाजिक चेतना का फलक अत्यंत
व्यापक है। वैयक्तिक दुःख को वे नजर अंदाज करते हैं किन्तु सामाजिक दुःख को वे
स्वीकार नहीं कर पाते वरन् उसे दूर करने के लिए यथाशक्ति संलग्न हो जाते हैं। उनसे
जितना हो सकता उतना करने का वे प्रयास करते हैं-“औरों का दुख दर्द नहीं वह सह पाता
है/यथा शक्ति जितना बनता है कर जाता है।”11
त्रिलोचन की कविताओं का वण्र्य विषय ही समाज के अभावमय लोग
हैं जो अभाव से हार मान कर हाथ पर हाथ रख कर बैठते नहीं हैं अपितु अपनी उन्नति के
लिए प्रयत्नषील हैं- “भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय /पर अभाव से दबे नहीं
जागे स्वभावमय।”12
वे कर्मशील व्यक्ति का बड़ा ही सम्मान करते हैं। इसकी वजह है
कि क्रियाशील व्यक्ति आत्मसम्मानी होता है। वह बैठ कर खाना नहीं पसंद करता है उसे
भिक्षावृत्ति कतई पसंद नहीं होती है। क्रियाशील या कर्मरत व्यक्तियों को वे अपना
काव्य समर्पित करते हुए कहते हैं-‘‘मैंने उनके लिए लिखा है जिन्हें जानता/ हूँ जीवन के लिए
लगाकर अपनी बाजी/जूझ रहे हैं जो फांके टुकड़ों पर राजी/कभी नहीं हो सकते हैं।’’13
कवि त्रिलोचन की कविता समाज के संघर्षशील व्यक्ति की कविता
है इसका तात्पर्य यह है कि कवि ने सदैव ही क्रियारत व्यक्ति के परिश्रम के महत्व
को जाना समझा है। उसे अपना आदर्श माना है किन्तु वह परिश्रम करने वाला व्यक्ति भी
आदमी ही तो है। उसे भी थकान, निराशा, कुंठा आदि से सामना करना पड़ता है ऐसी ही विषम अवस्था में
त्रिलोचन की कविता उसे ऊर्जा प्रदान करती है उसकी मूर्छा को हरती है-“अभी तुम्हारी
शक्ति शेष है/अभी तुम्हारी सांस शेष है मत अलसाओ मतचुप बैठो/तुम्हें पुकार रहा है
कोई|”14
त्रिलोचन की मानव से यह अपील देखने योग्य है- “नर रे/तम में
द्युति में आया। बस कर/बीता, जीता सुधि साहस कर/स्वर पर निर्भर, स्वर-जीव अपर जग देख रहा तुझको आया, भर मुखर तृषा की लहर अधर रे|”15
त्रिलोचन समाज के अलगाव को सहन नहीं कर पाते हैं उन्हें
वर्गविहीन समाज की अभिलाषा है। वे यह बर्दास्त नहीं कर पाते कि मेहनत से मरे कोई
और मेहनतकशों की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाए
कोई।वस्तुतः त्रिलोचन ऐसे समाज की संरचना के हिमायती हैं जिसमें सभी परिश्रमशील
हों और उनके परिश्रम के परिणाम पर उनका अधिकार हो। वे यह कतई बर्दाश्त नहीं कर
सकते हैं कि मेहनतकशों के हक को मार कर पूँजीपति अपनी पूँजी बढ़ाते जाएं बल्कि उनके
साहित्य का लक्ष्य ही है कि मेहनतकशों को उनकी मेहनत का हक दिया जाय वह भी पूरे
सम्मान के साथ क्योंकि उनका साहित्यिक लक्ष्य ही है-मानवीय अस्मिता की प्रतिष्ठा।
वे सच्चे अर्थों में जनवादी साहित्यकार हैं। वे भलीभाँति जानते हैं कि मानवीय
सभ्यता इन्हीं के खुरदरे हाथों में नवीन रूप प्राप्त करती है- ‘‘जब तुम किसी बड़े या छोटे कारखाने में/कभी काम करते हो किसी
