आदिवासी केन्द्रित हिंदी उपन्यासों में स्त्री-संघर्ष: डॉ.अंकिता
आदिवासी
केन्द्रित हिंदी उपन्यासों में स्त्री-संघर्ष
डॉ.अंकिता
असिस्टेंट प्रोफेसर
चौधरी चरण सिंह पी.जी.
कॉलेज,इटावा
मोबाईल नं.- 9456805209
आदिवासी समाज मेहनत और संघर्षशीलता के लिए
जाना जाता है । उसमें स्त्री-पुरुष संबंध बराबरी पर आधारित होता है । परिवार और
समाज में उसका वही महत्त्व होता है जो पुरुषों का । इसीलिए वह निर्णय से लेकर
संघर्ष तक में पुरुषों का घर से बाहर तक पूरा साथ देती है । युद्ध में भी आदिवासी
स्त्रियां शत्रु से लोहा लेने में कभी पीछे नहीं हटीं, अपने समुदाय के पुरुषों के
साथ ये स्त्रियां बराबर की सहभागी रहीं । आदिवासियों को केन्द्र में रखकर जिन
लेखकों ने उपन्यासों की रचना की है, उनमें स्त्री
स्वर मुखर रूप से दिखाया गया है ।
आदिवासी संघर्ष की श्रृंखला अत्यंत लम्बी है, उसमें जिस प्रकार आदिवासी नायकों का नाम आता है उसी प्रकार स्त्रियों का
योगदान भी देखने को मिलता है । इससे पता चलता है कि जब भी आदिवासी पुरुषों ने
बाहरी शक्ति से संघर्ष किया तब आदिवासी स्त्रियों ने भी उन पुरुषों का पूर्ण सहयोग
कर बराबरी का परिचय दिया ।
भारतीय इतिहास में अग्रेजी राज एक ऐसा समय था
जिसने भारतीय ढांचे को तहत-नहस करके रख दिया था । आदिवासी प्रान्तों में
अंग्रेजों ने उसी तरह नरसंहार किया जैसे देश के दूसरी जगहों पर हुआ । बंदूक से
विहीन आदिवासी तीरों से अपना विरोध दर्ज कर रहे थे । अंग्रेजों की गोलियों का जवाब
वे तीरों की बौछार से दे रहे थे । इन वीर योद्धाओं में बिरसा मुण्डा, सिदू, कानू, चाँद, भैरव आदि नायकों का साथ उनकी बहनों, बेटियों, पत्नी एवं सम्पूर्ण आदिवासी स्त्रियों ने दिया था । संकट के समय समाज
की रक्षा और दुश्मन को परास्त करना प्रत्येक आदिवासी अपना धर्म समझता है । क्योंकि
युद्ध की विभीषिका का दर्द पूरे समाज को झेलना पड़ता है इसलिए संकट की घड़ी में स्त्री-पुरुष
सब मिलकर उस विपत्ति से निपटने का प्रयास करते हैं । वासवी लिखती हैं-‘‘अंग्रेजों से लोहा
लेने और कई इलाकों में तो उन्हें घुटने टेकने के लिए मजबूर करने में सशस्त्र
स्त्रियों के दल ने भूमिका निभायी ।’’1 अपने समुदाय के पुरुषों को लड़ाई करते हुए ये स्त्रियाँ देखती थीं कि वे
किस तरह अपनी जान की परवाह किये बगैर अंग्रेजों से लड़ रहे हैं । ऐसे में आदिवासी
स्त्रियाँ कैसे खामोश और हाथ पर हाथ रखकर बैठी रह सकती थीं,
इसलिए उन्होंने भी पुरुषों के साथ अपनी भागीदारी का ऐलान किया और युद्ध क्षेत्र
में उतर गयीं ।
‘बाजत अनहद ढोल’ में मधुकर सिंह ने 1855 के ‘संथाल विद्रोह’ का वर्णन किया है । अंग्रजों के आने के बाद संथालों की आर्थिक स्थिति अत्यंत
दयनीय हो गई थी । जीवन भर कर्ज चुकाना और गुलामी करना मानो उनके जीवन का अहम् हिस्सा
बन चुका हो । महाजन एवं व्यापारियों से उधार लेकर जीवन भर वे इस दुष्चक्र में
फंसे रहते थे । कोर्ट-कचहरी के चक्कर में ये संथाल और भी दरिद्रता की स्थिति में
पहुंच रहे थे । धोखे से इनके इकरारनामे में कर्जदार से यह वादा करवा लिया जाता था
कि वह महाजन के घर बेगार करेगा और ब्याज भी अलग से चुकायेगा जिसके चलते आदिवासी
साहूकार का बंधुआ मजदूर बनकर जिंदगी भर लाचारी की जिंदगी बिताने को मजबूर रहता था
। कर्ज में दबे होने से उन्हें भरपेट खाने को भी नहीं मिलता था । ऐसी ही कुछ
