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“संजीव के ‘धार’ उपन्यास में आदिवासी चिंतन”: मनीष कुमार



“संजीव के ‘धार’ उपन्यास में आदिवासी चिंतन”

मनीष कुमार
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
मो. - 7725076980
ईमेल - manish2190@gmail.com


आदिवासी से हमारा अभिप्राय देश के मूल एवं प्राचीनतम निवासियों से है। आज भारत आर्थिक विकास के पथ पर तेज गति से आगे बढ़ता जा रहा है, इसके बावजूद आज भी समाज का एक वर्ग ऐसा है जो हजारों साल पुरानी परम्पराओं के साथ जी रहा है। भारत के आदिवासी आज भी जंगली परिस्थितयों में किसी तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं।

आदिवासी जनजीवन के संदर्भ में डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने लिखा है – “संपूर्ण मनुष्य का एक विभाग उन लोगों का भी है जो सभ्यता की दौड़ में बहुत पीछे छुट गए हैं। उन्हें आदिवासी कहा जाता है।”1 आधुनिक सामाजिक व्यवस्था पर यदि कोई पिछड़ा हुआ समाज है तो वह आदिवासी समाज है जो सदियों से जंगलों तथा पर्वतीय क्षेत्रों में रहने को विवश है और सभी साधन-सुविधाओं से वंचित है। यह आदिवासी समाज अज्ञान तथा अशिक्षा के कारण अभी भी अपनी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं से बाहर नहीं आ पाया है, इसीलिए समाज में सभी प्रकार से दमित हुआ है, क्योंकि वह अपनी परम्पराओं से जकड़ा हुआ है।

“आज आदिवासियों में चेतना जगी है। वह नई-नई विचारधाराओं और क्रांतियों से परिचित हुए हैं, जिनके परिप्रेक्ष्य में वह अपनी नई पुरानी स्थियों को तोलने लगा है। उसमें अपने होने न होने, अपने हकों के अस्तित्व की वर्तमान स्तिथि, अपने साथ हुए भेदभाव व अन्याय का बोध भी जगा है।”2 सामान्यतः यदि कहा जाये तो आदिवासी समाज के विषय में किया गया विचार-चिंतन ही आदिवासी चिंतन है। आदिवादी चिंतन वह चिंतन है, जिसमें आदिवासी जनजातियों के जीवन व्यवहार पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया जाता है तथा उसकी समस्याओं को समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है।

वस्तुतः आदिवासी चिंतन वर्तमान काल की उपज है। आजादी के पश्चात देश के लोगों को अपनी उन्नति और विकास का अवसर मिला जिसमें दलितों तथा अन्य पिछड़ी जाति के लोगों को थोड़ी-बहुत मात्र में विकास का अवसर प्राप्त हुआ, जिसका लाभ उठाकर कुछ लोग उन्नति के शिखर पर पहुचें, किन्तु आधुनिकता के इस दौर में हमारे देश का आदिवासी समाज जैसा जहाँ था वैसा ही वहीं पड़ा है, जो कि गम्भीर चिंतन का विषय बन गया है। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो यह कहना बिलकुल सही होगा की हमारे समाज में सबसे अधिक आधुनिक संसाधनों से वंचित उपेक्षित तथा अभावग्रस्त समाज आदिवासी समाज रहा है।

संजीव नये उपन्यासकारों में एक चर्चित नाम है। 1990 में प्रकाशित संजीव का ‘धार’ उपन्यास आदिवासी जीवन की गरिमा तथा उपलब्धियों को उजागर करता है। ‘धार’ उपन्यास संथाल परगना में कोयले की खानों में काम करने वाले मजदूरों का चित्रण हुआ हैं। उपन्यास के केन्द्र में संथाल परगना का बॉसगड़ा अंचल और आदिवासी हैं। ये आदिवासी मजदूर पेट की आग के कारण कोयले की खदानों में काम करने जाते हैं। कभी जहरीली वायु फैलने के कारण, कभी धरती के धसने के कारण तो कभी पानी भरने के कारण उन्हीं खदानों में समा जाते हैं। इसके आलावा प्रस्तुत इस उपन्यास में पूंजीवादी व्यवस्था, बिचौलियों की कुटिलताएँ, अवैध खनन, माफिया गिरोह का आतंक, श्रमजीवियों का शोषण, आदिवासियों का जीवन आदि का भी चित्रण हुआ है।

वर्तमान समय में आदिवासी समाज की स्थिति पहले से खराब होती जा रही है। उनसे वह सब कुछ छिनता जा रहा है, जिसे प्राप्त करने का वह हकदार हैं। संजीव के ‘धार’ उपन्यास में इसका सजीव चित्रण दिखाई देता है, जिसमें संथाल आदिवासी गरीबी तथा बेगारी में जीवन बिताते हैं। उद्द्योगपति महेन्द्र बाबू आदिवासी इलाके में तेजाब का कारखाना शुरू करतें हैं, जिसके पानी से कुएं, तालाब सब दूषित हो जाते हैं, अतः आदिवासियों को नई समस्याओं से जूझना पड़ता है। उपन्यास की मैना अपने समाज की हालत को बयाँ करती हुई कहती है – ‘खेत-खतार’, पेड़, रुख, कुआं, तालाब, हम और हमारा बाल-बच्चा तक आज तेजाब में गल रहा है, भूख में जल रहा है। पहले हम चोरी का चीज है नहीं जनता था, भीख कब्भी नई माँगा..... इज्जत कब्भी नई बेचा, आज हम सब करता।3 मैना के माध्यम से उपन्यासकार ने वर्तमान कालीन आदिवासियों के जीवन का कड़वा सच प्रस्तुत किया है कि आदिवादी समाज आज किस तरह बेबस जीवन जीने के लिए अभिशप्त है।