भी पद पर/तब मैं तुम्हारे इस काम का महत्व खूब जानता हूँ।और यह भी जानता हूँ – “मानव
की सभ्यता/तुम्हारे ही खुरदरे हाथों में नया रूप पाती है।”16
त्रिलोचन की काव्य संवेदना का केन्द्र रहा है- ग्रामीण;
किन्तु त्रिलोचन का समाज महज ग्रामीण समाज ही नहीं है उनकी
सामाजिकता के वृहत्तर दायरे में जहाँ एक ओर लोकजीवन की नाना चित्रावलियाँ अवलोकनीय
हैं वहीं दूसरी ओर उनका काव्य अपनी व्यापकता में समाज के शिष्ट वर्ग की अनुभूतियों
से भी सम्पृक्त है। लोक और शिष्ट का यह अद्वैत उनकी सामाजिक चेतना को वृहत्तर आयाम
प्रदान करता है। मानव समाज के प्रति एक गहरी आसक्ति उनके काव्य में सर्वत्र
अवलोकनीय है। वे मात्र मानव जीवन के प्रति आकर्षित नहीं हैं बल्कि प्रकृति के एक
एक रेशे से गहरा रागात्मक लगाव उनकी काव्य संवेदना का अनिवार्य अंग रहा है। उनकी
कविता का लक्ष्य समाज की वेदना का शमन कर उनके जीवन में हर्ष,
ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है वस्तुतः साहित्य का सृजन
ही वेदना के साक्षात्कार से ही उद्भूत हुआ करता है क्योंकि साहित्यकार का लक्ष्य
ही सामाजिक वेदना का शमन हुआ करता है त्रिलोचन का साहित्य भी उनकी इसी सामाजिक
वेदना के साक्षात्कार से ही निर्मित है। वे लिखते हैं- “जब पीड़ा बढ़ जाती
है/बेहिसाब/तब जाने अनजाने लोगों में/जाता हूँ /उनका हो जाता हूँ /हँसता हँसाता हूँ
।”17
त्रिलोचन मात्र समाज की बेहिसाब पीड़ा का ही चित्रण नहीं
करते बल्कि वे पीड़ा को उत्पन्न करने वाले सारे कारकों की जाँच पड़ताल करते हुए
प्रतीत होते हैं। वे जानते हैं कि समाज में जो भी समस्याएँ हैं उनका मूल कारण है
लोगों की स्वार्थ वृत्ति, कृत्रिम जीवन जीने की आकांक्षा, झूठी प्रदर्शनकारी जीवन पद्धति। यही कारण है कि वे काव्य के
समान जीवन में भी सहजता की बात को महत्वपूर्ण अर्थों में प्रतिष्ठापित करते हैं।
सहजता, सरलता
एवं वास्तविकता के प्रति यह गहरा लगाव ही उनकी काव्य चेतना को स्फूर्ति एवं ताजगी
से भरकर विश्वसनीयता प्रदान करता रहा है। उनकी काव्य चेतना वास्तविक जीवन संदर्भों
से निर्मित है। यही कारण है कि मानव का वास्तविक जीवन उन्हें सदैव आकर्षित करता
रहा है, उनके मन
को मुग्ध करता रहा है- “मुझे मानव जीवन की माया सदा मुग्ध करती है,
अहोरात्र आवाहन। सुनकर धाया धूपा, मन में लाया/ध्यान एक से एक अनोखे।”18
त्रिलोचन
को ऐसा साहित्यिक रचाव बिलकुल ही अभीष्ट नहीं है जो प्रदर्शन मूलक हो और यही कारण
है कि वे अपने काव्य में स्थान स्थान पर लोकजीवन के नानानुभवों,
उनकी वेदना, उनके हर्ष-विषाद, एवं उनके रहन-सहन को बड़ी ही आत्मीयता के साथ चित्रित करते
हैं। क्योंकि वे जानते है कि साहित्य की मुक्ति के लिए या उस की लोकप्रियता के लिए
जनता का प्रेम पाना परम आवश्यक है। जनता के प्रेम को पाने के लिए ही वे उनकी
अनुभूतियों को ही अपनी काव्यवस्तु का आधार बनाते हैं। यह उनकी सजग समाज चेतना का