वजहें थीं जिसने संथालों को युद्ध के लिए मजबूर किया था इसके लिए 1832-33 में कुछ निश्चित जिलों के साथ
दामिन-ई-कोह का गठन किया गया था ।
सिविल सर्विस के जॉन पेट्टिवुड ने सर्वेयर की
भूमिका में कैप्टन टैनर की सहायता से सीमाओं का निरीक्षण किया था । यह इलाका
भागलपुर, मुर्शिदाबाद एवं वीरभूम जिलों में बंटा था जिसका क्षेत्रफल 1366.1 वर्ग मील था । इन्हीं
जिलों के आदिवासियों ने मिलकर युद्ध का ऐलान किया था । जगह-जगह विद्रोह हो रहे थे
कहीं तीब्र तो कहीं मन्द जिसमें स्त्रियाँ हमेशा साथ रहती थीं । अंग्रेजों के विरुद्ध
बगावत करने के कारण आदिवासी दण्डित होते थे । अंग्रेज ही सरकार का पर्याय थे और
सरकार का विरोध करने पर व्यक्ति को दण्डित किया जाना तय था । आदिवासियों से
परेशान होकर 10 नवम्बर 1855 ई. को मार्शल लॉ की घोषणा की गई थी जिसमें बंगाल के
लेफ्टिनेंट गवर्नर को 1804 ई. के विनियम 10 द्वारा यह कार्य करने का दायित्व
सौंपा गया इसके तहत भागलपुर ,मुर्शिदाबाद,वीरभूम जिला शामिल थे चूँकि अंग्रेज
सरकार के कार्यक्षेत्र में आने वाले सभी जिलों के अंदर जो भी व्यक्ति सरकार का
(अंग्रेजों का)विरोध करेगा उसे गिरफ़्तार कर लिया जाएगा और अदालत भी कोई कार्यवाही
नहीं करेगी ऐसे में 1804 के विनियम 10 के खंड के तहत मृत्युदंड का प्रावधान था ।
जिसके बाद घोषणा की गई कि अंग्रेज सरकार के कार्यक्षेत्र में आने वाले सभी जिलों
के अंदर जो भी व्यक्ति सरकार का (अंग्रेजों का) विरोध करेगा उसे गिरफ्तार कर लिया
जाएगा और अदालत भी कोई कार्यवाही नहीं करेगी । ऐसे में भोगनाडीह के रहने वाले
संताली नेताओं सिदू , कानू, चाँद, भैरव आदि ने घोषणा की थी कि वे सूदखोर, महाजनों, दिकुओं को संतालों को क्षेत्र से बाहर निकाल अपना संताल देश कायम करेंगे
। 30 जून 1855 को इन चारों भाइयों ने भोगनाडीह में हजारों संतालों को एकत्र किया
और ‘शोषण से मुक्ति कैसे संभव हो’ इस
पर विचार व्यक्त किया । अंग्रेजों और साहूकारों के शोषण से मुक्ति कि लिए सिद्दो, कानू, चाँद, भैरव ने युद्ध
किया और वे निर्मम हत्या के शिकार हुए । इस युद्ध के बारे में कहा जाता है कि
उसमें एक तरफ पुरुष थे तो दूसरी ओर स्त्रियां अंग्रेजों को चुनौती दे रही थीं ।
उपन्यास में दिखाया गया है कि किस तरह जोबा, बुधिया, सुमो, तुरिया, लुकी, कामी जैसी स्त्रियां पुरुषों के दल में शामिल हो चुकी थीं और एक सहयोगी
की भूमिका में अपने दायित्वों का निर्वाह कर रही थीं । अपने देश के लिए मर मिटना
इन स्त्रियों ने अपना कर्तव्य समझा था । इसलिए पुरुषों के साथ वे बराबर की
सहभागिता का परिचय दे रही थीं । इन स्त्रियों के बारे में मधुकर सिंह का यह कथन
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि ‘‘जहां शिक्षा, गरीबी, अस्मिता, रोटी की
चिंता सर्वोपरि हो वहां की दो लड़कियां और एक मुट्ठी औरतें आजादी के लिए मर मिटने
को तैयार हैं । आजादी क्या होती है इसके रूप गंध का एहसास भी नहीं है इन्हें, बस इतनी ही भर की कल्पना है इन्हे कि आजादी का मतलब जुल्म का खात्मा
होता है ।’’2 इसी जुल्म के
खात्मे के लिए आदिवासियों ने अंग्रेजों से युद्ध किया । वासवी ने सिदू ,कानू की बहनों के बारे में लिखा है-‘‘संथाल हूल के नाम के सिदू, कानू, चाँद,भैरव के साथ उनकी दो बहनों फूलो और झानो ने
योद्धा की भांति अंग्रेज शत्रुओं से मुकाबला
किया । रात को तलवार लेकर निकली फूलो और झानो ने अंग्रेजों के शिविर जाकर