आज आदिवासी का हर वर्ग शोषण का शिकार है। ऐसा भी नहीं है कि आदिवासी इस शोषण के प्रति मौन रहते हैं। उनमें भी अब चेतना आयी है, वे भी अब संगठन शक्ति का महत्व पहचानने लगे हैं। संजीव के ‘धार’ उपन्यास में यही स्थिति अंकित है, जहाँ अविनाश शर्मा तथा मैना खदान में आदिवासियों के साथ काम करते हैं, जिसमें कोयला निकलता है, लेकिन शोषण का सिलसिला यहाँ भी दिखाई देता है, इसीलिए आदिवासी साथियों से अविनाश शर्मा अपनी संगठन शक्ति का एहसास दिलातें हैं। “तो सथियों यह धार हमारी शक्ति है और धार का भोथरा होना ही मौत...... धार बरकरार रही है तो सारा संसार ही आपका है। इसलिए हमें धार की जरुरत है सतत सान से ताजा होती धार चाहिए हमें कोइ भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।”4

उपन्यास की मुख्य पात्र मैना मर्दवादी व्यवस्था को तोड़ती आदिवासी नारी है। उसमें स्त्री सुलभ सात्विकताएँ सुंदरता, दया, ममता, प्रेम, आदि गुण हैं तो दूसरी ओर अन्यायी, अत्याचारी, समाज-व्यवस्था और भोगप्रदान पुरुषवादी व्यवस्था से आक्रोश और विद्रोह कूट-कूट कर भरा हुआ है। मैना की अपनी एक जीवन शैली है और अपनी नैतिकता है। वह अपने समाज और बिरादरी वालो की परवाह न करते हुए बिना शादी के मंगर के साथ रहती है। जब वह पैसे के लालच में खलासी के साथ व्यभिचारी करती रमिया को पकडकर उसके बाप के पास ले जाती है तब गाँव वाले उसे ही भला बुरा कहते हैं और मैना का विरोध करने लगते हैं। तब वह निडरता से कहती है – “ मैना का जब मन चाहा मरद किया, मन से उतर गया छोड़ दिया, मरजी से किया मजबूरी से नहीं। असल बाप का बेटा हो तो पहले मैना बनके दिखाना तब बात करना।”5 इस कथन से उसके स्वाभिमानी व्यक्तित्व का परिचय होता है।

संथालो की इस बॉसगाडा बस्ती में सभी ओर दरिद्रता, भुखमरी, बेकारी है जिससे बेहाल होकर लोग चोरी से रात में कोयला काटकर उसे बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। इनमें से अधिकतर लोग यहाँ के मिल मालिक, पूंजीपतियों के गुलाम हैं। उनके पास खुद के बारे के सोचने के लिए समय ही नहीं है। सभी को यहाँ की अर्थ और समाज व्यवस्था ने लूला-लंगड़ा और कमज़ोर बनाया है। अगर कोई सचेत होकर इस क्रूर व्यवस्था से संघर्ष करने की क्षमता और साहस रखता है, तो वह मैना ही है। हैदर मामा उसके बारे में कहता है, “ई लंगड़ा-लूला बीमार इंसानों के बीच एक तू ही तो साबुत है।”6

मैना अपने समाज से अत्याधिक प्रेम करती है इसलिए वह अविनाश शर्मा के जनमोर्चा से मिलकर सबको रोजगार मिले ऐसी जनखदान का निर्माण करती है। उसके इस कार्य से उसके प्रगतिवादी चरित्त का परिचय मिलता है। 

संजीव ने मैना के माध्यम से समाज की स्त्री वर्ग को प्रतिकूल व्यवस्था को परिवर्तित करने की प्रबल प्रेरणा देने का अमूल्य कार्य किया है। मैना एक साधारण अनपढ़ आदिवासी स्त्री है, जो अपनी सोच और विचारों से पुरुषवादी समाज व्यवस्था से संघर्ष कर असामान्य बन जाती है। 

आदिवासी चिंतन की दृष्टि से संजीव का ‘धार’ उपन्यास का अध्ययन करने पर हमारे सामने केन्द्रीय रूप में आदिवासियों का पीड़ित व शोषित रूप अंकित होता है। वर्तमान समय में यदि देखा जाए तो आदिवासी समाज वह समाज है जो सबसे अधिक वंचित, उपेक्षित तथा अभावग्रस्त जीवन जी रहा है। उसमें चेतना तो आयी है, वह अपने अधिकारों के लिए संघर्ष तथा विद्रोह भी कर रहा है, किन्तु उसमें अधिक सफल नहीं हो पाया है, क्योंकि समाज के अन्य लोगों ने उन्हें सिर्फ और सिर्फ शोषण का शिकार बना रखा है।



संदर्भ :

1.आदिवासी साहित्य विविध आयाम – संपा. डॉ. रमेश सम्भाजी कुरे – पृ० 210

2.आसिवासी साहित्य यात्रा – संमा. रमणिका गुप्ता - पृ० 5

3.संजीव, धार, राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997 पृ० 130

4.संजीव, धार, राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० 165

5.संजीव, धार, राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ०133

6.संजीव, धार, राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० 63





[आलेख साभार: जनकृति पत्रिका]

[चित्र साभार: फॉरवर्ड प्रेस]

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