ही प्रमाण है कि वे लोक जीवन की नाना अर्थछवियों एवं ध्वनियों को अपनी पैनी लेखनी
में आबद्ध कर लेते हैं। इन्हीं अर्थों में वे सच्चे ध्वनि ग्राहक हैं,
प्रबुद्ध समाज चेता भी हैं। उनके ही शब्दों में- “ध्वनि
ग्राहक हूँ मैं/समाज में उठने वाली/ध्वनियाँ पकड़ लिया करता हूँ ।’’19
लोक जीवन की इन ध्वनियों को पकड़ना आसान नहीं हुआ करता।
वस्तुतः इन लोक ध्वनियों को वही साहित्यकार पकड़ सकता है जिसे लोक से गहरी आसक्ति
हो एवं उसके प्रति सर्वस्व समर्पण का उदात्त भावोन्मेष हो।
त्रिलोचन के लोक जीवन के प्रति गहरे लगाव का एक कारण यह भी
रहा है कि आज लोग प्रदर्शन मूलक संस्कृति को अपनाने के क्रम में अपने वास्तविक
सांस्कृतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं त्रिलोचन अपने सांस्कृतिक मूल्यों की
रक्षा में इसलिए अधिक सजग रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि एक बार अपनी
परम्परागत संस्कृति के मूल्यों का क्षरण होने पर उन्हें पुनः उत्पन्न नहीं किया जा
सकता है। इसीलिए वे अपने काव्य में बराबर इस बात पर जोर देते चलते हैं कि अपनी संस्कृति
से उद्भूत जीवन्त विचारों को सदैव सँजोकर रखा जाय। वे समाज को सावधान करते हुए
कहते हैं- “अब समाज में/वे विचार रह गये नहीं हैं/ जिनको ढोता/चला आ रहा है वह।”20
निष्कर्षतः
त्रिलोचन की सामाजिक चेतना मानवतावादी मूल्यों पर ही अवलम्बित है। यहाँ प्रत्येक
व्यक्ति की उन्नति की कामना सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है चाहे वह सभ्य हो अथवा
असभ्य, शहराती
हो या ग्रामीण, सबकी
भाषा, सबकी
बोली, सबके भाव,
सबके आचरण एवं सबकी अस्मिता को पूरा सम्मान दिया गया है।
उनका काव्य विशिष्ट वर्ग से सर्व सामान्य वर्ग के विकास को आमन्त्रित करता है। यह
उनकी भाषा में रचित उनके ही भावों की सशक्त अभिव्यक्ति का काव्य है।
संदर्भ
ग्रंथ सूची
1. ताप के ताए हुए दिन: त्रिलोचन,
पृ. 64
2. ताप के ताए
हुए दिन: त्रिलोचन, पृ.
63
3. आधारशिला:
त्रिलोचन विशेषांक 2009 प.ृ 65
4. ताप के ताए
हुए दिन: त्रिलोचन, पृ.
53
5. आजकल:
अप्रैल 2010, पृ.
40
6. दिगंत:
त्रिलोचन, पृ. 56
7. तुम्हें
सौंपता हूँ: त्रिलोचन, पृ.
66
8. दिगंत: त्रिलोचन,
पृ. 29
9. अरघान:
त्रिलोचन, पृ. 42
10. धरती:
त्रिलोचन, प. 60
11. ताप के ताए
हुए दिन: त्रिलोचन, पृ.
49
12. दिगंत:
त्रिलोचन, पृ. 67
13. दिगन्त:
त्रिलोचन, पृ. 25
14. तुम्हें
सौंपता हूँ: त्रिलोचन, पृ.
33
15. तुम्हें
सौंपता हूँ: त्रिलोचन, पृ.
32
16. ताप के ताए
हुए दिन: त्रिलोचन, पृ.
63
17. प्रतिनिधि
कविताएं: सं. केदारनाथ सिंह, पृ. 21
18. दिगन्त:
त्रिलोचन, पृ. 66
19. दिगन्त:
त्रिलोचन, पृ. 24
20. उस जनपद का
कवि हूँ: त्रिलोचन, पृ.
17
डॉ.सुभाष चन्द्र पाण्डेय
अमेठी (उ.प्र.)
9473831621
[साभार: जनकृति पत्रिका]
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