21 सिपाहियों की हत्या की ।’’3 निर्भीक और साहसी दोनों बहनों ने अपने भाइयों का हर स्तर पर साथ दिया था
। जंगलों में जाकर भोजन पकाने से लेकर गाँव-गाँव जाकर लोगों को इस लड़ाई के लिए
तैयार करने तक हर स्तर पर दोनों बहनों ने सोये हुए मन में जागरूकता की नयी ज्योति
जलायी थी । अंग्रेजों के समय में स्थितियां इतनी बुरी हो चुकी थीं कि आदिवासी अपने
ही घर में बंधक हो गये थे । ऐसी स्थिति में जंगल को बचाने के लिए, अपनी भूमि पर
अपना राज कायम करने के लिए अंग्रेजों की सेना से जा टकराई थीं ये आदिवासी बालाएं ।
गाँव-गाँव में लोंगों को हूल के लिए तैयार करने का बीढ़ा उठाया था इन दोनों
आदिवासी किशारियों ने । राकेश कुमार सिंह ने उपन्यास ‘जो इतिहास
में नहीं है’ में इनका वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘जिस सुघड़ता से मांस-भात रांधती
थी फूलो और झानो उतनी ही कलात्मकता से तीर-तलवार भी चला लेती थीं । सुलतानाबाद के
बाद भगदड़ भरे जीवन में फूलो, झानो और सुमि की उपयोगिता साथ
रहने में कम रह गई थी । वे तीनों स्त्रियां गाँव-गाँव घूमकर हूल जगाने का दायित्व
निभा रहीं थीं लोगों से कहती कि-‘‘जंगल पर विपदा आयी है रे ।
ललमुहों से लड़ना है दीकू लोगों को भगाना है ।’’4
यह कार्य इतना आसान नहीं था इसलिए वे कहती हैं कि ‘‘जंगल के
सारे गाँव-गोत्र मिलकर गाय-बकरी चराओ साथ-साथ ।’’5 वे स्त्रियां जानती थीं कि अब संगठित होकर ही इस विपत्ति से पार पाया जा
सकता है, इसलिए उन्होंने सबको संगठित होने का पाठ पढ़ाना
शुरू किया । विपत्ति में ये स्त्रियां कितने साहस से काम लेती हैं और अपने वर्ग के
पुरुषों का साथ देती हैं, इस घटना से यह सहज ही पता चल जाता
है । विपरीत समय में संथाल युवतियां अपने जमीन एवं जंगल की रक्षा के लिए लड़ी न कि
हताश हुई । उनकी निर्भीकता ही जीवन का मूल आधार था क्योंकि वे बिना किसी भय के
अपने समाज में रहना चाहती थीं, यही वजह है कि वे लोगों को
जाग्रत कर रही थीं । उन्हें अपने भाइयों की साहसी प्रवृत्ति पर भरोसा था । वे
जंगल में जाकर बसे गाँवों में संदेश देतीं । राकेश कुमार सिंह लिखते हैं-‘‘हूल में अंजुरी भर खून दो रे’- फूलो प्रेरित करती थी….बदले में भाई देगा महाजन से छुट्टी । कर्जे से छुटकारा अपने मन से जीने
मरने की छूट । गाँव-गाँव में हूल जगाती फूलो-झानो और सुमि सखुए की डाली लिए घूम
रही थी ।’’6 यह सखुए की डाली उनके संघर्ष और
सहयोग की निशानी है जो उन्हें एक होने का संदेश देती है । यह वह समय था जब एक ओर
अंग्रेजों की दासता से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर हमारे
भारतीय महाजन, जमींदार, सेठ, साहूकार
अंग्रेजों का साथ देकर आदिवासी इलाकों में घुसकर उन्हें परेशान कर रहे थे । भारत
में मुख्यधारा के लोग जब अंग्रेजों को भगाने का
कार्य कर रहे थे उसी समय एक और वर्ग जो सदियों से हाशिये पर जंगलों में
निवास कर रहा था, वह अंग्रेजों के साथ-साथ अपने देश के
दिकुओं से भी लड़ रहा था । यह सर्वविदित है कि जिस वक्त पूरा देश अंग्रेजों को
भगाने के लिए प्रयासरत था उसी समय ये महाजन अंग्रेजों की चाटुकारिता कर अपने ही
देश और लोगों को प्रताड़ित और शोषित कर अंग्रेजों का भरपूर साथ दे रहे थे । इस
स्थिति में आदिवासीयों को दोहरे संघर्ष का सामना करना पड़ रहा था जिसमें आदिवासी स्त्रियों की भूमिका और पुरुषों
को दिया गया उनका सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण
है । जब-जब आदिवासी क्षेत्र में उनकी अर्थव्यवस्था, संसाधनों एवं उनकी समाज व्यवस्था
पर कुठाराघात किया गया, उन पर शोषण और दमनकारी नीति अख़्तियार
की गई तब-तब उसका प्रतिकार विद्रोह के रूप में उभर कर सामने आया । जिसमें
स्त्रियों की भूमिका सदैव महत्त्वपूर्ण रही । आदिवासी युवतियां सचमुच बहादुरी की
मिसाल थीं । उन्होंने हूल के दौरान बाहरी शक्तियों के खिलाफ जनता को जागरुक किया
। भाइयों का साथ दिया । संथालों को आजादी का संदेश दिया और उन्हें गुलाम होने की
पीड़ा को समझाया । इस प्रकार संताली स्त्री-पुरुष की सामूहिक शक्ति ‘हूल’ की ताकत थी क्योंकि हूल का अर्थ ही है ‘मुक्ति
के लिए आंदोलन’।
अंग्रेजों के समय आदिवासी संघर्ष में आदिवासी
महिलाओं ने जो कार्य किया था उससे अंग्रेज भी परेशान हो गये थे क्यों कि अंग्रेजों
के साथ संघर्ष में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का तेवर अधिक आक्रामक था । आदिवासी
महिलाओं के प्रत्येक स्तर पर सहयोग के कारण ही यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा
। इन स्त्रियों ने कहीं भोजन पकाया तो कहीं तीरों को पैना किया, जब स्थितियां ज्यादा बिगड़ीं तो औरतों ने अपने दुधमुंहे शिशुओं को पीठ से
बांधकर युद्ध का मोर्चा भी संभाला । कितनी विकट परिस्थितियां रही होंगी जब
स्त्रियों ने अपने शिशुओं सहित जान की बाजी लगाई होगी । वासवी लिखती हैं कि
“अंग्रेज कमिश्नर ई. टी. डाल्टन ने लिखा है कि आदिवासी इलाकों को उन्हें जीतना
पड़ा । रक्त रंजित आदिवासी विद्रोह औरतों की साझेदारी के बिना न पूर्ण रहा न वह
ऐतिहासिक समृद्धि पा सका । समझौता विहीन और आर-पार का संघर्ष कर तिलका माझी उर्फ
जाबरा पहाड़िया से लेकर, तेलंगा, खड़िया, बिरसा, जतरा
ने जो नींव डाली वह अजर-अमर है । विद्रोही अगर ब्रिटिश फौज के सामने झुके नहीं तो सिर्फ इसलिए कि
औरतों ने पीठ पर बच्चे, हाथों में हथियार ले अपने मर्दों का
साथ दिया ।”7 कितना कष्टपूर्ण जीवन रहा होगा उस
वक्त जब अंग्रेजों के समक्ष एक ओर अपनी
ममता की छांव में बच्चों को लेकर उन्हें पीठ पर बांधा होगा तो दूसरी ओर
तलवार लेकर युद्ध भूमि में मारी गई होगीं
। कितनी माँए पुत्र-पुत्री विहीन हुई होगीं तो कितने बच्चे बिना माँ के हुए होंगे
। न जाने कितने परिवार समूल नष्ट हुए
होंगे । स्त्री शक्ति का आभास शायद ही उन महाजन और अंग्रेजों को रहा होगा कि
शांतपूर्ण जीवन जीने वाली स्त्रियां इतनी दृढ़ता के साथ पेश आ सकती हैं ।
महान क्रांतिकारी नायक गुंडाधूर जिसने बस्तर
प्रांत के लिए 1910 ई. में अंग्रेजों से बगावत की थी, उसे भूमकाल का नाम दिया गया था । यह शुरुआत धुरवा इलाके से शुरु हुई थी
जिसमें शक्तिशाली शासकों के विरुद्ध साधन सम्पन्न लोगों के विरुद्ध सीधे-साधे
आदिवासी जमात ने प्रतिरोध करने की ठानी थी । शासन के अन्याय के विरुद्ध
आदिवासीयों द्वारा किये गये संघर्ष एक तरफ संस्कृति तो दूसरी तरफ स्व की रक्षा
के लिए किये गये विद्रोह थे । इस विद्रोह में बस्तर प्रांत की आदिवासी स्त्रियों
ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी । धुरवा इलाके से गुंडाधूर ने जिस
आंदोलन की शुरुआत की थी, उसमें आदिवासी स्त्रियों की भूमिका
को राजेन्द्र अवस्थी ने अपने उपन्यास ‘जंगल के फूल’ में दिखाया है । इस उपन्यास
का पात्र रायपुर में डी.एस.पी. रह चुका अंग्रेज ग्रेयर था । लेखक लिखता है “ग्रेयर
ने एक बार कैदियों की ओर फिर देखा । उनमें औरतें भी थीं औरतों को देखकर उसने दांत
पीसे, जंगली चुडै़ल । यह
भी लड़ता है । उसने एक औरत को सामने बुलाया । प्रत्येक को वह ध्यान से
देखता और ताकतभर एक-एक हंटर उन्हें मारता और जेल में बंद करने का हुक्म दे देता ।”8 स्पष्ट है कि उस दौर में आदिवासी स्त्री के साहस को
देखकर ग्रेयर अचंभित था । पीड़ा के बावजूद स्वतंत्र राज के लिए ये स्त्रियां जेल
में कैद भुगतने को तैयार थीं । पेड़ पौधों, लताओं, पहाड़, झरना, नदी आदि से गहरा
लगाव रखने के कारण इन्हें विनाश के कगार पर पहुंचाने वाले अंग्रेजों को ये कैसे
बख्श सकते थे । प्रकृति पर आश्रित जीवन जीने और उसके साथ मित्रवत व्यवहार करने
वाले आदिवासी उसे नष्ट होते कैसे देख सकते थे ? इसके साथ ही कर वसूली से आदिवासी
परेशान हो चुके थे । उनके पूर्वजों ने कभी किसी को कर नहीं दिया था अब बिना किसी
वजह के कर भरना पड़ रहा था इसलिए वे शोषण के विरुद्ध खड़े हुए । इसमें गुण्डाधूर
का साथ सुलकसाए की प्रेमिका महुआ भी देती है । प्रारम्भ में तो वह अपने प्रेमी को
लेकर चिंतित रहती है किंतु जल्दी ही वह प्रेमी की चिंता छोड़ अपने जंगल भूमि की रक्षा की चिंता करने
लगती है । मुहआ का प्रेम विषम परिस्थिति में और भी मजबूत होता दिखाई देता है जो
प्रेम की एक नई परिभाषा गढ़ता है । यह प्रेम सिर्फ एक प्रेमी के लिए उसके शरीर और
संसर्ग से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है । उनका प्रेम आगे चलकर किसी एक के लिए न
रहकर सम्पूर्ण आदिवासी वर्ग के लिए समर्पित हो जाता है । ‘जंगल
के फूल’ उपन्यास में राजेन्द्र अवस्थी लिखते हैं “गुण्डा
का साथ महुआ ने भी दिया । महुआ को अभी तक सुलकसाए की चिंता थी । सुलक के वियोग में
वह स्वयं को भूल गई थी ............ उसका प्यारा सुलक अपने देश और अपनी जाति की
रक्षा के काम में लगा है तो उसे भी उसका साथ देना चाहिए । उसने कमर कस ली उसने
गुण्डाधूर का हाथ गह और कहा-चल बीर जंगलों से ये झाढ़ पेड़ और पौधे हमारी ओर
ललचाई आँखों से देख रहे हैं, हम इन्हें बचाएं ।”9
इसी तरह बिरसा मुण्डा के उलगुलान 1900 ई. में चम्पी और साली नाम की दो
विद्रोही स्त्रियां हमेशा बिरसा की मदद के लिए उनके साथ रहीं । ये स्त्रियां अपार
शक्ति सम्पन्न थीं जो अपने में उस जज्बे को रखती थीं जो किसी बाहरी शक्ति से
टक्कर ले सके, इन्हें मृत्यु का भी कोई
भय नहीं था । ऐसी कर्मठ और शक्तिशाली स्त्रियाँ इन वन प्रांतों में शांत तरीके से
रह रही थीं, जिसकी शक्ति का अंदाजा लगाना अत्यंत कठिन कार्य
था ।
आदिवासी स्त्रियाँ अपने पूरे समूह का संचालन
करती उन्हें प्रशिक्षण देती । यह प्रशिक्षण कुछ और नहीं बल्कि तीर धनुष से निशाना
साधना था, जिसमें सबको महारत हासिल करना था, ताकि युद्ध के
समय दुश्मन को मृत्यु के घाट उतारा जा सके । ‘जंगल के फूल’ उपन्यास की पात्र
महुआ भी यही कार्य कर रही थी । राजेन्द्र अवस्थी ने महुआ का वर्णन करते हुए लिखा
है कि- “महुआ ने औरतों की एक फौज गठित करना शुरु कर दी,
औरतों को उसने निशाना साधना और लड़ाई के दूसरे तरीके सिखाए । यह काम उसने गढ़
बंगाल से ही शुरु किया था । धीरे-धीरे कई गाँवों
तक वह फैल गया ।”10 और
इस तरह जागरुकता और प्रतिरोध की लहर लोगों तक पहुंच रही थी ।
आदिवासी स्त्रियों की पुरुषों के साथ हर कार्य
में बराबर की सहभागिता होती है । वह एक तरफ यदि शांत और संवेदनशील हैं तो दूसरी ओर
अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ । प्रेम में वह सर्वस्व लुटाने को तैयार हैं तो
युद्ध में सब कुछ छीन लेने को तत्पर दिखाई देती हैं । अंग्रेजों के समय प्रत्येक
आदिवासी लड़ने के लिए अपना घर द्वार छोड़कर प्रतिदिन नई योजनाएं बनाते । उन
योजनाओं में स्त्रियां भी अपनी सक्रिय भागीदारी निभाती । एक क्षेत्र से दूसरे
क्षेत्र में जाकर लोगों को एकत्र करते तो वे अपनी बुद्धि चातुर्य का प्रयोग कर
अपनी अपेक्षित भूमिका निभाती । ‘जंगल के फूल’ उपन्यास में महुआ का चरित्र कुछ ऐसा
ही है जिसमें वह योजनाओं का वर्णन सुलक से करती है । उपन्यासकार लिखता है कि “महुआ
रात को सुलक से मिलती तो अपनी पूरी योजना पर चर्चा करती उसमें अपार शक्ति और लगन
थी । सुलक देखकर चकित था । जो एक दिन प्यार में पागल थी, वह आज जैसे सारा प्रेम भूल गई थी । सुलक
यदि प्रेम की कभी कोई बात करना भी चाहता तो महुआ उसे जोर का धक्का देकर
कहती कैसा सिरदार है रे, लड़ाई के मैदान में कोई ऐसी बातें
करता है । खबरदार ऐसा कहा तो मैं तेरी बराबर की सिरदार हूँ ।”11 स्पष्ट है कि युद्ध क्षेत्र में आदिवासी स्त्री
पुरुष के बराबर मानी जाती थी । अगर पुरुष सरदार है तो वह भी सरदार है । घोटुल में
सुलक सरदार की हैसियत से वहां के नियमों का पालन करता है तो सरदार की प्रेमिका
होने के कारण महुआ भी उसके बराबर की हकदार रह चुकी होती है । इसलिए युद्ध भूमि में
निर्णय लेने के समय भी वह बराबर की ही हकदार मानती है । यह आदिवासी समुदाय में स्त्री-पुरुष
संबंधों के बराबरी द्योतक है ।
भारत से अंग्रेजों के चले जाने के पश्चात यहां
औद्योगीकरण की नीति को बढ़ावा मिला । अंग्रेजों ने इसका बीज बोया जिसे भारतीयों ने
पुष्पित पल्लवित किया । विकास का नया नाम देकर यूरोप की तरह यहां भी नये-नये
कारखाने स्थापित किये जाने लगे । ये कारखाने वहाँ स्थापित किये जाने गए जहाँ
आदिवासी रह रहे थे । वर्तमान में कई तरह की परियोजनाएं भी आदिवासी क्षेत्रों में
अपना पैर फैला रही हैं । सरकार का कहना है कि इन कारखानों और परियोजनाओं के द्वारा आदिवासियों का पिछड़ापन दूर होगा और
उन्हें आसान जिंदगी जीने का अवसर मिलेगा । बिजली, पानी
आदि की सुविधा पाकर आदिवासी खुशहाल होंगे लेकिन इन कंपनियों के स्थापित होने से
आदिवासियों को सौगात के रूप में विस्थापन मिला । जैसे-जैसे विकास में तेजी आयी
आदिवासी बड़ी संख्या में विस्थापित होने लगे । आदिवासियों की जिंदगी में फिर से
वैसा ही भूचाल आया जैसा अंग्रेजों के समय में था जिसके कारण यहां नये सिरे से
आंदोलनों की शुरुआत हुई जिसमें आदिवासी पुरुषों के साथ स्त्रियां भी सामने आयीं ।
देश की सुरक्षा के नाम पर पलामू, गुमला
में सन्1994 ई. में 245 गाँवों को उजाड़कर
वहाँ फायरिंग रेंज बनाने की योजना बनाई जा रही थी । ऐसे में वहां के स्त्री-पुरुषों
ने देवमनी (बंधनी) के नेतृत्व में आंदोलन की राह पकड़ी देवमनी टाना आंदोलन के
योद्धा जतरा भगत की पत्नी थी । जिसे 1914 में डेढ़ साल की कैद इसलिए हुई थी क्योंकि
उसने अंग्रेजों और जमीदारों के खिलाफ सत्याग्रह किया था । यह आंदोलन इसलिए हुआ क्यों
कि दिन रात खेतों में काम करने के बाद जमींदार उनके ही खेतों से जबरदस्ती फसल
कटवा लेते थे । जतरा भगत ने आंदोलन किया और जेल गया तो उसकी पत्नी ने आंदोलन का
नेतृत्व संभाला । उस आंदोलन की अगुआ बन बंधनी ने मिसाल कायम की थी ।
आजादी के बाद उत्तर औपनिवेशिक पृष्ठभूमि को
केन्द्र में रखकर जिन उपन्यसकारों ने लेखन कार्य किया है, उसमें स्त्रियों की
क्रांतिकारी चेतना को बखूबी से दिखाया गया है । पुरुषों के साथ उनकी भी
संघर्षशीलता, बराबर की सहभागिता आदि को प्रस्तुत कर
आदिवासी स्त्रियों का सजीव वर्णन किया है ।
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में रणेन्द्र ने जिस
असुर समुदाय की त्रासद गाथा का वर्णन किया है
उससे आज आदिवासियों के सम्मुख उपस्थित समस्याओं का पता चलता है । असुर जिस
जगह रह रहे हैं वहां अवैध खनन जारी है लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं
निभाती जिससे लोकल नेता और पुलिस के साथ
मिलकर पूंजीपति इस कार्य को निर्भीक भाव से करते हैं जिससे आदिवासी दु:खी और
पेरशान हैं क्योंकि जहां से यह अवैध खनन होता है वहाँ खाली गड्डे हो जाते हैं
जिसके कारण वहाँ बीमारियां फैलती हैं । यह कार्य आजादी के बाद आज से पूर्व लगभग 30
वर्षों से हो रहा है ।
आदिवासियों को खनन से होने वाली समस्याओं से
खनन माफियाओं का कोई सरोकार नहीं है ।
खाली गड्ढों में गंदा पानी भरे रहने से वहां मलेरिया और तरह-तरह की बीमारियां
फैलती हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर
बुरा प्रभाव पड़ता है । वैसे तो आदिवासी समाज में शिक्षा का स्तर अभी ज्यादा
नहीं है किन्तु जो लोग शिक्षित हैं भी उन्हें भी बेहतर रोजगार नहीं मिल पाता ।
उपन्यास में जब असुर जिला मुख्यालय जाते हैं तो उनके साथ स्त्रियाँ भी जाती हैं
। रणेन्द्र लिखते हैं- “बहुत बड़ी भीड़ जिला मुख्यालय पहुँची । बिरसा मैदान से
जब रैली निकली तो हरे झण्डे से पूरा शहर पट गया । ग्रामीणों आदिवासियों मजदूरों
का इतना बड़ा जुलूस इस शहर में आज तक नहीं देखा था । सबसे आगे बुधनी दी और ऐतवारी
संघर्ष समिति का बड़ा बैनर लिए बढ़ रहीं थीं । मुझे (राजकुमार मास्टर) रैली में
तो शामिल नहीं किया गया था, हाँ जेम्स की मोटर साइकिल से
आगे-पीछे सब पर नजर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी । कलेक्टर को मांगपत्र
सौंपने के बाद बात साफ कर दी गई कि इस बार केवल किसी जाँच-वांच से लोग चुप नहीं
बैठने वाले । जब तक कोई कार्यवाई नहीं होगी, खदानों में और
प्रखंड अंचल में काम ठप्प ।”12 इस प्रकार अपने
समुदाय के लिए पुरुष के साथ कन्धे से कंधा मिलाकर ये स्त्रियां विद्रोह के लिए
तत्पर हैं । बुधनी और ऐतवारी पुरुषों से आगे चलती हैं ।
आदिवासी शांत तरीके से अपना आंदोलन करते हैं
किंतु मांगों पर कोई असर नहीं होते देख और हिंसा से उसे दबाने के कारण वे बंदूक का
सहारा लेते हैं । रणेन्द्र लिखते हैं- “तब तक गंदूर एतवा के ट्रक पर चढ़ चुका था
ललिता, बुधनी दी सब पहले से थीं । ऐतवारी भी ट्क खुलने के पहले दौड़कर पहुंची और
साथ चल दी ।...............बातचीत के लिए जाते ललिता, बुधनी
दी, गन्दूर, ऐतवारी, लालचन दा के बाबा और पन्द्रह लोग की धज्जियां उड़ गई थीं । लेकिन बिखरी
हुई देह की जगह पिघलता हुआ लोहा वहां बहने लगा ।”13 यह आन्दोलन शांत
तरीके से ही अपनी बात मनवाने का था जिसमें निर्दोश आदिवासी स्त्री पुरुषों की
धाज्जियां उड़ादी गई थीं । इसमें स्त्री-पुरुष दोनों मारे जाते हैं । ये
स्त्रियाँ साथ-साथ जीवन निभाने के साथ मानो मृत्यु में उनका साथ निभाने का वादा पूर्ण कर रही थीं
।
आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ खनिज सम्पदा
है वहां सब जगह की कहानी एक जैसी है । आदिवासी जीवन में इतनी उथल-पुथल है कि उसे
प्रतिरोध के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं सूझता है, जो
स्त्री-पुरुष साथ मिलकर कर रहे हैं । जैसे वे गृहस्थी साथ मिलकर चलाते हैं ।
‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ उपन्यास में महुआ माजी मरंग
गोड़ा में रहने वाले आदिवासियों की समस्याओं के संबंध में बताती हैं कि आधुनिकीकरण
के कारण वहाँ आदिवासी जीवन किस तरह खत्म होने के कगार पर है । माचीकोटा गाँव में
जब एक नया टेलिंग डैम बनने की बात सामने आयी तो सगेन ने पुरुष युवाओं के साथ
स्त्रियों को भी समझाने की कोशिश की इससे प्रतिक्रिया सामने आयी, महुआ माजी उसका उल्लेख इस
प्रकार करती हैं- “पुलिसिया अत्याचार की परवाह न करते हुए पुरुषों के कंधे से
कंधा मिलाकर औरतें भी धरना प्रदर्शन करने लगीं । पुनर्वास तथा रोजगार की मांग करते
हुए नये टेलिंग डैम के निर्माण का विरोध करते हुए कंपनी के मुख्य गेट को घेरकर
लुरमडीह, काटिन तरवा सतजनता आदि खदानों से कच्चा माल लेकर
आने वाली गाड़ियों को मिल में घुसने से रोका जाने लगा ।”14
आगे वे लिखती हैं- “कंपनी तीसरे डैम को बनवाने की तैयारी में थी तब गाड़ियों की
आवाजाही बंद करने के लिए पाँच-पाँच स्त्रियाँ सड़क पर लेट जातीं जैसे पुलिस उन्हें
गिरफ्तार करती पाँच और महिला-पुरुष आकर उनकी जगह ले लेते ।”15 इस प्रकार स्पष्ट है कि आदिवासी स्त्री, पुरुष
से कहीं अधिक जीवट और संघर्षशील है । वह शांतिपूर्ण जीवन में जैसे पुरुषों के साथ
मिलकर खेती और शिकार करती है वैसे ही विपत्ति के समय उसका साथ देती है ।
बाह्य शक्तियों के द्वारा जब उन्हें
परेशान किया जाता है अथवा क्षेत्र से बाहर करने का प्रयास किया जाता है तो पुरुषों
के साथ मिलकर युद्ध भी करती हैं । अत: आदिवासी स्त्री का जीवन पुरुषों के साथ
प्रत्येक स्तर पर सामंजस्यपूर्ण और सहयोगात्मक है जो मुख्यधारा के समाज में कम देखने को मिलता है ।
संदर्भ सूची –
1.वासवी.(उलगुलान
की औरतें). मीणा, केदार प्रसाद. (सं). (2012).
क्रांतिकारी आदिवासी. दिल्ली:साहित्य उपक्रम. पृ.116
2.सिंह, मधुकर .
(2005). बाजात अनहद ढोल. दिल्ली:वाणी प्रकाशन. पृ. 65
3.वासवी.(उलगुलान
की औरतें). मीणा, केदार प्रसाद. (सं). (2012).
क्रांतिकारी आदिवासी. जयपुर:साहित्य उपक्रम. पृ.119
4.सिंह, राकेश. (2005). जो इतिहास में नहीं है.
दिल्ली:भारतीय ज्ञानपीठ. पृ. 292
5.वही. पृ. 292
6.वही. पृ. 292
7.वासवी.(उलगुलान की औरतें).मीणा,केदार
प्रसाद.(सं).(2012).क्रांतिकारी आदिवासी. दिल्ली:साहित्य उपक्रम. पृ. 119
8.अवस्थी, राजेन्द्र. (1996). जंगल के फूल.
दिल्ली:राजकमल प्रकाशन. पृ. 206
9 .वही. पृ.157
10.वही. पृ. 157
11.वही. पृ. 196
12.रणेन्द्र. (2009). ग्लोबल गाँव के देवता. दिल्ली
.भारतीय ज्ञानपीठ. पृ. 52
13. वही. पृ. 99-100
14.माजी, महुआ. (2012). मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ. दिल्ली:राजकमल प्रकाशन. पृ.169
15.वही. पृ.172
[साभार: जनकृति पत्रिका, अंक 30-32 सयुंक्त अंक, अक्टूबर-दिसंबर 2017]
[चित्र साभार: द अल्टरनेटिव डॉट इन]
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